दल शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व

दल शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व | दल-शिक्षण की कार्य-प्रणाली | System of Team Teaching in Hindi

दल शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व

(Need and Importance of Team Teaching)

आधुनिक वैज्ञानिक युग में दल शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्व का विशेष अनुभव की जा रहा है। इसकी आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता हैः

(1) वैज्ञानिक प्रगति- विविध शिक्षण यंत्र तथा वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग शिक्षा क्षेत्र में किया जाने लगा है, किन्तु इन उपकरणों का सफल प्रयोग तथा उसके माध्यम से विषय की व्याख्या करना- ये दोनों कार्य एक ही अध्यापक कक्षा में प्रभावी ढंग से नहीं कर सकता, उसे अपने साथ सहायक अध्यापक, तकनीशियन, विद्युत कर्मचारी तथा लिपिक की भी आवश्यकता होती है। यह ‘दल’ मिलकर कक्षा में शिक्षण को प्रभावी बनाने में सहयोग देता है।

(2) शिक्षकों का अभाव- आज शिक्षकों का संख्यात्मक तथा गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से अभाव हो गया है, इस अभाव की पूर्ति हेतु दल शिक्षण की पूर्ण आवश्यकता है।

(3) शिक्षकों के व्यावसायिक स्तर का विकास- दल शिक्षण में शिक्षकों को नया साहित्य पढ़ने का अवसर मिलता है। सूचना इकट्ठा करने,योजना बनाने और मूल्यांकन करने के कार्यों में शिक्षक एक-दूसरे को सहयोग दे सकते हैं।

(4) छात्रों की संख्या में वृद्धि- जनसंख्या वृद्धि तथा शैक्षिक जागृति के कारण आज कक्षा में छात्रों की संख्या में वद्धि हुई है। अत: यह आवश्यक हो गया है कि शिक्षकों का एक दल कक्षा में जाये तथा शिक्षण के साथ-साथ छात्रों की समस्याओं का समाधान भी करे।

(5) शिक्षा तकनीकी का विकास- शैक्षिक तकनीकी के विकास के फलस्वरूप नवीनतम उपकरणों का कक्षा में समुचित ढंग से प्रयोग किया जा सके, इसके लिए ‘दल शिक्षण’ एक महत्त्वपूर्ण एवं सशक्त माध्यम है।

(6) ज्ञान में वृद्धि- आज अपने-अपने विषय के विशेषज्ञ अध्यापकों की आवश्यकता है जो छात्रों को अपने विषय का विशिष्ट ज्ञान दे सकें । दल शिक्षण द्वारा छात्रों को विशिष्ट ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।

(7) छात्रों को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर- इसमें बड़े-बड़े समूहों को छोटे-छोटे दलों में अध्यापकों के नेतृत्व में विभाजित कर विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाता है।

(8) पाठ्यक्रमों में परिवर्तन के कारण- आज नवीनतम आविष्कारों तथा तकनीकी शिक्षा के विकास के साथ पाठ्यक्रमों में नवीन विषयों का आगमन हुआ है, अतः दल शिक्षण ही इन चुनौतियों का समुचित निवारण है।

(9) व्यक्तिगत भिन्नताओं को महत्त्व- एक शिक्षक द्वारा कक्षा के प्रतिभाशाली, सामान्य तथा मन्दबुद्धि छात्रों की आवश्यकताओं तथा सीमाओं का ध्यान रखना एक कठिन कार्य है, अतः दल शिक्षण द्वारा व्यक्तिगत भिन्नताओं को महत्त्व दिया जा सकता है । कुछ ऐसी विशिष्ट शिक्षण योजनाओं का विकास भी आधुनिक काल में हुआ है, जो व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्त्व देती हैं, जैसे, विनेटका योजना तथा डाल्टन योजना आदि।

(10) अनुशासन स्थापित करने में सहायक।

(11) नियोजित शिक्षा- दल शिक्षण’ से पूर्व सम्पूर्ण दल शिक्षण की पूर्वयोजना बड़े सुसंगठित क्रमबद्ध तरीके से बनायी जाती है तथा दल के प्रत्येक सदस्य को अलग-अलग उत्तरदायित्व सौंप दिया जाता है।

(12) स्वस्थ मानवीय सम्बन्ध- दल शिक्षण के द्वारा छात्रों, शिक्षकों तथा अशैक्षणिक कर्मचारियों में मधुर सम्बन्ध स्थापित होते हैं तथा छात्रों का सन्तुलित सामाजिक विकास करने में भी सहायता मिलती है।

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(13) मितव्ययी- दल शिक्षण समय, शक्ति और धन तीनों ही दृष्टि से कम खर्चीला होता है।

(14) लचीलापन- दल शिक्षण में सभी क्रियाकलापों में लचीलापन रहता है।

(15) मूल्यांकन- दल शिक्षण में शिक्षक दूसरे शिक्षकों के गुणों तथा उनकी शिक्षण-विधियों से लाभान्वित होकर अपने शिक्षण को प्रभावी बना सकते हैं।

(16) शिक्षक की रुचियों को महत्त्व- शिक्षक अपनी रुचि के अनुसार विशेष विषय का शिक्षण करते हैं इससे शिक्षक के आत्मसन्तोष के साथ ही छात्र, शिक्षक के विशिष्ट ज्ञान से लाभान्वित भी होते हैं।

(17) अभिभावक सहयोग- दल शिक्षण में कार्यकर्ताओं की पर्याप्तता के कारण छात्र की व्यक्तिगत समस्याओं को दूर करने के लिए अभिभावकों का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त किया जा सकता है।

दल-शिक्षण की कार्य-प्रणाली

(System of Team Teaching)

 

दल-शिक्षण अनेक प्रकार से किया जाता है, अतः इसकी एक सुनिश्चित कार्यप्रणाली का वर्णन करना अत्यन्त कठिन है,तथापि यहाँ इसकी कार्यप्रणाली का संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है। इसकी प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन सोपानों का अनुसरण किया जाता है :

(1) योजना बनाना :

दल शिक्षण की प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है इसमें शिक्षण हेतु योजना तैयार की जाती है :

(i) विषय का निर्धारण।

(ii) उद्देश्यों का निर्धारण।

(iii) व्यवहार परिवर्तनों का लेखन।

(iv) छात्रों के पूर्वज्ञान को पहचानना।

(v) शिक्षण के लिए एक अनुमानित रूपरेखा तैयार करना।

(vi) शिक्षकों के कौशल योग्यतानुसार कार्य विभाजन।

(vii) अनुदेशन का स्तरीकरण करना।

(viii)शिक्षण समूह का चयन करना।

(ix) छात्रों की उपलब्धियों के मूल्यांकन के तरीकों का निर्धारण।

इस सम्पूर्ण योजना में नमनीयता अपनाई जाती है।

 

(2) व्यवस्था करना:

योजना के बाद उसकी क्रियान्विति हेतु छात्रों की कठिनाइयों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हए व्यवस्था की जाती है। इसमें निम्नलिखित क्रियायें सम्मिलित होती हैंः

(i) उपयुक्त सम्प्रेषण व्यूह का चयन करना।

(i) अनुदेशन के स्तरीकरण हेतु छात्रों से कुछ प्रश्न पूछना

(iii) अनुभवी अध्यापक द्वारा अगवानी व्याख्यान (Lead Lecture) प्रस्तुत करवाना।

(iv) अन्य अध्यापकों द्वारा अगवानी व्याख्यान के आधार पर अनुवर्ती कार्य (Followup Work) करवाना।

(v) छात्रों को पुनर्बलित करना।

(vi) छात्रों की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करना।

(vii) छात्रों से कक्षा कार्य तथा अभ्यास कार्य करवाना

(viii)छात्रों को गृहकार्य देना।

 

3. मूल्यांकन करना:

दल शिक्षण प्रक्रिया के अन्तिम सोपान में छात्रों की उपलब्धियों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित क्रियाएँ की जाती है।

(i) छात्रों की उपलब्धियों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के विषय में निर्णय लेता

(ii) उपलब्धियों के स्तर का मूल्यांकन करना,

(iii) इसके लिए लिखित तथा मौखिक दोनों ही तरह की परीक्षाएं ली जाती हैं

(iv) छात्रों की कमियों तथा कठिनाइयों का निदान करके उपचार किया जाता है; एवं

(v) इसमें मूल्यांकन के आधार पर योजना तथा व्यवस्था के सोपानों में सुधार किया जाता है।

 

दल-शिक्षण हेतु पाठ-नियोजन

यदि हमें गृहविज्ञान में छात्रों को ‘मरुरज्जु की संरचना तथा उसके कार्य’ इस विषय में पढ़ाना है तो उपर्युक्त वर्णित दल शिक्षण की कार्यविधि से तीनों सोपानों का अनुसरण तो करना ही होगा, साथ ही सर्वप्रथम यह निर्धारित करना होगा कि इस प्रकरण में हमें क्या-क्या बिन्दु रखने हैं, जैसे:

बिन्दुओं का निर्धारण :

1. तन्त्रिका-तन्त्र का अर्थ,

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2. तन्त्रिका-तन्त्र से सम्बद्ध शरीर के विभिन्न अंगों, जैसे, प्रमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क, पौन्स, मेडुला, मेरुरज्जु आदि,

3. मेरुरज्जु की संरचना,

4. मेरुरज्जु के कार्य; एवं

5. शारीरिक संरचना में मेरुरज्जु का स्थान।

 

दल-सदस्यों का निर्धारण :

गृहविज्ञान विशेषज्ञ : शारीरिक संरचना तथा शारीरिक स्वास्थ्य की सामान्य जानकारी हेतू ।

जीव विज्ञान विशेषज्ञ : शारीरिक संरचना की विशिष्ट जानकारी हेतु।

तन्त्रिका- तन्त्र विशेषज्ञ : शरीर के तन्त्रिका तंत्र पर विशेष प्रकाश डालने हेतु।

सहायक अध्यापक : छात्रों को अभ्यास कार्य करवाने तथा कक्षा अनुशासन बनाये रखने हेतु।

चित्रकला विशेषज्ञ : तंत्रिका तंत्र से सम्बन्धित विभिन्न भागों के चित्र तथा प्रतिकृति बनाने हेतु ।

तकनीशियन : विद्युत उपकरणों यथा, प्रोजैक्टर द्वारा फिल्म स्लाइड्स दिखाने हेतु ।

कार्यालय सहायक  : टंकण करने हेतु ।

समन्वयक: समस्त गतिविधियों का समन्वय करने हेतु ।

उपर्युक्त गठित दल के द्वारा कक्षा में जाने से पूर्व सभा आयोजित की जानी चाहिए तथा दल के प्रत्येक सदस्य को स्वयं द्वारा कक्षा में की जाने वाली क्रियाओं को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए तथा प्रत्येक विशेषज्ञ को समय की सीमा को तथा छात्रों के स्तर को ध्यान में रखते हुए कतिपय बिन्दुओं को क्रमबद्ध ढंग से निर्धारित कर लेना चाहिए ताकि अनावश्यक आवृत्ति से बचा जा सके।

दल-शिक्षण की सीमाएँ

दल शिक्षण एक अच्छी शिक्षण पद्धति होने के बावजूद भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर सका है, इसकी निम्नलिखित सीमायें हैं :

(1) भवनों का अभाव- इसके लिए बड़े आकार के कमरों तथा पर्याप्त फर्नीचर की आवश्यकता होती है, जिसका सामान्यतः विद्यालयों में अभाव है।

(2) अध्यापकों में सहयोग का अभाव- इसके लिए अध्यापकों में पूर्ण सहयोग अपेक्षित होता है, सामान्यतः इसका अभाव शिक्षकों में पाया जाता है।

(3) उत्तरदायित्व की भावना का अभाव- इसमें उत्तरदायित्व अनेक अध्यापकों में बँट जाता है, ऐसी स्थिति में छात्रों का उत्तरदायित्व लेने के लिए कोई तैयार नहीं होता।

(4) अधिक खचाली- अनेक अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया कि दल शिक्षण में प्रत्येक छात्र के ऊपर परम्परागत शिक्षण की तुलना में अधिक धन व्यय होता है।

(5) अध्यापकों का अभाव- सामान्यतः विद्यालयों में एक विषय को पढ़ाने के लिए एक अध्यापक ही नियुक्त किया जाता है, जबकि दल शिक्षण ऐसे विद्यालयों में ही सम्भव है, जहाँ एक विषय के दो या दो से अधिक अध्यापक हों।

(6) अनुसन्धानों का अभाव-दल शिक्षण के क्षेत्र में अभी नवीन अनुसन्धानों का अभाव है अतः इसे अध्यापकों द्वारा व्यवहार में नहीं लाया जा रहा है।

(7) परम्परागत व नवीन शिक्षण पद्धतियों में विरोधाभास-दल शिक्षण ने परम्परागत शिक्षण पद्धति को चुनौती दी है तथा आज का शिक्षक इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है।

(8) नियोजन का अभाव-दल शिक्षण हेतु पूर्व नियोजन बहुत आवश्यक है, क्योंकि इसमें व्यक्तिगत, समूहगत एवं सम्पूर्ण शिक्षा की क्रियाओं का समन्वय करना पड़ता है और यह एक जटिल क्रिया है।

(9) शिक्षक की स्वतंत्रता पर अंकुश-इस पद्धति में शिक्षक अपने को स्वतंत्र अनुभव नहीं करता क्योंकि उसे शिक्षण में दल के अन्य सदस्यों के साथ कार्य करना होता है।

(10) प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव-इसके लिए विशिष्ट प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है जिनका हमारे विद्यालयों में प्रायः अभाव है।

 

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