समाजशास्त्र की आधुनिक प्रवृत्तियाँ | Modern Trends of Sociology in Hindi

समाजशास्त्र की आधुनिक प्रवृत्तियाँ | Modern Trends of Sociology in Hindi

आधुनिकतावाद(Modernism) की अवधारणा की विवेचना

बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कला के क्षेत्र में एक आन्दोलन हुआ, जिससे समाज में नवीन सांस्कृतिक मूल्यों का सूत्रपात हुआ। आधुनिकतावाद का जन्म एवं विकास प्राचीनवाद /  शास्त्रीयतावाद के विरोध में हुआ, जो नये-नये प्रयोगों पर बल देता है। आधुनिकतावाद का उद्देश्य सतही प्रदर्शन के पीछे जो आन्तरिक मूल्य निहित हैं, उसकी खोज करना है। आधुनिकतावादियों में जाॅयसी, प्राउस्ट, यीट्स आदि का नाम साहित्यिक क्षेत्र में और ईलियट एवं पाउण्ड का नाम काव्य के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है। आधुनिकतावादी अवधारणा भ्रमपूर्ण तथा अनिश्चित तत्वों की खोज करती हैं तथा बिना किसी लगाव के वास्तविकता की प्रकृति को समझाने पर बल देती है।

बीसवीं शताब्दी में समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रवृत्तियों में सर्वप्रमुख बात यह है कि समाजशास्त्र में सामाजिक स्वरूपों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन शुरू हो गया। अतः यह स्वीकार किया जाने लगा कि समाजशास्त्र मुख्य रूप से व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन करता है। व्यक्ति का समाज के साथ क्या सम्बन्ध है, इसको जानने के लिए सामुदायिक जीव का अध्ययन जरूरी है। समाजशास्त्र की आधुनिक प्रवृत्तियों के लिए सामुदायिक जीवन का अध्ययन जरूरी है।

 

समाजशास्त्र की आधुनिक प्रवृत्तियाँ

समाजशास्त्र की आधुनिक प्रवृत्तियों को निम्नलिखित शीर्षकों द्वारा प्रकट किया जा सकता है –

(1) विभिन्न समूहों का अध्ययन –

आधुनिक काल में ए. स्माल तथा सी. जे.  गैलीपन आदि विद्वानों ने गांव, नगर तथा अन्य प्राथामक समूहों के अध्ययन जानने की कोशिश की कि व्यक्ति का वृहत्तर समूह के साथ क्या सम्बन्ध है? इन्हीं समूहों की आधारशिला पर कूले ने मानव समूहों को प्राथमिक एवं द्वितीयक समूहों में विभाजित किया। आप का विचार था कि व्यक्ति पर द्वितीयक समूहों की अपेक्षा प्राथमिक समय प्रभाव अधिक होता है। इन्हीं अध्ययनों से प्रभावित होकर पार्क तथा बर्गेस समाजशास्त्रियों ने नगरों का जनसंख्यात्मक तथा संरचनात्मक अध्ययन करने का किया। इन्हीं को आधार बनाकर बाद में समूहों के आन्तरिक सम्बन्धों के मनोवैज्ञानिक स्वरूपों का अध्ययन प्रारम्भ किया गया। समाजमिति पद्धति का विकास इसी से हुआ।

(2) व्यक्ति और समहों के मनोवैज्ञानिक सम्बन्धों का अध्ययन –

उपरोक्त अध्ययनों के साथ-साथ विद्वानों ने यह अध्ययन भी प्रारम्भ कर दिया कि व्यक्ति तथा समूह अथवा समूह के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्धों का मनोवैज्ञानिक आधार क्या है? इन अध्ययनों से जी. टाई. तथा ई.ए. रॉस आदि विद्वानों ने निष्कर्ष दिया कि सामाजिक जीवन में अनुकरण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिक पक्षों के अध्ययन में थॉमस और नैनिकी ने मनोवृत्ति एवं मूल्यों पर विशेष जोर दिया है।

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(3) सामाजिक संरचना से सम्बन्धित अध्ययन –

समाजशास्त्र की इन्हीं प्रवृत्तियों के दौरान जार्ज स्मिथ एवं उनके अनुयायियों ने स्वरूपात्मक समाजशास्त्र को जन्म दिया तथा समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान की स्थिति प्रदान करने के लिए इस बात पर जोर दिया कि समाजशास्त्र को मात्र संबंधों के स्वरूपों का ही अध्ययन करना चाहिए। दूसरी तरफ मैक्सवेवर के काल तक जर्मनी में इस प्रकार के विद्वानों का एक वर्ग संगठित हो गया था जो इस बात में विश्वास रखता था कि सामाजिक घटनाओं पर प्राकृतिक पद्धति के अनुसार अध्ययन करना संभव नहीं है। इस बारे में मैक्सवेवर का विचार था कि तर्कसंगत रीति से सामाजिक घटनाओं के कार्य कारण संबंधों की तब तक स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती जब तक कि उन घटनाओं को पहले समानता के आधार पर कुछ सैद्धान्तिक श्रेणियों में विभाजित न कर लिया जाये। ऐसा कर लेने पर समाजशास्त्र को मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए यह कार्य अत्यन्त आवश्यक है।

उनका यह कथन उचित ही है क्योंकि सामाजिक घटनाओं का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत और जटिल है। कि समानताओं के आधार पर विचारपूर्वक तथा तर्कसंगत ढंग से कुछ वास्तविक घटनाओ तथा व्यक्तित्व का इस प्रकार चुनाव कर लिया जाये कि जो एक प्रकार की समस्त घटनाओं के लिए प्रतिनिधि का कार्य कर सके। इसके साथ ही मैक्सवेवर ने इस बात पर भी जोर दिया कि समाजशास्त्र का अध्ययन विषय कोई विशेष व्यक्ति या समूह नहीं बल्कि इनके द्वारा की जाने वाली सामाजिक क्रियायें हैं। पारसन्स मडार्क आदि विद्वानों ने संस्था सामाजिक व्यवस्था या सामाजिक संरचना आदि का अध्ययन विशेष रूप में किया। इस तरह यह सिद्ध होता है कि बीसवीं शताब्दी में सामाजिक परिवर्तन से संबंधित ही नहीं बल्कि सामाजिक संरचना से भी संबंधित अध्ययन की ओर समाजशास्त्रियों की विशेष रूचि उत्पन्न हो गयी थी।

(4.) सभ्यता की उत्पत्ति या विकास प्रकति पर निर्भर है-

वर्ष 1947 के आसपास टायनबी ने अपने नवीन सिद्धान्त को प्रस्तुत किया और कहा कि सभ्यता की उत्पत्ति या विकास प्रकृति की चुनौतियों से संघर्ष के परिमाणों का काल है। आपने भारत मिस्र एवं चीन आदि की सभ्यताओं का उद्धरण देते हुए कहा कि प्रकृति जब मनुष्य को चुनौती देती है तो उसे उसका  सामना करने के लिए तैयार होना पड़ता है। इसमें वह कुछ प्रयत्न करता है तथा उस प्रयत्न के परिणामस्वरूप वह कुछ प्राप्त करता है। जिसमें सभ्यता का निर्माण होता है। टायनबी ने इसी के साथ यह भी कहा कि इस प्रकार की चुनौतियां केवल भौगोलिक हो यह आवश्यक नहीं।

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ये सामाजिक एवं प्राणीशास्त्रीय भी हो सकती है। किन्तु इनमें प्राकृतिक चुनौतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं | टायनबी के इन विचारों से यह धारणा स्पष्ट होती है कि प्रतिकूल पर्यावरण की बाधायें या चुनौतियाँ ऐतिहासिक सुविधायें या वरदान की तरह हैं तथा जो व्यक्ति  इन पर विजय पा लेते हैं वे ही सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं।

(5) सांस्कृतिक गतिशीलता के सिद्धान्त का उद्भव –

आधुनिककाल के समाजशास्त्रियों में पिटरिम सोरोकिन का नाम भी अत्यन्त लोकप्रिय है। आपने सांस्कृतिक  गतिशीलता के सिद्धान्त को खोजा तथा कहा कि समाजशास्त्र सभी तरह की सामाजिक घटनाओं की सामान्य विशेषताओं और उनके पारस्परिक संबंधों और सह-सम्बन्धों का विज्ञान है। कोई समाजशास्त्री इसे स्वीकार करे अथवा न स्वीकार करे, किन्तु यही समाजशास्त्र की वास्तविक अध्ययन वस्तु है। समाजशास्त्र के आधुनिक विकास में जिन समाजशास्त्रियों ने अपना सहयोग दिया है, उनमें टालकॉट ,पारसन्स पिटरिम सोरोकिन, राबर्ट के मर्टन आदि प्रमुख हैं।

उपरोक्त संक्षिप्त विषयों के द्वारा समाजशास्त्र की उत्पत्ति, विकास एवं आधुनिक प्रवृत्तियों के प्रत्येक पक्ष को प्रकट कर पाना संभव नहीं है। किन्तु इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि समाजशास्त्र विकास के पथ पर अपनी बात शुरू कर चुका है जिसमें नये सिद्धान्तों एवं दृष्टिकोणों का सतत विकास शुरु हो रहा है। वर्तमान समय में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का विशेष रूप से संरचनात्मक तथा संस्थात्मक पक्षों का अध्ययन विशेष उत्साह के साथ किया जा रहा है।

समाज गतिशील है इस सत्य को वर्तमान समय में स्वीकार ही नहीं किया गया है, अपितु उसकी गतिशीलता के अन्तर्निहित कारणों को भी जानने की कोशिश हो रही है। इसी के साथ इन कारणों के पार्श्व में क्रियाशील सामाजिक आदर्शों, मनोवृत्तियों मूल्यों का मूल्यांकन करने तथा इनके मनोवैज्ञानिक आधारों को ज्ञात करने के प्रयास भी जारी है।

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