इमान्युएल काण्ट के अनुसार ज्ञान क्या है तथा कृतियाँ

इमान्युएल काण्ट के अनुसार ज्ञान क्या है तथा कृतियाँ | Immanuel Kant’s Work in Hindi

ज्ञान क्या है?

इमान्युएल काण्ट के अनुसार ज्ञान संश्लेषणात्मक अनुभव निरपेक्ष निर्णय (Synthetic | Judgement Apriori) है या अनुभवातीत यथार्थ निर्णय है। इनकी व्याख्या करना आवश्यक है। हमारे निर्णय (Judgement) दो प्रकार के होते हैं-

१.विश्लेषणात्मक (Analytic)

२. संश्लेषणात्मक (Synthetic)

विश्लेषणात्मक निर्णय में विधेय केवल उद्देश्य के निहित गुणों को स्पष्ट करता है, अर्थात् विधेय उद्देश्य का केवल विश्लेषण करता है तथा कोई नयी बात नही बतलाता। उदाहरणार्थ, शरीर विस्तृत होता है (Bodies are extended) यह विश्लेषणात्मक निर्णय है। इस वाक्य का विधेय “विस्तृत होना” उद्देश्य शरीर का कपलेषण मात्र है, अर्थात् विधेय उद्देश्य के बारे में कोई नयी बात नहीं बतलाता। जो व्यक्ति शरीर के विषय में जानता है, वह यह भी जानता है कि शरीर में विस्तार होता है।

दूसरा उदाहरण लें कि मनुष्य पशु है यह वाक्य भी है। इनके  विपरीत संश्लेषणात्मक है, क्योंकि विधेय पशुता तो उद्देश्य मनुष्य में गुप्त रूप से निहित है। इनके विपरीत संश्लेषणात्मक निर्णयों में विधेय उद्देश्य के बारे में नया ज्ञान देता।उदाहरणार्थ, कुछ मानव निरक्षर होत है, यह संश्लेषणात्मक निर्णय है क्योंकि निरक्षरता मानव के बारे में एक नया ज्ञान देता है। यदि कोई न भी पढ़ा-लिखा हो तो उसे मानव कहा जा सकता है। दूसरा उदाहरण, मंगलवार को पानी बरसा था, नेपोलियन महान् सेनापति था इत्यादि। इन वाक्यों में विधेय उद्देश्य के बारे में नयी बात बतलाता है।

निर्णय का उपरोक्त वर्गीकरण ज्ञान के विषय-वस्तु के अनुसार है परन्तु उत्पत्ति की दृष्टि से पुन: दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

१. अनुभव निरपेक्ष (Apriori)

२. अनुभव सापेक्ष (Aposteriori)

अनुभव निरपेक्ष निर्णय वह है जिसकी सत्यता हमारे अनुभव पर आधारित ‘नहीं, अर्थात् जो अनुभव के बिना भी सत्य स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ, प्रत्येक घटना सकारण होती है (Every event has a cause), अर्थात् कोई कार्य बिना कारण नहीं उत्पन्न हो सकता। इस कार्य-कारण नियम को हम अनुभव के बिना भी सत्य स्वीकार करते हैं। यदि कार्य-कारण सम्बन्ध हो हम सत्य न माने तो वैज्ञानिक ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता तथा सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की आधारशला समाप्त हो जाएगी। काण्ट के अनुसार अनुभव निरपेक्ष निर्णय अनिवार्य और सावभीम होते हैं। उदाहरणार्थ, कार्य-कारण नियम सार्वभौम और अनिवार्य नियम हैं।

विपरीत अनुभव सापेक्ष निर्णय हमारे अनुभव पर आश्रित रहते है। उदाहरणार्थ, सफेद फलों में सुगन्ध होती है। इस निर्णय में सफेद फूल के विश्लषण से हमें सुगन्ध का ज्ञान नहीं हो सकता वरन् हमें सुगन्ध का अनुभव करना पड़ता था, इन निर्णयों में अनिवार्यता नहीं होती।

उपरोक्त दोनों प्रकार के वर्गीकरण को मिलाते हुए, अर्थात् ज्ञान की उताकि और विषय-वस्तु दोनों को एक साथ मिलाकर इमान्युएल काण्ट का कहना है कि संश्लेषण निर्णय अनुभव-सापेक्ष है। तात्पर्य यह है कि संश्लेषणात्मक निर्णयों की उत्पत्ति हमारे अनुभव पर निर्भर है, परन्तु इसमें अनिवार्यता नहीं होती। ये निर्णय केवल सम्भाव्य (Probable) माने जाते हैं। उदाहरणार्थ, हम अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकते हैं कि सूरज पूरब में उगता है, परन्तु हम अनुभव के बल पर यह नहीं कर सकते कि पूरब में ही सूरज उगेगा। तात्पर्य यह है कि इसमें अनिवार्यता नहीं, केवल सम्भाव्यता है। इसके विपरीत विश्लेषात्मक वाक्यों में अनिवार्यता रहती है। इस प्रकार दोनों निर्णयों में भेद अग्रलिखित हैं-

 

विश्लेषणात्मक निर्णय- 1. यह अनुभव निरपेक्ष है। 2. इसमें अनिवार्यता होती है। 3. इससे ज्ञान की वृद्धि नहीं होती।

संश्लेषणात्मक निर्णय- 1. यह अनुभव सापेक्ष है।  2. इसमें सम्भाव्यता होती है।  3. इससे ज्ञान की वृद्धि होती है।

 

हम पहले कह आए हैं कि इमान्युएल काण्ट के अनुसार ज्ञान अनुभव निरपेक्ष संश्लेषणात्मक निर्णय (Synthetic Judgement apriori) हैं। तात्पर्य यह है कि अनिवार्यता और नवीनता दोनों ज्ञान के आदर्श हैं। यथार्थ निर्णय ज्ञान की वृद्धि करता है और साथ-साथ अनिवार्य भी होता है। अब प्रश्न यह है कि यथार्थ अनुभव निरपेक्ष निर्णय सम्भव हैं या नहीं।

१. गणित में यथार्थ संश्लेषणात्मक निर्णय की समस्या (Problem of Isynthetic judgement apriori in Mathematics)- इमान्युएल काण्ट के अनुसार गणित के वाक्य यथार्थ संश्लेषणात्मक होते हैं, अर्थात् गणित में नवीनता और अनिवार्यता दोनों हैं, उदाहरणार्थ, ७ और ५ का योगफल १२ होता है। इस वाक्य  ७ से ५ मिलकर  उद्देश्य है और १२ होता है। विधेय है। इमान्युएल काण्ट के अनुसार इसका विधेय उद्देश्य में निहित नहीं, अतः संश्लेषणात्मक वाक्य है। पुनः इसमें अनिवार्यता मिलकर उद्देश्य में पहले से निहित है। अतः संश्लेषणात्मक वाक्य नहीं. विश्लेषणात्मक वाक्य है। इमान्युएल काण्ट के अनुसार इसका उत्तर यह है कि ७ और ५ मिलकर इस उद्देश्य से केवल दो संख्याओं के मिलने का पता लगता है, इनके योगफल का पता नहीं लगता।

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हमें यहाँ भ्रम इसलिए उत्पन्न हो रहा है कि हम छोटी संख्या का उदाहरण ले रहे हैं। यदि दो बड़ी संख्याओं को लें तो हमें उनके योगफल का पता नहीं लग सकता। उदाहरणार्थ, ८९५३२-९३८१७ इन संख्याओं को कहने से हमें योगफल का बिल्कुल पता नहीं लगता। इसी प्रकार ७ और ५ मिलकर कहने से केवल इन संख्याओं के योग का बोध होता है, इसके योगफल का नहीं। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि भले ही बड़े संख्याओं के योगफल का पता हमें नहीं लगता, परन्तु इनमें योगफल तो है ही।

हम कठिनाई से इनका योगफल जान सकते हैं परन्तु यदि इनमें योगफल नहीं रहता तो हम कैसे जान पाते। यह सत्य है कि ७ और ५ का योगफल हम सरलता जान सकते हैं, बड़ी संख्याओं का नहीं परन्तु दोनों में योगफल निहित है। काण्ट को इस प्रकार के आक्षेप का आभास था। इसलिये उन्होंने कहा है कि गणित के वाक्य ऊपर से देखने में विश्लेषणात्मक ही प्रतीत होते है।

 

२. भौतिक शास्त्र में संश्लेषणात्मक अनुभव निरपेक्ष निर्णयों की समस्या (Problem of synthetic judgement apriori in Physics)- गणित के समान भौतिक शास्त्र के वाक्य भी अनिवार्य और ज्ञानवर्द्धक होते है। इसका कारण यह है कि भौतिक शास्त्र के वाक्य कार्य-कारण नियम पर आधारित होते हैं। कार्य-कारण अनिवार्य और सार्वभौम सिद्धान्त है। अतः भौतिक शास्त्र के सिद्धान्त भी अनिवार्य और सार्वभौम होते हैं। साथ ही साथ इन वाक्यों में नवीनता होती है। अतः ये ज्ञानवर्धन करते हैं। उदाहरणार्थ, भौतिक पदार्थों के सभी परिवतना में भौतिक पदार्थ का परिमाण स्थायी रहता है (In all changes of the material world the quantity of matter remains unchanged)|

इमान्युएल काण्ट के अनुसार भौतिक शास्त्र का यह मालिक नियम अनुभव-निरपेक्ष संश्लेषणात्मक है। यह अनुभव निरपक्ष है, क्योंकि सार्वभौम और अनिवार्य हैं? स्थायी होना इस वाक्य का विधेय है जो भौतिक पदार्थों के विषय में नया ज्ञान देता है। तात्पर्य यह है कि विधेय उद्देश्य में अन्तर्निहित नहीं होता, अत: संश्लेषणात्मक है। इस प्रकार भौतिक शास्त्र के वाक्यों में नवीनता है और अनिवार्यता भी है।

 

३. तत्व-मीमांसा में अनुभव निरपेक्ष संश्लेषणात्मक निर्णयों की समस्या (Problem of Synthetic Judgement apriori in Metaphysics) – पहले हमने देखा है कि गणित और भौतिक शास्त्र दोनों में अनिवार्य नूतन ज्ञान सम्भव है। प्रश्न यह है कि क्या तत्व-मीमांसा में भी इस प्रकार का ज्ञान सम्भव है? काण्ट के अनुसार ज्ञान की सामग्री तो हमें अनुभवजन्य संवेदनाओं से प्राप्त होती है तथा ज्ञान का स्वरूप बुद्धि-जन्य हैं। इनकी संवेदनाएँ तो हमें प्राप्त नहीं होती। अतः इन्हें यथार्थ ज्ञान का विषय नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि बुद्धि के विकल्पों की गति तो संवेदनाओं तक ही सीमित है। शुद्ध बौद्धिक विचार (ईश्वर, आत्मा आदि) तो संवेदनाओं से उत्पन्न नहीं होते। अत: इस अर्थ में इन्हें ज्ञान का विषय स्वीकार नहीं किया जा सकता।

वस्तुत: इमान्युएल काण्ट के अनुसार तत्व-मीमांसा सम्बन्धी विषयों का ज्ञान निश्चित नहीं, सम्भावित है। ये विषय व्यावहारिक नहीं, वरन्  पारमार्थिक हैं। व्यावहारिक विषयों का ज्ञान तो संवेदनाजन्य होता है, परन्तु पारमार्थिक विषयों की संवेदना होती ही नहीं। अतः इन अतीन्द्रिय विषयों का व्यावहारिक विषयों जैसा निश्चित ज्ञान सम्भव नहीं। संक्षेप में, इमान्युएल काण्ट का कहना है कि हमारी बुद्धि उसी विषय का ज्ञान प्राप्त कर सकती है जिसकी इन्द्रियजन्य संवेदना सम्भव है। जब बुद्धि अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान प्राप्त करती है तो वे संवेदना भी बुद्धि-जन्य ही होती है, अर्थात् स्वरूप ही सामग्री बन जाता है जिससे हमें यथार्थ ज्ञान नहीं होता।

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इमान्युएल काण्ट की कृतियाँ

इमान्युएल काण्ट की तीन महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं –

१. शुद्ध बुद्धि परीक्षा (Critique of Pure Reason)

२. व्यावहारिक बुद्धि परीक्षा (Critique of Practical Reason)

३. निर्णय की परीक्षा (Critique of Judgement)

इन तीनों ग्रन्थों में सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ शुद्ध बुद्धि परीक्षा है। इस ग्रन्थ में इमान्युएल काण्ट ने ज्ञान के स्रोत, स्वरूप तथा सीमा पर विचार किया है। व्यावहारिक बुद्धि परीक्षा में इमान्युएल  काण्ट ने नैतिक प्रश्नों पर विचार किया है। निर्णय परीक्षा में काण्ट ने पारमार्थिक विषयों पर विचार किया है। पुनः इनके अवान्तर भेद भी हैं। शुद्ध बुद्धि परीक्षा के दो भाग है, जिन्हें संवेदन परीक्षा (Transcendental Aesthetic) तथा बौद्धिक प्रत्यय परीक्षा (Transcendental Logic) कहते हैं। पुनः बौद्धिक प्रत्यय परीक्षा के भी दो भाग हैं, जिन्हें पदार्थ परीक्षा (Transcendental Analytic) तथा प्रज्ञा परीक्षा(Transcendental Dialectic) कहते हैं।

 

1. शुद्ध बुद्धि परीक्षा (Critique of Pure Reason) – इमान्युएल काण्ट की सर्वप्रथम महत्वपूर्ण रचना है। इस रचना में यथार्थ ज्ञान की समस्या पर विचार है। यथार्थ ज्ञान संवेदनाओं से प्रारम्भ होता है। संवेदनाएँ ज्ञान का उपकरण या सामग्री (Material) हैं परन्तु ये संवेदनाएँ हमें अव्यवस्थित रूप में प्राप्त होती हैं। बद्धि अपने प्रत्ययों द्वारा ही इनमें व्यवस्था तथा क्रम प्रदान करती है। अत: शुद्ध बुद्धि परीक्षा के दो अंग हैं- संवेदन परीक्षा तथा प्रत्यय परीक्षा।

 

२. व्यावहारिक बुद्धि परीक्षा (Critique of Practical Reason)- यह इमान्युएल काण्ट की दूसरी महत्वपूर्ण रचना है। शुद्ध बुद्धि परीक्षा में काण्ट ने व्यवहार पर विचार किया है। इसमें नैतिक समस्याओं पर विचार है। व्यावहारिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये नैतिक नियमों को मानना आवश्यक है। अत: इमान्युएल काण्ट के इस ग्रन्थ का सारांश ‘कर्तव्य विचार’ है। यदि शुद्ध बुद्धि परीक्षा का विषय ज्ञान का विश्लेषण है, अर्थात हम ज्ञान कैसे प्राप्त करते हैं तो व्यावहारिक बुद्धि परीक्षा का विषय कर्म का विश्लेषण है अर्थात् हम कर्म क्यों और कैसे करते हैं तथा हमें कैसा कर्म करना चाहिये।

 

३. निर्णय की परीक्षा (Critique of Judgement)- इमान्युएल काण्ट की तीसरी महत्वपूर्ण रचना है। इस ग्रन्थ में काण्ट अतीन्द्रिय या पारमार्थिक विषयों पर विचार करते हैं। शुद्ध बुद्धि परीक्षा में पारमार्थिक विषयों को इमान्युएल काण्ट ने यथार्थ या वैज्ञानिक ज्ञान का विषय नहीं माना जाता है। परमार्थ अज्ञेय तो हैं, परन्तु निष्प्रयोजन नहीं। इस ग्रन्थ में काण्ट पारमार्थिक विषयों को अज्ञेय मानकर भी सप्रयोजन बतलाते हैं।। आत्मा-परमात्मा आदि पारमार्थिक विषय यथार्थ ज्ञान के नहीं वरन् आस्था या विश्वास के विषय हैं। इनके लिये तर्क-वितर्क का कोई महत्व नहीं। ये तो तक के पर विश्वास के विषय है। विश्वास के विषय को तर्क की तराजू पर तौलना भूल है। इसका क्षेत्र ही अलग है। इस ग्रन्थ में व्यवहार और परमार्थ के भेद को स्पष्ट किया गया है।

 

 

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