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औरंगजेब की धार्मिक नीति का वर्णन कीजिए।

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औरंगजेब की धार्मिक नीति

औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह भारत को इस्लामी राज्य बनाना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने गैर-मुसलमानों के साथ बड़े अन्याय किये। इस प्रकार औरंगजेब की धार्मिक नीति पक्षपात एवं असहिष्णुता पर आधारित थी। वह हिन्दुओं का विशेष विरोधी था, इस कारण उसकी धार्मिक-नीति को हिन्दू विरोधी नीति भी कहा जाता है। औरंगजेब ने इस्लाम के प्रचार एवं हिन्दुओं के दमन के लिए निम्नलिखित कार्य किये :-

(1) मन्दिर तथा मूर्तियों का विध्वंस-

हिन्दुओं के मन्दिर-मूर्तियों को तोड़ना औरंगजेब की शासन-नीति का प्रमुख अंग था। उसने 1669 ई० में यह आदेश जारी किया कि हिन्दओं के सभी मन्दिरों को नष्ट कर दिया जाय। इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक प्रसिद्ध मन्दिरों को भूमिसात कर दिया गया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण कराया गया। मंदिरों के अतिरिक्त हिन्दू देवी-देवताओं की असंख्य मूर्तियों को तोड़ा और उन्हें अपमानित किया।

(2) जजिया कर को पुनः लागू करना-

अकबर ने हिन्दुओं को जजिया कर से.मक्त कर दिया था। 1679 ई० में औरंगजेब ने इस घृणित कर को फिर से लाग कर दिया था। हिन्दुओं ने इस कर का तीव्र विरोध किया, परन्तु सुल्तान ने उनकी एक न सनी। तत्कालीन इतिहासकार मनचि ने लिखा है “ऐसे अनेक हिन्दू जो यह कर नहीं दे सकते थे, इस कर के वसल करने वालों द्वारा किये जाने वाले अपमान से छुटकारा पाने लिए मुसलमान बन गये।

(3) हिन्दुओ पर सामाजिक प्रतिबन्ध-

औरंगजेब ने हिन्दुओं पर अनेक सामाजिक प्रतिबन्ध लगाये। राजपूतों के अतिरिक्त सभी हिन्दुओं को हाथी, घोड़ा, पालकी आदि में सवारी करने पर रोक लगा दी। दशहरा, होली तथा दीपावली जैसे महत्वपूर्ण त्यौहारों के मनाने पर कई प्रतिबन्ध लगाये। तीर्थस्थानों पर लगने वाले मेले बन्द कर दिये।

(4) बलपूर्वक मुसलमान बनाना-

औरंगजेब ने हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया। गोकुल जाट के पूरे परिवार को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया गया। इस नीति का दुष्परिणाम यह हुआ कि भारी संख्या में हिन्दू लोग अनिच्छा से मुसलमान बन गये।

(5) सरकारी नौकरियों में भेदभाव-

औरंगजेब हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियक्त करने का विरोधी था। उसने 1688 ई० में माल विभाग में काम करने वाले सब हिन्दओं। को निकाल दिया, परन्तु जब उनके बिना इस विभाग का काम न चला तो उन्हें नौकरी । पर वापस लिया गया।

(6) चुंगी में भेद-भाव-

औरंगजेब हिन्दू व्यापारियों से 5 प्रतिशत की दर से चुंगी लेता था जबकि मुसलमान व्यापारियों से बिल्कुल चुंगी नहीं ली जाती थी।

(7) हिन्दू शिक्षा-संस्थाओं का विनाश-

औरंगजेब ने हिन्दू संस्कृति को नष्ट करने का प्रयल किया। उनकी शिक्षा-संस्थाओं को विध्वंस किया गया। शिक्षा-संस्थाओं में उन्हें धार्मिक शिक्षा देने की स्वतंत्रता न थी।

(8) सिक्खों और मराठों पर अत्याचार-

औरंगजेब ने सिक्खों एवं मराठों पर अत्याचार किये। उसने सिक्खों के गुरु तेग बहादुर का वध करवा दिया। मराठों के विनाश के लिए वह दक्षिण में 25 वर्ष तक युद्ध करता रहा। शिया राज्यों के साथ भी उसने असहिष्णुता की नीति अपनाई। औरंगजेब की धार्मिक नीति के परिणाम अकबर ने अपनी उदार धार्मिक नीति से एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की थी, परन्तु औरंगजेब ने अपनी धार्मिक असहिष्णुता की नीति से उसे पतन की ओर ढकेल दिया।

उसकी धार्मिक-नीति के निम्नलिखित परिणाम हुए-

(1) औरंगजेब की धार्मिक-नीति मुगल साम्राज्य के पतन का एक मुख्य कारण बनी। इस नीति के विरोध में जाटों, सतनामियों, सिक्खों, बुन्देलों एवं राजपूतों के भयंकर विद्रोह हुए, जिन्होंने मुगल साम्राज्य की नींव को हिला दिया।

(2) राज्य की आमदनी कम हो गई क्योंकि मुसलमान अनेक करों से मुक्त कर दिये गये थे।

(3) औरंगजेब की गैरमुसलमान प्रजा सम्राट के विरुद्ध हो गई। वह इस साम्राज्य के पतन का इन्तजार करने लगी।

(4) औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की नीति ने मुगल साम्राज्य के भाग्य का निर्णय कर दिया। इस कारण मुगल साम्राज्य के विरोधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती चली गई। देश में अशान्ति और अव्यवस्था ने भयंकर रूप धारण कर लिया सभ्यता और संस्कृति का प्रवाह बन्द हो गया।

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निष्कर्ष

वस्तुतः औरंगजेब की धार्मिक नीति ने मुगल साम्राज्य की जड़ें खोखली कर दी। उसकी नीति मुगल साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण थी। उसकी दक्षिण नीति एवं राजपत नीति भी उसकी धार्मिक नीति से प्रभावित थी। वास्तव में उसकी कोई भी नीति समाज के हितकर साबित नहीं सिद्ध हुई।

औरंगजेब की राजपूत नीति-

औरंगनजेब ने राजपूतों के प्रति अनुदार नीति अपनायी, जिसके फलस्वरूप राजपूतोें में असन्तोष और विद्रोह की भावनाओं का विकास हुआ। संक्षेप में औरंगजेब की नीति इस प्रकार थी-

(1) राठौर राजपूतों के प्रति नीति

(2) अकबर का विद्रोह-

इसी बीच औरंगजेब का पुत्र शहजादा अकबर विद्रोह करके राजपूतों से आकर मिल गया। पर औरंगजेब न कूटनीति से काम लेकर अकबर और राजपूतों के बन्धनों को तोड़ दिया। अन्त में राजपूतों को औरंगजेब की कूटनीति का पता चल गया। और दुर्गादास ने अकबर को मराठा सरदार शम्भाजी के पास पहुँचा दिया।

(3)मेवाड़ के प्रति नीति-

अजीतसिंह के उत्तराधिकारी के प्रश्न पर मेवाड़ के राणा राजसिंह मुगलों के शत्रु बन गये। 1679 ई0 में उन्होंने मुगलों से पराजित होने के बाद उनसे छापामार लड़ाई जारी रखी। राणा राजसिंह की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी जगतसिंह ने औरंगजेब से सन्धि कर ली। पर राठौर राजपूत इस सन्धि से सन्तुष्ट नहीं थे। अतः 1698 ई0 तक मुगलों और राजपूतों के मध्य युद्ध चलता रहा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद राठौर राजपूतों ने सम्पूर्ण मारवाड़ पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने अजीतसिंह के साथ सन्दि कर ली और उसे जोधपुर का स्वतन्त्र शासक स्वीकार कर लिया।

औरंगजेब की राजपूत नीति के परिणाम

औरंगजेब की राजपूत नीति के परिणाम मुगल साम्राज्य के लिये हितकर नहीं सिद्ध हुए। मारवाड़ और मेवाड़ के साथ लम्बे युद्ध के कारण मुगल सेना दुर्बल हो गई और। मुगल प्रशासन को काफी क्षति उठानी पड़ी। सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि वीर। स्वामिभक्त और साहसी राजपूतों की सेवाओं से मगल साम्राज्य वंचित हो गया।

औरंगजेब की दक्षिण-नीति का वर्णन

औरंगजेब की दक्षिण-नीति 25 वर्ष तक उत्तर भारत की राजनीतिक समस्याओं में उलझे रहने के बाद जब औरंगजेब को अवकाश मिला तो उसने दक्षिणी राज्यों की ओर ध्यान दिया। दक्षिण के प्रद्रो प्रमुख राज्यों बीजापूर, गोलकुण्डा तथा मराठों की शक्ति का अन्त करना ही औरंगजेब की दक्षिणी-नीति का उद्देश्य था

बीजापुर-

गोलकुण्डा-

गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के अनेक कारण थे। सुल्तान अत्याचारी, सुरासेवी तथा शिया सम्प्रदाय का अनुयायी था। दूसरी ओर उसने मराठों पास मित्रता कर ली थी। अतः 1687 ई० में औरंगजेब स्वयं गोलकुण्डा पहुँचा और वहाँ के । या? दुर्ग को घेर लिया। लगभग आठ मास तक घेरा चलता रहा। अन्त में औरंगजेब ने  अब्दुल गनी नामक एक नौकर को रिश्वत देकर दुर्ग का फाटक खुलवा लिया। गोलकुण्डा के टुर्ग पर शीघ्र ही मुगलों का अधिकार हो गया। अबुल हसन को पेंशन दे । दी गई और उसका राज्य मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार औरंगजेब ने। दक्षिण के दोनों शिया राज्यों का अन्त कर दिया और उन्हें मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

मराठे-

औरंगजेब घोर साम्राज्यवादी था। वह एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना चाहता था । पर दक्षिण में मराठों को पराजित किये बिना. उसकी यह ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकती थी। अतः औरंगजेब ने मराठों से युद्ध छेड़ दिया।

शिवाजी तथा औरंगजेब

अब तक शिवाजी की शक्ति और साधन काफी बढ़ गये थे। अब तक उन्होंने मुगल साम्राज्य पर धावे बोलने शुरू कर दिये। औरंगजेब ने अपने मामा शाईस्ता खाँ तथा राजा। जसवन्तसिंह जैसे विश्वास-पात्र अधिकारियों को शिवाजी के दमन के लिए भेजा, परन्तु वे असफल रहे। सन् 1664 ई० में शिवाजी ने सरत के समद्धिशाली नगर को लुटा । इस पर । औरंगजेब ने राजा जयसिंह तथा दिलेरखाँ को दक्षिण भेजा। जयसिंह ने शिवाजी को संधि करने के लिए बाध्य किया तथा उन्हें आगरा जाने के लिए राजी कर लिया। जब शिवाजी तथा उनके पुत्र मुगल दरबार में पहुँचे तो वे कैद कर लिये गये। पर वे दोनों अपनी चालाकी से बच निकले। दक्षिण पहुँचकर उन्होंने मगलों से अपने सब किले छीन लिये औरंगजेब ने शिवाजी को परास्त करने के लिए भरसक प्रयल किया। पर शिवाजी के जीवित रहते हुए वह मराठों पर विजय प्राप्त न कर सका। सन् 1680 ई० में शिवाजी की मृत्यु होने के बाद भी उसके उत्तराधिकारी शम्भाजी, राजाराम तथा ताराबाई के साथ औरंगजेब का युद्ध चलता रहा।

शम्भाजी तथा औरंगजेब-

शाहजादा अकबर ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और दक्षिण में अम्भाजी के यहाँ शरण ली। अतः औरंगजेब ने शाहजादा आलम और मोअज्जम को शम्भाजी के विरुद्ध भेजा। सन् 1689 ई० में शम्भाजी को परास्त कर कैद कर लिया गया। अन्त में उसका वध कर दिया गया  अब रामगढ़ भी मुगलों के अधिकार में आ गया।

राजाराम और औरंगजेब-

शम्भाजी के मरने के बाद शिवाजी का दूसरा पुत्र राजाराम गद्दी पर बैठा। उसने औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। औरंगजेब ने इसे भी कैद करने के लिए उस पर आक्रमण किया।

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ताराबाई और औरंगजेब-

राजाराम की मृत्यु के बाद उसकी पत्नि ने अपनें पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया। ताराबाई बड़ी योग्य और वीर औरत थी। उसने शासन का काम अपने हाथ में ले लिया और मुगलों से युद्ध जारी रखा । औरंगजेब मराठों में फूट डालने का बहुत प्रयत्ल किया पर ताराबाई के सामने उसकी एक न चली इस तरह औरंगजेब अपने जीवन में मराठों पर विजया-पताका न फहरा सका।

औरंगजेब की दक्षिणी-नीति के परिणाम

(1) गोलकण्डा तथा बीजापुर के राज्यों को मुगल साम्राज्य में मिला लेने में औरंगजेब के साम्राज्य की सीमा इतनी विस्तृत हो गई कि सम्राट को राजधानी में रहकर शासन-कार्य चलाना कठिन हो गया।

(2) बहुत समय तक दक्षिणी युद्धों में स्वयं लगे रहने के कारण उत्तरी भारत की शासन-व्यवस्था शिथिल पड़ गई। सिक्खों और जाटों ने विद्रोह करना आरम्भ कर दिया।

(3) बहुत दिनों तक दक्षिण में युद्ध करते रहने से मुगलों को धन-जन की बहुत अधिक क्षति उठानी पड़ी।

(4) बीजापुर तथा गोलकुण्डा की शक्ति का अहोने के कारण मराठों को दक्षिणी शक्तियों का कोई भय नहीं रहा और वे स्वतंत्र रूप से दक्षिण में अपनी शक्ति का सृजन करने तथा उपद्रव मचाने लगे।

(5) साम्राज्य आर्थिक स्थिति खराब हो जाने के कारण सैनिकों को समय पर वेतन नहीं मिलता जिससे उनमें असंतोष की आग फैल गई। इसके कारण मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा गिर गई।

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि “दक्षिण की समस्या औरंगजेब के लिए नामा समान घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब अपने जीवन के अन्त तक दक्षिण की समस्याओं ही लगा रहा, किन्तु वह उन्हें सुलझा न सका। दक्कन के फोड़े ने औरंगजेब नेस्तनाबंद कर दिया।” स्मिथ ने उसकी दक्षिण नीति की समीक्षा करते हुए लिखा है-“दक्षिण उसकी प्रतिष्ठा एवं उसके शरीर दोनों की समाधि सिद्ध हुआ। यह उसके शरीर की ही नहीं, अपितु उसके साम्राज्य की भी समाधि साबित हुआ।

मुगल साम्राज्य के पतन के लिए औरंगजेब कहाँ तक उत्तरदायी था?

उत्थान और पतन प्रकति का शाश्वत नियम है। मुगल साम्राज्य के गौरव की कदर हमारे लिए विस्मयकारी है। उसके पतन की कहानी भी कम शिक्षाप्रद नहीं है। मगर साम्राज्य का पतन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। इसके पतन के निम्नलिखित कारण थे-

(1) औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी-

मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर जद तक योग्य और प्रभावशाली रट बैठते रहे, साम्राज्य की प्रतिष्ठा और शक्ति बनी रही

(2) अमीरों का चारित्रिक पतन-

दरबार के अमीरों का चरित्र बहुत गिर गया। विलासी जीवन के शिकार बन गये थे। उनकी स्वार्थपरता एवं षडयन्त्रों के कारण था? साम्राज्य की नींव खोखली हो गई थी।

(3) उत्तराधिकार के नियम का अभाव-

मुगलों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था, जिससे अनेक बार साम्राज्य की सैनिक शक्ति का उत्तराधिकार के प्रक्ष पर दुरुपयोग किया गया।

(4) औरंगजेब की दक्षिण नीति के दुष्परिणाम-

औरंगजेब के दीर्घकालीन दक्षिण युद्ध मुगल साम्राज्य के लिए अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हआ। औरंगजेब ने 25 वर्ष तक मराठों से संघर्ष किया जिससे सरकार दिवालिया हो गई और जिससे बुरा परिणाम समय की सैनिक शक्ति पर भी पड़ा।

(5) औरंगजेब की पक्षपातपूर्ण धार्मिक नीति-

औरंगजेब की संकीर्ण धार्मिक नीति राज्य के लिए अहितकर सिद्ध हुई। धार्मिक अत्याचारों ने उसकी जनता को बहुत क्षोभ  हआ। जाटों, सतनामियों, राजपूतों तथा सिक्खों के विद्रोह औरंगजेब की असहिष्णुता की नीति के कारण ही हुए थे। इन विद्रोहों के दमन करने में साम्राज्य की सैनिक और आर्थिक शक्ति को धक्का लगा, उसके कारण साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया अधिक क्षिप्र और बलवती हो गई।

(6)जागीर प्रथा का पुनप्रचलन-

सम्राट अकबर ने जागीर प्रथा का उन्मूलन करके किसानों से सम्राट का सीधा सम्बन्ध जोड़ दिया था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों ने जागीर प्रथा चला कर जागीरदारों की शक्ति को बढ़ा दिया। जागीरदारों की शक्ति मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बन गई।

(7) रिक्त राज्य-कोष-

औरंगजेब ने दक्षिण के युद्धों में पानी के समान पैसा दाया जिसके कारण शाहजहाँ के शासन-काल की एकत्रित धनराशि समाप्त हो गई। ओर उसके उत्तराधिकारियों को बड़ी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जनता करों के कारण परेशान हो गई और उसने राज्य में परिवर्तन चाहा, जिसके कारण मुगल  राज्य का शीघ्र ही पतन होने लगा।

(8) सैनिक संगठन की कमजोरी-

मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण इसके दोषपूर्ण सैन्य संगठन में सन्निहित था। मगल सम्राटों के पास स्थायी सेना अधिक नहीं थी। अपनी सैन्य शक्ति के लिए वे मनसबदारों की सेना पर निर्भर रहा करते थे जो अवसर मिलने पर सम्राट को धोखा देने में न चकते थे। इसके अतिरिक्त सैनिकों की विलासिता और आराम-पसन्दगी ने भी सेना को कमजोर बना दिया।

(9) मराठों का उत्कर्ष-

मुगल साम्राज्य के पतन का एक कारण मराठों का उत्कर्ष भी था । जैसे-जैसे मराठा-शक्ति की उन्नति हुई वैसे-वैसे मुगल शक्ति का ह्रास होता गया। दक्षिण में शिवाजी तथा उसके उत्तराधिकारियों से मुगलों के युद्ध होते रहे । मराठों ने मुगलों के अनेक प्रदेश जीत लिये !

(10) विदेशी आक्रमण-

अहमद शाह अब्दाली एवं नादिरशाह जैसे व्यक्तियों के आक्रमणों ने जर्जरित मुगल साम्राज्य की रीढ़ को तोड़ दिया। अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारियों ने भी राजनीति में हस्तक्षेप करके मुगल साम्राज्य की कमजोर बना दिया।

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