वर्धन वंश का प्रारम्भिक इतिहास
चीनी यात्री ह्वेनसांग और बौद्ध ग्रन्थ ‘आर्यमंजूश्रीमूलकल्प’ के अनुसार पुष्यभूति या वर्धन वंशीय राजा वैश्य थे। कुछ विद्वान् इन्हें क्षत्रिय भी मानते हैं। हर्षवर्धन के पूर्वजों की राजधानी थानेश्वर (अम्बाला, पंजाब) थी। हर्ष के आदि पूर्वज पुष्यभूति थे। अभिलेखों से पता चलता है कि इस वंश के प्रथम शासक सामन्त थे और चौथे शासक प्रभाकरवर्धन ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की थी।
प्रभारकवर्धन की तीन सन्तानें थीं-राज्यवर्धन द्वितीय, हर्षवर्धन, राज्यश्री। प्रभाकरवर्धन ने हूणों, सिन्धुराज, गुर्जरों, गान्धार नरेश और मालव के राजा को आतंकित किया था। प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री का विवाह आखिरी राजा ग्रहवर्मा के साथ हुआ था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के बाद राज्यवर्धन राजा बना। इस समय गौड़ नरेश शशांक और मालवा नरेश देवगुप्त ने मिलकर राज्यवर्धन के बहनोई मौखरी नरेश ग्रहवर्मा का वध कर दिया और उसकी बहन राज्यश्री को बन्दी बना लिया। इससे क्षुब्ध होकर राज्यवर्धन ने देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे बुरी तरह पराजित किया। लेकिन बाद में वह गौड़ नरेश शशांक द्वारा धोखे से मारा गया। राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन ने राजगद्दी का भार ग्रहण किया।
हर्ष की विजयों और धार्मिक गतिविधियों का उल्लेख
गुप्त साम्राज्य के समाप्त होते ही उत्तर भारत में राजनैतिक एकता फिर नष्ट हो गई। सारे देश में अराजकता फैलने लगी। इसके साथ ही पश्चिमोत्तर सीमा पर हूणों के। आक्रमण बढ़ते ही गये। ऐसी अराजक स्थिति में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की सत्ता उभर आई। इन विभिन्न राजवंशों में थानेश्वर का राजवंश सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इतिहासकारों ने इसको वर्धन वंश की संज्ञा दी है। थानेश्वर के राज्यर्वश में सम्राट हर्षवर्द्धन का स्थान महत्वपूर्ण है।
हर्ष का प्रारम्भिक जीवन वर्द्धन वंशीय राजाओं का राज्य आधुनिक पंजाब में था और इसकी राजधानी आधुनिक कुरुक्षेत्र के निकट थानेश्वर थी। प्रभाकरवर्द्धन इस राज्य का पहला स्वतन्त्र राजा था। प्रभाकरवर्द्धन के दो पुत्र थे-राज्यवर्द्धन तथा हर्षवर्द्धन । राज्यवर्द्धन ज्येष्ठ पत्र था। राज्यश्री नाम की एक पुत्री भी थी। उसका विवाह कन्नौज के महाराज ग्रहवर्मन के साथ किया गया था। प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु के बाद राज्यवर्द्धन गद्दी पर बैठा। किन्तु इसी समय मालवा के राजा देवगुप्त ने गौड़ (बंगाल) के राजा शशांक की सहायता से कन्नौज पर आक्रमण किया और राज्यश्री के पति ग्रहवर्मन को मार डाला। इसके साथ ही उसने राज्यश्री को बन्दीगृह में डाल दिया। जब राज्यवर्द्धन को यह समाचार मिला तो वह एक विशाल सेना लेकर देवगुप्त को दण्ड देने के लिए चल पड़ा। राज्यवर्द्धन शशांक के कूटजाल में फँस गया। शशांक ने धोखे से राजवर्द्धन की हत्या कर दी। अतः छोटी आयु में ही हर्षवर्द्धन पर राज्य का भार आ पड़ा। 606 ई० में हर्षवर्द्धन थानेश्वर की राजगद्दी पर बैठा।
हर्ष की विजय और साम्राज्य-
विस्तार जिस समय हर्षवर्द्धन राजगद्दी पर बैठा, उसकी आयु केवल 16 वर्ष थी। उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। परन्तु हर्ष साहसी, महत्वाकांक्षी एवं वीर था। अतः उसने अपने विरोधी शत्रुओं को समाप्त करने एवं राज्य की सीमा बढ़ाने के लिए एक विशाल सेना संगठित की। इस सुसंगठित सेना के बल पर ही हर्ष ने अनेक विजयें प्राप्त की। हर्ष की विजयों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
(1) राज्यश्री की मुक्ति और कन्नौज राज्य की प्राप्ति-
सर्वप्रथम हर्ष अपनी विशाल सेना के साथ शशांक को दण्ड देने के लिए निकल पड़ा। हर्ष को आता हुआ जानकर शशांक ने राज्य को छोड़ दिया और वह भाग खड़ा हुआ। राज्यश्री शोक के कारण विन्ध्याचल के जंगलों में चली गयी और वहाँ सती होने जा रही थी। उसी समय हर्ष उसको ढूँढता हुआ वहाँ पहुँच गया और उसे कन्नौज वापस ले आया। राज्यश्री के कोई सन्तान न थी। अतः कन्नौज राज्य की सुरक्षा का भार हर्ष के कन्धों पर ही डाला गया। कुछ समय बाद हर्ष ने अपनी राजधानी कन्नौज बना ली। इस प्रकार थानेश्वर एवं कन्नौज के दोनों राज्य मिलकर एक हो गये और इसकी परिणति साम्राज्य के रूप में हो गई।
(2) पंच प्रान्तों पर विजय-
ह्वेनसांग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि हर्ष ने गद्दी पर बैठने के बाद 6 वर्ष तक लगातार युद्ध किया और उसने पाँच प्रान्तों पर विजय प्राप्त की थी। वे राज्य थे-पंजाब, कान्यकुब्ज, गौड़ (बंगाल), बिहार एवं उड़ीसा। इन विजयों के फलस्वरूप पूर्व से पश्चिम तक लगभग समस्त उत्तरी भारत हर्ष के अधिकार में आ गया।
(3) वल्लभी के ध्रुवसेन द्वितीय से युद्ध-
कन्नौज की व्यवस्था करने के बाद हर्ष ने सौराष्ट्र के ध्रुवसेन द्वितीय की राजधानी वल्लभ पर आक्रमण कर दिया और उसे पराजित कर दिया। ध्रुवसेन भड़ौच के राजा दटू की शरण में चल गया किन्तु कुछ समय बाद उसने हर्ष से संधि कर ली। हर्ष ने अपनी पत्री का विवाह ध्रुवसेन से कर दिया। इस प्रकार दोनों राजाओं में मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया।
(4) पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-
वल्लभी के राजा से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने के बाद हर्ष दक्षिण की ओर बढ़ा। इस समय चालुक्य वंशी राजा पुलकेशिन द्वितीय दक्षिण में राज्य कर रहा था। वह दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राजा था। हर्ष ने इसके राज्य पर आक्रमण कर दिया किन्तु वहाँ पासा ही पलट गया। हर्ष युद्ध में हार गया।
(5) सिन्धराज से युद्ध-
सिन्ध में इस समय एक शूद्र राजा शासन कर रहा था। हर्ष ने इस पर आक्रमण किया और इसे परास्त कर दिया। डॉ० भगवतशरण उपाध्याय ने इस युद्ध को हर्ष का तीसरा युद्ध बताया है।
(6) शशांक से युद्ध-
ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष ने अपने भाई के हत्यारे को मारकर बदला चुका लिया। परन्तु ह्वेनसांग ने शशांक के मारे जाने की तिथि का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि 620 और 625 ई० के बीच में किसी समय हर्ष ने शशांक को पराजित किया।
(7) गंजाम की विजय-
634 ई० में हर्ष ने गंजाम को जीता और उसे अपने राज्य में मिला लिया। यह हर्ष की अन्तिम विजय थी।
हर्ष की धार्मिक गतिविधियाँ
(1) कन्नौज का धार्मिक सम्मेलन-
हर्ष ने 643 ई० में कन्नौज में एक धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया था। इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य महायान सम्प्रदाय का प्रचार करना था। इस सम्मेलन में विश्व भर के विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों को आमन्त्रित किया गया था। इस सम्मेलन में ह्वेनसांग ने भी भाग लिया था। यह सम्मेलन 18 दिनों तक चलता रहा और अन्त में सम्राट हर्ष ने महायान सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ सम्प्रदाय घोषित करके हेनसांग को विशेष रूप से सम्मानित किया था। हर्ष की बौद्ध धर्म के प्रति इतनी श्रद्धा देखकर ब्राह्मणों में ईर्ष्या भड़की तथा उन्होंने चैत्य घर में आग लगाकर सम्राट हर्ष की हत्या का असफल प्रयास किया। हर्ष ने बाह्मणों के इस षड़यन्त्र से क्रोधित होकर बहुत से ब्राह्मणों को बन्दी बनाकर अपने साम्राज्य से निर्वासित कर दिया तथा कुछ को क्षमा कर दिया।
(2) प्रयाग का महादान-
हर्ष के छठे दान महोत्सव में, जिसका आयोजन प्रयाग में हआ. हेनसांग उपस्थित था। इस दान महोत्सव का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है “हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में दान का आयोजन करता था जिसमें लगभग 5 लाख स्त्रीपरुष भाग लेते थे तथा यह आयोजन ढाई मास तक चलता रहता था। पहले दिन बुद्ध की पूजा की जाती तथा बहुमूल्य वस्त्रों को बाँटा जाता था। दूसरे, तीसरे दिन क्रमशः सूर्य व शिव की पूजा की जाती थी। चौथे दिन भिक्षुओं को सोने, चाँदी, आदि रत्नों का दान जाता था। 10 दिन तक हर्ष दान देता था। ऐसा कहा जाता है कि अन्त में वह अपने कपड़ों आदि को भी दान दे दिया करता था।”
हर्ष का शासन-
प्रबन्ध हर्ष का साम्राज्य विशाल था। उसने अपने साम्राज्य का शासन उत्तम ढंग से चलाया। हर्ष के शासन-प्रबन्ध का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
केन्द्रीय शासन-
केन्द्रीय शासन का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं सम्राट हर्ष था। शासन की सारी शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित थीं। यद्यपि हर्ष निरंकुश था किन्तु वह उदार शासक था। हर्ष प्रजा-हित को ही राजा का सर्वोपरि कर्त्तव्य मानता था और उसका प्रत्येक कार्य जनहित की भावना से प्रेरित रहता था। हर्षवर्द्धन शासन चलाने के लिए योग्य अधिकारियों की नियुक्ति करता था।
राजदूत से लेकर सेना तक के अधिकारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था। युद्ध के समय सम्राट हर्ष अपनी सेना का संचालन स्वयं करता था। वैसे भी वह सेना का सर्वोच्च सेनापति था। सम्राट ही न्याय-व्यवस्था का स्रोत था। नीचे के न्यायालयों से आये हुए मामलों पर अंतिम निर्णय सम्राट ही देता था। सम्राट की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् भी थी। हर्ष अपनी मन्त्रिपरिषद् की सहायता से ही शासन-कार्य चलाता था। हर्ष के दानपत्रों से विभिन्न पदाधिकारियों की सूची प्राप्त होती है।
प्रान्तीय शासन-
शासन को सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य अनेक प्रान्तों में बाँट दिया गया था। इन विभिन्न प्रान्तों को ‘भक्ति’ कहा जाता था। ह्वेनसांग एवं ‘हर्ष-चरित’ के अनुसार जिन भुक्तियों के नाम मिलते हैं उनमें वैशाली, अहिच्छत्र, श्रावस्ती, कौशाम्बी, पुन्द्रवर्द्धन आदि प्रमुख हैं। प्रान्तीय शासकों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था। इन शासकों को भोजपति, राजस्थानीय अथवा ‘उपरिक’ महाराज कहा जाता था। शासन को ठीक प्रकार से चलाने के लिए प्रान्तों को विषयों (जिला) में बाँट दिया गया था। विषय का अधिकारी ‘विषयपति’ कहलाता था। विषयपतियों के कार्यालय नगरों में होते थे। दामोदरपूर के ताम्रलेख से यह ज्ञात होता है कि विषयपति को सहायता देने के लिए उसकी समिति में नगरी, श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम कायस्थ (लेखक वर्ग का मुखिया) आदि अधिकारी रहा करते थे।
स्थानीय शासन-
हर्ष के साम्राज्य में स्थानीय शासन में नगरों के प्रमुख अधिकारी को दंगिक कहा जाता था। इन अधिकारियों की नियुक्ति से ऐसा ज्ञात होता है कि स्थानीय शासन की परम्परा विद्यमान थी। ग्राम के शासन में ग्रामीणों का भी महत्वपूर्ण भाग रहता था। ग्राम पंचायतों के अस्तित्व के भी प्रमाण मिले।
सैन्य-व्यवस्था-
हर्ष ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए सैन्य व्यवस्था में किसी प्रकार की लापरवाही नहीं की। उसकी स्थायी सेना में अश्व, हाथी एवं पैदल तीन विभाग थे। हर्ष की सेना में रथ थे। हैनसांग ने लिखा है कि हर्ष ने युद्ध के पश्चात् अपनी सेना की संख्या में वृद्धि की थी। उसकी सेना में लगभग 6 लाख सैनिक थे।
राजस्व-व्यवस्था-
भूमि से राज्य को बहुत अधिक आमदनी होती थी। किसानों से हपज का छठा भाग राज्य कर के रूप में लिया जाता था। भूमि की देखभाल करने के लिए हर्ष ने एक भूमि-पर्यवेक्षण विभाग का संगठन किया था। भूमि की नाप की जाती थी, उसका लेखा-जोखा भी रखा जाता था। राज्य की ओर से सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त चुंगी, अर्थदण्ड, घाट-सेवा एवं न्यायालय शुल्क से भी सरकारी आय होती थी। इस प्रकार हर्ष की कर-नीति उदार होने पर भी सरकारी कार्यों के लिए पर्याप्त आय का स्रोत बनी थी।
न्याय-व्यवस्था-
ह्वेनसांग का कथन है कि साम्राज्य की न्याय-व्यवस्था बड़ी ही प्रशंसनीय थी। न्याय पक्षपातरहित होता था। हर्ष के शासन में अपराध कम होते थे। उसकी शासन-परम्परा सच्चाई पर आधारित थी। फिर भी हर्ष की दण्डनीति कठोर थी। इस कठोरता के कारण ही अपराधियों की संख्या कम थी।
जन-कल्याण के कार्य-
हर्ष उदार एवं प्रजावत्सल शासक था। सम्राट पूरे वर्ष भर अपने विशाल साम्राज्य का दौरा करता था, प्रजाजनों के कष्टों को सुनता एवं उनको दूर करने का प्रयास करता था। अशोक महान् की भाँति हर्ष भी प्रजाहित के लिए उदारतापूर्वक अपनी राजकीय धनराशि को खर्च करता था। उसने सड़कों का निर्माण कराया, थोड़ी-थोड़ी दूर पर धर्मशालाएँ बनवाई और सहस्रों बौद्ध विहार, संघाराम, मठ एवं विद्यालयों का निर्माण कराया। हर्ष के समय शिक्षा को भी बहुत अधिक प्रोत्साहन मिला। हर्ष के काल में ही नालन्दा विश्वविद्यालय सम्पूर्ण एशिया में प्रसिद्ध हो गया था। प्रश्न 6-हर्ष के चरित्र का मूल्यांकन कीजिये।
हर्ष के चरित्र का मूल्यांकन
(1) महान साम्राज्य निर्माता-
हर्ष ने अपने पैतृक राज्य की रक्षा की और उसको विशाल साम्राज्य में बदल दिया । उत्तरी भारत में बार-बार घुसने वाले हूणों को कुछ समय तक सीमा पर रोक दिया । यद्यपि हर्ष नर्मदा पार दक्षिण में अपना साम्राज्य न फैला सका किन्तु सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अपनी प्रभुत्व जमा कर उसने भारत में फिर एक बार राजनैतिक एकता स्थापित की। यह सब उसने अपने बाहुबल से किया।
(2) सुयोग्य एवं प्रजा हितैषी शासक-
हर्ष ने अपनी शासन व्यवस्था की भित्ति उदारता एवं जन-कल्याण पर रखी। यद्यपि हर्ष का शासन एकतन्त्रात्मक था, उसकी शक्ति निरंकश थी। फिर भी उसने कभी भी प्रजा पर अत्याचार नहीं किया, न कभी उसे राजकीय करों के बोझ से दबा ही दिया। उसे प्रजा से प्रेम था और प्रजा की सेवा करना वह अपना परम कर्तव्य समझता था।
(3) साहित्य तथा कला का प्रेमी-
हर्ष जितना ही महान् विजेता एवं सफल शासक था, वह उतना ही साहित्य, संगीत, कला आदि का प्रेमी भी था। वह साहित्यकारों, संगीतज्ञों एवं कलाकारों का आश्रयदाता था। इसके दरबार में बाणभट्ट एवं मयूर जैसे कवि थे। यही नहीं स्वयं सम्राट एक सफल लेखक था। उसने नागानन्द, प्रियदर्शिका और रत्नावली नाटकों की रचना की। विद्या के विकास के हेतु वह नालन्दा विश्वविद्यालय को अनुदान देता था और छात्रों को अध्ययन की सुविधा।
(4) महान धर्म-परायण व दानी-
सम्राट हर्ष अशोक की भाँति एक महान् धर्मपरायण व्यक्ति था। उसने धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता की नीति अपनाई। यद्यपि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था परन्तु वह सभी धर्मा को आदर की दृष्टि से देखता, मानता एवं पजता था। धार्मिक प्रवृत्ति का होने के साथ ही साथ वह महान् दानी भी था। प्रयाग के त्रिवेणी तट पर वह प्रत्येक पाँचवें वर्ष महामोक्ष परिषद् का आयोजन करता था और उसमें अपनी समस्त संपत्ति दान देता था। चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्ष की दान व्यवस्था को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था। इस प्रकार हर्ष जैसा दानी सम्राट संभवतः इतिहास के पृष्ठों में दूसरा न मिलेगा।
निष्कर्ष उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर यही कहा जा सकता है कि हर्ष भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय विजेता, शासक, प्रजा शुभचिन्तक एवं साहित्य कलादि के उन्नायक के रूप में प्रकट होता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किसी विद्वान ने कहा है-“हर्ष हिन्दू युग का अकबर था।”
महत्वपूर्ण प्रश्न- निम्न पर टिप्पणी लिखिये-
(क) कन्नौज की धर्म-सभा (ख) प्रयाग का दान-सम्मेलन (ग) नालन्दा विश्वद्यिालय। (घ) ह्वेनसांग।
उत्तर-(क) कन्नौज की धर्म-सभा-हर्ष ने कन्नौज में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के आचार्यों की एक सभा बुलायी। इसके आयोजन का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म की महायान की शाखा को संरक्षण प्रदान करना था। इस सभा की अध्यक्षता चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग ने की थी। सभा की समाप्ति पर ह्वेनसांग को ‘महायानदेव’ और ‘मोक्षदेव’ की उपाधि देकर सम्मानित किया गया।
(ख) प्रयाग का दान-सम्मेलन-हर्ष प्रत्येक पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक महामोक्ष परिषद का आयोजन करता था जिसमें हिन्दु, बौद्ध तथा अन्य सम्प्रदायों के साधु-संतों को आमन्त्रित कर उन्हें दान देता था। वेनसांग ने छठे दानोत्सव में भाग लिया था। अतः उसने अपने विवरण में लिखा है-“यह उत्सव 25 दिनों तक चला था जिसमें हर्ष ने बारीबारी से बुद्ध, सूर्य तथा शिव की प्रतिमाओं की पूजा की। राजकोष में पाँच वर्षों की जमापूँजी दान में देने के बाद उसने अपने बहुमूल्य वस्त्रों तथा व्यक्तिगत आभूषण भी लुटा दिया था।” प्रयाग का यह उत्सव उसके ‘सर्व धर्म समत्व’ की भावना को प्रकट
(ग) नालन्दा विश्वविद्यालय-नालन्दा विश्वविद्यालय दक्षिणी बिहार में राजगिरि के निकट स्थित है। यह गुप्त सम्राट कुमारगुप्त के काल में स्थापित हुआ था। बाद में इसे अनेक राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ। यह विश्वविद्यालय प्राचीन काल में भारत में शिक्षा का प्रधान केन्द्र था। हर्ष ने उसके खर्च के लिए 100 ग्रामों की आय दान में दी थी। यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन की शिक्षा के अतिरिक्त अन्य धार्मिक तथा लौकिक विषयों के पठन-पाठन की भी व्यवस्था थी।
ह्वेनसांग ने लिखा है-यहाँ एक हजार अध्यापकों तथा 10.000 छात्रों के लिए निःशुल्क भोजन, वस्त्र, दवा आदि की व्यवस्था थी। यहाँ विदेशी छात्र भी अध्ययन करने आते थे किन्तु इसमें प्रवेश मिलना सरल नहीं था। टेनसांग ने स्वयं यहाँ अध्ययन तथा अध्यापन कार्य किया था। यहाँ का अनुशासन कठोर या। हर्ष के समय शीलभद्र विश्वविद्यालय के कुलपति थे। इसमें एक विशाल पूस्तकालय भी था। तेरहवीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी ने अपने आक्रमण के दौरान इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
(घ) ह्वेनसांग –ह्वेनसांग का जन्म 603 ई० में चीन में हुआ था। वह बौद्ध भिक्ष के रूप में बौद्ध धर्म के महान आचार्यों से शिक्षा पाने तथा धर्मग्रन्थों को प्राप्त करने के लिए 620 ई० में भारत आया था। वह भारत में लगभग तेरह वर्ष तक रहा। उसने चीनी भाषा में अपनी यात्राओं का विवरण लिखा। उसने अपने वर्णन में भारत की तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक दशाओं का भी विवरण दिया है। वह हर्षवर्द्धन के शासनकाल में आठ वर्ष भारत में रहा। सम्राट ने उसे पर्याप्त स्नेह और आटर प्रदान किया। ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की महायान शाखा का महान विद्वान था। उसने गालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया तथा वहाँ वह अध्यापक भी रहा। चीन जाते समय हर्ष ने उसे विपुल धन दिया। चीन सम्राट ने आदर से उसका स्वागत किया।
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