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हैदर अली और टीपू सुल्तान शासक के रूप में वर्णन

इस पोस्ट में हम लोग हैदर अली और टीपू सुल्तान के शासन के बारें में चर्चा करेंगें। हैदर अली और टीपू सुल्तान ने कौन-कौन से युद्ध लड़ें है।

 

हैदर अली कौन था? वह मैसूर का शासक कैसे बना?

हैदरअली का जन्म सन् 1722 में बूंदी कोट नामक स्थान पर हुआ था हैदरअली के पिता का नाम फतेह मुहम्मद था, जो मैसूर राज्य की सेना में फौजदार था। हैदर बड़ा ही नटखट और खेलकूद में रुचि रखने वाला नवयुवक था। वह बिल्कुल अशिक्षित था। उसे आखेट का बड़ा शौक था और उसका निशाना भी अचूक था। यह साहसी युवक अपनी वीरता और साहस के कारण एक सैनिक से शीघ्र ही मैसूर के मन्त्री के सहयोग से डिण्डीगल के फौजदार के पद पर पहुँच गया। कुछ दिन बाद ही वह मैसूर की सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर दिया गया। अपनी योग्यता और साहस के बल  पर शीघ्र ही वह 1761 ई० में मैसूर के राज्य का स्वामी बन गया। ।

हैदरअली एक साधारण सैनिक से शासक बना था। अतः वह जानता था कि उसका मुकुट काँटों से भरा हुआ है, फूलों की कोमलता से परिपूर्ण नहीं है। अतः उसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिये सर्वप्रथम साम्राज्य-प्रसार की ओर ध्यान दिया। इस दिशा में उसने निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य किये-

(1) सन् 1763 ई० में उसने वेदनूर के सिंहासन के दो प्रतिद्वन्द्वियों के संघर्ष का लाभ उठाया और उन्हें समाप्त करके वेदनूर को हैदर नगर की संज्ञा देकर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया।

(2) वेदनूर के बाद हैदरअली ने दक्षिण कन्नाड, कालीकट आदि पर विजय प्राप्त की तथा कोचीन व पालघाट के राजाओं को भी अपने अधीन कर लिया।

(3) मराठा शक्ति उन दिनों अपनी चरम पराकाष्ठा पर थी। अतः पेशवा माधव राव के सामने उसने कूटनीति से काम लिया और उनसे सन्धि कर ली। मराठों को समय-समय पर धन और जागीरें देकर उसने उन्हें निजाम और अंग्रेजों के साथ मिलने से रोका। उसने अंग्रेजों को कुचलने के लिये मराठा सरदार नाना फड़नवीस के साथ एक सन्धि भी की।

हैदर अली और अंग्रेजों के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन कीजिए।

हैदर अली एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने मैसूर के शासक बनते ही अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ाना आरम्भ कर दिया। हैदर अली की शक्ति से भयभीत होकर अंग्रेज उसके विरुद्ध षड्यन्त्र करने लगे। अंग्रेजों ने सन 1766 ई० में निजाम और मराठों को मिलाकर एक संयुक्त मोर्चा बनाया परन्तु हैदर अली ने बड़ी बुद्धिमानी से निजाम और मराठों को अपनी ओर मिला लिया। अब उसे केवल अंग्रेजों से लोहा लेना था। उनका अंग्रेजों से निम्न संघर्ष हुए- …

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प्रथम मैसूर युद्ध-

सन् 1767 ई० में हैदर अली द्वारा कन्नड़ तट पर आये एक अंग्रेजी बेड़े को नष्ट करवा लेने पर दोनों के मध्य संघर्ष छिड़ गया। प्रारम्भ में चगामर और त्रिनोमाली नामक स्थानों पर अंग्रेज सफल रहे परन्त बाद में हैदर अली ने अंग्रेजों को हटाकर मंगलौर पर अधिकार लिया। इसके बाद उसने तीन ओर से मद्रास पर अली से संधि कर ली। भाकमण कर दिया जिसमें अंग्रेजों को भारी क्षति हुयी। अतः विवश हो अंग्रेजों ने हैदर अली से संधि कर ली।

द्वितीय मैसूर युद्ध-

अंग्रेजों के द्वारा सन् 1769 ई० में हैदर अली के साथ हुयी संधि की शर्तों का पालन न करने पर हैदर अली ने सन 1780 ई० में क्रुद्ध हो कर्नाटक पर आक्रमण कर अकाट पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने हैदर अली के विरुद्ध मुनरो की अध्यक्षता में मद्रास से तथा बेली की अध्यक्षता में गन्दर से सेनाएँ भेजीं। हैदर अली के पुत्र टीपू ने बेली की सेना को परास्त कर भगा दिया। अंग्रेजों ने पराजित हो आयरकूट की अध्यक्षता में सेना भेजी। आयरकूट ने हैदर अली को पोर्टीवो और पोलीलोर के युद्धों में पराजित किया। सन् 1782 ई० में हैदर अली की मृत्यु हो गयी।

टीपू कौन था ? अंग्रेजों के साथ हुए उसके संघर्ष का उल्लेख

टीपू, हैदर अली का पुत्र था। वह अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1782 ई० में मैसूर की गद्दी पर बैठा। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने अपने पिता की मृत्यु के बाद भी अंग्रेजों से संघर्ष जारी रखा। उसका अंग्रेजों से निम्नलिखित संघर्ष हुआ

(1) तृतीय मैसूर युद्ध-

टीपू एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने सन् 1789 ई० में त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया। यहाँ का राजा अंग्रेजों का मित्र था अतः कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और निजाम तथा मराठों के साथ मैत्री संधि कर ली। सन् 1790 ई० में जनरल मीडोज के असफल हो जाने पर कार्नवालिस ने स्वयं सैन्य संचालन का कार्य संभाल लिया। उसने श्रीरंगपट्टम के युद्ध में टीपू को पराजित किया परन्तु युद्ध-सामग्री के अभाव में उसे पीछे हटना पड़ा। तत्पश्चात् अंग्रेजों ने देवला और ब्लीपुर के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। सन् 1792 ई० में निजाम और मराठों की संयुक्त सेनाओं के साथ अंग्रेजों ने पुनः श्रीरंगपट्टम पर आक्रमण किया। अन्त में टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और दोनों पक्षों के बीच श्रीरंगपट्टम की संधि हो गयी।

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(2) चतुर्थ मैसूर युद्ध-

तृतीय मैसूर युद्ध में परास्त होने के बाद भी टीपू हिम्मत नहीं हारा और उसने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक शक्तियों के साथ गठबन्धन करना आरम्भ कर दिया। वेलेजली ने उसके पास सहायक संधि का प्रस्ताव भेजा किन्तु टीपू ने उसे अस्वीकार कर दिया। अत: अंग्रेजों ने सन् 1799 ई० में निजाम और मराठों के साथ मिलकर टीपू से डटकर मुकाबला किया किन्तु वह पराजित हो गया। टीपू ने भागकर श्रीरंगपट्टम के दुर्ग में शरण ली। अंग्रेजों ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। अन्ततः दुर्ग की रक्षा करता हुआ वह वीर वीरगति को प्राप्त हुआ।

मराठों के पतन के कारणों का उल्लेख कीजिए।

 मराठों के पतन के निम्नलिखित कारण थे- 

(1) एकता का अभाव-

मराठा राज्य कई छोटे-छोटे राज्यों का एक संघ था, जिनमें परस्पर एकता का अभाव था। सभी राजा एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए षडयन्त्र रचा करते थे। उसकी पारस्परिक कलह के कारण ही पेशवा को अंग्रेजों से बेसीन संधि करनी पड़ी थी।

(2) योग्य नेतत्व का अभाव-

जसवन्तराव होल्कर, सिन्धिया तथा पेशवा माधवराव की मत्य के पश्चात् मराठों में योग्य नेता का अभाव हो गया। नाना फडनवीस की मत्य के बाद तो मराठा नेतृत्व पूरी तरह ही समाप्त हो गया और मराठों का परस्पर लड़तेलड़ते ही पतन हो गया।

(3) छापामार युद्ध-

पद्धति का त्याग-मराठों ने अपनी पुरानी युद्ध-पद्धति को छोड़कर यूरोपीय युद्ध-पद्धति को अपनाने का प्रयास किया, किन्तु वे उसे समुचित ढंग से विकसित न कर सके। इतिहासकार केलकर ने मराठों की पराजय का प्रमख कारण प्रशिक्षित सेवा, आधुनिक तोप और बारूद का अभाव बताया है।

(4)सदढ़ अर्थ-व्यवस्था का अभाव-

मराठों की आय का मुख्य साधन चौथ और सरदेशमखी था। उन्होंने कृषि और व्यापार की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्हें फलतः आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सुदृढ़ अर्थ-व्यवस्था के अभाव में उनका पतन हो गया।

(5)कटनीति का अभाव-

नाना फड़नवीस की मृत्यु के पश्चात् मराठों में कोई ऐसा ही या जो अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों को समझकर उसका प्रत्युत्तर दे सकता। कटनीति का अभाव भी इनके पत्तन में उत्तरदायी थी।

(6) सामन्त प्रणाली-

शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् सामन्त प्रणाली मराठा साम्राज्य का मुख्य अंग बन गयी थी, जिसके केन्द्रीय शासन निर्बल हो गया और मराठों का पतन हो गया।

 

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