अनुदेशन एवं प्रशिक्षण | शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण में अन्तर

अनुदेशन एवं प्रशिक्षण | शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण में अन्तर | Instruction and Training In Hindi

 

अनुदेशन शब्द का साधारण भाषा में अर्थ है-सूचना देना अथवा आज्ञा देना। प्रायः अनुदेशन तथा शिक्षण दोनों समानार्थक रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं, जबकि इन दोनों शब्दों के अर्थों में आधारभूत अन्तर है। अनुदेशन शब्द का वास्तविक रूप हमें कक्षा शिक्षण में मिलता है। कक्षा शिक्षण के समय अध्यापक विषय को छात्र तक पहुँचाने के लिए जो क्रिया करता है, उसे अनुदेशन कहते हैं। दूसरे शब्दों में, अनुदेशन शिक्षक तथा शिक्षार्थी के मध्य पाठ्यक्रमीय ज्ञान के आदान-प्रदान की क्रिया है। अतः अनुदेशन कक्षा में ही समाप्त हो जाता है, जबकि शिक्षण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है तथा यह व्यक्तित्व के कई पक्षों को प्रभावित करती है। अतः अनुदेशन का क्षेत्र सीमित है तथा शिक्षण का क्षेत्र विस्तृत है। अनुदेशन में पाठ्यक्रम को विशेष महत्त्व दिया जाता है तथा पाठ्यक्रम को पूर्ण करना ही इसका एकमात्र उद्देश्य होता है । यह ज्ञान प्राप्ति अथवा कौशल प्राप्ति तक ही सीमित होता है, जबकि शिक्षण में ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक तीनों पक्ष सम्मिलित होते हैं । इस प्रकार शिक्षण में तो अनुदेशन निहित होता है, परन्तु अनुदेशन में शिक्षण होना आवश्यक नहीं है।

अनुदेशन की परिभाषा:

एस.एम. कोरे (S.M. Corey)-“अनुदेशन एक पूर्वनियोजित शैक्षिक प्रक्रिया है जिसमें शिक्षार्थी के वातावरण को इस प्रकार नियंत्रित किया जाता है कि विशिष्ट परिस्थितियों में वह। इच्छित व्यवहार को प्रदर्शित कर सके।” |

एस.एम. मैक्मुरिन (S.M. McMurin)-“अनुदेशन तकनीकी शिक्षण और सीखने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को विशिष्ट उद्देश्यों के अनुसार डिजाइन करने,चलाने और उसका मूल्यांकन करने का एक क्रमबद्ध तरीका है।”

लुम्सडेन (Lumsdaine)-“अनुदेशन से तात्पर्य शैक्षिक घटकों को इस प्रकार व्यवस्थित करना है, जो शिक्षार्थी में व्यवहारगत परिवर्तन ला सकें।”

गेट्स (Gates)-“अनुदेशन वह प्रक्रिया है, जो शिक्षार्थी को कुछ उद्देश्यों की ओर प्रभावित करती है।”

अनविन (Unwin)-“अनुदेशन के प्रारूप से तात्पर्य आधुनिक कौशल तथा प्रविधियों का शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना है। इसके अन्तर्गत विधि, साधन, वातावरण सम्मिलित किये जाते हैं, जो अधिगम को सुगमता तथा सरलता प्रदान करते है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि अनुदेशन एक कक्षा शिक्षण में चलने वाली प्रक्रिया है जिसे व्यवस्थित रूप से कक्षा में शिक्षक द्वारा प्रयुक्त किया जाता है।

वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ अनुदेशन कक्षा शिक्षण के साथ-साथ अन्य माध से भी किया जाता है जैसे, अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction), रेडियो या दरदर्शन अनुदेशन (Radio or T.V. Instruction) या कम्प्यूटर-सहायक अनदेशक (Computer-assisted Instruction) आदि। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनदेशन सदैव औपचारिक होता है, जबकि शिक्षण प्रायः अनौपचारिक भी हो जाता है।

आधनिक मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के सिद्धान्त एवं उनके प्रयोगों पर बल देने के साथ-साथ शिक्षण की उपयुक्त परिस्थितियाँ, कार्यों की निश्चित रूपरेखा एवं नवीन उपागमों पर बल देने की आवश्यकता महसूस की, जिससे कक्षा शिक्षण प्रभावोत्पादक एवं शक्तिशाली बनाया जा सके; इस दृष्टि से ही शिक्षण में अनुदेशन के प्रारूप बनाये गये। ये प्रारूप तीन प्रकार के होते हैं :

1. प्रशिक्षण मनोविज्ञान (Training Psychology)-प्रशिक्षण मनोविज्ञान छात्र तक विषय किस तरह प्रभावशाली ढंग से पहुँचे; इसके लिए कार्य विश्लेषण (Task Analysis) पर बल देता है।

2. पृष्ठपोषण मनोविज्ञान (Cybernetic Psychology)-यह मनोविज्ञान छात्र द्वारा सीखे गये ज्ञान को पुष्ट करने हेतु पृष्ठपोषण एवं पुनर्बलन पर बल देता है।

3. प्रणाली विश्लेषण (System Analysis)-यह शैक्षिक प्रशासन, व्यवस्था तथा अनुदेशन को अधिक प्रभावशाली बनाने पर बल देता है। इस प्रकार अनुदेशन के उपर्युक्त तीनों प्रारूप एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।

अनुदेशन प्रक्रिया :

अनुदेशन की प्रक्रिया में कम से कम व किसी न किसी प्रकार से एक प्रकार का वार्तालाप चलता है, जिसका उद्देश्य तर्क देना, प्रमाणों की सत्यता बताना, उपयुक्तता सिद्ध करना, व्याख्या करना, निष्कर्ष निकालना आदि हैं, जिसमें समय-सीमा, उपलब्ध साधन और पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। उद्देश्यों को प्रायः व्यवहारगत परिवर्तनों के रूप में लिखा जाता है। ये उद्देश्य यदि प्राप्त हो जाते हैं, तब इसका अर्थ यह है कि अनदेशन के पश्चात शिक्षार्थी इन व्यवहारों को प्रदर्शित कर सकेगा। अनुदेशन व्यवहारगत परिवर्तन पर आधारित होता है। इसमें दो प्रकार के व्यवहार पर बल दिया जाता है:

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(अ) न्यूनतम आवश्यक व्यवहार-यह व्यवहार विषयवस्तु को सीखने के लिए आवश्यक पूर्वज्ञान से सम्बन्धित है।

(ब) अन्तिम व्यवहार-जिन्हें शिक्षार्थी विस्यवस्ने सो सीखने के प्रसास्वरूप प्रदर्शित करता है।

अनुदेशन देने से पूर्व जिन छात्रों को अनदेशित किया जाना है, उनकी मानसिक योग्यता तथा सामाजिक-आर्थिक स्तर का ज्ञान भी प्रामा कर लेता हायक है।

अनदेशन के सोपान (Steps of Instruction) :

अनदेशन में प्रयुक्त की जाने वाली किसी भी प्रणाली जैसे,व्याख्यान,प्रदर्शन,सामान्य आदि में निम्नलिखित अनुदेशन के सोपानों का अनुसरण किया जाना चाहिए :

1. उद्देश्यों का निर्धारण-अनुदेशन के उद्देश्य स्पष्ट एवं सुनिश्चित होने चाहिएं तथा प्रशिक्षणार्थियों द्वारा प्रशंसनीय होने चाहिएँ।

2. तैयारी-अनुदेशन की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि अनुदेशन की तैयारी कैसी की गई है, क्योंकि पूर्व सुनियोजित तैयारी ही अधिगमकर्ता (Learner) को सीखने में सहायता प्रदान करती है।

3. प्रस्तुतिकरण-अनुदेशक की भूमिका एक निर्माता, प्रबन्धक, अभिनेता, प्रोत्साहक आदि अनेक रूपों में होती है, अतः अनुदेशक को प्रस्तुतिकरण करते समय अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए।

4. सम्प्रेषण-अनुदेशक के द्वारा अभिव्यक्त किये गये विचार छात्रों तक भली-भाँति पहुँचने चाहिए।

5. आत्मीकरण-सम्प्रेषित विचारों को छात्रों द्वारा आत्मसात् किया जाना चाहिए, ताकि अनुदेशक छात्रों में विश्वास जागृत कर, उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बन सके।

6. मूल्यांकन-मूल्यांकन के द्वारा छात्रों की कमजोरियों को ज्ञात कर उनके निवारणार्थ उपाय किया जा सकता है।

7. पृष्ठपोषण (Feed-back) – जो भी पाठ विद्यार्थियों को पढ़ाया जाये, उसमें उनके द्वारा की गई त्रुटियों व उपलब्धियों का ज्ञान अनुदेशक द्वारा करवाया जाना चाहिए।

अनुदेशन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Instruction) :

अनुदेशक को अनुदेशन (Instruction) देने से पूर्व निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए:

1. कक्षा सीखने के लिए अभिप्रेरित (Motivated) होनी चाहिए।

2 छात्र में सीखने की इच्छा जागत की जानी चाहिए।

3. छात्र के आचरण में ऊँचा उठने की भावना, अच्छे विचार, समुदाय के साथ सम्बद्ध होना व परिवार के लिए सहायक होना आदि गुणों को विकसित किया जाना चाहिए।

4. अनुदेशक सुनिश्चित करे कि छात्रों में रुचि व अभिप्रेरणा जागृत हुई या नहीं।

5. रुचि को छात्रों का ध्यान केन्द्रित करने का आधार बनाया जाना चाहिए।

6. अनुदेशक को अनुदेशन करते समय निम्नलिखित तीन बिन्दुओं का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए :

(क) जानने योग्य परमावश्यक बातें-इस वर्ग में अनुदेशक को विषय से सम्बन्धित वे महत्त्वपूर्ण बातें प्रस्तुत करनी चाहिए, जो इस विषय के ज्ञान हेतु परमावश्यक हो

(ख) जानने योग्य सामान्य बातें-इस वर्ग में विषय से सम्बन्धित सामान्य बातों को सम्मिलित किया जा सकता है; एवं

(ग) ऐसी बातें जिनको जाना जा सकता है-इस वर्ग में विषय की उन बातों को जा सकता है, जो उससे प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध न होकर अप्रत्यक्ष रूप से सम्बधित हों। दूसरे शब्दों में, विषय के विस्तृत ज्ञान में सहायक हों।

अनुदेशक के गुण (Virtues of An Instructor) :

1. उस विषय के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिएँ।

2. वह अपनी कक्षा और विषय से परिचित होना चाहिए।

3. उसे उत्साही होना चाहिए।

4. अनुदेशक ऐसा हो जिसे छात्र कक्षा में भली-भांति देख तथा सन सकें।

5. अनुदेशक एक अच्छा प्रदर्शक होना चाहिए।

6. उसकी अभिव्यक्ति की शैली नाटकीय होनी चाहिए।

7. अनुदेशक को छात्रों की शंकाओं का समाधान करने, प्रश्न पूछने, तर्क-वितर्क करने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए।

8. अनुदेशक के लिए यह परमावश्यक है कि वह अभिव्यक्ति के लिए हावभावों का समुचित प्रयोग करने में दक्ष हो।

9. अनुदेशक को आवाज के उतार-चढ़ाव,लय यति गति,प्रवाह आदि का विषय एवं संदर्भ के अनुसार प्रयोग करना चाहिए।

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10. अनुदेशक की अभिवृत्ति छात्रों के प्रति निष्पक्ष, दृढ़ तथा मित्रवत् होनी चाहिए।

 

अनुदेशन की विभिन्न विधियाँ :

1. व्याख्यान विधि (Lecture Method),

2. सहभागिता अधिगम विधि (Participative Learning Method),

3. पारस्परिक व्याख्यान विधि (Mutual Lecture Method),

4. पाठ विधि (सामान्य शिक्षण) (Lesson Method),

5. प्रायोजना विधि (Project Method),

6. संवाद विधि (Discussion Method),

7. समूह चर्चा (Group Discussion),

8. मण्डली चर्चा (Syndicate Discussion),

9. भूमिका निर्वाह विधि (Role Playing Method),

10. ट्यूटोरियल कालांश (Tutorial Periods); एवं

11. प्रदर्शन विधि (Demonstration Method).

 

प्रशिक्षण (Training)

शिक्षण बालक के सर्वांगीण विकास से सम्बन्धित होता है, जबकि प्रशिक्षण किसी एक विशेष क्षेत्र में कौशल प्रदान करने के लिए दिया जाता है । इस प्रकार प्रशिक्षण तो शिक्षण का। एक अंग मात्र ही है । शिक्षण का क्षेत्र विस्तृत तथा प्रशिक्षण का क्षेत्र संकुचित होता है । ‘शिक्षण’ शब्द का प्रयोग आदतों के निर्माण के लिए किया जाता है, जबकि प्रशिक्षण शब्द का प्रयोग आदतों को स्वरूप प्रदान करने के लिए किया जाता है। प्रशिक्षण शब्द का प्रयोग अधिकतर पशुओं के प्रशिक्षण के लिए किया जाता है, जैसे कि सर्कस आदि में हाथी, घोड़े, और आदि। को एक विशिष्ट कार्य सम्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।इसी प्रकार बद्धिजीवी मानवों को विशिष्ट क्षेत्रों में दक्ष बनाने हेतु प्रशिक्षण दिया जाता है जैसे शिक्षक प्रशिक्षण कम्प्यूटर प्रशिक्षण, हस्तकला प्रशिक्षण, सिलाई, बुनाई,कदाई, भोजन बनाना, घर में व्यर्थ पदार्थों का उपयोग, सजावट का सामान बनाना आदि।

प्रशिक्षण में प्रशिक्षक का स्थान प्रमुख होता है। वह प्रशिक्षणार्थियों में विभिन्न कौशलों के विकास के लिए प्रयत्न करता है। प्रशिक्षणार्थियों को सैद्धान्तिक कार्य के साथसाथ प्रायोगिक कार्य भी करने होते हैं, क्योंकि इनके बिना कौशल विकसित नहीं होगा। रूसो ने प्रशिक्षण को महत्त्व देते हुए बताया कि मनुष्य मूलत: पशु है, अत: उसकी पाशविक प्रवत्तियों का शोधन एवं मार्गान्तरीकरण प्रशिक्षण से ही सम्भव है। प्रशिक्षण में अभ्यास का विशेष महत्त्व है, क्योंकि अभ्यास के अभाव में प्रशिक्षणार्थी अर्जित कौशल को भूल सकता है।

ग्रीन महोदय ने शिक्षण और प्रशिक्षण के अन्तर को स्पष्ट करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि “वांछित व्यवहार के प्रशिक्षण में वृद्धि के प्रकटीकरण की मात्रा का अनुपात जितना अधिक होगा, उतनी ही आसानी से शिक्षण और प्रशिक्षण को एकदूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकेगा। वांछित व्यवहार में जिस अनुपात में बुद्धि का प्रकटीकरण नहीं होता है, उस अनुपात में हम प्रशिक्षक पद का प्रयोग कर सकते हैं, किन्तु शिक्षण का नहीं।”

ग्रीन महोदय के इस सिद्धान्त से स्पष्ट होता है कि शिक्षण का प्रत्यक्ष सम्बन्ध सैद्धान्तिक पक्षों एवं ज्ञान के प्रतिपादन से सम्बन्धित है। प्रशिक्षण का सीधा सम्बन्ध व्यवहारगत परिवर्तन के साथ है। जहाँ व्यवहारगत परिवर्तनों में बुद्धि के प्रकटीकरण का अनुपात अधिक होता है, वहाँ प्रशिक्षण के स्थान पर शिक्षण का प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु जहाँ व्यवहार परिवर्तन में बुद्धि के प्रकटीकरण का अनुपात कम होता है, वहाँ प्रशिक्षण शब्द का प्रयोग ही किया जा सकता है, शिक्षण का नहीं।

उपर्युक्त तीनों सम्प्रत्यय शिक्षण, अनुदेशन तथा अधिगम एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। पी.सी. लेन्ज’ ने इन तीनों ही सम्प्रत्ययों के परस्पर सम्बन्ध को दर्शाने वाला चित्र निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया है :

उपर्यक्त चित्र से स्पष्ट होता है कि अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शिक्षण तथा अनुदेशन दोनों ही सहायक होते हैं, लेकिन शिक्षण तथा अनुदेशन के अतिरिक्त भी अन्य तत्त्वों से प्रभावित होकर अधिगम चलता रहता है। शिक्षण-चक्र को देखने से स्पष्ट होता है कि शिक्षण का क्षेत्र विस्तृत तथा अनुदेशन का संकुचित होता है। अनुदेशन शिक्षण का एक भाग है न कि सम्पूर्ण शिक्षण।

 

शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण में अन्तर

 

शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण में अन्तर

 

 

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