जॉन गॉटलीब फिक्टे की जीवनी, दर्शन, नैतिक विचार

 जॉन गॉटलीब फिक्टे की जीवनी, दर्शन, नैतिक विचार | Gottlieb Fichte Biography in Hindi

 जॉन गॉटलीब फिक्टे (Johann Gottlieb Fichte) [ सन् १७६२ ई. से सन् १८१४ ई. ]

जॉन गॉटलीब फिक्टे (Johann Gottlieb Fichte) का जन्म जर्मनी के साधारण परिवार में हुआ था परन्तु उनकी प्रतिभा असाधारण थी। उसी असाधारण प्रतिभा से प्रभावित हो एक धनी व्यक्ति ने उनके पढ़ने-लिखने की व्यवस्था कर दी। सर्वप्रथम उन्होंने जेना और लिपजिग विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। यहाँ उनकी अभिरुचि दर्शन तथा धर्मशास्त्र में अधिक थी।

१६ वर्ष की अवस्था में ये जुरिच (Jurich) गये तथा वहाँ इन्हें शिक्षक का कार्य मिला। अपना अध्ययन स्थगित कर वे गृह-शिक्षक के कार्य में लगे रहे। यहाँ पर वे काण्ट के सम्पर्क में आये तथा काण्ट के दर्शन से प्रभावित हुए। काण्ट के व्यक्तिगत सम्पर्क तथा दार्शनिक विचारों ने फिक्टे के जीवन में एक नयी दिशा उत्पन्न कर दी। यहीं पर फिक्टे ने काण्ट के आचारमूलक ज्ञान परीक्षा का गम्भीर अध्ययन किया तथा श्रुति-परीक्षा (Critique of all Revelation) नामक ग्रन्थ लिखा। काण्ट इस ग्रन्थ को देखकर बहुत प्रभावित हुए। तथा इसके प्रकाशन की व्यवस्था कर दी।

सन् १७९४ में ये जेना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन् १७९४ से सन् १७९९ तक ये प्रोफेसर रूप में कार्य करते । रहे। यहाँ फिक्टे अपने विद्यार्थियों के बीच बड़े प्रचलित थे। इनके विद्यार्थी इनके उदार धार्मिक विचारों से बड़े प्रभावित थे परन्तु फिक्टे के इन धार्मिक विचारों से अधिकारी अप्रसन्न थे। सन् १७९९ में फिक्टे को अपने स्थान से त्यागपत्र देना पड़ा। तत्पश्चात् ये बर्लिन (Berlin) गये तथा वहाँ विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन् १८१० में ये बर्लिन में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। यहीं पर ५२ वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।

फिक्टे की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

१. समस्त ज्ञान के मूलाधार (Foundation of the Whole Science or Knowledge) सन् १७९४ में,

२. आचार शास्त्र (Science of Ethics) सन् १७९५ में,

३. द वोकेशन ऑफ मैन (The Vocation of Man) १८00 में,

४. ऑन द कैरेक्टेरिस्टिक ऑफ प्रेजेन्ट एण (On the Characteristic of Present Age) सन् १८०४ में,

एड्रेस टू द जर्मन नेशन (Address to the German Nation इन सभी ग्रन्थों में द वकिशन ऑफ मैन’ विद्वानों के बीच अधिक मान्य है। इस ग्रन्थ में फिक्टे ने मानववृत्ति का विश्लेषण किया है। यह वृत्ति-विश्लेषण उनके दार्शनिक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। जर्मन राष्ट्र को सम्बोधन’ (Address to German Nation) उनकी राजनीतिक कृति है। इस ग्रंथ के अवलोकन से पता चलता है कि फिक्टे दार्शनिक होने के साथ-साथ राजनैतिक तथा महान देशभक्त भी थे। नेपोलियन ने जर्मनी पर जब आक्रमण किया तो फिक्टे ने अपनी सबल लेखनी तथा ओजस्वी भाषणों से इस आक्रमण का घोर विरोध किया। जर्मनी के नवयुवकों पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। इसी कारण नेपोलियन को पीछे हटना पड़ा।

 

 जॉन गॉटलीब फिक्टे का दार्शनिक विचार 

फिक्टे के अनुसार दर्शनशास्त्र की दो धाराएँ हैं। भौतिकवाद और विज्ञानवाद। भौतिकवाद के अनुसार संसार के मौलिक तत्त्व भौतिक हैं, अर्थात् जड़ तत्त्वों के संयोग से ही  विश्व  का निर्माण हुआ है। भौतिक तत्व भौतिक है, अर्थात् जड़ तत्वों का संयोग होता जाता है तथा सभी वस्तुओं की सष्टि इसी से होती रहती है। सृष्टि भौतिक तत्त्वों के विकास का परिणाम है। विकास निरन्तर हो रहा है। संसार के सभी जीव इसी विकास के परिणाम हैं। मानव-आत्मा भी इसी विकास का परिणाम है। इस प्रकार जीव, जगत् आदि सभी विकास के परिणाम हैं।

फिक्टे के अनुसार भौतिकवाद, रूढ़िवाद (Dogmatism) है; क्योंकि भौतिकवाद के अनुसार मानव के आत्मा जैसे सूक्ष्म पदार्थ को भी जड़ माना गया है। आत्मा चेतन है, अत: इसे जड़ का परिणाम नहीं स्वीकार किया जा सकता। आत्मा को जड़ मानने पर आत्मा के चेतन स्वरूप की व्याख्या तथा आत्मा की स्वतन्त्रता की व्याख्या नहीं हो पाती है। तात्पर्य यह है कि ‘भातिकवाद के अनसार आत्मा का शद्ध, चेतन, स्वतन्त्र, ज्ञाता रूप सिद्ध नहीं होता।

अतः आत्मा को भौतिक मानना तो केवल रूढ़िवाद है| भौतिकवाद के बिल्कुल विपरीत विज्ञानवाद है। विज्ञानवाद के अनुसार विज्ञान ही सत् है। वस्तुतः विश्व चेतन है या चेतना की अभिव्यक्ति है। यह चेतन-शक्ति ही आत्मा है जो नित्य, ज्ञाता, स्वतन्त्र-शक्ति सम्पन्न पदार्थ है। फिक्टे के अनुसार विज्ञानवाद ही विश्व का यथार्थ दर्शन है। प्रश्न यह है कि विज्ञानवाद को ही यथार्थ दर्शन क्यों स्वीकार किया जाय ? फिक्टे इसका उत्तर देते हैं कि भौतिकवाद केवल भौतिक वस्तओं की व्याख्या करता है परन्तु भौतिक वस्तुओं को सृष्टि का प्रयोजन(Teleology) नहीं बतलाता। अतः भौतिकवाद संसार का मूलक सिद्धान्त(Causal) है, परन्तु प्रयोजन (Teleological) नहीं। विश्व का विकास भी सप्रयोजन है, निष्प्रयोजन नहीं।

वस्तुओं का विकास मशीन के समान यन्त्रवत नहीं होता, वरन् किसी प्रयोजन से होता है। इस प्रयोजन की व्याख्या भौतिक विकासवाद से नहीं हो पाती। दूसरी बात यह है कि भौतिकवाद से नैतिक सिद्धान्तों की व्याख्या नहीं हो पाती। नैतिक नियम भौतिक नहीं, आध्यात्मिक हैं। नैतिक नियमों का पालन चेतन ज्ञाता ही कर सकता है। पाप और पुण्य का विचार जड़ नहीं कर सकता, शुभ-अशुभ का निर्धारण शारी नहीं हो सकता। इसके लिए आत्मा की स्वतन्त्रता मानना आवश्यक है। स्वतन्त्र चेतन आत्मा ही नैतिक कर्मों के प्रति उत्तरदायी होता है।

अतः भौतिकवाद तो नैतिकता विरोधी सिद्धान्त है। इन दो कारणों से फिक्टे भौतिकवाद को नहीं स्वीकार उनके अनुसार विज्ञानवाद ही यथार्थ सिद्धान्त है। यह विज्ञान ही सत् है, आत्मरूप है। यह आत्मा ही चित् शक्ति है जो अचित् वस्तु के रूप में प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि अनात्म वस्तु भी आत्म विज्ञान ही है। इस प्रकार बाह्य और आन्तरिक, वस्तु और विज्ञान, अचित् तथा चित् के द्वैत का निषेध कर फिक्टे पूर्णतः अद्वैत तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं।

 

 

जॉन गॉटलीब फिक्टे का मौलिक तत्त्व

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि फिक्टे भौतिकवाद का निराकरण कर विज्ञान की स्थापना करते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार विज्ञान ही परम तत्व है| यह विज्ञान आत्मा का स्वरूप है। अतः परम तत्व चित् या आत्मा है। इसी परम् चित् तत्व की अभिव्यक्ति सभी अचित् या जड़ तत्वों में होती है। इस प्रकार अचित् या जड़ भी वस्तुतः चित् या विज्ञान रूप ही है। अत: जड़ और चेतन, वस्तु और विज्ञान का द्वैत मिथ्या है। केवल विज्ञान या चित् की ही एकमात्र सत्ता है। यहाँ हम कह सकते हैं कि फिक्टे का विज्ञानवाद बर्कले के विज्ञानवाद से प्रभावित है। बर्कले भी विश्व को विज्ञान रूप ही मानते हैं। विज्ञान के स्वरूप में तो बर्कले और फिक्टे में साम्य अवश्य है परन्तु जड़ या भौतिक पदार्थ को लेकर दोनों में भेट है।

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बर्कले की आधाराशला ज्ञान-मीमांसा है, परन्तु फिक्टे की आधारशिला तत्व-मीमांसा है। बर्कले ज्ञान का विश्लेषण से प्रारम्भ करते हैं। बर्कले के अनुसार सत्ता अनुभवमूलक है, अथा अनुभव से इतर सत्ता अमान्य है। हमें जड वस्तु का अनुभव नहीं होता, अतः जड़ की सत्ता नहीं है। फिक्टे का कहना है कि विश्व का परम तत्व विज्ञान है। यह विज्ञान ज्ञाता का स्वरूप होने के कारण ज्ञाता से अभिन्न है। ज्ञान के विषय तथा विषयी में अभिन्नता है। ज्ञाता ही अपने को ज्ञेय रूप में, विषयी को विषय रूप में प्रकट करता है। स्व ही पर रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार ज्ञाता आत्मा ही ज्ञेय रूप विषय बन जाता है, अतः दोनों में अभेद है। परन्तु यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यदि दोनो एक हैं तो ज्ञाता और ज्ञेय रूप में दो की प्रतीति क्यों होती? फिक्टे का कहना ज्ञाता को ज्ञेय, विषयी को विषय की अपेक्षा है।

ज्ञान का विषय होने के कारण ही आत्मा ज्ञाता हो सकता है तथा आत्मा ज्ञाता के कारण ही विषय ज्ञेय बन सकता है। अतः दोनों में परस्पर की आकांक्षा है। परन्तु ज्ञाता और ज्ञेय का स्वभाव नितान्त भिन्न है, अतः दोनों में अभेद कैसा? ज्ञाता चेतन है तथा ज्ञेय जड़ है, ज्ञाता आत्मा है ज्ञेय आत्म है, ज्ञाता विषयी है ज्ञेय विषय है, ज्ञाता अहं रूप है तथा ज्ञेय इदं रूप है। दोनों का स्वभाव नितान्त भिन्न है। फिक्टे का उत्तर है कि आत्मा शुद्ध ज्ञान स्वरूप है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक धर्म है जिसका धर्मी आत्मा है। आत्मा में संकल्प-शक्ति है। इसी संकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता के कारण ही आत्मा अपने को अनात्म वस्तुओं में प्रकट करता है, अर्थात् संकल्प-शक्ति के कारण आत्मा स्व-रूप होकर भी पर-रूप में प्रकट होता है।

इस अनात्म रूप वस्तु में प्रकट होने से ही ज्ञान-शक्ति सार्थक होती है। तात्पर्य यह है कि यदि ज्ञान के विषय-वस्तु हीन हों तो आत्मा ज्ञाता किसका होगा? अतः आत्मा की ज्ञातृत्व-शक्ति की व्याख्या करने के लिये हमें अनात्म जड़ वस्तुओं को मानना ही होगा। परन्तु वस्तुतः चित् अचित् में अभेद है क्योंकि आत्मा ही अपनी संकल्प-शक्ति से अपने को अनात्म रूप में प्रकट करता है।

यहाँ पुनः प्रश्न यह है कि आत्मा को अनात्मा में प्रकट होने की आवश्यकता क्या है? आत्मा आत्मस्वरूप है, असीम है। परन्तु अनात्मरूप वस्तु में तो यह जड़ तथा सीमित प्रतीत होता है। अत: असीम को सीमित होने की आवश्यकता क्या? इसका उत्तर फिक्टे संकल्प-स्वतन्त्र से देते हैं। फिक्रे का कहना है कि मनुष्य स्वभावत: नैतिक प्राणी है परन्तु नैतिकता के लिए संकल्प की स्वतन्त्रता आवश्यक है। संकल्प शक्ति से ही मनुष्य नैतिक पूर्णता (Moral perfection) को प्राप्त करता है। अतः संकल्प-शक्ति के कारण ही मानव ससीम होता है तथा ससीम होने के कारण ही असीम परमात्मा की ओर अग्रसर होता है।

परमात्मा के आदेश का पालन करना, उनके मार्ग पर चलना ही मानव जीवन की सार्थकता है परन्तु इस सार्थकता के लिये हमें मनुष्य को अपूर्ण मानना होगा। अपूर्ण होने के कारण ही बह पूर्ण की ओर अग्रसर होता है। नित्य प्रति इस अपूर्णता पर विजय प्राप्त करना ही मानव का आदर्श है। अत: नैतिक नियमों का पालन करने के लिये तो मानव को अपूर्ण अवश्य मानना होगा। फिक्टे काण्ट के अनिवार्य-आदेश (Categorical imperative) को मौलिक नियम नहीं मानते, वरन् संकल्प स्वातन्त्र्य को ही मौलिक नियम मानते है। आत्मा में संकल्प की स्वतन्त्रता है; इसीलिये मनुष्य अनिवार्य आदेशों का पालन कर। सकता है। इस प्रकार अनिवार्य-आदेश तो संकल्प स्वतन्त्रता का परिणाम है। संकल्पस्वातन्त्र्य से मानव का ससीम तथा अपूर्ण होना निश्चित है।

परम तत्त्व का स्वरूप

पहले हम विचार कर आये हैं कि फिक्टे के अनुसार परम तत्त्व भौतिक नही आध्यात्मिक है। यह आध्यात्मिक तत्त्व चित् शक्ति या आत्मा है जो ज्ञान रूप या प्रकाश स्वरूप है। हमें ज्ञान होता है, इससे ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की सत्ता सिद्ध है। ज्ञाता आत्मा है तथा ज्ञेय विषय है। अतः जड़-चेतन, विषय-विषयी रूप से फिर सभी वस्तुओं की व्याख्या करते हैं परन्तु आत्म और अनात्म वस्तु दोनों ही परमात्मा के दो रूप है। विश्व का तत्व परमात्मा है। वह परमात्मा अपनी स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से अपने को चित् तथा अचित् रूप में अभिव्यक्त करता है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय मानते हैं। इस प्रकार परम तत्त्व के तीन रूप हैं-

१. परमात्मा (Absolute Ego),

२. जीवात्मा (Ego) एवं 

३. अनात्म वस्तु (Non Ego)|

परमात्मा ही अपनी संकल्प-शक्ति से अपने को चित् तथा अचित् रूप में प्रकट करता है। चित् को हम ज्ञाता तथा अचित् को ज्ञेय जानते हैं। दोनों में भिन्नता अवश्य है, परन्तु दोनों में विरोध नहीं| चित् तथा अचित् एक ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है, अत: दोनों में विरोध नहीं। एक आवश्यक प्रश्न यहाँ यह उपस्थित है कि परमात्मा अपने को चित् तथा अचित् रूप में क्यों अभिव्यक्त करता है? फिक्टे का कहना है कि इस अभिव्यक्ति का आधार सीमित करना (Limitation) है| परमात्मा अपने को अपनी स्वतन्त्रता से चित् तथा अचित् रूप में सीमित करता है।

वस्तुतः परमात्मा असीम है, परन्तु अपनी स्वतन्त्रता से जीव और जगत् में अपने को सीमित कर देता है। इस प्रकार सम्पूर्ण चेतन-अचेतन जगत् परमात्मा की संकल्प शक्ति का परिणाम है। जीव और जगत् में अपने को अभिव्यक्त कर परमात्मा अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। जीव और जगत् दोनों ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है। दोनों में भिन्नता अवश्य है; परन्तु विरोध नहीं। उनकी भिन्नता का समन्वय हो जाता है| फिक्टे के अनुसार यह समन्वय सिद्ध आत्मा (Realised Ego) में होता है।

फिक्टे आत्मा में द्वन्द्वात्मक गति (Dialectical) भी मानते हैं। आत्मा में पक्ष (Thesis) प्रतिपक्ष (Anti-thesis) और समन्वय (Synthesis) तीनों हैं।

पक्ष- शुद्ध अद्वैत आत्मा (Ego-in-Itself) है|

प्रतिपक्ष- अनात्म वस्तु (Ego Outside Itself) और समन्वय परमात्मा (Ego in and outside-itself) है।

परमात्मा का समन्वित स्वरूप विशिष्टाद्वैत रूप है जिसमें द्वैत तथा अद्वैत दोनों का ही समन्वय है। इस द्वन्द्वात्मक गति के आधार पर फिक्टे तीन नियमों की स्थापना करते हैं-

१. तादात्म्य (Identity),

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२. विरोध (Contradiction) एवं

३. पर्याप्त कारण नियम (Sufficient Reason)|

तादात्म्य नियम के आधार पर आत्मा को सदा मैं हूँ और सदा मैं ही हूँ’ ऐसा अनभव होता है। ज्ञाता-आत्मा के अस्तित्व का निषेध किसी भी काल तथा अवस्था में सम्भव नहीं। ज्ञान के विषय सर्वदा बदलते रहते है, परन्तु ज्ञाता नहीं बदलता। तात्पर्य यह है कि विभिन्न परिणामों में भी अपरिणामी आत्मा के अस्तित्व का स्पष्ट अनुभव होता है। इस अपरिणामी का अनुभव तादात्म्य नियम का सूचक है। जिसके अनुसार ज्ञान के विषय में परिवर्तन होता है। विषयी आत्मा का स्वरूप सर्वदा एक रहता है। परन्तु ज्ञाता और ज्ञेय दोनों सर्वदा एक साथ हैं। ज्ञाता चेतन है तथा ज्ञेय अचेतना इस प्रकार ज्ञेय तथा ज्ञाता में विरोध है। एक जड़ है तथा दूसरा चेतन। इस प्रकार तादात्म्य तथा विरोध सदा एक साथ है। तादात्म्य से ही विरोध की सिद्धि होती है।

मैं अपने अस्तित्व का कभी निषेध नहीं कर सकता। यह अपरिणामी आत्मा का स्वरूप तादात्म्य नियम के आधार पर ही सम्भव है। परन्तु मैं ज्ञाता चेतन स्वरूप है। इसका विषय भी अवश्य होना चाहिए। यह विषय अचेतन या अनात्म है। अतः आत्मा का विरोधी अनात्मा या जड़ वस्तु से सिद्ध होता है। परन्तु आत्म का अनात्म में; चेतन का जड़ में परिवर्तन क्यों होता है? इसके लिए पर्याप्त कारण अवश्य होना चाहिए। फिक्टे संकल्प शक्ति को ही पर्याप्त कारण मानते है। आत्मा में स्वतन्त्र संकल्प शक्ति है। परमात्मा इसी संकल्प शक्ति के कारण अपने को जीव तथा जगत् रूप में अभिव्यक्ति करता है। परमात्मा में संकल्प शक्ति को मानना ही पर्याप्त कारणता का सूचक है। इस पर्याप्त कारण नियम के आधार पर ही चेतन और जड़, जीव और जगत् की व्याख्या सम्भव है।

 

 जॉन गॉटलीब फिक्टे का नैतिक विचार

फिक्टे के अनुसार मानव व्यक्तित्व के दो भाग है; वासना और विवेक वासनाएं।

मनुष्य को सांसारिक सुख की ओर ले जाती हैं तथा विवेक मनुष्य को ईश्वर नगर (City of god) की ओर जाने की प्रेरणा देता है। तात्पर्य यह है कि वासनाओं से मनुष्य सांसारिक सुख की ओर दौडता है परन्तु विवेक से मनुष्य ईश्वर प्रेम की ओर आकृष्ट होता है। विवेक के मार्ग में वासनाएँ ही बाधा उत्पन्न करती है। अतः नैतिकता इन बाधाओं पर विजय प्राप्त करना है। जब तक मनुष्य वासनाओं का दास बना रहता है; उसे सांसारिक सुख तो प्राप्त होता है, परन्तु ईश्वरीय आनन्द की अनभूति नहीं होती। अतः वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही नैतिक आदर्श हो। परन्तु फिक्टे वासनाओं का पूर्णतः निराकरण नहीं चाहते। वासनाएँ निरर्थक तथा निष्प्रयोजन नहीं, वरन सप्रयोजन है।

बाधाओं के रहने पर ही बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ती है तथा बाधाओं पर विजय प्राप्त करके ही मनुष्य ईश्वर के प्रेम को प्राप्त कर सकता है। यदि बाधाएँ न हों तो मनुष्य नैतिक नहीं बन सकता। पुण्य के लिए पाप की आवश्यकता है। इस प्रकार नैतिक जीवन के लिए फिक्टे वासनाओं की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। फिक्टे का यह सिद्धान्त मध्ययुगीन सन्त दार्शनिकों के निकट है| मध्ययुगीन दार्शनिक भी पुण्य के लिए पाप की आवश्यकता मानते थे; क्योंकि अन्धकार ही प्रकाश के महत्व को बढ़ाता है।

फिक्टे के नैतिक विचार काण्ट से प्रभावित हैं। नैतिक जीवन-यापन के लिए मनुष्य को पूर्णतः स्वतन्त्र-कर्ता मानना आवश्यक है। स्वतन्त्र होकर ही मानव बौद्धिक जीवन व्यतीत कर सकता है तथा बुद्धि के निरपेक्ष आदेशों का पालन कर सकता है। नैतिक नियम भावनाओं पर नहीं, वरन् विवेक पर आश्रित हैं। शद्ध विवेक आदेश है ऐसा करो ‘ऐसा न करो।’ शुद्ध विवेक के आदेशों का पालन स्वतन्त्र होकर ही मनुष्य कर सकता है। अतः बौद्धिक कार्य करने का अर्थ स्वतन्त्र कार्य करना है।

काण्ट निरपेक्ष आदेश (Categorical imperative) पर बल देते हैं। निरपेक्ष आदेश स्वयं अपना साध्य है, साधन नहीं। काण्ट के इस नैतिक आदर्श को कुछ लोग कठोर नैतिकता (Rigoristic ethics) तथा व्यावहारिक बतलाते हैं। मानव सामाजिक प्राणी है, अत: सामाजिक दुःख-सुख से वह अलग नहीं हो सकता। मनुष्य के लिये यह सर्वथा सम्भव नहीं है कि वह सर्वदा शुद्ध बुद्धि के आदेशों का पालन करे, पूर्णतः स्वतन्त्र हो तथा सर्वथा भावनाओं का निराकरण कर केवल सामान्य हित में ही संलग्न रहे।

फिक्टे के नैतिक विचार भी काण्ट के समान व्यक्ति को स्वतन्त्र मानने पर ही सम्भव हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य नैतिक आचरण तभी कर सकता है जब वह स्वतन्त्र हो। परन्तु स्वतन्त्रता का फिक्टे के दर्शन में एक विशेष अर्थ है| फिक्टे की स्वतन्त्रता में व्यक्ति और समाज दोनों का हित सम्मिलित है। उसी दृष्टि से फिक्टे का कहना है कि हम स्वतन्त्र हैं तथा हमारे समान सभी लोग स्वतन्त्र हैं। हमें अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये तथा दूसरों की स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं करना चाहिये। वासना तथा विवेक दोनों मानव व्यक्तित्व के अंग हैं, अत: नैतिकता में दोनों का योगदान है। भावनाओं से मनुष्य व्यक्तिगत सुख चाहता है तथा बुद्धि से सामाजिक सुख की ओर प्रवृत्त होता है।

व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख दोनों वाञ्छनीय हैं। आत्मा के लिये शरीर की आवश्यकता है। अतः सुख का निषेध सम्भव नहीं। इसी दृष्टि से फिक्टे का कहना है कि मनुष्य को सम्पत्ति अर्जित करनी चाहिये, परन्तु उसे दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण नहीं करना चाहिये। मनुष्य में वासना और विवेक दोनों हैं। फिक्टे विवेक को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। हमें वासनाओं का निषेध नहीं करना चाहिये, परन्तु वासनाओं का दास भी नहीं होना चाहिये। विवेक का स्थान वासना से ऊँचा है। विवेक ही मनुष्य को सामाजिक बनाता है तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के ऊपर ले जाता है।

विवेक के अनुसार वासनाओं का नियन्त्रण कर जीवन यापन करना ही आदर्श है। हम तभी नैतिक बन सकते हैं जब हम व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्वार्थ के लिये कार्य करते हैं। विवेक सर्वदा सामान्य की ओर ले जाता है तथा भावनाएँ व्यक्तिगत होती हैं। इस प्रकार विवेक से कार्य करना नैतिकता है। पाप केवल अपने स्वार्थ में संलग्न रहता है तथा पुण्य दूसरों के हित की रक्षा करता है। जब मनुष्य दूसरों के लिये कार्य करता है तो वह पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। यह पूर्ण स्वतन्त्रता ही नैतिकता की आधारशिला है।

 

 

 

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