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हरबर्ट मीड के ‘प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद’ का सिद्धान्त क्या है?

इस पोस्ट में हम लोग हरबर्ट मीड के प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का सिद्धान्त,प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद यह क्या है,हरबर्ट मीड के स्व के विकास के सिद्धांत, Symbolic Inter-actionism in Hindi आदि प्रश्नों की विवेचना करेगें।

हरबर्ट मीड के प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के सिद्धान्त  की विवेचना | Symbolic Inter-actionism in Hindi

अमेरिका की ‘शिकागो वैचारिक परम्परा’ के एक अग्रणी विद्वान दार्शनिक और ‘अर्थक्रियावादी जार्ज हरबर्ट मीड ने समाजशास्त्र के क्षेत्र में एक नई परम्परा की बुनियाद रखी। यह परम्परा/उपागम उनके मरणोपरान्त ‘सामाजिक अन्तक्रियावाद’ के नाम से जानी जाती है। मीड के विचारों को बहुधा ‘सामाजिक व्यवहारवाद’ के वर्ग में रखा जाता। है। अपनी प्रसिद्ध कृति ‘माइण्ड, सेल्फ एण्ड सोसाइटी’ (1934) में मीड ने सामाजिक मनोविज्ञान की एक नए समाजशास्त्रीय ढंग से व्याख्या की। इस पुस्तक में उसने समाज पर पूर्णतः आधारित अनुभव, मानवीय समूह जीवन में भाषा, प्रतीक एवं सम्प्रेषण का महत्व, भूमिका धारण की प्रक्रिया के माध्यम से उन तरीकों का, जिनसे हमारे शब्द एवं मुख के भाव दूसरे व्यक्तियों में प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करते हैं. स्व की परवर्ती एवं प्रतिवर्ती प्रकृति और क्रिया की प्रमुखतः जैसे विषयों का गूढ वर्णन एवं विश्लेषण किया है।

हरबर्ट मीड ने अपने समाजशास्त्र को ‘सामाजिक मानवशास्त्र’ माना है, जिसका मुख्य कार्य समाज एवं व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करना है। इन सम्बन्धों का आधार मानवीय अन्तर्किया है। मानवीय अन्तक्रियाओं में ‘सामाजिक उत्तेजना’ का महत्व अधिक है। जब एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया दूसरे व्यक्ति को उत्तेजना प्रदान करती है, तभी सामाजिक अन्तक्रियाएं घटित होती हैं। ऐसी उत्तेजनाएं दो प्रकार की है- प्राथमिक उत्तेजना और द्वैतीयक उत्तेजना। जब प्रत्यक्ष सम्पर्क/सम्बन्ध के आधार पर व्यक्ति किसी दूसरे उत्तेजना देता है, तो उसे अपनी प्राथमिकता कहा जाता है। प्राथमिक उत्तेजना के अव्यक्ति के हाव-भाव, चेहरे की अभिव्यक्ति, शारीरिक आसन, भाषा और हसी, आदि सम्मिति है। इसके विपरीत द्वितीयक उत्तेजना उसे कहा जाता है, जिसमें दूर रहकर संचार के विभिन्न साधनों द्वारा दूसरे व्यक्तियों को प्रभावित करता है।

मानवीय अन्तक्रिया में हाव-भाव अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को अभिव्यक्त करता है। हाव-भाव की अपनी एक सूक्ष्म भाषा होती है। आवेदन रूप मे हम जिन हाव-भावों को प्रकट करते हैं, वे हमारे यथार्थ विचारों और मनोवृत्तियों को शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त विचारों व मनोवृत्तियों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट करते है। मानवीय अन्तक्रिया में चेहरे की अभिव्यक्ति भी महत्वपूर्ण उत्तेजना है। चेहरे को देखकर क्रोध, भय, आश्चर्य, दुख, सुख, भय, अवसाद आदि को सरलता से समझा जाता है। चेहरे का अभिव्यक्तियों को देखकर ही दूसरे व्यक्तियों को एक विशेष ढंग से अपने प्रति प्रतिक्रिया अथवा अन्तक्रिया करने की उत्तेजना/प्रेरणा होती है। मानवीय अन्तक्रिया के उत्तेजित के रूप में स्वर की अभिव्यक्ति भी महत्वपूर्ण है। स्वर के द्वारा अपने संवेगों को अभिव्यक्ति करने के साथ-साथ दूसरों में भी उसी तरह के संवेग पैदा किए जा सकते हैं। कर्कश स्वर क्रोध की ओर मधुर स्वर प्रेम की अभिव्यक्ति करता है, जिसकी प्रतिक्रिया उसी रूप में होता है। शरीर के विभिन्न आसन भी दूसरों को प्रभावित करते हैं। प्रेम में चुम्बन एवं आलिंगन जैसी आसनिक अभिव्यक्तियां दूसरों को भी वैसी ही प्रतिक्रिया के लिए उत्तेजित करती हैं। हंसी भी दूसरों को प्रभावित करती हैं। हंसी का दूसरों के व्यवहार पर कई प्रकार से प्रभाव पड़ता है। भाषा के माध्यम से अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाया जाता है। भाषा द्वारा हम एक व्यक्ति को इतना उत्तेजित कर सकते हैं कि वह प्राण लेने-देने तक को तत्पर हो सकता है।

हरबर्ट मीड ने अपने प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन स्व, स्व-अन्तक्रिया, स्व का विकास और प्रतीकात्मक अर्थ चार अवधारणाओं के आधार पर किया है-

1. हरबर्ट मीट का  ‘स्व (Self)’:

हरबर्ट  मीड ने ‘स्व’ की धारणा को प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का केन्द्र-बिन्दु बनाया है। हरबर्ट मीड के अनुसार, मनुष्य के भीतर ‘स्व’ होता है। यह ‘स्व’ अपने जून्मोपरान्त सर्वथा विशुद्ध रूप में होता है। इस समय ‘स्व’ मात्र सहजवृत्ति और आवेश से युक्त होता है। नवजात शिशु को सुई चुभाने पर वह रोने लगता है, जबकि माता का स्तनपान करते ही रुदन बन्द कर देता है। रोने पर उसकी देखभाल अधिक होती है, अत:  वह अपनी सुविधार्थ रोने लगता है। जब ‘स्व’ का पर्याप्त समाजीकरण हो जाता है, तब वह स्वयं को पास-पड़ोस, गांव-नगर, जाति-बिरादरी/नातेदारी, शिक्षा-दीक्षा में समझने लगते हैं। मीड के अनुसार, बालक को अपने बारे में सामाजिक अन्तक्रिया के द्वारा ही बोध होता  है। इसी के द्वारा ‘स्व’ की उत्पत्ति होती है। ‘स्व’ का ज्ञान उसे ‘दूसरे व्यक्तियों’ की भूमिकाओं को ग्रहण करने से ही होता है। मीड ने इन दूसरे व्यक्तियों को ‘सामान्यीकृत अन्य’ कहा है।

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हरबर्ट मीड के अनुसार, ‘मैं’ (I) असमाजीकृत शिशु को इंगित करता है, जो कि स्फूर्त आवश्यकताओं एवं इच्छाओं का एक पुंज होता है। इस प्रकार, ‘मैं’ व्यक्ति के जैविकीय पक्ष को अभिव्यक्त करता है। इसके विपरीत ‘मुझे’ (Me) सामाजिक स्वचेतना व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी उत्पत्ति दूसरों के द्वारा स्वयं को देखने की जानकारी से होती है अर्थात दूसरे व्यक्ति उसे किस दृष्टि से देखते हैं, उसी रूप में वह स्वयं को देखने लगता है। मीड ने ‘मुझे’ की अवधारणा का प्रयोग ‘सामाजिक स्व’ के लिये किया है।

हरबर्ट मीड की ‘स्व’की अवधारणा अत्यन्त अर्थपूर्ण है। उसका मत है कि मनुष्य का ‘स्व’निरन्तर सृजनशील और क्रियाशील भी है। ‘स्व’ के तत्वों में सामाजिक, सांस्कृतिक और क्रियाशील भी है। ‘स्व’ के तत्वों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक जैसे चर(variable) नहीं होते, जो कि  ‘स्व’ की गतिविधियों को निर्धारित कर सके। बाहर की चीजे ‘स्व’ के पास पहुंचती है तथा ‘स्व’ इन चीजों का मूल्यांकन करता है। समाज के मूल्य, मानक, भूमिका एवं प्रस्थिति ‘स्व’ के अन्दर आते हैं, ‘स्व’ बाह्य जगत को देखता है। ‘स्व’ एवं सामाजिक मूल्यों/मानकों/भूमिकाओं में अन्तक्रिया होती है, दोनों में परस्पर विनिमय होता है। ‘स्व’ मूल्यों, मानकों, भूमिकाओं आदि का निर्वाचन करता है। इस प्रकार से ‘स्व’ और समाज के मूल्यों, मानकों, भमिका एवं प्रस्थिति दोनों के बीच निरन्तर अन्तक्रिया जारी रहती है।

हरबर्ट मीड ने ‘स्व’ की दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है। प्रथम अवस्था ‘मैं’ (I) की है। ‘मैं’ सावयव का शुद्धरूप है। इसके प्रत्युत्तर संगठित नहीं होते, इसमें अपने मौलिक आवेग होते हैं, जिनका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ‘स्व’ मनमाने तरीके से अपनी क्रियाएं करता रहता है। नवजात शिशु का ‘स्व’ इस अवस्था में ‘मैं’ होता है। घर/परिवार में कोई शोक हो, लोग रोते-चिल्लाते हो, नवजात शिशु का स्व इस स्थिति में भी किलकारी मारता है। स्पष्ट है कि ‘मैं’ की अवस्था में ‘स्व’ के लिए समाज की बातें सर्वथा अर्थहीन होता हैं।

‘स्व’ की दूसरी अवस्था ‘मुझे या मेरा’ (Me) की होती है, जिसमें दूसरों के प्रति ‘स्व’ की अभिवृत्तियां संगठित हो जाती हैं। इस अवस्था में ‘स्व’ दूसरों से सीखता है। वह दूसरों की चीजों/ वस्तुओं, मूल्यों, मानकों, भूमिकाओं आदि को ‘मेरी’ बना लेता है। इस अवस्था में दूसरों की अभिव्यक्तियां एवं मनोभाव ‘स्व’ के अपने हो जाते हैं अत: अब दूसरों के प्रभाव के कारण स्वयं शक्ति में चेतना आ जाती है। बच्चा समझने लगता है कि उसे निश्चित समय में सो जाना चाहिए, क्योंकि प्रात: पाठशाला जाना है। जब हर प्रकार से ‘स्व’ मेरा बन जाता है, तो वह समाज के मूल्य, मानक को अपना मानने लगते हैं।

2. स्व-अन्तक्रिया (Self-Interaction):

जब बाह्य समाज के मूल्य, मानक, भूमिका आदि ‘स्व’ के जगत में पहुंचते हैं, तब ‘स्व’ एवं बाह्य जगत के मध्य अन्तक्रियाएं होती हैं। एक प्रकार का वाद-विवाद होता है। इस वाद-विवाद में ‘स्व’ अपने तर्क प्रस्तुत करता है। उदाहरणार्थ, भूखे बालक का ‘स्व’ आग्रहपूर्वक कहता है कि भोजन नहीं मिला तो वह भूख से मर जायेगा। बाह्य जगत की भूमिका कहती है कि रोग के कारण उसे भोजन नहीं मिलेगा। ऐसे तर्क-वितर्क बालकों के साथ-साथ वयस्कों में भी देखे जाते हैं। मीड ने यह भी बताया है कि संचार-प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की भूमिका को स्वयं ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार ‘स्व’ की समाज के अन्य लोगों के साथ अन्तक्रिया चलती रहती है। अन्तक्रिया की इस प्रक्रिया में प्रतीकों की सूची का आकार स्वतः वृद्धि करता जाता है। दूसरे लोगों के अनुभवों को ‘स्व’ ग्रहण करता रहता है, अत: ‘स्व’ के अनुभवों का भण्डार निरन्तर बढ़ता रहता है। ‘स्व’ एवं बाह्य समाज/जगत के बीच यह अन्तक्रिया निरन्तर जारी रहती है।

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3. स्व का विकास (Development of the Self):

हरबर्ट मीड के अनुसार ‘स्व’ का विकास कई विधियों से होता है। लगभग दो वर्ष की आयु तक बालक खेलकूद की पूर्व-अवस्था में होता है, अत: सभी गतिविधियाँ उसके लिए प्रायः व्यर्थ होती है। जब व्यक्ति प्रतीकों के द्वारा अन्तक्रियाएं करते हैं, तो बालक उनका अर्थ नहीं समझ पाता है। दो वर्ष की आयु के उपरान्त वह इन प्रतीकों को समझने लगता है, भाषा का अर्थ समझन में सक्षम होने लगता है। रोटी, दूध का अर्थ जानने लगता है। अब वह दूसरों की भूमिकाओं का नकल भी करने लगता है। खेल-खेल में शिक्षक बन जाता है। खेलों में कई खिलाड़ी भाग लेते है, अतः बालक उनकी भूमिकाओं को भी ग्रहण करने लगता है। जैसे-जैसे बालक विकास की अगली अवस्था में पहुंचता है, भूमिका ग्रहण करने की प्रक्रिया लम्बी व जटिल होती जाती है तथा प्रतीकों की सूची भी वृहद होती जाती है। बालक के भण्डार में विभिन्न शारारिक हाव-भावों का विस्तार होता है। इस प्रकार वह समाज के मूल्या, मानकी, भूमिकाओं एवं प्रस्थितियों को ग्रहण करने लगता है।

4.प्रतीकात्मक अर्थ (Symbolic Meaning):

हरबर्ट मीड के अनुसार, प्रतीक का अर्थ संकेत’ से सम्बन्धित है, जिसका एक प्रकार इशारा ही चेष्टा है। यदि कोई व्यक्ति दांत, पीसते, भाहे चढ़ाते तथा मुट्ठी बाँधकर किसी दूसरे पर झपकता है, तो वह आक्रमण करन का संकेत है। मीड के अनुसार, संकेत (Gesture) वे तत्व है, जिनका ‘स्व’ ने आन्तराकरण कर लिया है और जो एक ही अर्थ के प्रतीक है। एक विशिष्ट संकेत का अर्थ समाज का सभी सदस्य एक समान लेते हैं। समाज के सदस्य जानते है कि आंखे फेरने का तात्पर्य उपेक्षा है और आंखें लाल-पीली करने का अर्थ क्रोध ही है। प्रतीक वे संकेत हैं, जो हमारी शारीरिक मुद्राओं, हाव-भावों, नाच-गाने, साहित्य एव भाषा में दिखाई देते है। प्रतीकों की विशेषता है कि समाज के समस्त सदस्य प्रत्येक प्रतीक का एक समान अर्थ निकालते है। जब अर्थ समान हो जाता है, तो उनका प्रयोग संसार में होने लगता है।। इसलिए व्यक्तियों की सम्पूर्ण अन्तक्रियाएं प्रतीकों के माध्यम से होती है।

हरबर्ट मीड का ‘भूमिका ग्रहण का सिद्धान्त’ यह स्पष्ट करता है कि ‘स्व’ के विकास में मानवीय अन्तर्क्रिया ही प्रमुख आधार है। व्यक्ति के स्व’ का विकास दूसरों की भूमिका को ग्रहण कर लेने से ही होता है। इस भूमिका द्वारा व्यक्ति दूसरों की अभिव्यक्तियों और क्रियाओं को अपनी समझने लगता है। दूसरे की भूमिका को ग्रहण किए बगैर प्रतीकों का विकास असम्भव है। जब तक दूसरों की भूमिकाओं को अपनाया नहीं जाता, तब तक व्यक्ति समाज के प्रतीका, मूल्यों मानको, आदि को समझ नहीं सकता। यद्यपि मीड का यह सिद्धान्त देखने में अत्यन्त ही सामान्य प्रतीत होता है, किन्तु यह अन्य विद्वानों के लिए अनुकरणीय सिद्ध हुआ।

 

 

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