सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा
परिवर्तन प्रकृति का एक अटल एवं शाश्वत नियम है। मानव समाज भी उसी प्रकृति का एक अंग होने के कारण परिवर्तनशील है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों को ही सामाजिक परिवर्तन माना है। कुछ ने सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन की संज्ञा दी है। अधिकांश ने सम्पूर्ण समाज को या उसके किसी भी पक्ष/पहलू में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन बताया है। जॉनसन के अनुसार, “अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन है।” उसने सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करते हुए सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं एवं पुरस्कारों, व्यक्तियों एवं उनकी अभिवृत्तियों तथा योग्यताओं में होने वाले परिवर्तनों को भी सामाजिक परिवर्तन कहा है।
जेन्सन ने सामाजिक परिवर्तन की विस्तृत व्याख्या की है। वह सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत मानव के व्यवहार तथा उसके विचारों में होने वाले परिवर्तनों को भी सम्मिलित रखा है।
जेन्सन अनुसार, सामाजिक परिवर्तन से लोगों के कार्य करने एवं विचार करने के तरीकों में होने वाले रूपान्तर के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
किंग्सले डेविस ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या पूर्णतः समाजशास्त्री ढंग से करते हुए कहा है, “सामाजिक परिवर्तन से हम केवल उन्हीं परिवर्तनों को समझते हैं, जो कि सामाजिक संगठन यानी समाज के ढाँचे तथा प्रकार्यों में घटित होते हैं।”
टॉम बोटोमोर सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत उन परिवर्तनों को भी सम्मिलित करते हैं, जो कि सामाजिक ढाँचे, सामाजिक संस्थाओं या उनके पारस्परिक सम्बन्धों में घटित होते हैं। स्पष्टर है कि सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य उन परिवर्तनों से है, जो मानवीय सम्बन्धों, व्यवहारों, संस्थाओं, प्रथाओं, प्रस्थितियों, कार्यविधियों, मूल्यों, सामाजिक संरचनाओं तथा प्रकार्यों में होते है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है। यह एक सार्वभौमिक घटना है। परिवर्तन अवश्यंभावी और स्वाभाविक घटना है। इसकी गति असमान और तुलानत्मक होती है। यह एक जटिल तथ्य है, जिसके विषय में भविष्यवाणी नहीं की सकती। सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन से है।
सामाजिक परिवर्तन के विविध सिद्धान्तों की व्याख्या
समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से और किन नियमों के अन्तर्गत होता है। सामाजिक परिवर्तन की दिशा व गति क्या होती है? इसकी व्याख्या प्रारम्भ में दार्शनिकों ने, फिर समाजशास्त्रियों तथा मानवशास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से प्रस्तुत की है। फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित हुए। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रकृति के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जाता है –
- रेखीय या उद्विकास सिद्धान्त (Linear or Evolutionary Theory) – इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन धीमे-धीमे, सरलता से जटिलता की ओर कुछ निश्चित स्तरों में से गुजर करके होता है। यह सामाजिक परिवर्तन का वह रूप है, जिसमें कि परिवर्तन की दिशा सदैव ही ऊपर की ओर होती है, यानी एक क्रम में विकास एक ही दिशा में निरन्तर होता जाता है।
- चक्रीय सिद्धान्त (Cyclical Theory)- इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक स्पेंगलर, पैरेटो, टॉयनवी और सोरोकिन हैं, जो सामाजिक परिवर्तन की दिशा को चक्र की भाँति मानते हैं। उनका मत है कि समाज में परिवर्तन का एक चक्र चलता है। हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिरकर फिर वहीं पहुंच जाते हैं।
- संघर्ष सिद्धान्त (Conflict Theory) – कार्ल मार्क्स, डेहरेनडोर्फ, कोजर एवं वेब्लन इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक है, जिनकी मान्यतानुसार, सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तन का मुख्य आधार समाज में विद्यमान दो विरोधी शक्तियों/तत्वों के मध्य होने वाला द्वन्द्व या संघर्ष ही है।
- प्रकार्यात्मक सिद्धान्त (Functional Theory)- इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक मैक्स वेबर, दुर्खीम, मर्टन एवं पारसन्स माने गये हैं, जिनके अनुसार सामाजिक ढाँचे का निर्माण करने वाली प्रत्येक इकाई का अपना एक प्रकार्य होता है तथा यह प्रकार्य उसके अस्तित्व को कायम रखने में महत्वपूर्ण होता है। स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना और उसके अस्तित्व को निर्मित करने वाली इकाइयों (समूहों, संस्थाओं, आदि) के मध्य एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है, अतः इन प्रकार्यों में जब परिवर्तन होता है, तब सामाजिक संरचना भी उसी के अनुरूप परिवर्तित हो जाती है। सामाजिक संरचना में हुए परिवर्तन हो ही सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है।
मार्क्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त
मार्क्स के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिक तथा आर्थिक कारकों से जनित है। इसीलिए उनके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को ‘आर्थिक निर्धारणवाद‘ या सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिकीय सिद्धान्त भी कहा गया है। मार्क्स ने मानव इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि मानव इतिहास ने अब तक जो भी परिवर्तन हुए हैं. उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं। मार्क्स के विचारानुसार, जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों और अन्य कारणों का मानव जीवन पर यद्यपि प्रभाव तो अवश्य पड़ता है, किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं है। निर्णायक कारण तो वास्तव में आर्थिक कारक यानी उत्पादन प्रणाली ही है।
सामाजिक परिवर्तन के अपने सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बताया है कि प्रत्येक मनुष्य को जीवित रहने हेतु कछ भौतिक मूल्यों, यथा – रोटी, कपड़ा और मकान आदि की अनिवार्य आवश्यकता होती है। इनको जुटाने या आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए उसे उत्पादन करना होता है। उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों की आवश्यकता हाता है। व्यक्ति जिन साधनों द्वारा उत्पादन करता है, उन्हें ‘प्रौद्योगिकी’ कहते हैं। प्रौद्योगिकी में छोटे-छोटे औजारों से लेकर बडे-बडे यन्त्र तक सम्मिलित है। जब प्रचलित प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है, तो उत्पादन प्रणाली में भी परिवर्तन आ जाता है।
मार्क्स का कथन है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कोई न कोई उत्पादन प्रणाली को अवश्य अपनाता है। उत्पादन प्रणाली दो पक्षों से मिलकर निर्मित होती है –
1. उत्पादन के उपकरण अथवा प्रौद्योगिकी, श्रमिक, उत्पादन का अनुभव और श्रम-कौशल तथा 2. उत्पादन के सम्बन्ध: कोई भी वस्तु उत्पादित करने के लिए हमें औजार, श्रम, अनुभव तथा कुशलता की आवश्यकता होती हैं। साथ ही, जो व्यक्ति उत्पादन कार्य में लगे होते हैं, उनके मध्य कुछ आर्थिक सम्बन्ध भी उत्पन्न हो जाते हैं, यथा – किसान कृषि क्षेत्र में उत्पादन करने के दौरान मजदूरों, लोहार, बढई तथा उसके द्वारा उत्पादित वस्तु के खरीदारों से सम्बन्ध बनाता है। जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होता है, तब समाज में परिवर्तन आ जाता है। उत्पादन प्रणाली की यह विशेषता होती है कि वह किसी भी अवस्था में स्थिर नहीं रहती यानी सदैव बदलती रहती है। उत्पादन प्रणाली ही समाज का मूल है और इसी पर ही समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक संरचनाएँ. विश्वास, साहित्य, कला, दर्शन और विज्ञान टिके हुए होते हैं।
मार्क्स का मत है कि समाज में जिस प्रकार की उत्पादन प्रणाली होती है, उस समाज की ऊपरी संरचना यानी धर्म, प्रथाएँ, राजनीति, साहित्य, कला, विज्ञान और संस्कृति भी उसी प्रकार की बन जाती है। जब उत्पादन प्रणाली बदलती है, तो समाज की ऊपरी संरचना में भी बदलाव आता है और समाज की संस्थाएँ बदलती है तथा सामाजिक परिवर्तन घटित होता है।
कार्ल मार्क्स का कथन है कि मानव इतिहास के प्रत्येक युग में समाज में दो वर्ग उपस्थित रहे हैं। मानव समाज का सम्पूर्ण इतिहास इन्हीं दो स्पष्ट विरोधी वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है। मार्क्स ने समाज के विकास को पाँच युगों में बाँटा है तथा प्रत्येक युग में पाए जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख भी किया है। एक वह वर्ग, जो उत्पादन साधनों का स्वामी/मालिक रहा है और दूसरा वह वर्ग, जो अपने श्रम को बेचकर जीवन व्यतीत करता है। दास एवं स्वामी, कृषक एवं जागीरदार, श्रमिक एवं पूँजीपति इन दोनों वर्गों में अपने-अपने को लेकर कभी स्पष्ट रूप से और कभी अस्पष्ट रूप से निरन्तर संघर्ष होता है। प्रत्येक वर्ग – संघर्ष का अन्त नए समाज तथा नए वर्ग के रूप में होता है।
मार्क्स के अनुसार, वर्तमान समय में भी श्रमिक तथा पूँजीपति दो वर्ग हैं, जो अपने-अपने हितों को लेकर संघर्षरत है, मार्क्स का मत है कि सामाजिक वर्गों की रचना और प्रकति ही समाज की व्यवस्था निर्धारित करती है। एक युग के वर्ग संघर्ष के कारण नए वर्गों का उदय होता है। जो नवीन समाज व्यवस्था को जन्म देता है। इस तरह वर्ग संघर्ष तथा उसके परिणामस्वरूप नवीन वर्गों के जन्मने के कारण ही समाज में परिवर्तन घटित होते हैं। स्पष्ट है कि कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन में वर्ग संघर्ष की भूमिका को ही महत्वपूर्ण एवं निर्णायक कारक के रूप में स्वीकार किया है।
विल्फ्रेडो पैरेटो के सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की विवेचना
विल्फ्रेडो पैरेटो का विचार है कि सामाजिक ढाँचे के अन्तर्गत ऊँच-नीच का जो भी स्तरीकरण होता है, वह मुख्यतः दो वर्गों द्वारा होता है – 1. उच्च वर्ग एवं 2. निम्न वर्ग।
ये दोनों वर्ग स्थिर नहीं होते, वरन् इनमें ‘चक्रीय गत’ पाई जाती है। चक्रीय गति इस अर्थ में कि समाज के इन दो वर्गों में निरन्तर ऊपर से नीचे (अधोगामी) अथवा नीचे से ऊपर (ऊर्ध्वगामी) प्रवाह होता रहता है। इस चक्रीय गति को इस तरह से समझाया जा सकता है कि जो वर्ग सामाजिक संरचना के ऊपरी भाग में होते है, वे कालान्तर में पतित/भ्रष्ट हो जाने के कारण अपने पद व प्रतिष्ठा से गिर जाते हैं। अर्थात् अभिजात (Elite) वर्ग अपने गणों को खोकर या असफल होकर निम्न वर्ग में चले जाते हैं।
उनके द्वारा रिक्त पदों को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो कुशल, कर्मठ, बुद्धिमान, सच्चरित्र एवं योग्य लोग होते हैं, वे नीचे से ऊपर की ओर जाते रहते हैं। इस तरह, उच्च वर्ग का निम्न वर्ग में आने या उसका विनाश होने तथा निम्न वर्ग का उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चक्रीय रूप में चलता रहता है। चक्रीय गति के कारण सामाजिक संरचना बदल जाती है, यानी सामाजिक परिवर्तन होता है। यह चक्रीय या गति सामाजिक परिवर्तन की गति परिस्थितियों के अनुसार कम अधिक और कभी कम होती है। भिन्न-भिन्न समाज एवं । भिन्न-भिन्न समय में सामाजिक परिवर्तन की गति भी अलग-अलग होती है।
अपने इस सिद्धान्त को पैरेटो ने दो श्रेणी के विशिष्ट चालकों (Residence) के आधार पर समझाया है- सम्मिलन के विशिष्ट चालक और समूह के स्थायित्व के विशिष्ट चालक। कुछ ऐसे समूह एवं व्यक्ति होते हैं, जिसमें स्थायित्व के विशिष्ट चालक की अधिकता होती है, तो कुछ में सम्मिलन के विशिष्ट चालक की। सामाजिक परिवर्तन इन्हीं दो श्रेणी के विशिष्ट पालक वाले वर्गों की क्रियाशीलता का प्रतिफल है। सम्मिलन के विशिष्ट चालक वाला वर्ग तात्कालिक स्वार्थों पर बल देता है, किन्तु स्थायित्व के विशिष्ट-चालक वाला वर्ग आदर्शवादी लक्ष्यों की प्राप्ति में विश्वास करता है।
पैरेटो के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन चक्र के मुख्य पक्ष – राजनीतिक, आर्थिक व आदर्शात्मक है। राजनीतिक क्षेत्र में चक्रीय परिवर्तन तब गतिशील होता है, जबकि शासन सत्ता उस वर्ग के सदस्यों के हाथों में आ जाती है, जिनसे समूह के स्थायित्व के विशिष्ट चालक अधिक शक्तिशाली होते हैं। इनको ‘शेर’ (Lions) कहते हैं। इन लोगों का कुछ आदर्शवादी लक्ष्यों पर दृढ़ विश्वास होता है। अतः आदर्शों की प्राप्ति हेतु वे शक्ति का भी आश्रय लेने में संकोच नहीं करते हैं, किन्तु शक्ति प्रयोग की प्रतिक्रिया भयंकर सिद्ध हो सकती है, अतः यह तरीका सुविधाजनक नहीं माना जाता है। इसलिए वे कूटनीति से काम लेते हैं, यानी ‘शेर’ से ‘लोमड़ी’ में बदल जाते हैं। किन्तु निम्न वर्ग में भी लोमड़ियाँ (Foxes) पाई जाती हैं जो सत्ता को हस्तगत करने को तत्पर रहती हैं। अन्ततः एक समय ऐसा भी आता है, जबकि सत्ता उच्च वर्ग की लोमड़ियों के हाथों से निकलकर निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथों में आ जाती है। इसी समय राजनीतिक क्षेत्र में यानी राजनीतिक संगठन तथा व्यवस्था में परिवर्तन होता है।
पैरेटो के अनुसार, प्रत्येक अतीतकालीन और वर्तमान समाज द्वारा वर्ग की अपेक्षा शक्ति का प्रयोग अधिक किया जाता है। उसका कहना है कि सभी देश शक्ति प्रयोग करने वाले अल्प जनतन्त्रों (Oligarchies) से शासित होते हैं। जब शासक वर्ग के लोगों में शक्ति के प्रयोग करने की क्षमता/ इच्छा नष्ट हो जाती है या वे शक्ति के प्रयोग के भयंकर परिणामों का साथकर शक्ति के स्थान पर कूटनीति यानी लोमड़ियों की तरह धूर्तता तथा चालाकी सकाम करने लगते हैं, तब निम्न या शासित वर्ग के कुछ धूर्त, चालाक तथा कुशल लोग उसका मुहतोड़ जवाब देने के लिए तत्पर होते हैं तथा देते भी हैं, जिसके कारण सरकार की बागडोर उन्हीं के हाथों में आ जाती है। सामाजिक व्यवस्था के राजनीतिक पक्ष में इसी प्रकार परिवर्तन होता है।
आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए पैरेटो ने समाज के दो आर्थिक वर्गों का उल्लेख किया है – सटटेबाज (Speculators) तथा निश्चित आय वाला वर्ग(Rentiers)। प्रथम वर्ग के लोगों की आय सर्वथा अनिश्चित होती है, अर्थात् कभी कम, तो कभी अधिक। ये लोग अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर कमाते है, किन्तु दूसरे वर्ग के सदस्यों का आय लगभग निश्चित होती है, क्योंकि वह सट्टेबाजों की भाँति अनुमान पर निर्भर नहीं होती। पैरेटो के अनुसार, सट्टेबाजों में सम्मिलन के विशिष्ट चालक की और निश्चित आयु वाले वर्ग में समूह के स्थायित्व के विशिष्ट चालक की प्रधानता पाई जाती है।
पहले वर्ग के सदस्यों में नेता, कुशल व्यवसायी, आविष्कारक, आदि आते हैं। यह वर्ग अपने आर्थिक हित अथवा अन्य प्रकार की शक्ति के मोहजाल में आकर चालाकी तथा भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है, जिससे उसका पतन होता है और दूसरा वर्ग उसका स्थान ग्रहण कर लेता है।
आदर्शात्मक क्षेत्र में भी इसी प्रकार का अविश्वास तथा विश्वास का चक्र चलता रहता है। किसी एक समय विशेष में समाज में विश्वासवादियों का प्रभुत्व होता है, किन्तु वे अपनी रूढ़िवादिता अथवा दृढ़ता के कारण अपने पतन/पराभव के साधन स्वयं ही एकत्रित कर लेते हैं तथा उनका स्थान दूसरे वर्ग के सदस्य ग्रहण कर लेते हैं।
सोरोकिन का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्तों में सोरोकिन के सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सोरोकिन संस्कृति को सामाजिक परिवर्तन का आधार मानता है। जब किसी समाज की संस्कृति में परिवर्तन होता है, तो समस्त सामाजिक संस्थाओं और संरचना में परिवर्तन हो जाता है। सोरोकिन के विचार से सामाजिक परिवर्तन भी प्राकृतिक परिवर्तन की ही तरह स्वाभाविक और अनिवार्य है। यह आवश्यक नहीं है कि कोई बाहरी तत्व ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। किसी समाज की संस्कृति में ही कुछ ऐसे आन्तरिक तत्व होते हैं जो उसमें अनिवार्य रूप से परिवर्तनको जन्म देते हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह नियम समाज के जीवन पर भी लागू होता है। प्रकृति के अनुरूप ही समाज भी एक परिवर्तनशील व्यवस्था है जिसमें निरन्तर अनिवार्य रूप से परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन के बीज स्वयं समाज की संस्कृति में ही निहित होते हैं अत संस्कृति के आन्तरिक तत्व ही परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होते है। आन्तरिक कारणों से स्वाभाविक परिवर्तन की कल्पना ही सामाजिक परिवर्तन को अन्तर्निहित(Immanent) बना देते हैं। सोरोकिन ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या अपनी पुस्तक ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिशीलता (Social and Cultural Dynamics)’ में की है।
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय और रेखीय सिद्धान्त के अन्तर
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय एवं रेखीय सिद्धान्त में निम्नलिखित अन्तर देखे जाते हैं –
1. चक्रीय सिद्धान्तानुसार, सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है। हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिरकर फिर उसी स्थिति में आ जाते हैं, किन्तु रेखीय मान्यता यह है कि परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। हम क्रमानुसार आगे बढ़ते जाते हैं तथा जिस चरण को छोड़ देते हैं, वहाँ पुनः वापस नहीं आते हैं।
2. चक्रीय सिद्धान्तानुसार, परिवर्तन का चक्र तीव्र और मन्द दोनों ही हो सकता है, किन्तु सिद्धान्त परिवर्तन की केवल मन्द गति में ही विश्वास करता है।
3. चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन उच्चता से निम्नता तथा निम्नता से उच्चता की ओर होता है, जबकि रेखीय सिद्धान्त की मान्यता यह है कि सामाजिक परिवर्तन सदैव ही निम्नता से उच्चता की दिशा में और अपूर्णता से पूर्णता की ओर ही होता है।
4. परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्तकार परिवर्तन के किसी एक मुख्य कारक/कारण पर अत्यधिक जोर देते हैं। अतः इस अर्थ में वे निर्धारणवादियों के अधिक समीप है। किन्तु चक्रीय सिद्धान्तकारों के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन वस्तुतः अनेक कारकों/कारणों का प्रतिफल है। उनका विचार है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए यह स्वतः ही घटित होता रहता है।
5. परिवर्तन का रेखीय सिद्धान्त चक्रीय सिद्धान्त की तुलना में उद्विकासवादियों से अधिक प्रभावित है। रेखीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन की प्रकृति सदैव एक ही दिशा में और सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है, जबकि चक्रीय सिद्धान्त सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवर्तन में अन्तर मानकर यह स्पष्ट करता है कि विकासवादी प्रक्रिया के दर्शन अधिकाधिक सामाजिक परिवर्तन में ही होते हैं, जबकि सांस्कृतिक जीवन तथा विशेष मूल्यों तथा लोकाचारों में होने वाला परिवर्तन उतार-चढ़ाव युक्त होता है।
6. रेखीय सिद्धान्तकारों की मान्यता है कि सामाजिक परिवर्तन के चरण व क्रम संसार की समस्त समाजों में एक समान ही रहते हैं। शिकारी, पशुचारण, कृषि एवं औद्योगिक अवस्था सभी समाजों में देखी जा सकती है। किन्तु चक्रीय सिद्धान्तकारों का कहना है कि विभिन्न सामाजिक संगठनों एवं संरचनाओं की सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया और प्रकृति में भेद पाया जाता है।
7. रेखीय सिद्धान्तकारों की मान्यतानुसार, सामाजिक परिवर्तन मानवीय प्रयत्न/चेष्टा और इच्छा से स्वतन्त्र होता है, ऐसे परिवर्तन स्वतः ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु रेखीय सिद्धान्तकारों का यह विश्वास है कि सामाजिक परिवर्तन का चक्र मानवीय प्रयासों तथा प्राकृतिक प्रभावों का प्रतिफल है।
8. चक्रीय सिद्धान्तकारों ने सामाजिक परिवर्तन के चक्र को ऐतिहासिक और आनुभविक साक्ष्यों/ प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट किया है, किन्तु सिद्धान्तकारों में रेखीय परिवर्तन को एक सैद्धान्तिक आधार पर रेखीय सिद्धान्त सैद्धान्तिकता पर अधिक बल देते हैं, ऐतिहासिक प्रमाणों पर नहीं।
इन्हें भी देखें-
- सामाजिक परिवर्तन में बाधक कारक का वर्णन | Factor resisting social change in hindi
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सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूप क्या है? | Forms of social change in hindi
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सामाजिक उद्विकास की अवधारणा, अर्थ, सिद्धान्त तथा विशेषताएं | Social Evolution in hindi
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सामाजिक उद्विकास के प्रमुख कारक | Factors of Social Evolution in hindi
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समाज और संस्कृति के उद्विकास के स्तरों पर निबन्ध | Social Evolution Theory of Morgan in hindi
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सामाजिक प्रगति की अवधारणा, अर्थ तथा विशेषताएँ क्या है | What is Social Progress in hindi
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सामाजिक प्रगति में सहायक दशाएँ और कसौटियाँ | Conditions and Criteria for Social Progress in Hindi
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