प्रायोजना नीति (PROJECT STRATEGY)
जॉन डीवी (John Dewey) के शिष्य किलपैट्रिक (W.H. Kilpatric) ने प्रायोजना नीति विधि को जन्म दिया। उनके अनुसार “प्रायोजना वह क्रिया है जिसमें पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।” स्टीवेंसन (Prof. Stevenson) ने प्रायोजना को एक समस्यामूलक कार्य बताया, जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्णता प्राप्त करता है।
इस विधि में छात्रों के समक्ष एक समस्या प्रस्तुत की जाती है और छात्र उसका हल निका लगे रहते हैं। इसमें छात्र अपनी रुचि व इच्छा के अनुसार कार्य करता है।
प्रायोजना नीति के सिद्धान्त
(1) सोद्देश्यता का सिद्धान्त (Purposiveness),
(2) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Activity),
(3) वास्तविकता का सिद्धान्त (Reality),
(4) उपयोगिता का सिद्धान्त (Utility),
(5) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Freedom),
(6) सामाजिक विकास का सिद्धान्त (Social Development)|
प्रत्येक प्रायोजना के नियोजन एवं नियमन करने के लिए इन सिद्धान्तों पर विशेष रूप से दिया जाता है।
प्रायोजना नीति के पद (Steps of Project Strategy)
प्रत्येक प्रायोजना को निम्नांकित भागों में बाँटा जाता है
(1) प्रायोजना का चयन- शिक्षक को ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना चाहिये जिसमें छात्र स्वयं योजनाएँ बनाने लगे। इस प्रकार से छात्रों द्वारा प्राप्त विभिन्न प्रायोजनाओं पर स्वतन्त्रतापूर्वक छात्र एवं शिक्षक मिलकर विचार-विमर्श करें। जहाँ तक हो सके छात्रों को स्वयं ही प्रायोजना के चयन का अवसर मिलना चाहिये। शिक्षक को आवश्यकतानुसार चयन की प्रक्रिया में परामर्श देना चाहिये।
(2) रूपरेखा तैयार करना- प्रायोजना के चयन के पश्चात् उसे पूर्ण करने के लिए कार्यक्रम बनाना चाहिये। कार्यक्रम के निर्धारण में छात्रों को विचार-विमर्श के लिए पूर्ण छूट होनी चाहिये। निश्चित रूपरेखा तैयार होने पर विभिन्न उत्तदायित्व सभी छात्रों में उनकी योग्यतानुसार बाँट देने चाहिये और इस सबका आलेख करना चाहिये। जैसे विद्यालय को सुन्दर बनाने की प्रायोजना के लिए भूमि की नाप, वाटिका का आकार, लगाये जाने वाले पौधों के नाम, पौधे व बीज मँगाने का प्रबन्ध तथा आवश्यक उपकरणों आदि पर भलीभाँति वार्तालाप करके विभिन्न उत्तरदायित्व छात्रों के समूह में बाँट देने चाहिये।
(3) कार्यक्रम का क्रियान्वयन- कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के बाद प्रायोजना के अन्तर्गत कार्य प्रारंभ हो जाता है। जिन छात्रों को जो उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं, वे पूरे करना शुरू कर देते हैं। छात्रों को अपने उत्तरदायित्व पूरे करने के लिए विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है। इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है। शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहन देता है, उनके कार्यों का निरीक्षण करता है और योजना में आवश्यकतानुसार संशोधन भी कर सकता है।
(4) मूल्यांकन- योजनापूर्ण होने के बाद शिक्षक एवं छात्र मिलकर मूल्यांकन करते हैं। प्रायोजना के उद्देश्य के आधार पर प्रायोजना की सफलता तथा असफलता पर विचार किया जाता है। समय-समय पर छात्र अपने-अपने कार्य पर विचार करते हैं, की गयी गलतियों को ठीक करते हैं और उपयोगी ज्ञान की पुनरावृत्ति करते हैं।
प्रायोजना नीति के प्रकार
शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की प्रायोजनाएँ बनाकर छात्रों को सक्रिय ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। ये प्रायोजनाएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं-
(1) निर्माण सम्बन्धी प्रायोजना- जैसे विद्यालय में वाटिका, संग्रहालय, एक्वेरियम, टेरेरियम, वाइवेरियम, यन्त्रों आदि के निर्माण सम्बन्धी प्रायोजनाएँ।
(2) निरीक्षण सम्बन्धी प्रायोजना- इसमें पर्यटन आदि के माध्यम से विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, कीट, पतंगे, जलवाय, वनस्पति, पूष्पों आदि की विशिष्ट विशेषताओं के निरीक्षण के लिए प्रायोजनाएँ बनाई जा सकती हैं।
(3) उपभोक्ता प्रायोजना-जैसे कृषि, बागवानी आदि।
(4) संग्रह सम्बन्धी प्रायोजना- जैसे विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, पक्षी, पीधे, चित्र, मॉडल आदि के संग्रह सम्बन्धी प्रायोजनाएँ।
(5) पहचान सम्बन्धी प्रायोजना- जैसे फल, फूल, बीज, जड़, जीव-जन्तु के वर्ग एवं श्रेणी सम्बन्धी प्रायोजनाएँ।
(6) शल्यकार्य सम्बन्धी प्रायोजना- जैसे जीव-जन्तु, जड़-तना, फूल, फल आदि को काटकर उनके आन्तरिक अंगों के अध्ययन सम्बन्धी प्रायोजनाएँ।
(7) समस्यात्मक प्रायोजना-जैसे आहार में सुधार, स्वास्थ्य में सुधार आदि।
प्रायोजना नीति की विशेषताएँ
(1) छात्र स्वयं चिन्तन करके, पढ़ते हैं और कार्य करते हैं।
(2) छात्र पूरी योजना में सक्रिय रहता है।
(3) इसमें शारीरिक एवं मानसिक, दोनों प्रकार के ही कार्य छात्रों को करने पड़ते है फलस्वरूप श्रम के प्रति निष्ठा उनमें जाग्रत होती है।
(4) छात्र अपने उत्तरदायित्वों को समझता है एवं पूरा करता है।
(5) छात्रों में धैर्य, सन्तोष तथा आत्म-सन्तुष्टि के भाव जाग्रत होते हैं।
(6) यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
(7) यह स्वयं करके सीखने’ पर आधारित है।
(8) विभिन्न विषयों में सहयोग स्थापित होता है।
(9) प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।
प्रायोजना नीति के दोष (Demerits)
(1) यह कक्षा शिक्षण में अधिक समय लेती है।
(2) ज्ञान क्रमबद्ध तरीके से प्राप्त नहीं होता।
(3) निश्चित पाठ्यक्रम इस नीति से पूरा करना कठिन है।
(4) शिक्षक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है।
(5) अधिक व्ययसाध्य है।
(6) अनुभवहीन शिक्षकों के लिए कठिनाइयाँ पैदा करने वाली है।
(7) वास्तविक सिद्धान्तों का सही ज्ञान नहीं होता।
प्रायोजना नीति के सुझाव
(1) प्रायोजना का निश्चित उद्देश्य होना चाहिये।
(2) प्रायोजना में सभी छात्रों को यथायोग्य उत्तरदायित्व देने चाहिये।
(3) प्रत्येक आँकड़े का लिखित आलेख अवश्य होना चाहिये।
(4) छात्रों को विचार-विमर्श की खुली छूट अवश्य होनी चाहिये।
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