संवेदन परीक्षा (Transcendental Aesthetic)
इस खण्ड में काण्ट यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करते है। यथार्थ ज्ञान वैज्ञानिक ज्ञान है। वैज्ञानिक ज्ञान इमान्युएल काण्ट के शब्दों में, सार्वभौम, अनिवार्य तथा नवीन होता है। सार्वभौम, अनिवार्य ज्ञान का स्वरूप है, जो ज्ञान के क्षेत्र में बद्धिवादियों की देन है। देकार्त, स्पिनोजा और लाइबनिटज आदि दार्शनिक सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान को ही प्रामणिक या यथार्थ ज्ञान मानते हैं। ऐसा ज्ञान गणित शास्त्र में सम्भव है। अत: गणित के ज्ञान को सभी बुद्धिवादी यथार्थ ज्ञान मानते हैं। परन्त इस ज्ञान में नवीनता नहीं होती। ज्ञान में नवीनता लाने के लिए हमें विशेषों। का ज्ञान प्राप्त करना होगा। विशेष पदार्थो को ज्ञान उपकरण या सामग्री है। इन उपकरणों के ज्ञान से ही ज्ञान में नयी सामग्री आती है।
यही लॉक, बर्कले तथा ह्यूम आदि अनुभववादियों का मत है। परन्तु यह नवीन ज्ञान तो अवश्य है लेकिन इसमें सार्वभौमता तथा अनिवार्यता का अभाव है। विशेष पदार्थों का ज्ञान सामान्य ज्ञान नहीं कहा जा सकता। काण्ट वैज्ञानिक ज्ञान को सार्वभौम, अनिवार्य औरवीना मानते है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है। काण्ट के अनुसार वैज्ञानिक ज्ञान अनुभव और बुद्धि दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है। अनुभव तो हमें वस्तु विशेषों का होता है। यही ज्ञान का उपकण या सामग्री है। इसी से ज्ञान में नवीनता आती है। बुद्धि ज्ञान को स्वरूप प्रदान करती है। इस प्रकार ज्ञान, अनुभव तथा बुद्धि का संयोग है। अनुभव हमें इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है अर्थात ज्ञान की सामग्री इन्द्रिजन्य है। हम किसी वस्तु विशेष की संवेदनाओं को इन्द्रियों के माध्यम से ही प्राप्त करते हैं। बुद्धि विशेषों को जोड़ने का कार्य करती है।
संवेदन परीक्षा में काण्ट संवेदनाओं से प्रारम्भ करते है तथा इनकी प्रामाणिकता पर विचार करते हैं? प्रश्न यह है कि संवेदनाएँ क्या है? ये ज्ञान के उपकरण किस प्रकार बन जाते हैं? इन संवेदनाओं को प्रामाणिक ज्ञान कहलाने के लिये किन-किन तत्त्वों की अपेक्षा है? इन सभी प्रश्नों पर काण्ट संवेदन परीक्षा में विचार करते हैं।
हमारा ज्ञान संवेदनाओं से प्रारम्भ होता है अर्थात् संवेदनाएँ ही ज्ञान की सामग्री हैं। इन्हें ज्ञान का उपकरण या कच्चा माल (Raw material) कहा गया है। इन उपकरणों से ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है? संवदनाएँ तो वस्तुजन्य होती हैं जो हमारी इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण की जाती है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि सभी संवेदनाएँ। बाह्य वस्तुओं से उत्पन्न होती हैं अर्थात् अर्थजन्य हैं। ये संवेदनाएँ आँख, कान आदि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जाती हैं। परन्तु इन संवेदनाओं को केवल ग्रहण कर लेने से ही ज्ञान नहीं प्राप्त होता। संवेदनाएँ अस्त-व्यस्त होती हैं। इन्हें मानसिक क्रिया के द्वारा व्यवस्थित बनाया जाता है। इस प्रकार संवेदनाओं को ग्रहण करना एक बात है और उन्हें व्यवस्थित करना दूसरी बात है। संवेदन परीक्षा में काण्ट संवेदनाओं को ग्रहण या प्राप्त करने की विधि पर विचार करते हैं।
संवेदन शक्ति (Intuition) के विचार में सबसे प्रमुख विचार देश और काल की समस्या है। इमान्युएल काण्ट के अनुसार कोई भी संवेदना देश और काल के माध्यम से ही मस्तिष्क तक पहुँचती है। ऐसी कोई भी संवेदना नहीं जिसका देश और काल के बिना अस्तित्व हो। तात्पर्य यह है कि सभी संवेदनाएँ देशगत या कालगत है। अतः देश और काल पर विचार करना परमावश्यक है। प्रश्न यह है कि देश और काल क्या हय कोई पदार्थ हैं या द्रव्य हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार देश और कालबाह्य वस्तुओं के गुण हैं। इनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। हम ऊपर और नीचे, समीप और दूर, दाहिने और बाएँ आदि के आधार पर देश की सत्ता मान लेते हैं।
इसी प्रकार दो घटनाओं में पहले और पीछे के क्रम से काल की सत्ता मान लेते हैं। लाइबनिट्ज का कहना है कि देश और काल तो ऊपर-नीचे रक्खी हुई वस्तुओं तथा पहल-पीछे वाली घटनाओं के गुण हैं। इनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। हम ऊपर-नीच, पहले-पीछे इत्यादि को देखकर देश और काल की कल्पना कर लेते हैं, परन्तु यह धारणा काण्ट के अनुसार गलत है। इसी प्रकार प्रसिद्ध दार्शनिक न्यूटन महोदय का कहना है कि देश और काल वस्तुओं के गुण नहीं वरन् स्वयं वस्तु या पदार्थ है। देश-काल में ही सभी वस्तुएँ अवस्थित हैं। देश-काल वस्तु के बिना भी रह सकते हैं। अतः ये नित्य, विभु और अनन्त द्रव्य हैं। इसी प्रकार ह्यूम आदि अनुभववादी। दार्शनिक देश और काल को केवल मानसिक प्रत्यय या विचार मानते हैं। काण्ट इन तीनों मतों को दोषपूर्ण बतलाते हैं।
इमान्युएल काण्ट के अनुसार देश और काल न तो गुण हैं, न पदार्थ हैं और न प्रत्यय हैं। लाइबनिट्ज का कहना है कि वस्तुओं के ऊपर-नीचे होने से और घटनाओं के पूर्वापर क्रम से देश और काल नामक गुण का पता चलता है। काण्ट का कहना है कि यदि देश और काल पहले से नहीं होते तो ऊपर-नीचे तथा पूर्वापर क्रम निरर्थक हो जाते। इससे सिद्ध होता है कि समीप-दूर, पूर्व और अपर आदि धारणाएँ देश और काल के कारण सम्भव है। देश-काल इन सभी धारणाओं के कारण हैं तथा कारण होने से कार्य के पहले हैं। इन्हें वस्तुओं का घटनाओं का गुण नहीं स्वीकार किया जा सकता।
इसी प्रकार देश-काल को द्रव्य भी नहीं मान सकते। यदि ये स्वतन्त्र द्रव्य होते या वास्तविक पदार्थ होते तो इनकी सत्ता स्वतन्त्र होती परन्तु ऐसी बात नहीं। ये मन के परिणाम प्रत्यय या विचार भी नहीं। यदि ये मन के शुद्ध विचार या प्रत्यय मान लिये जाँय तो इनकी सत्ता निश्चित रूप से आन्तरिक हो हीगी और ये किसी प्रकार से बाह्य संवेदनाओं के कारण नहीं होते।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इमान्युएल काण्ट दिक् और काल को न तो गुण, न तो द्रव्य और न प्रत्यय ही मानते हैं। इमान्युएल काण्ट के अनुसार दिक् और काल मानसिक धर्म हैं अथवा आवरण हैं जो संवेदनाओं के अनिवार्य आधार हैं। जब हमारे भीतर संवेदनाएँ प्रवेश करने लगती हैं तो उन पर देश और काल का आवरण चढ़ जाता है। हम किसी वस्तु के निजी स्वरूप के बारे में कुछ नहीं जातने वरन वस्तु को देश और काल के रंग में रंगे हुए अथवा इन आवश्यक आवरणों से आवृत्त रूप में ही जानते हैं।
दूसरे शब्दों में, सभी संवेदन रश्मियाँ देश और काल में रँग कर ही मनकूप में आती है। अतः इन्हें संवेदन ग्राहिता का आवश्यक आवरण कहा गया है। हनसे अलग हम किसी संवेदना को ग्रहण नहीं कर सकते। ये बाह्य वस्तु नहीं, अर्थात् इनकी सत्ता बाह्य (Objective existence) नहीं, वरन् ये मानसिक धर्म हैं। इनका अस्तित्व ज्ञाता के मन पर आश्रित है। अतः इन्हें वस्तुनिष्ठ न मानकर आत्मनिष्ठ (Subjective) ही माना गया, क्योंकि ये ज्ञाता से भिन्न नहीं। ये ज्ञाता से अलग नहीं हो सकते। इनके अलग होने के कारण ही इन्हें ज्ञाता का मानसिक धर्म माना गया है। इन्हें आलंकारिक भाषा में ज्ञाता का चश्मा कहा गया है जिनके सहारे ही व्यक्ति विषयों को देखता है।
जिस प्रकार बाह्य विषयों के अवलोकन में चश्मे की अनिवार्यता है, उसी प्रकार संवेदनाओं को ग्रहण करने में देश और काल की। यदि ये जो हमें संवेदनाएँ भी ग्रहण नहीं होगी। इसीलिये इन्हें संवेदन ग्राहिता का आवश्यक आवरण माना गया है। इनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, ये तो ज्ञाता के मानसिक धर्म हैं। ये धर्म संवेदनाओं के साथ किस प्रकार जुडे हए हैं. इन्हें एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। जन्म से कोई व्यक्ति एक नीला चश्मा धारण करता है, कभी अपनी आँखों से अलग नहीं करता। फलतः उसे सभी सभी वस्तुएँ नीली दिखलायी देती है। उसके लिये नीलापन सभी वस्तुओं का आवश्यक धर्म या लक्षण बन जाता है। इसी प्रकार भोजन पाचक यन्त्र से एक विशेष रस की उत्पति होती है। जैसे ही शरीर में भोजन पचना प्रारम्भ होता है तो पाचक यन्त्र इस रस को मिला देता है।
अतः इस रस को भोजन पचने का आवश्यक अंग मान लिया गया है। इसी प्रकार जैसे ही हमें संवेदनाएँ ग्रहण होने लगती हैं वैसे ही इन पर देश और काल का आवरण या रंग चढ़ जाता है। देश और काल के बिना संवेदनाओं का ग्रहण असम्भव है। इससे दो निष्कर्ष निकलते हैं, (क) देश और काल मन के धर्म या आत्मनिष्ठ (Subjective) हैं तथा (ख) देश और काल संवेदनाओं के आवश्यक आवरण है।
देश और काल के स्वरूप को बतलाने के बाद काण्ट इनकी तात्त्विक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इस तात्त्विक व्याख्या में देश और काल को अनुभव पूर्व या प्रागनुभविक बतलाते हैं तथा इन्हें प्रत्यक्ष भी सिद्ध करते हैं। अत: देश और काल की तात्त्विक व्याख्या से काण्ट दो निष्कर्ष निकालते हैं-
(क) देश-काल अनुभव-पूर्व (Apriori) हैं।
(ख) देश-काल प्रत्यक्ष (Percept) हैं, प्रत्यय (Concept) नहीं।
इन दोनों पर अलग-अलग विचार आवश्यक है। देश और काल अनुभवपूर्व या प्रागनुभविक हैं। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
१. साधारणत: हम ‘यहाँ-वहाँ, समीप-दूर आदि धारणाओं से देश का अनुमान करते हैं। कोई स्थान किसकी की अपेक्षा निकट है तो कोई दूर है। इस निकट और दूर होने से पता लगता है कि देश की सत्ता है। इस प्रकार निकट या दूरी के अनुभव स देश का अनुमान होता है। इसी प्रकार साधारणतः हम दो घटनाओं में पूर्वापर क्रम काल का अनुमान करते हैं। अमुक घटना पहले घटी और अमुक घटना बाद में। इस पहले आर बाद में काल का अनमान होता है। इस प्रकार देश आर काल का निकट और दूर पूर्व और पश्चात से लगता है। इस साधारण अनुभव को ही ध्यान में रख कर बुद्धिवादी दार्शनिक लाइबनिट्ज का कहना है कि देश और काल स्तत्व का आधार हमारा अनुभव है।
इसके बिल्कुल विपरीत, इमान्युएल काण्ट महोदय सिद्ध करते हैं कि हमारा अनुभव ही देश और काल के कारण सम्पन्न हो पाता है। यदि देश और काल की सत्ता पहले से विद्यमान न हो तो हम निकट और दूर, पूर्व और पश्चात् का अनुभव नहीं कर पायेंगे। मान लिया जाय की किसी व्यक्ति को देश और काल का ज्ञान नहीं है तो क्या वह निकट-दूर, पूर्व-पश्चात् आदि धारणाओं को समझ पायेगा? अत: देश और काल की धारणा निकट-दूर, पूर्व-पश्चात् के पहले है। निकट-दूर, पूर्व-पश्चात् तो हमारे अनुभव हैं।
इन अनुभवों के पूर्व देश और काल की सत्ता निश्चित है। यदि इनकी सत्ता पहले है तो इन्हें निश्चित रूप से अनुभव-पूर्व या प्रागनुभविक (Apriori) स्वीकार होगा। यदि ये अनुभव-पूर्व नहीं तो निकट-दूर, पूर्व-पश्चात् आदि अनुभव निरर्थक करना होंगे। अतः इन्हें सार्थक स्वीकार करने के लिए देश-काल को अनुभव पूर्व या प्रागनुभविक स्वीकार करना होगा। इन्हें अनुभव-पूर्व मानकर ही इमान्युएल काण्ट बतलाते हैं कि हम संवेदनाओं को इन्हीं के माध्यम से ग्रहण करते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी बाह्य संवेदनाओं पर आन्तरिक देश और काल का आवरण या रंग चढ़ा रहता है। सभी संवेदनाओं को अपने रंग में रंगने वाला तो संवेदनाओं से पहले अवश्य होगा, अन्यथा वह संवेदनाओं को रंगीन नहीं बना सकता।
२. देश और काल अनुभव से नहीं उत्पन्न होते। अत: इन्हें अनुभवजन्य नहीं स्वीकार किया जा सकता। यदि देश अनुभवजन्य होता तो हम देश के अभाव की कल्पना कर सकते थे। परन्तु हम सभी देशगत वस्तुओं के अभाव की कल्पना कर सकते हैं पर स्वयं देश के अभाव की कल्पाना नहीं कर सकते। इसी प्रकार सभी कालगत वस्तुओं के अभाव की कल्पना कर सकते हैं, परन्त स्वयं काल के अभाव की कल्पना किसी देश या काल में ही सम्भव है। इससे स्पष्ट होता है कि देश और काल को हम अनुभव से नहीं प्राप्त करते। यदि देश अनुभवजन्य होता तो सभी देशगत वस्तुओं के अभाव के समान इसका भी अभाव सम्भव था।
इसी प्रकार यदि काल अनुभवजन्य होता तो सभी कालगत वस्तुओं के अभाव के समान इसका भी अभाव हो जाता। इससे सिद्ध होता है कि देश और काल अनुभवजन्य नहीं। दूसरी बात यह है कि किसी भी वस्तु की उपलब्धि हमें देश और काल के माध्यम से ही होती है परन्तु देश और काल की उपलब्धि हमें वस्तुओं के बिना भी हो सकती है। इससे स्पष्ट है कि देश और काल की सत्ता अनुभव पूर्व या प्रागनुभविक (Apriori) है।
पुनः काण्ट महोदय देश और प्रत्यक्ष रूप (Concept) न मानकर प्रत्यक्ष रूप(Percept) मानते हैं। देश, और काल को प्रत्यक्ष रूप सिद्ध करने के लिए इमान्युएल काण्ट महोदय निम्नलिखित प्रमाण देते हैं-
1. देश और काल को प्रत्यक्ष रूप नहीं। प्रत्यय तो सामान्य (Universal) या जाति जो विभिन्न विशेषों (Particulars) या व्यक्तियों में पाये जाते हैं। इस प्रकार प्रत्यय सामान्य रूप या जातिगत स्वरूप है। इन सामान्यों या जातिगत प्रत्ययों का हमें प्रत्यक्ष नहीं होता। हम किसी विशेष पुस्तक का प्रत्यक्ष कर सकते हैं, परन्तु पुस्तक सामान्य या पुस्तक जाति का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि पस्तका विशेष तो एक वस्तु है, परन्तु पुस्तक सामान्य तो केवल विचार या धारणा है। प्रत्यक्ष हमें व्यक्ति का होता है विचार या धारणा का नहीं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर काण्ट महोदय का कहना है कि देश और काल प्रत्यय रूप नहीं है। इसका कारण है कि इनका प्रत्यक्ष होता है। देश एक है तथा विभिन्न देश तो एक ही देश के विभाग या खण्ड है।
इसी प्रकार काल एक है तथा इसके विभिन्न विभाग केवल एक ही काल के खण्ड हैं, जैसे वर्ष, माह, सप्ताह, दिन आदि। देश और काल के एक होने से काण्ट इन्हें विशेष रूप (Particular) मानते हैं। विशेष रूप या व्यक्ति रूप होने से इनका प्रत्यक्ष सम्भव है। अतः काण्ट इन्हें प्रत्यय रूप न मानकर प्रत्यक्ष मानते हैं। देश और काल को साधारण दृष्टि से हम अनेक समझते हैं। परन्तु वस्तुतः देश और काल एक है। देश और काल अनन्त या असीम माने जाते हैं। अनन्त या असीम को तो एक या अद्वैत रूप ही स्वीकार करना होगा। यदि इन्हें एक से अधिक मान लेंगे तो इनकी अनन्ता समाप्त हो जायेगी। इससे निष्कर्ष निकलता है कि देश और काल अनन्त हैं, अतः एक हैं। पुनः एक हैं, अतः प्रत्यक्ष रूप हैं, प्रत्यय रूप नहीं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि काण्ट देश और काल को प्रागनुभविक प्रत्यक्ष रूप (Synthetic apriori) मानते हैं। इन्हें प्रागनुभविक मानने का तात्पर्य यह है कि देश और काल अनुभव के पूर्व हैं। हमारा अनुभव इन्हीं के कारण होता है। जब हम इन्द्रियों के माध्यम से किसी बाह्य वस्तु की संवेदना प्राप्त करते हैं तो उन संवेदनाओं पर देश-काल का रंग चढ़ जाता है। इस रंग के चढ़ते ही संवेदनाएँ सार्वभौम तथा अनिवार्य बन जाती हैं। तात्पर्य यह है सभी व्यक्ति को एक ही प्रकार से किसी वस्तु की संवेदना होती है। इसका कारण है कि सबकी संवेदनाओं को प्राप्त करने की शक्ति या संवेदन ग्राहिता (Sensibility) समान है।
इस शक्ति के दो जन्मजात साँचे हैं जन्हें देश और काल कहते हैं। इन साँचों के कारण ही संवेदनाएँ सार्वभौम और अनिवार्य बन पाती हैं। अतः संवेदनाओं की अनिवार्यता के लिये प्रागनुभविक देश और काल की अनिवार्यता आवश्यक शर्त है। पुनः देश और काल तो प्रत्यक्ष रूप (Percept) हैं, प्रत्यय रूप (Concept) नहीं। प्रत्यय तो बुद्धि का धर्म है। जब हमें सवदनाएं प्राप्त हो जाती हैं तो बद्धि इनमें व्यवस्था तथा क्रम लाती है। अत: प्रत्यय क व्यापार हैं। बौद्धिक व्यापार तो इन्द्रिय प्रदत्त संवेदनाओं पर होता हैं।
हम इसकी संवेदना देश-काल के माध्यम से प्राप्त कर रहे हैं। यदि हमारे मन में देश-काल की आवश्यकता शर्त पहले से न हो तो हम यहाँ एक वस्तु की संवदेना नहीं प्राप्त कर सकते। परन्तु संवदनाओं को ग्रहण करने पर हमारी बुद्धि इन संवेदनाओं में व्यवस्था तथा क्रम लाती है। इन्हें द्रव्य, गुण, भाव आदि प्रत्ययों के माध्यम से विचार करती है। ये सभी । प्रत्यय तो प्रत्यक्ष रूप संवेदनाओं के परे हैं। इसी कारण काण्ट देश-काल को प्रत्यक्षा रूप मान कर इन्हें प्रत्यय रूप नहीं मानते।
देश-काल को प्रागनुभविक प्रत्यक्ष रूप मानकर काण्ट गणित तथा रेखागिणत के ज्ञान को सम्भव बतलाते हैं? गणित में सार्वभौम तथा अनिवार्य निष्कर्ष पाए जाते हैं।। गणित की यह अनिवार्यता देश और काल की देन है। गणित का सम्बन्ध काल से है और रेखागणित का सम्बन्ध देश से है। इनसे सम्बन्धित होने के कारण ही इनके निष्कर्ष सार्वभौम और अनिवार्य बन जाते हैं। साथ ही साथ गणित के वाक्य संश्लेषणात्मक (Synthetic) हैं, विश्लेषणात्मक (Analytic) नहीं। हम पहले विचार कर आए हैं कि विश्लेषणात्मक तो ज्ञान का वर्धन करता है, क्योंकि इसका सम्बन्ध विशेषों से होता है, सामान्यों से नहीं। विशेष तो प्रत्यक्ष रूप है। यह प्रत्यक्ष रूपता के कारण ही गणित का ज्ञान प्रागनुभविक (अनिवार्य) तथा संश्लेषणात्मक (प्रत्यक्ष) होता है।
संवेदन परीक्षा (Transcendent Aesthetic) में काण्ट ने देश और काल की समस्या पर विचार किया है। प्रश्न यह है देश, काल तथा संवेदना में सम्बन्ध क्या है? उत्तर यह है कि संवेदनाओं का स्वरूप अनिवार्य तथा विशेष दोनों होता है। अनिवार्यता ज्ञान का स्वरूप है तथा विशेषता ज्ञान की सामग्री है। अत: वैज्ञानिक ज्ञान अनिवार्य तथा विशेष दोनों होता है। ये दोनों देश और काल की देन हैं। देश और काल को अनुभव पूर्व या प्रागनुभविक शर्त हैं। इन प्रागनभविक शर्तों के कारण ही संवेदनाओं का स्वरूप भी प्रागनुभविक या अनिवार्य हो जाता है।
देश और काल को अनिवार्य आवरण है, अतः संवेदनाएँ इनके माध्यम से आकर अनिवार्य हो जाती। तापनः देश और काल का स्वरूप विशेष है, अर्थात् ये प्रत्यक्ष रूप हैं। संवेदनाओं का स्वरूप तो विशेष रूप ही होता है, अर्थात् हमें संवेदनाएँ वस्तु विशेषों की ही प्राप्त होती है। यही ज्ञान की सामग्री या उपकरण है। संवेदनाओं की यह विशेषता तो देश और काल की विशेषता (प्रत्यक्षरूपता) के कारण है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान के लिये सामग्री और स्वरूप दोनों की आवश्यकता है। हमारी संवेदनाओं में विशेषता है, क्योंकि ये वस्तु-विशेष (Particulars) की संवेदनाएँ हैं। साथ ही केवल इन वस्तु ने ज्ञान नहीं होता। विशेषों का ज्ञान भी विशेष ही होगा, सर्वव्यापक अनिवार्य नहीं। सर्वव्यापकता और अनिवार्यता के लिये प्रागनुभविक साँचों की है ये साँचे देश और काल हैं।
इस प्रकार वैज्ञानिक ज्ञान के स्वरूप और सामग्री दोनों के लिए देश-काल की विवेचना आवश्यक है। यही कारण है कि काण्टी जान परीक्षा सर्वप्रथम संवेदन परीक्षा से प्रारम्भ होती है और संवेदन-परीक्षा में देश काल पर विचार किया गया है। काण्ट के पहले भी ज्ञान पर पर्याप्त विचार किया गया है, परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान पर नहीं। बुद्धिवादियों ने ज्ञान की अनिवार्यता को स्वीकार किया है, अर्थात् ज्ञान को प्रागनुभविक बतलाया है परन्तु ज्ञान में प्रगनुभविकता कैसे आती है, इसे नहीं बतलाया है?
इमान्युएल काण्ट के अनुसार देश और काल के कारण ज्ञान में प्रागनुभविकता आती है, अर्थात देश-काल के कारण ही संवेदनाएँ अनिवार्य और सर्वव्यापक हो जाती हैं। इस प्रकार काण्ट बुद्धिवादियों की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए भी इसकी वैज्ञानिक व्याख्या देश और काल को लेकर प्रस्तुत करते हैं।
ह्यूम महोदय अनिवार्य ज्ञान को नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार अनिवार्यता तो मानसिक कल्पना है। हमें ज्ञान तो वस्तु विशेषों का ही होता है। विशेष उदाहरणों से प्राप्त ज्ञान भी विशेष हो होगा, सर्वव्यापक नहीं। इमान्युएल काण्ट इन विशेषों को उपकरण रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं, परन्तु विशेषों से प्राप्त ज्ञान सर्वव्यापक, अनिवार्य बना जाता है। इस प्रकार इमान्युएल काण्ट ह्यूम का अंशतः खण्डन और अंशतः मण्डन करते हैं। काण्ट के अनुसार वैज्ञानिक ज्ञान के लिये उपकरण-रूप विशेषों की आवश्यकता है। परन्तु ये उपकरण ही अनिवार्य ज्ञान नहीं हो सकते। सभी उपकरण विशेष हैं, विशेष होने से प्रत्यक्ष रूप हैं. प्रत्यक्ष रूप होने से देश-काल पर आधारित है।
देश-काल को प्रागनुभविक प्रत्यक्ष सिद्ध करना काण्ट की बड़ी देन है। साधारणतः प्रागनभविक प्रत्यक्ष में विरोध प्रतीत होता है। प्रागनुभविक तो अनुभवपूर्व है और प्रत्यक्ष अनुभव-जन्य। काण्ट इस विरोध का निराकरम करते हैं। उनके अनुसार किसी वस्तु की संवेदना ग्रहण करना तो प्रत्यक्ष रूप है। हमारी इन्द्रियाँ कारण है जिनके माध्यम से संवेदनाएँ हमारे भीतर आती है। ये संवेदनाएँ ज्ञान की सामग्रा है परन्तु इन सामग्री को प्राप्त करने के लिये हमारे मन में देश-काल के साँचे हैं। इन्हीं साँचों से संवेदनाएँ पहँचती हैं। ये साँचे तो संवेदनाओं के पूर्व हैं, अतः प्रागनुभविक हैं। यदि ये पहले से न रहें तो संवेदनाओं का ग्रहण ही नहीं हो सकेगा। अतः देश-काल संवेदन ग्राहिता के साँचे अवश्य संवेदनाओं से पूर्व है, अथात् भागनुभविक है। परन्तु ये प्रागनभविक रूप साँचे संवेदनाओं पर ही कार्य कर सकते है। सवेदनाएँ तो प्रत्यक्ष रूप हैं। अतः प्रागनुभविक प्रत्यक्ष में विरोध नहीं।
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