अभिप्रेरणा के कारक/घटक

अभिप्रेरणा के कारक/घटक- आवश्यकताएँ, पुरस्कार एवं दण्ड, आदतें | Factors Of Motivation in Hindi

अभिप्रेरणा के कारक/घटक(MAIN FACTORS OF MOTIVATION)

कक्षा में अभिप्रेरणा किस प्रकार प्रभावशाली कार्य करती रही है, इसका निर्णय अनेक प्रभावक कारक करते हैं। कक्षा में अभिप्रेरणा पर कई बातें प्रभाव डालती हैं। अभिप्रेरणा के कारक/तत्त्व इस प्रकार हैं-

(1) आवश्यकताएँ (Needs)-आवश्यकता आविष्कार की जननी है। बालकों की ही नहीं, बड़ों की भी यह प्रवृत्ति होती है। वे आवश्यकता के वशीभूत होकर ही कार्य करते हैं। अध्यापक को चाहिए कि बच्चों को पाठ्य-सामग्री की आवश्यकता अनुभव कराई जाये।

(2) अभिवृत्ति (Attitude)-अभिप्रेरणा बालकों में अभिवृत्ति का विकास करने में सहायता देती है। बालकों में अभिवृत्ति का विकास होने से वे कार्य को अच्छी तरह करते हैं।

(3) रुचि (Interest)-जिस पाठ या कार्य में बालक की रुचि होती है, उसे वह तुरन्त सीख लेते हैं। अध्यापक को चाहिये कि वह ऐसी सहायक सामग्री पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिये अपनाये जिससे बालक पाठ में रुचि लें।

(4) आदतें (Habit)-बच्चों की आदतें नये ज्ञान को विकसित करने में सहायक होती है। नया ज्ञान, पूर्व ज्ञान पर आधारित होने पर पाठ के विकास में सहायक होता है।

(5) संवेगात्मक (Emotional) स्थिति-अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों की संवेगात्मक स्थिति का पूरा-पूरा ध्यान रखे। इस बात का ध्यान उसे अवश्य रखना चाहिये कि जो ज्ञान बालक को दिया जा रहा है, उसके प्रति बालक को घृणा न हो, प्रेम हो। सीखे जाने वाले ज्ञान के प्रति बालक का संवेगात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो निश्चय ही वह अभिप्रेरणा प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करेगा।।

(6) आकांक्षा (Expectations)-अभिप्रेरणा का प्रमुख प्रतिकारक है आकांक्षा करना। अच्छे अध्यापक यह बताते हैं कि वे छात्रों को यह कहकर अभिप्रेरित करते हैं कि वे उनसे अच्छे स्तर के कार्य की अपेक्षा करते हैं। ऐसे अध्यापक गृह कार्य, प्रश्न पूछने, रोचक सूचना देने के माध्यम से छात्रों को अभिप्रेरित करते है। छात्रों को उनकी क्षमता के अनुसार मार्ग-प्रदर्शन दिया जाता है। ऐसे अध्यापक आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार से अभिप्रेरकों का लाभ उठाते हैं।

(7) अध्यापक की अभिप्रेरक भूमिका-अभिप्रेरणा का लाभ उठाने में अध्यापक की प्रेरणा प्रमुख है। उत्तम शिक्षण विधियों का विनियोग करके पाठ्य सामग्री को वे रोचक बनाते हैं। छात्रों में प्रोत्साहन तथा पुरस्कार के माध्यम से आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। छात्रों की आवश्यकताओं को समझते है और उसके अनुसार वे शिक्षण कार्य करते हैं।

मैसलो (1954) ने

(i) शारीरिक आवश्यकताओं,

(ii) चोट, भय आदि से सुरक्षा,

(iii) प्रेम तथा उसकी तीव्र अभिव्यक्ति,

(iv) क्षमता की भावना,

(v)क्षमता तथा आवश्यकता की पूर्ति को अध्यापक द्वारा अभिप्रेरित किये जाने वाले व्यवहार के लिये आवश्यक माना है।

 

(8) पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment)-पुरस्कार एवं दण्ड का अभिप्रेरणा में अत्यधिक महत्व है। जब बालक को पुरस्कार अथवा दण्ड दिया जाता है तो उसका एक ही अर्थ होता है-भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना। पुरस्कार का प्राप्त करने के लिये प्रत्येक बालक कार्य करता है। अध्यापक को चाहिये कि वह बालकों में कार्य की आभवृत्ति उत्पन्न कर, पुरस्कार के प्रति लालच नहीं।

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विद्यालय में पुरस्कार के लाभ इस प्रकार हैं-

  1. पुरस्कार से आनन्द प्राप्त होता है और प्रोत्साहन मिलता है।
  2. व्यक्ति को कार्य की अभिप्रेरणा देते हैं।
  3. रुचि एवं उत्साहवर्द्धक होते हैं।
  4. मनोबल उत्पन्न करते हैं एवं छात्रों के अहं (Ego) को सन्तुष्ट करते हैं।

 

पुरस्कारों से कुछ हानियाँ भी हैं जो इस प्रकार हैं-

  1. पुरस्कारों से कार्य के प्रति अभिरुचि उत्पन्न नहीं होती, अपितु वे केवल पुरस्कार प्राप्ति के लिये। कार्य करते हैं।
  2. छात्र पुरस्कार प्राप्ति के लिये धोखा देते हैं।
  3. बिना त्याग किये प्राप्ति की आशा को प्रोत्साहन मिलता है।
  4. पुरस्कार प्राप्ति के लिये ही बच्चे कार्य करते हैं। उनमें कार्य के प्रति अभिप्रेरणा नहीं होती है।

विद्यालयों में पुरस्कार के अधिक अवसर चाहे प्राप्त न होते हों, दण्ड के अवसर तो सदैव ही प्राप्त होते रहते हैं। आजकल मनोवैज्ञानिक शारीरिक दण्ड को अमानुषिक बताते हैं । थॉर्नडाइक का कहना है कि बालक को दण्ड देते समय उसका कारण तथा उद्देश्य अवश्य बता दिया जाये। दण्ड देते समय बालक की आयु, संवेगों तथा बुद्धि आदि का ध्यान अवश्य रखा जाये।

विद्यालयों में दण्ड के कुछ लाभ इस प्रकार हैं-

  1. दण्ड अवांछित कार्य करने से रोकते हैं।
  2. अनुशासन के स्वरूप होते हैं।
  3. अवांछित कार्य को रोकने, पुरस्कार के साथ इस्तेमाल करने, बच्चों को अवांछनीयता का विश्वास दिलाने में उपयोगी सिद्ध होते हैं।

 

दण्ड के जहाँ लाभ हैं वहाँ उससे होने वाली हानियाँ इस प्रकार हैं-

  1. दण्ड का आधार भय होता है।
  2. यदि बालक दण्ड ग्रहण करने को तैयार हो तो उसका उद्देश्य समाप्त हो जाता है।
  3. इनसे अप्रिय तथा दुःखद अनुभूति उत्पन्न होती है।
  4. दण्ड के परिणाम अस्थायी होते हैं।
  5. अध्यापक तथा समाज के प्रति दुर्भावना उत्पन्न होती है।
  6. दण्ड की कठोरता का कोई माप नहीं है।

 

जे० पी० सेवर्ड के अनुसार-“पुरस्कार तथा दण्ड, दोनों का उद्देश्य एक ही है, यानी भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना। लेकिन दोनों की विधियाँ अलग-अलग हैं। पुरस्कार व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालने के लिये कार्य के साथ एक मधुर स्मृति जोड़ता है और दण्ड एक अवांछित कार्य को रोकने के लिये उसके साथ एक अप्रिय अनुभूति को जोड़ता है। यदि पहले से यह आभास हो कि दण्ड व्यक्ति को अवांछित कार्य से हटायेगा और उसकी अभिप्रेरणा को बदल देगा तो प्रतिशोधन एवं परपीड़न-रति के साधन के सिवाय किसी भी रूप में उसका अस्तित्व नहीं रह सकता।”

 

(9) प्रतियोगिता (Competition)-विद्यालयों में छात्रों में प्रतियोगिता तथा प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति सामान्यतः देखी जाती है। कक्षा में छात्र एक-दूसरे से अधिक अंक प्राप्त करना चाहते हैं। अध्यापक प्रतियोगिता के माध्यम से नया ज्ञान प्राप्त करने की अभिप्रेरणा दे सकता है। अध्यापक दो प्रकार का प्रतियोगिता कराकर बालकों को ज्ञान प्राप्त करने की अभिप्रेरणा दे सकता है-

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(a)व्यक्तिगत प्रतियोगिता (Individual Competition)- बालक को इस प्रतियोगिता के माध्यम से पहले से अच्छे अंक प्राप्त करने की प्रेरणा दी जाती है।।

(b)सामूहिक प्रतियोगिता (Group Competition)- इस प्रकार प्रतियोगिता में दो कक्षाओं या समूहो से प्रतियोगिता कराकर एक-दूसरे समूह से अच्छे अंक प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

हरलोक (Hurlock) ने प्रतियोगिता के प्रभाव का अध्ययन करने के लिये कक्षा- 3,5,8 के 35 छात्रों पर प्रयोग किये। उसने इसके दो समूह किये-(1)नियन्त्रित, (2) प्रयोगात्मक। प्रयोगात्मक टोली के फिर दो भाग किये और उसने उन्हें गणित में अधिकतम अंक प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित किया। एक सप्ताह के पश्चात् दोनों टोलिया को एक परीक्षा दी गई। इसका परिणाम यह निकला कि जिन्हें प्रतियोगिता के लिये उकसाया गया था, उन्होंने अच्छे अंक प्राप्त किये।

 

(10) प्रगति का ज्ञान (Knowledge of Progress)- अध्यापक को चाहिये कि वह बच्चों को उनकी प्रगति का ध्यान दिलाता रहे। ऐसा करने से उनमें क्रियाशीलता बनी रहती है।

 

(11) असफलता का भय (Threat of Fear)- अध्यापक को कभी-कभी बालकों को उनकी असफलता का भय भी दिखाना चाहिये। असफलता के भय से छात्र कार्य करने के लिये अभिप्रेरित होते हैं।

 

(12) आकाक्षा का स्तर (Level of Aspiration)– आकाक्षा के स्तर से यह अभिप्राय है कि जो कार्य छात्रों को सिखाया जाये, वह उनका शारीरिक, मानसिक परिपक्वता के अनुकूल हो। अनुभव में आया है कि जब ज्ञान या क्रिया का स्तर बालक से ऊंचा हो जाता है तभी उनमें कार्य के प्रति अरुचि तथा घृणा उत्पन्न हो जाती है।

 

(13) परिचर्चाएँ तथा सम्मेलन (Seminars and Conference)-आजकल सामूहिक रूप से कार्य करने व सीखने पर अधिक बल दिया जाता है। समूह में बच्चे अधिक कार्य करते हैं। ग्रीग्स (Brigs) ने एक प्रयोग द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि विद्यार्थी समूह में अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। अध्यापक को चाहिये कि वह समय-समय पर परिचर्चाओं तथा सम्मेलनों का आयोजन करें।

 

(14) विद्यालय का वातावरण (School Environment)- विद्यालय का वातावरण ऐसा होना चाहिये जिससे बालक को स्वयं अभिप्रेरणा प्राप्त हो। जिन विद्यालयों में वातावरण अच्छा नहीं होता, वहाँ के छात्रों में क्रियाशीलता अधिक नहीं पाई जाती। विद्यालय का वातावरण अध्यापक तथा विद्यार्थी दोनों ही मिलकर बनाते हैं।

 

 

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