अनुदेशन की रूपरेखा | Instructional Design In Hindi

अनुदेशन की रूपरेखा | Instructional Design In Hindi

 

आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षक जन्मजात ही नहीं होते, अपितु प्रशिक्षण संस्थाओं द्वारा प्रभावशाली शिक्षक तैयार भी किये जाते हैं। इस शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अनुदेशन की रूपरेखा अपना विशेष महत्त्व रखती है। कुछ वर्षों पूर्व तक शिक्षण में केवल सीखने के सिद्धान्तों एवं उसके कक्षा में प्रयोग पर ही बल दिया जाता था, किन्तु उससे उपलब्धि की प्राप्ति सम्भव नहीं हो रही थी, अत: मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण की उपयुक्त परिस्थितियों, कार्यों की निश्चित रूपरेखा एवं नवीन उपागमों पर बल देने की आवश्यकता अनुभव की। शैक्षिक तकनीकी की वह शाखा जो शिक्षण की परिस्थितियों, कार्यों की रूपरेखा एवं नवीन उपागमों की ओर संकेत करती है, ‘अनुदेशन के प्रारूप’ कहलाती है। ग्लेसर (1968) ने शैक्षिक तकनीकी की विशेषता बताते हुए कहा कि अनुदेशन के प्रारूप की सहायता से व्यावसायिक क्षमताओं का विकास किया जा सकता है। कार्टर (1966) के शोधकार्यों के अनुसार यह पाया गया कि अनुदेशन के प्रारूप का प्रयोग एक व्यक्ति की अपेक्षा समूह की व्यावसायिक क्षमताओं के विकास के लिए अधिक प्रभावशाली होता है। अनविन (Unwin, 1968) ने अनुदेशन के प्रारूप की परिभाषा इस प्रकार दी है।

“अनदेशन के प्रारूप से तात्पर्य आधुनिक कौशल तथा प्रविधियों का शिक्षा तथा। प्रशिक्षण की आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना है। इसके अन्तर्गत वे सभी विधि, साधन, वातावरण सम्मिलित किये जाते हैं जो अधिगम को सुगमता तथा सरलता प्रदान करते हैं।”

अनुदेशन प्रारूप के आधार (Basis of Instructional Design):

अनुदेशन प्रारूप के निम्नलिखित आधार हैं :

1. सिद्धान्त (Theory)-सिद्धान्त में तथ्यों का प्रसार तथा व्यवस्था की जटिलता की व्याख्या की जाती है। इसमें उन तथ्यों की ओर संकेत किया जाता है, जो परस्पर सम्बद्ध होते हैं। यह आनुभाविक तथ्यों की व्याख्या तथा भविष्यवाणी करता है।

2. परिकल्पना (Hypothesis)-परिकल्पना के द्वारा भावी परिणाम की घोषणा की जाती है तथा उसका सत्यापन किया जाता है, जैसे-शोध व अनुसन्धान कार्यों का प्रारम्भ किसी न किसी परिकल्पना पर आधारित होकर ही किया जाता है। परिकल्पनात्मक तथ्यों को सहज रूप में परीक्षण हेतु स्वीकार किया जाता है।

3. प्रारूप (Models)-प्रारूप के द्वारा सिद्धान्तों में निहित चरों (Variables) की प्रक्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है तथा आँकड़ों का संक्षिप्तिकरण प्रस्तुत किया जाता है। शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाले शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य रूप से तीन प्रकार के निर्देशात्मक प्रारूप प्रचलित हैं-भौतिक, संगणक व गणितीय।

4. प्रतिमान (Paradigm)-प्रतिमान अधिगम के मापन में सहायक होते हैं। प्रतिमानों का उपयोग सिद्धान्तीकरण में भी किया जाता है। अधिगम तथा अनुसन्धान की प्रक्रिया प्रतिमान के अभाव में आगे नहीं बढ़ पाती। ।

5. नियम एवं सिद्धान्त (Law and Principles)-नियम के अन्तर्गत चर एवं अचर (Variable & Constant) के बीच सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है एवं सिद्धान्त का अर्थ उन सम्बन्धों से है जो अनुभवों से सिद्ध होते हैं। इन्हीं आधारों पर शैक्षिक तकनीकी में अनुदेशन के प्रारूप के तीन भेद प्रचलित हैं :

(अ) प्रशिक्षण मनोविज्ञान प्रारूप (Training Psychology Design)

(ब) सम्प्रेषण नियंत्रण मनोविज्ञान प्रारूप (Cybernetic Psychology Design)

(स) प्रणाली उपागम (System Approach)

(अ) प्रशिक्षण मनोविज्ञान :

आधुनिक मनोवैज्ञानिक युग में शिक्षण तथा प्रशिक्षण की जटिल समस्याओं के। निवारणार्थ मनोविज्ञान का विशेष महत्त्व है। प्रशिक्षण मनोविज्ञान सीखने व सिखाने की एक महत्त्वपूर्ण विधि है। यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का एक ऐसा उपागम है, जो कार्यों की रूपरेखा तैयार करने में, कार्यों के अवयवों का विश्लेषण करने में और उनको व्यवस्थित करने में इस प्रकार सहायता प्रदान करता है, जिससे अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। प्रशिक्षण मनोविज्ञान का विशेष महत्त्व शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के लिए विशेष रूप से होता है, जिससे छात्राध्यापक शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करना तथा प्रशिक्षण के कार्यों के अवयवों का विश्लेषण करना सीख जायें।

रॉबर्ट गेने ने प्रशिक्षण मनोविज्ञान के सिद्धान्तों की व्याख्या निम्न प्रकार से दी है :

1 किसी भी मानव क्रिया या कार्य का विश्लेषण उसके तत्त्वों में किया जा सकता है।

2. ये तत्त्व एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते हैं। तात्विक कार्यों को विश्लेषित करने के लिए अलग-अलग युक्तियों को अपनाया जाता है। ये तत्त्व अन्तिम कार्य निष्पत्ति के माध्यम होते हैं।

(3) प्रशिक्षण प्रारूप में तीन आधारभूत सिद्धान्त होते हैं :

(अ) तत्त्व कार्य की पहचान करना,

(ब) यह ज्ञात करना कि तत्त्वों को कैसे प्राप्त किया जाये,

(स) तत्त्वों को ऐसे क्रम से व्यवस्थित करना जिससे सीखने की समुचित परिस्थिति उत्पन्न हो सके।

इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित प्रक्रिया में कार्य विश्लेषण अन्त कार्य अन्तरण तथा क्रमबद्धता निहित होती है।

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प्रशिक्षण मनोविज्ञान के सिद्धान्त को किस प्रकार विनियोजित किया जाये, इसका स्वरूप जॉर्जिया शैक्षिक प्रारूप में स्पष्ट रूप में देखने को मिलता है । इसमें सर्वप्रथम उद्देश्यों का निर्धारण, तत्पश्चात लक्ष्य निर्धारण, शिक्षक एवं छात्र व्यवहार का निर्धारण तथा अन्त में कार्य का विश्लेषण किया जाता है। इस प्रक्रिया से बुनियादी स्कूलों में छात्र अधिगम व्यवहार लक्ष्यों में उत्पन्न होते हैं तथा इन व्यवहारों से शिक्षक व्यवहार उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार विसकौंसिन विश्वविद्यालय प्रारूप में सर्वप्रथम शिक्षक की निष्पत्ति का प्रारूप तदुपरान्त निर्देशात्मक प्रारूप तैयार किया जाता है और इसी के माध्यम से प्रारूप के अन्तर्गत व्यवहार पुंज को प्राप्त किया जाता है। हमारे देश में प्रचलित प्रशिक्षण कार्यक्रम बहुत ही अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण है,कहीं भी लक्ष्यों को व्यवहार रूपों में नहीं लिखा जाता, शिक्षक-प्रशिक्षक स्वयं अपने लक्ष्य से अनभिज्ञ होते हैं कि छात्राध्यापकों को क्या सिखाया जाये; इसका बोध भी उन्हें नहीं होता। इस सन्दर्भ में यह कहना उपयुक्त होगा कि जॉर्जिया तथा विसकौंसिन विश्वविद्यालयों द्वारा उपर्युक्त वर्णित प्रारूप शैक्षिक कार्यक्रमों के निर्माण में यथासंभव प्रयुक्त किये जाने चाहिये।

प्रशिक्षण मनोविज्ञान की उपयोगिता (Utility of Training Psychology) :

(1) प्रशिक्षण मनोविज्ञान अध्यापक शिक्षा में शिक्षण तथा प्रशिक्षण के नियोजन के लिए विशेष रूप से सहायक है।

(2) इसके द्वारा छात्राध्यापकों में शिक्षण-कौशल का विकास करने के लिए शिक्षण प्रतिमानों का निर्माण किया जा सकता है।

(3) यह प्रशिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण में सहायक होता है।

(4) इसके द्वारा प्रशिक्षण के कार्यों के तत्त्वों का विश्लेषण किया जा सकता है।

(5) यह पाठ्यक्रमों के विकास के लिए ठोस आधार प्रदान करता है।

(6) इसके द्वारा नवीनतम शिक्षण विधियों तथा नवीन शैक्षिक तकनीकी का प्रयोग शिक्षण में किया जा सकता है।

(7) पाठयोजना के निर्माण तथा उसके प्रस्तुतिकरण में प्रशिक्षण मनोविज्ञान विशेष रूप से उपयोगी होता है।

(ब) सम्प्रेषण-नियंत्रण मनोविज्ञान प्रारूप (Cybernetic Psychology Design) :

साइबरनेटिक शब्द ग्रीक भाषा के काइबरनेट्स (Kybernets) से निकला है, इसका अर्थ है-नेता या प्रशासक । गलिबोर्ड (1960) ने इसका अर्थ यूनानी शब्द काइबरनेकि से लिया है जिसका अर्थ है-शासन करना। ऑक्सफोर्ड एवार लर्नर डिक्शनरी के अनुसार,साइबरनेटिक शब्द का अर्थ है-मानव व पश के मस्तिष्क की मशीन व इलेक्ट्रॉनिक प्रविधि से तुलना करना या सम्प्रेषण और नियंत्रण का विज्ञान । इसमें व्यक्ति को मशीन के रूप में माना जाता है तथा व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित तथा संचालित किया जाता है।

सम्प्रेषण नियन्त्रण का उद्देश्य पृष्ठ-पोषण देना तथा नियन्त्रण करना होता है। दूसरे शब्दों में,यह मानव को एक पृष्ठ-पोषण व्यवस्था के रूप में मानता है जो स्वयं क्रियाओं को उत्पन्न करता है तथा क्रियाओं को वातावरण के अनुसार नियन्त्रित करता है और स्वतः सीखने के लिए प्रेरित होता है। यह प्रारूप सामूहिक शिक्षण की अपेक्षा व्यक्तिगत शिक्षण के लिए अधिक उपयोगी है। दूसरा सबसे समुचित उदाहरण अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction) है, क्योंकि इस विधि द्वारा छात्रों द्वारा दिये गये उत्तरों को शिक्षण मशीन द्वारा सही उत्तरों से मिलाने की सुविधा प्रदान की जाती है ताकि छात्र को अपनी गलतियों को सुधार कर आगे सीखने के लिए उससे पृष्ठ-पोषण मिलता है, जो उसे सही मार्ग की ओर ले जाता है।

डब्ल्यू. वाइनर ने सम्प्रेषण मनोविज्ञान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि यह मशीन एवं जीवों के नियंत्रण एवं सम्प्रेषण का विज्ञान है।

सम्प्रेषण-नियंत्रण मनोविज्ञान प्रारूप की प्रक्रिया सम्प्रेषण– नियंत्रण मनोविज्ञान एक प्रणाली है, जिसकी प्रक्रिया में तीन तत्त्व निहित होते हैं :

(अ) निवेश (Input)-इस प्रक्रिया के प्रारम्भ में जो सूचनायें तथा सामग्री सम्मिलित की जाती है,उसे निवेश कहते हैं।

(ब) प्रक्रिया (Process)-जिन सूचनाओं तथा सामग्रियों द्वारा समस्त क्रियायें सम्पादित की जाती हैं तथा उनमें अपेक्षित सुधार व परिवर्तन किया जाता है, वह प्रक्रिया के अन्तर्गत आता है।

(स) निर्गत (Output)-इसमें प्रक्रिया के परिणामों तथा उपलब्धियों को रखा जाता है।

इस विचारधारा में छात्र को भी एक प्रणाली माना जाता है। छात्र से सम्बन्धित प्रक्रिया में भी तीन तत्त्व सम्मिलित होते हैं जिनमें निवेश को छात्रों की ज्ञानेन्द्रियों के रूप में प्रक्रिया को प्रत्यक्षीकरण के रूप में तथा निर्गत को स्मरण तत्त्वों के रूप में महत्त्व दिया जाता है।

सम्प्रेषण मनोविज्ञान प्रणाली में अनुदेशन को भी सम्मिलित किया जा सकता है, क्योंकि अनदेशन प्रणाली के अन्तर्गत भी उपर्यक्त तीनों तत्व यथा, निवेश,प्रक्रिया तथा निर्गत पाये जाते हैं।

सम्प्रेषण : नियंत्रण मनोविज्ञान प्रात्य की उपयोगिता :

(1) इसके द्वारा अधिगम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को विशेष महत्त्व दिया जाता है।

(2) यह प्रारूप छात्रों को स्वयं सीखने में सहायता देता है।

(3) इसके द्वारा वांछित अधिगम व्यवहार की प्राप्ति होती है।

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(4) इसके द्वारा छात्राध्यापकों में शिक्षण कौशल का विकास किया जा सकता है। छात्राध्यापक सूक्ष्म शिक्षण, अनुकरणीय शिक्षण आदि की सहायता से पृष्ठपोषण की प्रविधियों का प्रयोग करके अपने शिक्षण में सुधार कर सकते हैं।

(5) इसके द्वारा शिक्षण की क्रियाओं का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया जा सकता है।

(6) इसमें शिक्षण प्रतिमानों का निर्माण किया जा सकता है।

(7) यह शिक्षण के सार्वभौम स्वरूप को प्रस्तत करता है जिसमें अधिगम, शक्तियों के संगठन, कारक तथा दशाओं की अन्तःक्रियाओं के परिणाम आदि आते हैं।

(8) इसके द्वारा शिक्षण का प्रारूप तथा शिक्षण का नियोजन किस प्रकार सार्थक बनाया जाये, इस बात पर विशेष बल दिया जाता है।

(स) प्रणाली उपागम (System Approach) :

अनुदेशन प्रारूप की यह ततीय विचारधारा है. इसका प्रशिक्षण मनोविज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसका प्रारम्भ द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हआ। उस समय इसे प्रबन्ध तकनीकी के नाम से जाना जाता था। धीरे-धीरे इसे अनेक नामों से सम्बोधित किया गया, परन्तु यह प्रणाली उपागम अथवा विश्लेषण के नाम से अधिक प्रसिद्ध है।

अनविन ने प्रणाली उपागम को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक प्रणाली, विभिन्न अंगों का वह योग है जो स्वतंत्र तथा सामूहिक रूप से कार्य करते हुए अपनी आवश्यकताओं पर आधारित वांछित परिणामों को प्राप्त कर सके।”

व्यवस्था से अभिप्राय क्रमबद्ध सम्पूर्ण संगठन से है. इसमें प्रत्येक अंश का दूसरे अंश से सम्बन्ध होता है और यही सम्पूर्ण का निर्माण करता है।

प्रणाली उपागम शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक को अपनी समस्याओं के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए वैज्ञानिक तथा परिमाणात्मक आधार प्रदान करता है। यह सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा व्यावहारिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता है। प्रणाली के मुख्य रूप से तीन भाग होते हैं :

(i) उद्देश्य, (ii) प्रक्रिया; तथा (iii) पाठ्यवस्तु।

उद्देश्य के अन्तर्गत ‘इसमें क्या करना है’ इस विषय पर विचार किया जाता है, प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है एवं पाठ्यवस्तु का सम्बन्ध प्रणाली के उपांगों से होता है। प्रणाली को मुख्य तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है :

(i)प्राकृतिक व्यवस्था (Natural System), जैसे-सौर व्यवस्थाः (ii) मानव निर्मित व्यवस्थायें जैसे-टेलीग्राफ व्यवस्था: (iii) प्राकृतिक व मानव निर्मित व्यवस्था, जैसे-हाइड्रोइलेक्टिक प्लांट या आधुनिक डेयरियाँ।

किसी भी व्यवस्था में निम्नलिखित तत्त्व सम्मिलित होते हैं, जैसे :

(i) व्यवस्था के पक्ष,

(ii) वातावरण का प्रभाव,

(iii) व्यवस्था का नियंत्रण व संचालन,

(iv) विद्यालय अथवा संस्था

(v) कार्यों का समुचित वितरण,

(vi) व्यवस्था उपागम,

(vii) कार्योन्मुखीकरण; एवं

(viii) उद्देश्योन्मुखी व्यवस्था पर बल।

प्रणाली उपागम की प्रक्रिया :

प्रणाली उपागम की प्रक्रिया में निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

 (1) उद्देश्यों का प्रतिपादन करना।

(2) समस्या के चयन हेतु क्रियाओं का व्यापक रूप से अवलोकन करना,

(3) आँकड़ों का संकलन करना,

(4) आँकड़ों का विश्लेषण करना,

(5) समस्या को पहचानना,

(6) समस्या के क्षेत्र की व्यवस्था करना,

(7) समस्या के क्षेत्र का निर्धारण,

(8) समस्या समापन हेतु नवीन रूपरेखा बनाना; एवं

(9) मूल्यांकन करना

प्रणाली उपागम की उपयोगिता :

(1) इससे विद्यालय के कार्मिक एवं प्रबन्धकीय अधिकारियों का अधिक से अधिक सहयोग व अपेक्षित उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि इसके माध्यम से उनके क्रियाकलापों को नियंत्रित, संयोजित तथा मूल्यांकित किया जा सकता है।

(2) इसके माध्यम से शैक्षिक प्रशासन, शैक्षिक व्यवस्था तथा शैक्षिक अनुदेशन को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

(3) प्रणाली विश्लेषण का प्रयोग नवीन शैक्षिक प्रशासन, अध्यापक शिक्षा, परीक्षा प्रणाली, निर्देशन प्रणाली, अनुदेशन प्रणाली तथा शैक्षिक व्यवस्था आदि के

प्रारूपों के निर्माण में किया जा सकता है।

(4) यह विद्यालय कार्यक्रमों की प्रभावशाली योजना बनाने में सहायक होती है।

(5) इसके द्वारा उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रभावशाली रूप से किया जा सकता है।

(6) इसके द्वारा शिक्षा की गुणात्मकता में वृद्धि की जा सकती है।

(7) यह प्रशिक्षण एवं विकासात्मक कार्यक्रमों के सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है।

(8) विश्लेषण प्रणाली अधिगम व्यवहार को नियंत्रित करने का वैध उपकरण है।

शैक्षिक तकनीकी के कार्यक्षेत्र :

उपर्युक्त वर्णित शैक्षिक तकनीकी के कार्यक्षेत्रों जैसे, व्यवहार तकनीकी, अनुदेशन तकनीकी, शिक्षण तकनीकी व अनुदेशन की रूपेरखा के अतिरिक्त इसके कुछ अन्य सामान्य कार्यक्षेत्र हैं :

(1) शैक्षिक क्षेत्रों का निर्धारण करना,

(2) पाठ्यक्रम निर्माण क्षेत्र,

(3) दृश्य-श्रव्य सामग्री का चयन करना,

(4) हार्डवेयर उपकरणों के प्रयोग का क्षेत्र

(5) शिक्षण-अधिगम संरचनाओं (Strategies) का चयन करना,

(6) पृष्ठ पोषण देना; एवं

(7) शिक्षक प्रशिक्षण देना।

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