gupt evan guptottar yug ya gupt vansh in Hindi

गुप्त एवं गुप्तोत्तर युग | गुप्त वंश का इतिहास

गुप्त एवं गुप्तोत्तर युग

*गुप्त वंश ने लगभग 275-550 ई. तक शासन किया। इस वंश की स्थापना लगभग 275 ई. में महाराज श्रीगुप्त द्वारा की गई थी, किंतु गुप्त वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक चंद्रगुप्त-I था, जिसने 319-335 ई. तक शासन किया। इसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिए अपने पूर्वजों के विपरीत ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। गुप्त संवत् का प्रवर्तक चंद्रगुप्त प्रथम था। इसकी प्रारंभ तिथि 319 ई. है।

*इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने अपनी रचना ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में समुद्रगुप्त की वीरता एवं विजयों पर मुग्ध होकर उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ की संज्ञा दी है।

*इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त (335-375 ई.) के शासन के बारे में सूचना प्रदान करता है। इस स्तंभ पर समुद्रगुप्त के संधि- विग्रहिका हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसे ‘प्रयाग प्रशस्ति’ कहा गया है। इसमें समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियों के नाम मिलते है ये है-सन्धिविग्रहिक, खाघटपाकिक, कुमारामात्य तथा महादग्डनायका। अशोक निर्मित यह स्तंभ मूलत: कौशाम्बी में स्थित था, जिसे अकबर ने इलाहाबाद में स्थापित करवाया था। इस स्तंभ पर जहांगीर के आदेश है तथा बीरबल का भी उल्लेख है।

*गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) का एक अन्य नाम देवगुप्त मिलता है। इसका प्रमाण सांची एवं वाकाटक अभिलेखों से मिलता है। उसके अन्य नाम देवराज तथा देवश्री भी मिलते हैं। मेहरौली के लेख के अनुसार, चंद्र ( चंद्रगुप्त द्वितीय) ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज है की स्थापना कराई थी। दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से ‘मेहरौली में लौह स्तंम लेख’ प्राप्त हुआ है, जो वर्तमान में कुतुबमीनार के समीप है।

* इसमें “चंद्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, जिसका समीकरण गुप्तवंशीय शासक चंद्रगुप्त द्वितीय से किया जाता है। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को ‘शक विजेता’ कहा गया स्रोट है। पश्चिम भारत के अंतिम शक राजा रुद्रसिंह III को चंद्रगुप्त द्वितीय “विक्रमादित्य’ ने पांचवीं सदी के प्रथम दशक में परास्त कर पश्चिमी भारत में शक सत्ता का उन्मूलन किया था। शकों को हराने के कारण चंद्रगुप्त भारत विक्रमादित्य की एक अन्य उपाधि ‘शकारि’ भी है। उसने इस उपलक्ष्य में आदि चांदी के सिक्के भी चलाए। चांदी के सिक्कों को गुप्त काल में ‘रुप्यक’ भृगुका (रुपक) कहा जाता था।

*चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के कुशल शासन की प्रशंसा चीनी संगठन यात्री फाह्यान ने भी की है। इनके नवरत्नों की प्रसिद्धि सर्वकालिक स्थापित रही है। नवरत्नों में सर्वोत्कृष्ट महाकवि कालिदास थे। अगले क्रम होता पर महान चिकित्सक (Great Physician, धन्वंतरि थे। तीसरे खगोल नियमों, विज्ञानी (Astronomer) वराहमिहिर, चौथे कोशकार (Lexicographer = डिक्शनरी निर्माणकर्ता) अमर सिंह, पांचवें वास्तुकार (Architect) शंकु तथा छठवें रत्न फलित ज्योतिषी (Astrologer) क्षपणक थे।इसी प्रकार सातवें विद्वान वैयाकरणश (Grammariam) वररुचि, आठवें जादूगर(Magician) केवालमट्ट तथा नौवें रत्न घटकपर महान कूटनीतिज्ञ थे।

*कुमारगुप्त प्रथम महेंद्रादित्य (लगभंग 415-455 ई.) चंद्रगुप्त द्वितीय कावेरीपत्त की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न बड़ा पुत्र था। इसके समय के गुप्तकालीन सर्वाधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनकी संख्या लगभग 18 है। बिलसड चरक एवं अभिलेख में कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है। बंगाल नवरत्नों में के तीन स्थानों से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं। ये हैं – धनदेह ताम्रपत्र, दामोदरपुर ताम्रपत्र तथा बैग्राम ताम्रपत्र। कुमारगुप्त की स्वर्ण, लीलावती रजत तथा ताम्र मुद्राएं प्राप्त होती हैं। मुद्राओं पर उसकी उपाधियां महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह, अश्वमेघ महेंद्र आदि उत्कीर्ण मिलती हैं।

*स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ (लगभग 455-467 ई.) के स्वर्ण सिक्कों के मुख भाग पर धनुष-बाण लिए हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर पद्मासन में विराजमान लक्ष्मी के साथ-साथ ‘श्रीस्कंदगुप्त’ उत्कीर्ण है। कुछ सिक्कों के ऊपर गरुडध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित्य’ अंकित है। भितरी स्तंभ लेख में पुष्यमित्र और हूणों के साथ स्कंदगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है। हूणों का पहला भारतीय आक्रमण गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के शासनकाल में हुआ तथा स्कंदगुप्त के हाथों वे बुरी तरह परास्त हुए।

*ईसा की तीसरी सदी से जब हूण आक्रमण से रोमन साम्राज्य का पतन हो गया, तो भारतीय दक्षिण-पूर्व एशियाई व्यापार पर अधिक निर्भर हो गए।

*तोरमाण भारत पर दूसरे हूण आक्रमण का नेता था। *मध्य भारत के एरण नामक स्थान से वाराह प्रतिमा पर खुदा हुआ उसका लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि धन्यविष्णु उसके शासनकाल के प्रथम वर्ष में उसका सामंत था। *मिहिरकुल हूण शासक तोरमाण का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। मिहिरकुल अत्यंत क्रूर एवं अत्याचारी शासक था। चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा मंदसौर लेख के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम गुप्त नरेश नरसिंह गुप्त बालादित्य ने लगभग 528 ई. या का कुछ स्रोतों के अनुसार 495 ई. में तत्पश्चात मालव नरेश यशोधर्मन द्वारा मिहिरकुल को बुरी तरह पराजित किया गया था।

*गुप्तकाल में बंगाल में ताम्रलिप्ति एक प्रमुख बंदरगाह था, जहां से उत्तर चंद्रगुप्त भारतीय व्यापार एवं साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, लंका, जावा, सुमात्रा लक्ष्य में आदि देशों के साथ व्यापार होता था। पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह भृगुकच्छ (भड़ौच) था जहां से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होता था।

*प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था में श्रेणियों का विशेष महत्व था। *ये चीनी संगठन व्यापारियों के द्वारा उनके व्यापार के समुचित संचालन के लिए स्थापित किए जाते थे। श्रेणियों का अपने सदस्यों पर न्यायिक अधिकार होता था तथा श्रेणियों के द्वारा ही सदस्यों के वेतन, काम करने के नियमों, मानकों एवं कीमतों का निर्धारण किया जाता था। प्रत्येक श्रेणी का अपना एक प्रमुख होता था। राजा का श्रेणियों के संचालन में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था, श्रेणियां अपने नियम स्वयं बनाती थीं।

*गुप्तकाल में गुजरात, बंगाल, दक्कन एवं तमिलनाडु वस्त्र उत्पादन नगर के लिए प्रसिद्ध थे। वस्त्रोद्योग, गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था। गुप्तकाल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के प्रमुख केंद्र थे-ताम्रलिप्ति, भृगुकच्छ, अरिकामेडु, कावेरीपत्तनम, मुजिरिस, प्रतिष्ठान, सोपारा, बारबेरिकम।

*आयुर्वेद तथा चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की चरम परिणति चरक एवं सुश्रुत में मिलती है। धन्वंतरि चंद्रगुप्त-II विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे, ये आयुर्वेद शास्त्र के प्रकांड पंडित थे। भास्कराचार्य प्रख्यात खगोलज्ञ एवं गणितज्ञ थे। उन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ तथा – ‘लीलावती’ नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में गणित तथा खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

*5वीं शती ई. तक भारत में त्रिकोणमिति में ज्या (Sine), कोज्या (Cosine) और उत्क्रम ज्या (Inverse Sine) के सिद्धांत ज्ञात हो चुके थे। ‘सूर्य सिद्धांत’ और ‘आर्यभट्टीय’ में इनका उल्लेख है। सातवीं – शती ई. में ब्रह्मगुप्त द्वारा चक्रीय चतुर्भुज के सिद्धांत का वर्णन मिलता है।

* समुद्धगप्त की कुल 8 प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं हमें प्राप्त होती है। – गरूर, अनुयारी, चंदगुप्त-I प्रकार, चक्र प्रकार, परशु, अश्वमेध, व्याहघ्रहनन तथा वीणावादन प्रकार। गुप्तकाल में स्वर्ण मुद्रा को दीनार कहा जाता था। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार, लोग दैनिक क्रय-विक्रय में कौडियों का प्रयोग करते थे। गुप्त शासकों के सिक्के उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उडीसा (ओडिशा) में पाए गए है। सिक्कों का सबसे प्रसिद्ध प्राप्ति स्थल राजस्थान का भरतपुर (बयाना) है। इनके द्वारा जारी किए गए चांदी के सिक्के रूपक कहलाते थे। गुप्त शासकों में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा सर्वप्रथम सिक्के जारी किए गए।

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*सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य एरण से प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख 510 ई. का है, जिसमें गोपराज नामक सेनापति की स्त्री के जिस सती होने का उल्लेख है।

*गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण थे- हूण आक्रमण, प्रशासन का सामंतीय डांचा आदि। गुप्तकाल में नगर क्रमिक पतन की ओर अग्रसर हुए। संपूर्ण गंगा घाटी में जो शहर पहले अत्यंत समृद्ध अवस्था में थे, उनमें से अधिकांश को गुप्तकाल में या तो त्याग दिया गया या वहां के आवासन में पर्याप्त विघटन हुआ।  पाटलिपुत्र जैसा प्रमुख नगर ह्वेनसांग के आगमन तक गांव बन गया था। मथुरा जैसा प्रमुख नगर एवं कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के अनेक महत्त्वपूर्ण केंद्र इस काल में ह्रास के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

*गुप्तकाल में कला एवं साहित्य में हुई प्रगति के आधार पर इस काल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। अजंता की तीन गुफाएं (16वीं, 17वीं तथा 19वी) गुप्तकालीन मानी जाती हैं। इनमें 16वीं तथा 17वीं गुफाएं विहार तथा उन्नीसवीं गुफा चैत्य है।

*गुप्त वंश के शासकों ने मंदिरों एवं ब्राह्मणों को सबसे अधिक ग्राम अनुदान में दिए थे। गुप्तकाल में जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते थे उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देना पड़ता था, जो सामान्यतः षष्ठांश तक होता था। गुप्त अभिलेखों में भूमि कर को उद्रंग तथा भाग कर कहा गया है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रों में भू-राजस्व की दर 1/6 (उपज का छठां भाग) थी। प्राचीन भारत में सिंचाई कर को विदकमागम अथवा उदकभाग कहा गया है। हिरण्य मौर्यकाल में लिया जाने वाला नकद कर था। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में रेशम के लिए ‘कौशेय’ शब्द का प्रयोग होता था। तीसरी शताब्दी में वारंगल लोहे के यंत्रों/उपकरणों हेतु प्रसिद्ध था।

*गुप्तकाल में लिखित संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र प्राकृत भाषा बोलते थे, जबकि उच्च वर्ण के लोग संस्कृत भाषा बोलते थे।

*शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिकम्’ नामक रचना से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में रोचक सामग्री मिलती है। इस ग्रंथ में चारुदत्त नामक ब्राह्मण सार्थवाह एवं एक गणिका की पुत्री वसंतसेना की प्रेम-गाथा को शब्दों का रूप दिया गया है।

*गुप्त सामाज्यकशासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। मौर्य शासकों के विपरीत गुप्तवंशी शासक अपनी दैवीय उत्पत्ति में विश्वास करते थे। गुप्त शासकों ने भूमिदान की परंपरा को विस्तारित किया। गुप्त प्रशासन का स्वरूप केंद्रीकृत न होकर संघात्मक था, गुप्त राजा अनेक छोटे राजाओं का राजा होता था। सामंत तथा प्रांतीय शासक अपने-अपने क्षेत्रों में नितांत स्वतंत्रता का अनुभव करते थे।

*शतरंज का खेल भारत में गुप्तकाल के दौरान उदभूत हुआ था जहाँ इसे ‘चतुरंग’ के नाम से जाना जाता था। भारत से यह ईरान एवं तत्पश्चात यूरोप में पहुंचा।

*प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) वाकाटक वंश का एकमात्र शासक था. जिसने ‘समाट’ की उपाधि धारण की थी। वाकाटक शासक प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञों का संपादन किया। इसके साथ ही उसने अनेक वैदिक यज्ञ भी किए। इसी वंश के शासक प्रवरसेन द्वितीय की रुचि साहित्य में थी, उसने ‘सेतुबंध’ नामक ग्रंथ की रचना की।

*महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का प्रतिपादन किया था। सांख्य पुनर्जन्म अथवा आत्मा के आवागमन के सिद्धांत को स्वीकार करता है। *सांख्य दर्शन में अज्ञानता को ही दुःखों का कारण तथा विवेक ज्ञान को उनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय बताया गया है। महर्षि पतंजलि को योग दर्शन का प्रतिष्ठापक आचार्य माना जाता है। सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने ही सुसंबद्ध दार्शनिक सिद्धांत के रूप में योग का विवेचन किया। इसीलिए इसे ‘पतंजलि दर्शन’ भी कहा जाता है।

*नव्य-न्याय संप्रदाय का प्रवर्तन मिथिला के आचार्य गंगेश उपाध्याय की युग-प्रवर्तक कृति ‘तत्वचिंतामणि’ से हुआ एवं इसके संवर्धन के लिए बंगाल के नवद्वीप के नैयायिक वासुदेव सार्वभौम, दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि तथा मथुरानाथ, जगदीश एवं गदाधर भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध हैं। भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन जड़वादी या भौतिकवादी विचारधारा का पोषक है। इस दर्शन का आदर्श है-

                             “यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

                               भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।”

“जब तक जीवित रहें सुख से जीवित रहें, उधार लेकर घी पियें, क्योंकि देह के भस्म हो जाने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता है।”

* न्याय दर्शन का प्रवर्तन गौतम ने किया जिन्हें अक्षपाद भी कहा जाता लिए है। न्याय का शाब्दिक अर्थ तर्क या निर्णय होता है। न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। न्याय दर्शन का मूल ग्रंथ गौतम कृत ‘न्यायसूत्र’ है।

*कर्म का सिद्धांत मीमांसा दर्शन से संबंधित है। इसे पूर्व मीमांसा, कर्म मीमांसा या धर्म मीमांसा भी कहते हैं। जैमिनी ने पूर्व मीमांसा का प्रतिपादन किया था। मीमांसा के प्रखर एवं उद्भट आचार्य कुमारिल भट्ट को, जिनकी गणना भारतीय दर्शन के मूर्धन्य आचार्यों में की जाती है और जिन्होंने अपने प्रमुख तर्कों से बौद्ध धर्म तथा दर्शन का खंडन करके वैदिक धर्म तथा दर्शन की पुनः प्रतिष्ठा की, पूर्व मीमांसा और वेदांत के बीच की श्रृंखला माना जा सकता है।

*मीमांसा दर्शन वेद को शाश्वत सत्य मानता है। पूर्व मीमांसा दर्शन में वेद के कर्मकांड भाग पर विचार किया गया है और उत्तर मीमांसा में वेद के ज्ञानकांड भाग पर विचार किया गया है। मीमांसा और वेदांत, ‘न्याय और वैशेषिक’ तथा ‘सांख्य और योग’ भारतीय षड्दर्शन के भाग है। वेदों को मान्यता देने के कारण ही सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत (उत्तर मीमांसा) षड्दर्शन ‘आस्तिक दर्शन’ कहे जाते हैं। इनके प्रणेता क्रमशः कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनी तथा बादरायण थे।

*वेदांत दर्शन को भारतीय विचारधारा की पराकाष्ठा माना जाता है। वेदांत का शाब्दिक अर्थ है- ‘वेद का अंत’ या ‘वैदिक विचाराधारा की पराकाष्ठा। वेदात दर्शन के तीन आधार है-उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता। इन्हें वेदांत दर्शन की ‘प्रस्थानत्रयी’ कहा जाता है। कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसंप्रदाय एवं इसके प्रवर्तक है, जैसे-शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानुज का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य का द्वैतवाद।

*पुराणों के अनुसार, चंद्रवंश (या सोमवंश) क्षत्रिय वर्ण के तीन मूल वंशों (अन्य दो सूर्यवंश एवं अग्निवंश) में से एक था। चंद्रवंशीय शासकों हर्ष का मूल स्थान त्रेतायुग में प्रयाग था परंतु प्रलय के पश्चात द्वापर युग में चंद्रवंशीय संवारन ने प्रतिष्ठानपुर (वर्तमान झूंसी, इलाहाबाद) में राजधानी की स्थापना की थी।

*अग्निकुल के राजपूतों का सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था। गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में इसे गुर्जर-प्रतिहार वंश गके नाम से जाना जाता है। गुर्जर जाति का प्रथम उल्लेख पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख में हुआ है। बाणभट्ट के हर्षचरित में भी गुर्जरों का उल्लेख पर आप मिलता है। गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) था। ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि उसने म्लेच्छ शासक की विशाल अनुसार सेना को नष्ट कर दिया था, जो संभवतः सिंध का अरब शासक था। इस प्रकार नागभट्ट ने अरबों के आक्रमण से पश्चिम भारत की रक्षा भी की थी।

*राष्ट्रकूट वंश की स्थापना 736 ई. में दंतिदुर्ग ने की। उसने मान्यखेट में अपनी राजधानी बनाई। दंतिदुर्ग के संबंध में कहा जाता है कि उज्जयिनी में उसने हिरण्यगर्भ (महादान) यज्ञ करवाया था। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष-। का जन्म 800 ई. में नर्मदा नदी के किनारे श्रीभावन नामक स्थान पर सैनिक छावनी में हुआ था। इस समय इसके पिता राष्ट्रकूट राजा गोविंद III, उत्तर ने थानेश्वर भारत के सफल अभियानों के बाद वापस लौट रहे थे।

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*मौखरि गुप्तों के सामंत थे, जो मूलतः गया के निवासी थे। मौखरि वंश के शासकों ने अपनी राजधानी कन्नौज बनाई। इस वंश के प्रमुख शासक हरिवर्मा, आदित्यवर्मा, ईशानवर्मा, सर्ववर्मा एवं ग्रहवर्मा थे।

*हर्ष के समय की विस्तृत सूचना इसके दरबारी कवि वाणभट्ट की कृति हर्षचरित से प्राप्त होती है। इससे जुड़ी कुछ सूचनाएं कल्हण की कृति राजतरंगिणी में भी मिलती हैं। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि हर्ष एवं राज्यश्री दोनों साथ कन्नौज के राजसिंहासन पर बैठते थे। हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित की, ताकि यह राज्यक्षी को प्रशासनिक कार्यों में पूरी सहायता प्रदान कर सके। ‘अन्य धर्मों से महायान की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए हर्ष ने कन्नौज में विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों के आचार्यो की एक विशाल सभा बुलवाई। ‘चीनी साक्ष्यों के अनुसार इस सभा में बीस देशों के राजा अपने देशों के प्रसिद्ध ब्राह्मणो, क्षमणों, सैनिकों, राजपुरुषों आदि के साथ उपस्थित हुए थे। इस सभा की अध्यक्षता होनसांग ने की थी। साथ ही हर्ष के समय प्रति पांचवे वर्ष प्रयाग के संगम क्षेत्र में एक समारोह का आयोजन किया जाता था। जिसे ‘महामोक्ष परिषद’ कहा गया है। हेनसांग स्वयं छठे समारोह में उपस्थित था। इसमें 18 देशों के राजा सम्मिलित हुए थे।

*हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुंच गई। इधर पुलकेशिन-II भी उत्तर की ओर राज्य का विस्तार करना चाहता था, ऐसी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया। फलतः नर्मदा के तट पर दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पुलकेशिन-II ने हर्ष को पराजित किया। पुलकेशिन-II की ऐहोल प्रशस्ति एवं हेनसांग का विवरण इस युद्ध के साक्ष्य हैं।

*हर्षवर्धन के समय की सर्वप्रमुख घटना चीनी यात्री हेनसांग के भारत आगमन की है। उसने तांग शासकों की राजधानी चंगन (चीन) से भारता श था के लिए 629 ई. में प्रस्थान किया। * अपनी भारत यात्रा के ऊपर उसने एक ग्रंथ लिखा, जिसे ‘सी-यू-की’ कहा जाता है। इसने भीनमाल की यात्रा की थी। इसे ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। हेनसांग के अनुसार, सड़कों पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित नहीं था। अपराध अथवा निर्दोष सिद्ध करने के लिए अग्नि, जल, विष आदि द्वारा दिव्य परीक्षाएं ली जाती थीं। उसके अनुसार व्यापारिक मार्गो, घाटों, बिक्री की वस्तुओं आदि पर भी कर लगते थे, जिससे राज्य को पर्याप्त धन प्राप्त होता था। हेनसांग चीन के तांग वंशी शासक ताई सुंग का समकालीन तथा इसी के राज्य का नागरिक था।

*637 ई. में ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय गया। इस समय यहां के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे। ह्वेनसांग के अनुसार, मथुरा उस समय सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था जबकि वाराणसी रेशमी वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था। हेनसांग बताता है कि थानेश्वर की समृद्धि का प्रधान कारण वहां का व्यापार ही था। बाण ने थानेश्वर नगरी को अतिथियों के लिए ‘चिंतामणि भूमि’ तथा व्यापारियों के लिए ‘लाल भूमि’ बताया है।

*हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बन गया। *इसे ‘महोदया’, ‘महोदयाश्री’ आदि नामों से अभिव्यक्त किया गया है। अतः इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं सदी की तीन बड़ी शक्तियों- पाल, गुर्जर-प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट के बीच त्रिकोणीय संघर्ष प्रारंभ हो गया, जो आठवीं-नवीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। *इस संघर्ष में अंततः प्रतिहारों को सफलता मिली।

*चीनी यात्री इत्सिंग ने 671 या 672 ई. में, जब वह युवक था, अपने बौद्ध सहयोगियों के साथ बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखने की इच्छा से विश्व का भ्रमण करने का निश्चय किया। वह दक्षिण के समुद्री मार्ग से होकर भारत आया। 693-94 ई. के लगभग सुमात्रा होते हुए वह चीन वापस लौट गया।

*प्राचीनकाल के चीनी लेखकों ने भारत का उल्लेख ‘यिन-तु’ (Yin-tu) तथा ‘थिआन-तु’ (Thian-tu) नाम से किया है।

*नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा 1193 ई. में नष्ट किया गया था। *यह भारत में बौद्ध मत के पतन के लिए अंतिम प्रहार के रूप में देखा जाता है। विक्रमशिला के प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना बंगाल के पाल वंशीय शासक धर्मपाल द्वारा की गई थी।

*शंकराचार्य को शंकर, श्री शंकराचार्य आदि नामों से भी जाना जाता है। 8वीं शताब्दी में इनका जन्म केरल के एक छोटे से गांव कलाडी में हुआ था। उनके दर्शन को ‘अद्वैत वेदांत’ के नाम से जाना जाता है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ वर्तमान में भी हिंदू धर्म के पथ-प्रदर्शक माने जाते हैं।

इनका विवरण इस प्रकार है-(1) शृंगेरी (कर्नाटक)-दक्षिण में, (2) द्वारका (गुजरात)-पश्चिम में, (3) पुरी (ओडिशा)-पूर्व में तथा (4) ज्योतिर्मठ (जोशीमठ, उत्तराखंड)-उत्तर में।

*चारधाम में बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी तथा रामेश्वरम् आते हैं, जबकि छोटा चारधाम में उत्तराखंड में स्थित गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ आते हैं।

 

 

प्रमुख प्रश्न(FAQ)-

 

प्रश्न 1. सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुआ है?

उत्तर- सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य एरण से प्राप्त हुआ है।

प्रश्न 2. 637 ई. में ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय गया। इस समय यहां के कुलपति आचार्य कौन थे?

उत्तर- 637 ई. में ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय गया। इस समय यहां के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे।

प्रश्न 3. नालंदा विश्वविद्यालय किसके अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा 1193 ई. में नष्ट किया गया था?

उत्तर – नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा 1193 ई. में नष्ट किया गया था।

प्रश्न 4. प्रति पांचवे वर्ष प्रयाग के संगम क्षेत्र में एक समारोह का आयोजन किया जाता था। जिसे  क्या कहा गया है?

उत्तर- प्रति पांचवे वर्ष प्रयाग के संगम क्षेत्र में एक समारोह का आयोजन किया जाता था। जिसे ‘महामोक्ष परिषद’ कहा गया है।

प्रश्न 5. सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुआ है?

उत्तर-सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य एरण से प्राप्त हुआ है।

 

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