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आधुनिक शिक्षण प्रतिमान- सूचना प्रक्रिया स्रोत (Information Process Source)

आधुनिक शिक्षण प्रतिमान के अंतर्गत सूचना प्रक्रिया स्रोत में निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान, आगमन प्रतिमान, पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान, जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान, प्रगत संगठनात्मक प्रतिमान एवं विकासात्मक प्रतिमान का अधय्यन करेगें।

सूचना प्रक्रिया स्रोत(Information Process Source)

सूचना प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रतिमान व्यक्ति में समस्या समाधान की योग्यता तथा उत्पादक चिन्तन के विकास पर बल देते है।

(क) निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान,

(ख) आगमन प्रतिमान,

(ग) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान,

(घ) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान,

(ङ) प्रगत संगठनात्मक प्रतिमान; एवं

(च) विकासात्मक प्रतिमान।

 

(क) निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान (Concept Attainment Model) :

इस प्रतिमान का प्रतिपादन सन 1956 में जेरोम ब्रूनर, जैक्वैलिन गुडनाऊ एवं जॉर्ज ए. ऑस्टिन ने किया। इनके अध्ययन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में चिन्तन की क्षमता होती है, जिसके द्वारा वह अपने चारों ओर के वातावरण की क्लिष्टताओं को समझकर उसके विभिन्न तत्वों का वर्गीकरण कर तुलनात्मक अध्ययन करता है। शिक्षण कौशल के चयन के आधार पर इस प्रतिमान को विकसित किया गया है ।

(अ) केन्द्रबिन्दु अथवा उद्देश्य- इसका उद्देश्य धारणाओं की प्रकृति के बारे में छात्रों को ज्ञान देना तथा उनमें इस बात का बोध कराना कि कैसे विभिन्न वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं के मध्य परस्पर सहसम्बन्ध तथा भिन्नता ज्ञात की जाये, जिससे उनमें आगमन तर्क का विकास हो। उन्हें धारणाएं प्राप्त करने में अधिक प्रभावशाली बनाना और विशिष्ट धारणाएं पढ़ाना है।

(ब) संरचना- इस प्रतिमान की संरचना चार प्रमुख सोपानों पर आधारित है :

1. धारणा उपलब्धि सम्बन्धी खेल खेलना- इस प्रथम सोपान में छात्रों के सम्मुख ऑकड़ों को प्रस्तुत किया जाता है। ये आँकड़े किसी घटना अथवा व्यक्ति आदि से सम्बन्धित होते हैं। छात्र इन आंकड़ों की सहायता से प्राप्त ज्ञान की इकाइयों को विभिन्न प्रत्ययों का विकास करने के लिए प्रयोग में लाता है। ऐसा करने से छात्र को अपनी धारणा से सम्बन्धित परिकल्पना से तुलना करने के लिए प्रेरणा मिलती है।

2. उपायों का विश्लेषण करना- इस सोपान में उपयुक्त नीतियों का विश्लेषण किया जाता है, जिसमें छात्र आवश्यकतानुसार शिक्षण सत्रों का प्रयोग विशिष्ट प्रत्ययों के निर्माण हेतु करते हैं।

3. लिखित वस्तुओं, प्रतिवेदनों तथा वार्तालाप में आ रही धारणाओं का विश्लेषण करना- इसमें छात्र अपनी आय एवं अनुभव के आधार पर विभिन्न प्रकार के प्रत्ययों एवं उनके गुणों का विश्लेषण करता है। इस सोपान का मुख्य उद्देश्य प्रत्यय के स्वरूप और उसके उपयोग के बारे में ज्ञान की वृद्धि करना है।

4. धारणाएँ बनाने, इन्हें दूसरों को पढ़ाने और सुरक्षित करने के प्रयास करना- यह सोपान छात्रों को धारणा अथवा प्रत्यय निर्माण की प्रविधि से परिचित कराने में सहायक होता है।

 

(स) सामाजिक प्रणाली- इस प्रतिमान में शिक्षक प्रारम्भ में छात्रों के समक्ष आँकडे प्रस्तुत करता है और आँकड़ों के विश्लेषण में उनको सहायता प्रदान करता है। इसमें शिक्षक की भूमिका एक नियंत्रक के साथ-साथ सहायक के रूप में भी होती है और ऐसी प्रक्रिया तथा ऐसा वातावरण प्रस्तुत करना होता है, जो अधिगमकर्ता के लिए उपयुक्त हो।

(द) सहयोग प्रणाली- इसमें पाठ्यवस्तु को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है, जिससे प्रत्ययों का बोध सरलता से हो सके। इसमें छात्रों का कार्य नये प्रत्ययों की खोज करना नहीं, अपितु उन प्रत्ययों की निष्पत्ति करना है, जिन्हें शिक्षक ने पूर्व में निष्पादित कर लिया था।

(य) मूल्यांकन- वस्तुनिष्ठ तथा निबन्धात्मक प्रश्नों के माध्यम से लिखित परीक्षा द्वारा इस प्रतिमान में मूल्यांकन किया जाता है।

(र) उपयोग :

(1) इस प्रतिमान का उपयोग भाषा शिक्षण और व्याकरण शिक्षण के लिए सर्वाधिक उपयोगी है,

(2) इसकी सहायता से गणित के आधारभूत सिद्धान्तों को सरलता से पढ़ाया जा सकता है,

(3) इसका उपयोग दूरदर्शन पर भी किया जा सकता है,

(4) विज्ञान विषयों के लिए भी यह विशेष रूप से सहायक है,

(5) जब कभी शिक्षक अपने शिक्षण से छात्रों को किसी तथ्य का बोध कराने में स्वयं को असमर्थ पाता है तब इसी प्रतिमान का प्रयोग लाभदायक होता है,

(6) वैसे इस प्रतिमान का सभी क्षेत्रों में उपयोग किया जा सकता है, लेकिन विशेष रूप से उन विषयों में यह अधिक उपयोगी है, जिनमें धारणा निर्माण के अच्छे अवसर होते हैं,

(7) यह पद्धति अत्यत लचीली होती है, अत: यह सभी क्षेत्रों में लागू की जा सकती है और यह मानव व मशीनी पद्धतियों के अधिकाधिक प्रयोग के लिए आधार का कार्य भी कर सकती है।

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(ख) आगमन प्रतिमान (Induction Model) :

इस प्रतिमान का वर्णन पूर्व पृष्ठों में अध्यापक शिक्षा के लिए शिक्षण प्रतिमान बिन्दु के अन्तर्गत ‘तबा का शिक्षण प्रतिमान’ इस नाम से विस्तार से किया जा चुका है।

 

(ग) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान (Inquiry Training Model) :

इस प्रतिमान का प्रतिपादन जे. रिचार्ड सकमैन (J. Richard Suchman) ने किया है। उनका मुख्य उद्देश्य हिल्दा तबा के प्रतिमान के समान प्रत्यय योग्यता का विकास करना था। उन्होंने बेनर तथा हंट की भांति संज्ञानात्मक व्यवहार से सूचना संसाधन सिद्धान्त के आधार पर इसका विकास किया। यह प्रतिमान भौतिकशास्त्र की समस्या को लेकर विकसित किया गया, परन्तु बाद में इसका समस्त विषयों में भी प्रयोग किया गया :

(अ) केन्द्रबिन्द अथवा लक्ष्य- सकमैन के अनुसार, “इस प्रतिमान का उद्देश्य अन्वेषण तथा आँकड़ों के संधान के संज्ञानात्मक कौशल, तर्क तथा कारण विश्लेषण का प्रतिबोध, चरों तथा मूर्त स्थितियों के विश्लेषण से नवीन ज्ञान प्रदान करना है। इसमें अभिप्रेरणा की भूमिका प्रमुख है जिसे छात्र स्वयं कर सकें।”

(ब) संरचना- इस प्रतिमान की संरचना के प्रमुख तीन आधार हैं-सर्वप्रथम समस्यात्मक परिस्थितियों में संघर्ष होता है, द्वितीय चरण पूछताछ का होता है, जिसके लिए कुछ प्रश्नों का सहारा लिया जाता है तथा अन्तिम चरण पर छात्र तथा शिक्षक मिलकर पृच्छा कौशलों का विश्लेषण करते हैं।

(स) सामाजिक व्यवस्था- इसमें शिक्षक नियन्त्रक के रूप में रहता है तथा ऐसा बौद्धिक वातावरण उत्पन्न करने का प्रयास करता है जो छात्रों को सूचनाएँ एकत्रित करने हेतु प्रेरित करे। शिक्षक तथा छात्र एक दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं।

(द) संभव व्यवस्था (Support System)- छात्रों को समस्याओं की अनुभूति कराने हेतु शिक्षक अनेक उदाहरण प्रस्तुत करता है तथा प्रशिक्षण में उनके महत्त्व की चर्चा करता है।

(य) मूल्यांकन- इसमें मूल्यांकन हेतु प्रायोगात्मक परीक्षाएं ली जाती हैं।

(र) उपयोग :

(1) इस प्रतिमान से छात्र तथा अध्यापकों में पारस्परिक सम्बन्धों का विकास होता है,

(2) इससे छात्र स्वतंत्र रूप से खोज करना सीखते हैं,

(3) छात्रों को खोज करने की वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान होता है,

(4) छात्रों में सृजनात्मकता तथा उत्पादन चिन्तन का विकास होता है,

(5) छात्र सूचनाओं का विश्लेषण करने तथा अन्य व्यूह-रचनाओं से तुलना करने में समर्थ होते हैं। निष्कर्षतः पृच्छा (Inquiry) प्रशिक्षण प्रतिमान में तीन विशेषताएँ निहित हैंसृजनात्मकता जाँच के लिए व्यूह-रचना, सृजनात्मकता की भावना, अधिगम में स्वतंत्रता अथवा स्वायत्तता।

 

(घ) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान (Biological Science Inquiry) :

सन 1950 से 1960 के बीच अमेरिकी शिक्षा में पाठ्यक्रम व अनुदेशन में सुधार हेतु गहन चिन्तन प्रारम्भ हुआ। इसी क्रम में जोसेफ जे. सकवाब ने हाई स्कूल स्तर पर जैविक विज्ञान पाठ्यक्रम में सुधार हेतु जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान का प्रतिपादन किया।

(अ) लक्ष्य- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों को जीव वैज्ञानिकों की तरह खोज करना सिखाना है।

(ब) संरचना- इसकी संरचना चार सोपानों को लेकर बनाई गई है :

(1) छात्रों के समक्ष खोज के क्षेत्रों को रखा जाता है तथा खोज की विधियाँ भी बताई जाती हैं,

(2) समस्या का स्वरूप तैयार करना ताकि आने वाली समस्याओं को छात्र पहचान सकें,

(3) समस्या का चयन करना; एवं

(4) समस्या का समाधान करना।

(स) सामाजिक व्यवस्था- इसमें सहयोग तथा सदभावनापूर्ण वातावरण बनाने पर बल दिया जाता है एवं छात्र को ग्रहण करने वाले समुदाय के रूप में लिया जाता है जो विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ तकनीकी का प्रयोग समस्या निवारणार्थ करता है।

(द) संभरण व्यवस्था- इसमें शिक्षक को जाँच की प्रक्रिया में दक्ष तथा एक परिवर्तित अनुदेशक (Instructor) के रूप में काम करना होता है। वह छात्रों को वैज्ञानिक ढंग से खोज करना सिखाता है, जिसमें शिक्षक का दक्ष होना परम आवश्यक है।

(य) मूल्यांकन- छात्रों की उपकल्पना, आँकडों का संकलन, आँकड़ों की व्याख्या के स्तर के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाता है।

(र) उपयोग :

(1) इस प्रतिमान का उपयोग जीवविज्ञान विषयों के लिए किया जाता है,

(2) बालकों में आत्मविश्वास का विकास किया जा सकता है।

(3) इस प्रतिमान का प्रमुख उपयोग जीवविज्ञान की विशेषताओं की सूचनाओं का एकत्रीकरण किस प्रकार किया जाये; इसकी जानकारी हेतु किया जाता है।

 

(ङ) प्रगत संगठनात्मक प्रतिमान (Advance Organisor Model) :

इस प्रतिमान का प्रतिपादन प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेविड ऑसुबेल (David Ausubel) के द्वारा सार्थक मौखिक अधिगम सिद्धान्त के आधार पर किया गया। आसुबेल ने सूचना प्रक्रिया स्रोत में विषयवस्तु और मानसिक प्रक्रिया का उल्लेख कर इसे नवीन दिशा प्रदान की। आसुबेल ने विषयवस्तु व मानसिक प्रक्रिया दोनों को मिलाकर सार्थक मौखिक अधिगम सिद्धान्त बनाया।

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आसुबेल, बेनर की बौद्धिक अनुशासन अवधारणा से प्रभावित हुआ। उसके आधार पर आसुबेल ने इस प्रतिमान को विकसित करने के लिए दो अवधारणायें बनायी :

(1) विषय का ‘सामान्य से विशिष्ट’ शिक्षण सूत्र का अनुसरण करते हुए, प्रस्तुतीकरण किया जाता है, जिसमें विषय की विस्तृत व्याख्या भी सम्मिलित होती है।

(2)इस प्रतिमान में पूर्व में सीखी गई विषयवस्तु या विद्यमान ज्ञान में नवीन ज्ञान को कैसे सम्मिलित किया जाये, इस बात पर विचार किया जाता है। इसमें विषयवस्तु पदानुक्रमिक क्रम (Hierarchical Order) में होती है।

(अ) लक्ष्य- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों के ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित कर संप्रत्ययों एवं तथ्यों का बोध कराना है।

(ब) संरचना- इस प्रतिमान में विषयवस्तु को दो सोपानों में रखा जाता है : प्रथम में क्रियाओं को सामान्य रूप में तथा द्वितीय को सीखने के क्रम में विशिष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाता है।

(स) सामाजिक व्यवस्था- अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जाता है तथा छात्रों द्वारा जिस पाठ्यवस्तु का विश्लेषण पूर्व में किया जा चुका होता है, उससे सम्बन्ध स्थापित कर नवीन ज्ञान प्रदान किया जाता है। इसमें शिक्षक तथा छात्र के मध्य अन्तःक्रिया होती है, किन्तु छात्र की तुलना में शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है।

(द) संभरण व्यवस्था (Support System)- सुसंगठित विषयवस्तु जटिल होती है। इस प्रतिमान की सफलता के लिए संगठक तथा कक्षा-कक्ष परिस्थितियों में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है जिसमें शिक्षक व छात्र आमने-सामने रहकर शिक्षण कार्य करते हैं। मूल्यांकन-इसमें मूल्यांकन अनुदेशन के आधार पर किया जाता है जिसके लिए मौखिक एवं निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का भी उपयोग किया जाता है। उपयोग :

(1) किसी भी विषय के शिक्षण में सहायक,

(2) मौखिक अभिव्यक्ति के विकास में विशेष रूप से सहायक,जैसे, भाषा शिक्षण,

(3) अधिगम अन्तरण (Transfer of Training) में सहायक,

(4) छात्रों में समस्या समाधान की योग्यता उत्पन्न करने में सहायक,

(5) ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तर के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक,

(6) इसका प्रयोग अमूर्त विषयवस्तु के शिक्षण में किया जा सकता है: एवं

(7) इसके द्वारा शिक्षक व्याख्यान प्रणाली का प्रयोग करता हुआ ज्ञान के विश्लेषण के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है।

(च) विकासात्मक प्रतिमान (Developmental Model) :

इस प्रतिमान का प्रतिपादन जीन-पियाजे (Jean-Piaget) ने बालकों के संज्ञात्मक ज्ञान के लिए विकासक्रम के अध्ययन के आधार पर किया। इसमें मानसिक क्षमताओं तथा तार्किक चिन्तन की क्षमताओं के विकास पर महत्त्व दिया जाता है।

(अ) केन्द्रबिन्दु अथवा लक्ष्य (Focus)- इस प्रतिमान का मुख्य उद्देश्य छात्रों की सामान्य मानसिक योग्यताओं का विकास करना है।

(ब) संरचना (Syntax)- इस प्रतिमान में दो सोपानों का अनुसरण किया जाता है ।

(ii) इसमें अध्यापक कक्षा में ऐसा वातावरण प्रस्तुत करता है जिसमें तार्किक चिन्तन की आवश्यकता नहीं होती।

(i) इसमें शिक्षक छात्रों को आवश्यक निर्देश तथा सहायता प्रदान करता है जिससे वे विषय को आत्मसात् कर सकें।

(स) सामाजिक व्यवस्था- इसमें संरचना उच्च स्तर से साधारण स्तर तक की हो सकती है। इसमें छात्र व अध्यापक के मध्य अन्त क्रिया होती है, शिक्षक छात्रों के समक्ष ऐसा वातावरण प्रस्तुत करता है जिससे छात्रों को प्रेरणा मिलती है। यह वातावरण स्वतंत्र व खुले बौद्धिक विचारों वाला तथा सामाजिक होता है जिसमें अध्यापक विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को एकत्रित करने हेतु मार्गदर्शन देने की पहल करता है। छात्रों को भौतिक व सांसारिक वस्तुओं से परिचित कराया जाता है।

(द) संभरण व्यवस्था- इस प्रतिमान में शिक्षक अधिगम के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान कर सहयोग करता है।

(य) मूल्यांकन- इस प्रतिमान में छात्रों की जानात्मक समस्याओं के समाधान की जांच हेतू निबन्धात्मक परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है।

(र) उपयोग :

(1) यह तार्किक चिन्तन का विकास करने में सहायक है,

(2) यह छात्रों में जानात्मक व सामाजिक योग्यताओं के विकास के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है: एवं

(3) इसका प्रयोग उन समस्त विषयों में किया जा सकता है. जिसमें किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

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