मापन एवं मूल्यांकन

मापन एवं मूल्यांकन का अर्थ एवं परिभाषा | मापन तथा मूल्यांकन में अन्तर | Measurement & Evaluation in Hindi

मापन एवं मूल्यांकन (Measurement & Evaluation)

शिक्षा के क्षेत्र में मापन एवं मूल्यांकन की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। जबकि तत्कालीन शिक्षण का उद्देश्य परीक्षा पास करना मात्र ही नहीं था, अपितु विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना था; अत: गुरु अपने शिष्य के प्राप्त ज्ञान का मूल्यांकन करने के लिए शास्त्रार्थ (तर्क-वितर्क), चर्चा, संवाद, वाद-विवाद आदि किया करते थे। जब कोई छात्र विद्या प्राप्ति के लिए किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहता था तो सर्वप्रथम द्वार पंडित उसके अर्जित ज्ञान का मूल्यांकन करता था। मूल्यांकनोपरान्त उसे प्रवेश दिया जाता था। यम-नचिकेता संवाद, यक्ष-युधिष्ठिर संवाद आदि जाँच अथवा परीक्षा के ही उदाहरण हैं। यूनान में सुकरात भी अपने शिष्यों की परीक्षा हेतु प्रश्नों को पूछते थे, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है। मनोविज्ञान में मापन आन्दोलन और उसका विस्तार मुख्यत: तीन धाराओं से मिलकर हुआ।

ये तीन धाराएँ इस प्रकार हैं-

(अ) उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मनी में विकसित होने वाला दैहिक तथा प्रयोगात्मक मनोविज्ञान।

(ब) डार्विन का जीव विज्ञान।

(स) असमायोजित तथा विसामान्य व्यक्तियों के उपचार हेतु किए जाने वाले प्रयास जिनका प्रारम्भ फ्रांस में हुआ।

 

आधुनिक युग में इनकी अत्यधिक उपयोगिता अनुभव की जा रही है, क्योंकि आज शिक्षा के क्षेत्र में संख्यात्मक वृद्धि तो हुई है परन्तु उसी अनुपात में गुणात्मक वृद्धि नहीं हई है। परिणामस्वरूप वर्तमान शिक्षा पद्धति की आलोचना की जाती है। विभिन्न आयोगों एवं नीतियों के निर्धारण के बाद भी नीति निर्माण व क्रियान्वयन में अन्तर के कारण स्थिति में बहत परिवर्तन नहीं आया है। आदर्श शैक्षिक लक्ष्यों के निर्धारण के बाद भी स्तर में निरन्तर गिरावट का कारण हमारी दोषपूर्ण मूल्यांकन पद्धति है जिसकी व्यापकता को हमने परीक्षा शब्द तक केन्द्रित कर दिया है। उचित मूल्यांकन के अभाव में शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की गई समस्त क्रियाएँ मूल्यहीन बन जाती हैं, क्योंकि मूल्यांकन में सफलताओं, विफलताओं, कठिनाइयों आदि का यथेष्ट रूप से निर्धारण हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप हम भविष्य के लिए सतर्क हो जाते हैं अर्थात् मूल्यांकन के माध्यम से ही ज्ञात होता है कि शिक्षा के लक्ष्यों तक पहुँच पा रहे हैं अथवा नहीं। साधारण अर्थों में कहा जा सकता है कि किसी वस्तु, उपलब्धि, प्रक्रिया आदि का मूल्य अंकित करना मूल्यांकन है।

 

 

 

मापन (Measurement)-

मापन का जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। किसी वस्तु की मात्रा ज्ञात करनी हो, किसी स्थान की दूरी ज्ञात करनी हो, किसी मशीन की गति ज्ञात करनी हो तो सभी के लिए हमें मापन की आवश्यकता पड़ती है, जिसे भौतिक मापन कहते हैं। शिक्षा एवं मनोविज्ञान में हमें जिस मापन की आवश्यकता होती है वह ‘मानसिक मापन’ कहलाता है।

मापन विद्यार्थी की सम्प्राप्ति और उसके विकास को निश्चित करने का कार्य है। इसके अन्तर्गत किसी गण के सम्बन्ध में किसी उपयुक्त पैमाने के आधार पर तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

 

 

मापन की परिभाषाएँ

मापन के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से कुछ विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार है-

1.थॉर्नडाइक के अनुसार- “जिस वस्तु का भी अस्तित्व है, उसका किसी न किसी मात्रा में अस्तित्व होता है और जो कर भी किसी मात्रा में उपस्थित है, उसे मापा जा सकता है।”

2. करलिंगर के अनुसार- “मापन नियमानुसार वस्तुओं या घटनाओं को संख्या प्रदान करता है।”

3. वेस्ले के अनुसार- “मापन मूल्यांकन का वह भाग है जो प्रतिशत, मात्रा, अंक, मध्यमान तथा औसत आदि के द्वारा व्यक्त किया जाता है।”

4. शिक्षा के विश्वकोष तथा निर्देशिका में वर्णित- ‘मापन शैक्षिक क्रियाओं, अभ्यास एवं उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जैसे-उत्तरों को अंक प्रदान करना, मापनी प्रदर्शन और व्यक्तित्व मापन एवं अन्य प्रकार के परीक्षण जो विद्यालयों में प्रचलित समापन शिक्षण, प्रशासन, शोध एवं शैक्षणिक व्यावसायिक निर्देशन में सहायक होते हैं। मापन प्रत्यक्ष भी हो सकते हैं, जैसे लम्बाई-चौडाई का मापन करना तथा मापन अप्रत्यक्ष भी हो सकते हैं, जैसे बुद्धिमापन या वास्तविक अधिगम का परीक्षण करने की योग्यता।”

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वास्तव में मापन वह प्रक्रिया है जिससे चर राशि को परिमाण में बदल लिया।

सामान्य रूप में मापन प्रक्रिया के तीन कार्य होते हैं-

(1) किसी वस्तु के गुण या चर की पहचान कर उसे परिभाषित करना।

(2) गुण या चर को अभिव्यक्ति करने वाली क्रियाओं या व्यवहारों का निर्धारण करना।

(3)व्यवहारगत परिवर्तनों के निरीक्षणों को परिमाण या प्राप्तांक में बदलने की प्रक्रिया का प्रतिपादन करना।

मापन के द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु का मापन नहीं होता है, अपितु उसके गुण विरोष का मापन किया जाता है । सभी चरों को व्यापक रूप से चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

 

मापन के चर

 

 

 

मूल्यांकन (Evaluation)

शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन का अर्थ पाठ्यक्रम के उद्देश्यों और मूल्यों की ओर छात्रों की प्रकृति और प्रगति का आकलन करना है। मूल्यांकन द्वारा ही छात्रों की विषयगत कठिनाइयों का पता चलता है। उसने कितनी योग्यता अर्जित की है? ज्ञान, कौशल, अभिरुचि एवं अभिवृत्ति की दृष्टि से उसकी क्या प्रगति हुई है? भावी शिक्षा के लिए क्या आधारभूमि तैयार हुई है? और इन सबके फलस्वरूप उसमें क्या व्यावहारिक परिवर्तन परिलक्षित होते हैं? इन सब प्रश्नों के उत्तर ज्ञात करने हेतु मूल्यांकन की यह प्रक्रिया सतत् चलती रहती है।

 

मूल्यांकन की परिभाषाएँ

कोलिन्स कोबिल्ड इंग्लिश लेंगवेज डिक्शनरी में मूल्यांकन को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-

“मूल्यांकन किसी भी कार्य प्रणाली में प्रयुक्त वह विधा है, जिसके द्वारा समस्त कार्य की अन्तिम स्थिति की गुण-अवगुण के आधार पर जानकारी मिलती हो।”

 

क्लार एवं स्टार के विचार- “मूल्यांकन वह निर्णय या विश्लेषण है जो विद्यार्थी के कार्य से प्राप्त सचनाओं से निकाला जाता है।”

 

सी.सी. रॉस के विचार- “मापन से भिन्न मूल्यांकन ऐसी जाँच प्रक्रिया है जो प्रायः बच्चे के समूचे व्यक्तित्व तथा समूची शिक्षा स्थिति की जाँच के लिए प्रयुक्त होती है।”

 

जेम्स एम.ली.का विचार- “मूल्यांकन विद्यालय, कक्षा तथा स्वयं के द्वारा निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के सम्बन्ध में छात्र की प्रगति की जाँच है। मूल्यांकन का मुख्य प्रयोजन छात्रों की सीखने की प्रक्रिया को अग्रसर एवं निर्देशित करना है। इस प्रकार मूल्यांकन एक नकारात्मक प्रक्रिया न होकर सकारात्मक प्रक्रिया है।”

 

जे.डब्ल्यू. राईटस्टोन के अनुसार- “मूल्यांकन में व्यापक व्यक्तित्व से सम्बन्धित परिवर्तनों तथा शिक्षा कार्यक्रमों के मुख्य उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। इसमें केवल विषयवस्तु का मूल्यांकन ही सम्मिलित नहीं वरन् प्रवृत्तियों, रुचियों, आदर्शों, चिन्तन विधियों, काम की आदतों तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक समायोजन योग्यताओं का मूल्यांकन भी सम्मिलित है।”

 

स्टफलेशन एवं अन्य के अनुसार- “मूल्यांकन एक क्रिया अथवा प्रक्रिया है जो किसी मापन की वांछनीयता अथवा मान्यता को परखने के लिए उपलब्ध होती है। यह किन्हीं निर्णय विकल्पों को जाँचने के लिए उपयोगी जानकारी की रूपरेखा प्रस्तुत करने, प्राप्त करने और उपलब्ध कराये जाने की भी प्रक्रिया है।”

 

निष्कर्षत: मूल्यांकन एक ऐसी व्यापक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अधिगमकर्ता के न केवल ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष की जाँच की जाती है अपितु शिक्षक की एवं शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित सभी क्रियाओं, सामग्रियों के उचित उपयोग या सफलता की भी जाँच की जाती है।

इस सन्दर्भ में शिक्षा आयोग (1964-66) ने अपने प्रतिवेदन में मूल्यांकन की धारणा को इन शब्दों में व्यक्त किया है- “मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न अंग है। इससे छात्र की अध्ययन-आदतों तथा शिक्षक की शिक्षणपद्धति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। मूल्यांकन की प्रविधियाँ वांछित दिशाओं में छात्रों के विकास के समय में प्रमाण संग्रहीत करने का साधन हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर मूल्यांकन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट  होती हैं-

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मूल्यांकन की विशेषताएँ

(1) मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

(2) मूल्यांकन, परीक्षण का एक व्यापक सम्प्रत्यय है जिसमें मापन व परीक्षा दोनों का समावेश है।

(3) मूल्यांकन संख्यात्मक होने के साथ-साथ गुणात्मक भी होता है।

(4) मूल्यांकन का सम्बन्ध छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से होता है।

(5) मूल्यांकन कार्य के परिणाम की सफलता-असफलता की कसौटी होता है।

(6) मूल्यांकन एक सकारात्मक प्रक्रिया है।

(7) मूल्यांकन द्वारा शिक्षा को उद्देश्य केन्द्रित बनाया जाता है।

(8) मूल्यांकन अधिगम प्रक्रिया को अग्रसर एवं निर्देशित करता है।

(9) मूल्यांकन केवल निर्देश की उपलब्धि को ही नहीं जाँचता वरन् उसको उन्नत भी बनाता है।

(10) मूल्यांकन एक सामाजिक प्रक्रिया है। इसमें एक ओर जहाँ व्यक्तित्व के सभी पक्षों का मूल्यांकन किया जाता है वहीं दूसरी ओर इस बात की भी जाँच की जाती है कि शिक्षण का संचालन समाज की आवश्यकताओं, आदर्शों तथा मापदण्डों के अनुसार हुआ अथवा नहीं।

(11) मूल्यांकन एक सहकारी प्रक्रिया है इसमें छात्र, शिक्षक तथा अभिभावक आदि सभी स्रोतों का आवश्यक सहयोग प्राप्त करते हुए शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित आवश्यक सामग्री एकत्रित की जाती है। तत्पश्चात् उसकी प्रगति का मूल्यांकन किया जाता है।

(12) यह एक निर्णयात्मक प्रक्रिया है। इसके द्वारा ये निर्णय दिए जाते हैं

1. शैक्षिक उद्देश्यों के अनुसार शिक्षण किस सीमा तक सफल हुआ है।

2. शिक्षण प्रक्रिया के लिए आवश्यक क्रियाएँ एवं सामग्री उपयोगी हैं या नहीं।

3. बालकों में व्यवहारगत परिवर्तन किस सीमा तक हुए हैं।

4. बालकों के लिए कक्षा में दिए गए अधिगम अनुभव प्रभावोत्पादक रहे या नहीं।

 

 

परीक्षा, मापन तथा मूल्यांकन (Examination, Measurement & Evaluation)

परीक्षा विद्यार्थी के विकास से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र करने की विधि है जिसमें प्रश्न-पत्र जैसे यंत्र का प्रयोग किया जाता है। जिसका हम पठनोपरान्त निरीक्षण करते हैं।

इंग्लैण्ड में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सन् 1702 में पहली बार लिखित परीक्षा का प्रयोग हुआ। भारत में सन् 1854 में वुड-डिस्पैच की संस्तुति के आधार पर बम्बई, कलकत्ता और मद्रास तीन विश्वविद्यालयों में प्रवेश परीक्षा का प्रारम्भ किया गया।

1957-58 में अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्री एवं मूल्यांकन विशेषज्ञ डॉ.बी.एस. ब्लूम भारत आए और विद्यालयों का निरीक्षण, मूल्यांकन तथा कार्यगोष्ठियों का आयोजन किया और दस वर्षीय योजना बनाई, जिसके प्रमुख पक्ष निम्नलिखित थे.

(1) अधिगम उद्देश्य निर्धारित करना।

(2) संदर्भ व्यक्तियों को प्रशिक्षण देना।

(3) आंतरिक एवं बाह्य मूल्यांकन पद्धतियों का विकास करना।

 

सन् 1984 में मापन, मूल्यांकन, सर्वेक्षण तथा आँकड़ा विश्लेषण विभाग की स्थापना की गई।

 

परीक्षा, मापन एवं मूल्यांकन के मध्य सम्बन्ध-ग्रानलुंड ने तीनों के मध्य सम्बन्ध को निम्न रूप में व्यक्त किया है-

मूल्यांकन = मापन + मूल्य निर्णय

            अथवा

मूल्यांकन = परीक्षा + मापन

 

प्रथम चरण- परीक्षा या किसी अन्य तकनीक की सहायता से जानकारी एकत्रित करना।

द्वितीय चरण- इस जानकारी की गुणवत्ता का अंकों में वर्णन करना।

तृतीय चरण- इन अंकों का मूल्य निर्धारित करना और किसी संप्राप्ति या कौशल की सापेक्ष स्थिति के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालना।

 

परीक्षा, मापन एवं मूल्यांकन का सम्बन्ध निम्नलिखित रेखाचित्र द्वारा भी व्यक्त किया जा सकता है-

 

                            परीक्षा, मापन एवं मूल्यांकन का सम्बन्ध

परीक्षा-मापन एवं मूल्यांकन में सम्बन्ध

 

 

परीक्षा एवं मूल्यांकन में अन्तर

क्र.सं. परीक्षा मूल्यांकन


1

अन्तर्वस्तु की दृष्टि से-
परीक्षा शिक्षार्थियों की मात्र शैक्षणिक उपलब्धियों के निर्धारण तक ही सीमित होती हैं।
इसका क्षेत्र व्यापक होता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के विभिन्न पक्षों में अर्जित उपलब्धियों के मूल्य निर्धारण से है। इसका भावात्मक व क्रियात्मक पक्ष से भी सम्बन्ध होता है।
2 विधियों की दृष्टि से-
(1) लिखित परीक्षा
(2) मौखिक परीक्षा
(3) प्रायोगिक परीक्षा
इसमें विभिन्न विधियों एवं प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है, जैसे- स्तर माप, परख, साक्षात्कार, पर्यवेक्षण आदि।
3 उपयोग की दृष्टि से- परीक्षा का उपयोग विद्यालयों में क्रमोन्नति, वर्गीकरण आदि के लिए किया जाता है। मूल्यांकन का उपयोग शिक्षार्थियों की शैक्षणिक कमियों का निदान  करने, मार्गदर्शन करने और भविष्य का मार्ग निश्चित करने के लिए किया जाता है।
4 समय की दृष्टि से- परीक्षा निश्चित समय पर होती है। समय निश्चित नहीं। मूल्यांकन सत्र  पर्यन्त अनवरत रूप से चलता रहता है।
5 प्रकृति की दृष्टि से – यह स्थिर व स्थूल है। यह व्यापक व सतत् है।

 

 

मापन एवं मूल्यांकन में अंतर

मापन किसी भी संप्राप्ति तथा वस्तु की मात्रा बताता है किन्तु मात्रा का सापेक्ष मूल्य मूल्यांकन द्वारा ज्ञात होता है। राइटस्टोन (Wrightstone) के अनुसार, “मापन में पाठ्यवस्तु या विशेष कौशलों और योग्यताओं की उपलब्धि के एकांगी पक्षों पर बल दिया जाता है। जबकि मल्यांकन में व्यक्तित्व सम्बन्धी परिवर्तन एवं शैक्षिक कार्यक्रमों के मख्य उद्देश्यों पर बल दिया जाता है।”

इन दोनों के अन्तर को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-

 

 

अन्तर का आधार मापन मूल्यांकन
1. विशेषता मापन माप की संख्या को दर्शाता है। मूल्यांकन गुणवत्ता प्रदर्शित करता है।
2. प्रकृति यह एकांगी है। यह बहुमुखी है।
3. प्रक्रिया यह स्थिर व स्थूल प्रक्रिया है। 1.व्यापक एवं सतत् प्रक्रिया है।
4. क्षेत्र यह परम्परागत परीक्षण एवं परीक्षाओं तक ही सीमित है। सामान्य मापन के अतिरिक्त रुचियों-अभिरुचियों, अभिवृत्तियों आदि का भी मापन करता है।
5. कार्य 1. वर्गीकरण
2. चयन
3. तुलना
4. भविष्यवाणी करना
5. निदान
6. शोध
1. शैक्षिक उपलब्धि
2. कौशल
3. भौतिक विकास
4. मानसिक विकास
5. नैतिक विकास
6. सामाजिक विकास

 

इन सबके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मापन मूल्यांकन के अन्दर अन्तनिहित है और इसका मूल्यांकन में एक उपकरण के रूप में प्रयोग होता है।

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