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इल्तुतमिश की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए

इल्तुतमिश मध्य एशिया के इल्बरी कबीले का तुर्क था जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने खरीदा था। इस प्रकार वह जन्म से गुलाम था। वह बाल्यकाल से ही बहुत होनहार था। वह क्रमश: उन्नति करता गया और एक के बाद एक उच्च पद प्राप्त करता गया। कुतुबुद्दीन ने अपनी पुत्री का विवाह भी इसके साथ कर दिया और उसको बदायँ का गवर्नर बना दिया। अन्त में कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद वह 1211 ई० में सुल्तान भी बन गया। पर इल्तुतमिश के लिए राजगद्दी फूलों की सेज न थी।

इल्तुतमिश की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ जिस समय इल्तुतमिश गद्दी पर बैठा, दिल्ली सल्तनत की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। इल्लतमिश भयङ्कर परिस्थितियों से घिरा हुआ था जिसके कारण उसे अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ा। गद्दी प्राप्त करने के लिए उसे कुतुबुद्दीन के पत्र आरामशाह और उसके समर्थकों से युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में वह विजयी हुआ। परन्तु अभी उसकी सत्ता को चुनौती देने वाले लोग मौजूद थे। इनमें (1) कुतुबी अमीर, (2) गजनी का एल्दोज, (3) बंगाल के खिलजी मलिक, (4) सिन्ध का कबाचा प्रमख थे। इसके अलावा राजपूत राजा तथा सामन्त अभी तक अपनी स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे। पर इल्तुतमिश इन विकट परिस्थितियों से हार मानकर बैठ जाने वाला व्यक्ति न था। उसने दृढ़ता एवं तत्परता के साथ संकटमय स्थिति का सफलतापर्वक सामना किया।

प्रतिद्वन्द्रियों का दमन

कुतुबी अमीरों का दमन-

कुतुबी अमीरों के हृदय में इल्तुतमिश के प्रति गहरी घणा थी, क्योंकि इल्तुतमिश गुलाम होकर भी दिल्ली के सिहासन पर बैठ गया था। इसलिए उसकी अधीनता में रहना वे अपमान समझते थे। अपने राज्यारोहण का विरोध करने वाले अमीरों एवं सरदारों का इल्तुतमिश ने अपनी पूरी शक्ति से दमन किया।

एल्दौज का दमन-

एल्दौज मुहम्मद गोरी का दास था, जो उसकी मृत्यु के बाद अमीरों की सहमति से गजनी का शासन बन गया था। मुहम्मद गोरी का उत्तराधिकारी होने के नाते वह समस्त हिन्दुस्तान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था तथा दिल्ली सुल्तान को अपना अधीनस्थ समझता था। इल्तुतमिश के लिए यह असाया। प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण वह तत्काल इस ओर ध्यान न दे सका। पर अनुकूल समय पाकर इल्तुतमिश ने 1216 ई० में एल्दौज को परास्त किया और उसका वध कर दिया।

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मंगोल आक्रमण का भय (1221 ई०)-

अपने महान् नेता चंगेजखाँ के नेतृत्व में मंगोल ख्वारिज्म के युवराज जमालुद्दीन मङ्गबर्नी का पीछा करते हुए सिंध तक पहुँच गये। यह दिल्ली की नव स्थापित तुर्की सल्तनत के लिए घातक था। जलालुद्दीन ने इल्तुतमिश से शरण माँगी परन्तु इल्तुतमिश ने जलालुद्दीन की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। मंगोलों ने सिंध पर आक्रमण कर दिया और कुबाचा से कुछ भूभाग छीन लिया। फिर वे मध्य एशिया की ओर बढ़ गये। इस प्रकार इल्तुतमिश की दूरदर्शितापूर्ण नीति के कारण एक महान् संकट जिसने दिल्ली को घेरा था, टल गया।

कुबाचा का दमन-

मंगोलों के लौट जाने के बाद जलालद्दीन तीन वर्ष तक पंजाब में रहा और उसने कुबाचा के राज्य को खूब लूटा तथा नष्ट-भ्रष्ट किया। इससे कुबाचा की शक्ति नष्ट हो गई थी। इससे लाभ उठाकर इल्तुतमिश ने 1228 ई० में लाहौर एव उच्छ पर आक्रमण कर दिये और उसे परास्त कर दिया। इल्तुतमिश की विजय से कुबाचा इतना भयभीत हो गया कि उसने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। सिन्ध का दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया था।

बंगाल के खिलजियों का दमन-

कतबद्दीन की मत्य के बाद बंगाल स्वतन्त्र हो गया और अलीमर्दान की मृत्यु के बाद उसका बेटा गयासुद्दीन खिलजी वहाँ शासन कर रहा था। सन् 1225 ई० में सुल्तान स्वयं युद्ध-क्षेत्र में उतरा। गयासद्दीन ने निविराम इल्तुतमिश का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया परन्तु सुल्तान के दिल्ली लौटते ही गयासुद्दीन ने फिर अपने को बंगाल का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और बिहार पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इल्तुतमिश ने बाध्य होकर सन् 1230 ई० में दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण किया और बंगाल को फिर दिल्ली राज्य में मिला लिया।

राजपूतों का दमन-

आन्तरिक समस्याओं से छुटकारा मिलते ही इल्तुतमिश ने विजय कार्य आरम्भ कर दिया। 1226 ई० में उसने रणम्भौर पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त परमार राजपूतों की राजधानी मन्दीर पर अधिकार कर लिया। 1228-29 ई० चौहान शासक उदयसिंह की राजधानी मन्दौर पर आक्रमण किया। उदयसिह युद्ध में पराजित हुआ और उसने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली। सन् 1231 ई० में इल्तुतमिश ने ग्वालियर एवं जोधपुर पर भी विजय प्राप्त की। 1233 ई० में उसने चन्देलों के विरुद्ध सेनाएँ भेजी। सन् 1234-35 ई० में मालवा, भिलसा और उज्जैन को लूटा तथा महाल के मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। इस प्रकार उसने राजपूत राजाओं का पूर्णतया दमन कर दिया।

दोआब की पुनर्विजय-

इल्तुतमिश ने दिल्ली में अपनी स्थिति दृढ़ करने के बाद दोआब के हिन्दुओं की ओर अपना ध्यान दिया और एक-एक करके बदायूँ, बनारस एवं कन्नौज को जीत लिया।

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खलीफा द्वारा सम्मानित होना-

सन् 1228 ई० में बगदाद के खलीफा ने इल्तुतमिश को शासनाधिकार का स्वीकृति-पत्र प्रदान किया। इस प्रकार इस्लाम के सर्वोच्च नेता (खलीफा) की मान्यता प्रात कर लेने से मुसलमान अब उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगे और सुल्तान का अधिकार वैध हो गया। इसके पश्चात् उसने 3 वर्ष तक शान से राज्य किया। 1236 ई० में उसकी मृत्यु हो गयी।

इल्तुतमिश का चरित्र

(1) विजेता एवम् शासक के रूप में-

इल्तुतमिश वीर, साहसी, दूरदर्शी एवं सावधान सैनिक था। वह योग्य तथा कुशल शासक था। उसी ने भारत में तुर्की साम्राज्य के विघटन को रोका। उसने अपने बाहुबल से प्रतिद्वन्द्वियों एवं विद्रोहियों का दमन किया। उसने चालीस गुलामों के दल का संगठन किया और उनके समर्थन से अपना शासनतंत्र मजबूत किया। वह अत्यन्त न्याय-प्रिय सम्राट था। सच्चे अर्थों में दिल्ली सल्तनत का वही वास्तविक संस्थापक था।

(2) धार्मिक तथा साहित्य एवं कला-प्रेमी-

इल्तुतमिश धार्मिक मुसलमान था। पर अन्य धर्मों के प्रति उसका व्यवहार सहिष्णुतापूर्ण था। इस धार्मिक कट्टरता के कारण ही दिल्ली के इस्लामी मुसलमानों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया था। हिन्दुओं के प्रति भी उसका व्यवहार अच्छा नहीं था। इल्तुतमिश साहित्य तथा कला का प्रेमी भी था। वह विद्वानों के गुणों की सराहना करता था। प्रख्यात कुतुबमीनार उसके स्थापत्य प्रेम का जीता-जागता उदाहरण है।

इल्तुतमिश को गुलाम वंश का शासक क्यों कहते है?-

जिस समय इल्तुतमिश ने सल्तनत की बागडोर सँभाली, दिल्ली सल्तनत का अस्तित्व खतरे में था। अनेक प्रान्त स्वतन्त्र हो गये थे। सल्तनत के अन्तर्गत केवल दिल्ली, बदायूँ तथा आधुनिक वाराणसी से लेकर शिवालिक की पहाड़ियों तक के प्रदेश ही शेष रह गये थे। दिल्ली कुचक्रों का अहा बना था। इल्लतमिश ने सल्तनत को इन सब संकटों से बचाकर उसे एक ठोस आधार प्रदान किया। उसने मुहम्मद गौरी द्वारा विजित प्रदेशो को पुनः जीता और आधुनिक राजपताना एवं उत्तर प्रदेश के आधकांश भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। डॉ० श्रीवास्तव के शब्दों में, “इल्तुतमिश में कुतुबुद्दीन के अधूरे कार्य को पूरा किया और उत्तरी भारत में शक्तिशाली तुका साम्राज्य की स्थापना की।” डॉ०श्वरी प्रसाद ने इल्तुतमिश को गुलाम वंश का महानतम शासक स्वीकार किया है।

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