परामर्श एवं निर्देशन में अन्तर

परामर्श एवं निर्देशन में अन्तर, परामर्श की विधियाँ | Difference Between Counseling and Guidance in Hindi

परामर्श एवं निर्देशन में अन्तर (DISTINCTION BETWEEN COUNSELING AND GUIDANCE)

हाल (Hall) एवं लारी (Lauwery) आदि विद्वानों ने निर्देशन एवं परामर्श को समानार्थी माना है। परन्तु अधिकांश विद्वान परामर्श एवं निर्देशन में अन्तर स्पष्ट बताते हैं।

हम्फ्रीज एवं टैक्सलर के अनुसार- “निर्देशन एवं परामर्श दोनों पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। परामर्श निर्देशन में समाविष्ट है। परामर्श की प्रक्रिया में साक्षात्कार एवं मूल्यांकन का प्रयोग साधन के रूप में किया जाता है।”

 

“The term guidance and counseling are not synonymous. Guidance includes counseling. In the process known as counseling, testing and interviewing are parts or tools.”

 -J. Anthony Humphreys and A. E. Traxler

 

विद्वानों के अनुसार परामर्श एवं निर्देशन में निम्नलिखित अन्तर है-

(1) निर्देशन एक व्यापक प्रक्रिया है और परामर्श इनका महत्त्वपूर्ण अंग है।

(2) परामर्श के बिना निर्देशन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।

(3) इस प्रकार निर्देशन की प्रक्रिया परामर्श की प्रक्रिया से अधिक व्यापक है।

(4) परामर्श के केन्द्र में एक समय में केवल एक व्यक्ति होता है, जबकि निर्देशन सामूहिक भी होता है।

(5) जोन्स के मत में परामर्श, निर्देशन का अभिन्न अंग है तथा निर्देशन की विधि है।

(6) डाॅ. सीताराम जायसवाल के अनुसार परामर्श मुख्यतया व्यक्ति के मानसिक स्वास्थान भावात्मक समस्याओं को हल करने में व्यक्ति को सहायता देता है और व्यक्ति के परिवेश से ही सम्बन्ध रहता है, जबकि निर्देशन का सम्बन्ध व्यक्तिगत समस्याओं के साथ-साथ शैक्षिक, व्यावसायिक एवं अन्य समस्याओं से भी होता है। अन्य शब्दों में परामर्श का सम्बन्ध व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्याओं से होता है, जबकि निर्देशन अन्य समस्याओं में भी होता है।

 

 

परामर्श की विधियाँ(METHODS OF COUNSELING)

परामर्श देने की विधियों का अध्ययन अनेक प्रकार से किया जाता है। यहाँ परामर्श की कुछ प्रमुख विधियों का उल्लेख किया जा रहा है-

1. मौन धारण (Silence)- इस विधि में परामर्शदाता मौन-धारण करके परामर्शप्रार्थी की बाते सुनता जाता है। प्रार्थी अपनी समस्या का वर्णन करता जाता है। प्रार्थी के वर्णन से परामर्शदाता उसकी समस्या को अधिक समझने की चेष्टा करता है। मौन-धारण इस बात का संकेत है कि परामर्शदाता व्यक्ति की समस्या को समझ रहा है और उस पर विचार कर रहा है।

2. स्वीकृति (Acceptance)- जब परामर्शप्रार्थी समस्या का वर्णन करता है, तो परामर्शदाता बीच-बीच में इस प्रकार का शब्द बोलता जाता है जिससे प्रार्थी यह समझता है कि वह जो कुछ कह रहा है, उससे परामर्शदाता सहमत है और उसकी समस्या को ठीक प्रकार से समझ रहा हो। परामर्शदाता इस प्रकार के शब्द बोलता है- ठीक है, अच्छा तथा हूँ आदि।

3. पुनरावृत्ति (Restatement)- पुनरावृत्ति द्वारा परामर्शदाता उसी बात को जैसा का तैसा दुहरा देता है जिसे कि प्रार्थी ने वर्णित किया है। इस प्रकार स्वीकति और पुनरावृत्ति से परामर्श प्रार्थी को यह ज्ञान हो जाता है कि परामर्शदाता उसकी बात को ठीक प्रकार से समझ रहा है।

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4. स्पष्टीकरण (Clarification)-कभी-कभी यह आवश्यक होता है कि परामर्शदाता परामर्श प्रार्थी के वर्णन का स्पष्टीकरण भी करे। परन्तु स्पष्टीकरण करते समय प्रार्थी को यह अनुभव नहीं होना चाहिए कि परामर्शदाता उस पर अपने विचारों का प्रभाव डाल रहा है।

5. मान्यता (Approval)-जब परामर्शप्रार्थी अपनी समस्या का वर्णन करता है, तो यह आवश्यक नहीं है कि उसकी सभी बातों को परामर्शदाता मान्यता दे दे। परन्तु जिनको वह मान्यता प्रदान करता है, वे विचार प्रार्थी को अधिक प्रभावित करते हैं।

6. सामान्य मार्गदर्शन (General Lends)- जब प्रार्थी अपने कथन का एक अंग समाप्त कर चुकता है तब परामर्शदाता उसका मार्गदर्शन करता है। मार्गदर्शन द्वारा परामर्शदाता प्राथी के विषय में अधिक सूचना प्राप्त कर सकता है, जैसे वह पाठ सकता है इस समस्या के हल के विषय में तुम्हारा क्या विचार है ? आदि।

7.विश्लेषण (Analysis)- प्रार्थी की समस्या को सनकर परामर्शदाता उसका विश्लेषण करके उसे समस्या के समाधान के लिए परामर्श दे सकता है, परन्तु वह समाधान को प्रार्थी पर लादता नहीं है। उसका कार्य केवल समाधान प्रस्तुत करना होता है शेष वह प्रार्थी पर छोड देता है। यह प्राथी की इच्छा पर निर्भर है कि वह समाधान को जैसा का तैसा स्वीकार कर ले या उसमें संशोधन करके स्वीकार करे।

8. विवेचना (Interpretation)- विवेचना के माध्यम से परामर्शदाता प्रार्थी के कथन से निष्कर्ष निकालता है क्योंकि प्रार्थी निष्कर्ष निकालने में असमर्थ होता है। परामर्शदाता केवल उसी कथन की विवेचना करता है, जो प्रार्थी देता है, वह अपनी तरफ से उसमें कुछ नहीं मिलाता।

9. परित्याग (Regression)- जब परामर्शप्रार्थी की विचारधारा पूर्णतया दोषपूर्ण होती है, तो परामर्शदाता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इन दोषपूर्ण विचारधाराओं का परित्याग करे। इस परित्याग का प्रमुख उद्देश्य प्रार्थी को निराश न करना होकर उसकी विचारधारा में परिवर्तन करना होता है।

10. विश्वास (Assurance)- विश्वास के माध्यम से परामर्शदाता प्रार्थी के कथनों और विचारों को स्वीकार तो करता है, परन्तु साथ ही साथ उनका अनुमोदन भी करता है। वास्तव में विश्वास स्वीकति से अधिक व्यापक होता है इस कारण विश्वास में स्वीकृति भी सम्मिलित की जाती है। परामर्शदाता को यह ध्यान में रखना चाहिए कि दिया गया विश्वास वापस नहीं लिया जा सकता, यदि लेने का प्रयास किया भी जाता है, तो बड़ी कठिनाई होती है।

 

 

 

निर्देशात्मक तथा अनिर्देशात्मक परामर्श(DIRECTED AND NON-DIRECTED COUNSELING)

ऊपर हमने परामर्श की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख किया था। वास्तव में उपर्युक्त परामर्श के सभी स्वरूपों का आधार निर्देशात्मक और अनिर्देशात्मक है। अन्य शब्दों में स्वरूपगत आधार पर परामर्श के दो ही रूप किये जा सकते हैं- निर्देशात्मक और अनिर्देशात्मक परामर्श। यहाँ हम संक्षेप में दोनों के ऊपर प्रकाश डालेंगे-

1. निर्देशात्मक परामर्श (Instructive Counseling)-

निर्देशात्मक परामर्शदाता को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अन्य शब्दों में इस प्रकार का परामर्श परामर्शदाता केन्द्रित होता है। निर्देशात्मक परामर्श की प्रक्रिया निम्न प्रकार चलती है

(1) इस प्रक्रिया में पूर्व निर्धारित योजना के आधार पर समस्या की व्याख्या विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर की जाती है।

(2) विलयमसन (Willamson) तथा डार्ले (Darley) के अनुसार विभिन्न विधियों तथा उपकरणों के माध्यम से परामर्शदाता आँकड़े संगृहीत कर उनका विश्लेषण करता है। अथवा समस्या के कारणों को निर्धारित करता है।

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(3) तत्पश्चात् ऑकड़ों का यान्त्रिक (Mechanical) तथा आकृतिक (Graphic) संगठन करके उनका संश्लेषण किया जाता है।

(4) उपर्युक्त कार्यवाहियों के पश्चात् परामर्शदाता परामर्शप्रार्थी से साक्षात्कार करता है। प्राप्त सूचनाओं के आधार वह परामर्शप्राथी को समस्या के कारणों एवं समाधानों के विषय में बताता है। परन्तु वह उसे समाधान स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं करता है। इस पर भी परामर्शदाता अपने तर्कों द्वारा उसे अपने निर्णय पर पहुँचा देता है।

जेम्स एम. ली के अनुसार, “निर्देशात्मक परामर्श, परामर्शदाता द्वारा पूर्वनियोजित प्रक्रिया है जिसके आधार पर वह परामर्शप्रार्थी की समस्या को समझा जाता है और स्वयं उनका समाधान करता है।“

 

2. आनदेशात्मक परामर्श (Non-Instructive Counseling)-

यदि निर्देशात्मक परामर्श परामर्शदाता-केन्द्रित होता है, तो इसके विपरीत अनिर्देशात्मक परामर्श, प्रार्थी-केन्द्रित परामर्श होता है। इस परामर्श में परामर्शदाता एवं परामर्शप्रार्थी के साक्षात्कार करने के लिए पहले से किसी प्रकार की तैयारी नहीं करता है और न ही कोई योजना बनाता है। जेम्स एम. ली के अनुसार “अनिर्देशात्मक प्रार्थी अपनी समस्या को भली प्रकार से समझ जाता है तत्पश्चात् उसे हल कर लेता है।”

परामर्श के इस स्वरूप का प्रमुख व्याख्याता कार्ल रोजर्स को माना जाता है। रोजर्स (Rogers) के अनुसार, “निदेशीय परामर्श अमनोवैज्ञानिक तथा प्रभावहीन है क्योंकि इसमें निर्देशन का बिन्दु समस्या होती है, न कि व्यक्ति। यह दोष अनिर्देशात्मक परामर्श द्वारा दूर हो जाता है।”

 

 

अनिर्देशात्मक परामर्श की विशेषताएँ (Characteristics or Non-instructive Counseling)-

रोजर्स ने अनिर्देशात्मक परामर्श की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी हैं-

1) अनिर्देशात्मक परामर्श, परामर्शप्रार्थी पर केन्द्रित होता है।

(2) इसमें परामर्शदाता पहले से ही किसी प्रकार की योजना का निर्माण नहीं करता है।

(3) परामर्शप्रार्थी, परामर्शदाता के पास स्वयं जाता है और उसके सम्मुख समस्या का प्रस्तुत करता है।

(4) इस परामर्श में व्यक्ति को महत्त्व दिया जाता है, न कि समस्या को।

(5) व्यक्ति अपनी समस्या लेकर परामर्शदाता के पास पहुँचता है तो परामर्शदाता उनके साथ अवसर देता है। सहानभूति और विश्वास का व्यवहार करके उसे अपनी समस्याओं तथा कठिनाइयों को कहने का अवसर देता है।

(6) इस प्रकार आनदशात्मक परामर्श में परामर्शप्रार्थी को अपनी भावनाओं तथा दमित वेगों को स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने का अवसर दिया जाता है।

(7) परामर्शदाता तटस्थ होकर परामर्शप्रार्थी की समस्याओं विचारों अन्य व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण और भावनाओं को समझने का प्रयास करता है।

(8) परामर्शदाता व्यक्ति परामर्शप्रार्थी के लिए किसी विशेष निर्णय को नहीं सुझाता, अन्तिम निर्णय परामर्शप्रार्थी को ही लेना पड़ता है।

(9) परामर्शदाता इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न करता है, जिसमें परामर्शप्रार्थी अपनी समस्या का स्वयं समाधान खोज सके।

(10) संक्षेप में अनिर्देशात्मक परामर्श का उद्देश्य, व्यक्ति की किसी समस्या का समाधान करना मात्र नहीं वरन् उसके विकास में इस प्रकार सहायता देना है कि उसमें इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि वह स्वयं अपनी वर्तमान तथा भावी समस्याओं का समाधान कर सके।

 

 

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