पर्यावरणीय विकास की अवधारणा

पर्यावरणीय विकास क्या है, तत्व और समस्याएं | Ecological Development in Hindi

पर्यावरणीय विकास क्या है

ऐसा विकास, जो परिस्थितिकी(Ecological ) तन्त्र की समग्रता को ध्यान में रखकर अग्रसर होता है, समन्वित विकास कहलाता है। वास्तविक जगत से पर्यावरण का संकट, विकास का संकट, ऊर्जा का संकट तथा सामाजिक असमानता की समस्या एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। अभी तक अधिक ध्यान आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव पर दिया जाता था, किन्तु अब पर्यावरण पर दबाव का प्रभाव आर्थिक विकास पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए पर्यावरणीय विकास की अवधारणा आर्थिक विकास तथा परिस्थितिकी में से किसी एख को प्रधान एवं गौण न मानते हुए तथा एक-दूसरे पर आश्रित मानकर समन्वित संश्लिष्ट विकास पर ध्यान केन्द्रित करता है।

 

 

पर्यावरणीय विकास के प्रमुख तत्वों की व्याख्या कीजिए।

पर्यावरणीय विकास के निम्नलिखित तीन प्रमुख तत्व हैं –

1. एकीकृत/समन्वित विकास (Integrated Development)-

यह एक ऐसा विकास है, जो कि पारिस्थितिकी तंत्र की समग्रता को ध्यान में रखते हुए अग्रसर होता है। वास्तविक जगत में पर्यावरण का संकट, विकास सम्बन्धी संकट, ऊर्जा संकट एवं सामाजिक वैषम्यता की समस्या एक दूसरे से पृथक नहीं है। अभी कुछ दशकों पूर्व तक अधिक ध्यान आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव पर ही दिया जाता था। किन्तु वर्तमान समय में पर्यावरण पर दबाव का प्रसार आर्थिक विकास पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। अतः पर्यावरणीय विकास की अवधारणा आर्थिक विकास तथा पारिस्थितिकी में से किसी को प्रधान/मुख्य और किसी को गौण न मानकर तथा एक दूसरे पर आश्रित मानते हुए स्वीकृत/ समन्वित संश्लिष्ट विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है।

2. सन्तुलित विकास (Balanced Development)-

यह ऐसा विकास है, जिससे समाज के समस्त वर्गों को समुचित लाभ मिलता है, यानी समाज के धनी एव निधना प्रत्येक वर्गों को समुचित लाभ प्राप्त होता है। असमानता वर्तमान समय में संसार की सबस बड़ी पारिस्थितिकीय समस्या है। यह विकास की सबसे बड़ी समस्या है। अतः पर्यावरणाीय विकास की अवधारणा ऐसे आर्थिक विकास एवं पारिस्थितिकी संरक्षण पर बल देती, जिससे विश्व के विकसित और अल्पविकसित देशों के मध्य का अन्तर कम हो जाए और अल्पविकसित देशों में गरीबों की मूलभूत अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए, न कि विशिष्ट वर्गों के अधिक उपभोग का यूरोप के स्विट्जरलैण्ड का एक नागरिक अफ्रीका के सोमालीलैण्ड के 40 व्यक्तियों के बराबर उपभोग करता है।

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3. पोषणीय विकास (Substainable Development)-

इस प्रकार के विकास की मान्यता है कि विकास ऐसा हो, जो न केवल मानव समाज की तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति करे, बल्कि स्थायी रूप से भविष्य के लिए भी निर्वाध विकास प्रस्तुत करे। यह संकल्पना सर्वप्रथम 1987 में ‘ब्रटलैण्ड रिपोर्ट’ में प्रकट हुई, जिससे इस बात पर बल दिया गया था। एक आर्थिक विकास की एक ऐसी पद्धति तैयार की जानी चाहिए कि भविष्य की पीढ़ियों के विकास के आधार पर कोई आंच/बाधा न आए। ऐसा संरक्षण सकारात्मक है, क्योंकि इसमें पारिस्थितिक तन्त्र के तत्वों का संचय, रखरखाव, पुनर्स्थापन, दीर्घकालीन उपयोग और अभिवृद्धि सभी कुछ समाहित है। पोषणीय विकास की अवधारणा यह तथ्य भी मानती है कि पारिस्थितीकी तन्त्र हमारे पूर्वजों से प्राप्त विरासत नहीं, वरन् भावी सन्तानों की धरोहर है।

भारत में पर्यावरणीय समस्याएँ और नियोजन 

भारत में पर्यावरण प्रदूषण एक गम्भीर समस्या होती जा रही है। हमारे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्रियाकलापों ने पर्यावरणीय क्षेत्र में कई समस्याएँ उत्पन्न की हैं, यथा- गैर सम्पोषित से सम्पोषित विकास की जीवन शैली का प्रचलन, ऊर्जा से सम्बन्धित नगरीय समस्याएँ, जल संरक्षण और जल ग्रहण प्रबन्धन, लोगों का पुनः संस्थापन एवं पुर्नवास, पर्यावरणीय नैतिकता, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक ताप में वृद्धि, हरित गृह प्रभाव, अम्लीय वर्षा, ओजोन परत का क्षरण, नाभिकीय दुर्घटनाएँ, बंजर भूमिक का विस्तार, उपभोक्तावाद तथा व्यर्थ उत्पाद, आदि। भारत सरकार ने पर्यावरणीय समस्याओं के नियोजन हेतु कई कदम उठाये हैं, जिनमें जल एवं वायु प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, वन संरक्षण अधिनियम, जल गुणवत्ता का मूल्यांकन, नदी बेसिन अध्ययन, उत्लेखनीय है। पर्यावरणीय कानूनों को लागू करने के प्रयास किये जा रहे है।

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  2. मध्यकालीन इतिहास / Medieval History of India
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