मनन या मेडिटेशन्स रेने देकार्त की अद्वितीय कृति है। इसके छः भाग है। देकार्त के सम्पूर्ण दार्शनिक विचारों के सार इन्हीं में निहित हैं। इन पर अलग-अलग विचार आवश्यक है।
रेने देकार्त का प्रथम मनन या मेडिटेशन : सन्देहवाद
रेने देकार्त का दार्शनिक विचार सन्देह से प्रारम्भ होता है। रेने देकार्त के अनुसार समन्देह ही सत्य प्राप्ति का साधन, मार्ग या उपाय है। सन्देह के बिना सत्य का ज्ञान सम्भव नही। इसी कारण देकार्त सन्देह से प्रारम्भ करते हैं। उनका कहना है कि हमें आज तक जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्द्रियों के माध्यम से ही प्राप्त हुआ है। परन्तु हमारी इन्द्रियाँ हमें कभी-कभी धोखा दे देती है, अतः बद्धिमानी इसमें है कि जिससे हमें धोखा हो चुका है उस पर पूरी तरह विश्वास न करें।
कुछ चीजें ऐसी अवश्य हैं, जिस पर हम अविश्वास नहीं कर सकते। उदाहरणार्थ, में यहाँ हूँ, आग के पास ड्रेसिंग गाउन पहन कर बैठा हूँ, यह (लिखने का) कागज मेरे हाथ में है। मैं इन तथ्यों को कथमपि अस्वीकार नहीं कर सकता। परन्तु मुझे स्मरण रखना चाहिये कि मैं मनुष्य हूँ तथा मनुष्य होने के कारण सोता हूँ तथा स्वप्न देखता हूँ। स्वप्न में बहुत-सी झूठी चीजों को देखता हूँ। मैं स्वप्न देखता हूँ कि मैं आग के पास कपड़े पहन कर बैठा हूँ। जब कि वास्तव में मैं बिना कपड़ा पहने बिस्तर में लेटा हूँ। अभी मैं हाथ में कागज लेकर कुछ लिख रहा हूँ।
परन्तु स्वप्न में भी तो में ऐसा कार्य करता हूँ। पता नहीं अभी मैं स्वप्न देख रहा हूँ या जगा हूँ। स्वप्न में कई बार जाग्रत अवस्था के समान कार्य करने का भ्रम होता है। क्या पता अभी भी हमें भ्रम ही हो रहा हो। स्वप्न और जागरण का भेद कैसे हो? यदि भेद सम्भव नहीं तो सम्भव है कि मैं अभी भी स्वप्न देख रहा हूँ। अत: मान लिया जाय कि हम सभी सोये हैं, हमारी खुली आँखें, हिलता सर, फैला हुआ हाथ सब कुछ भ्रम है। मेरा हाथ, मेरा शरीर वैसा नहीं जैसा दिखलायी पड़ता हैं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि देकार्त शरीर, संसार, आन्तरिक और बाह्य सभी वस्तुओं पर सन्देह करते हैं, क्योंकि सन्देह के माध्यम से ही निस्सन्देह सत्य की उपलब्धि सम्भव है। सत्य का स्वरूप सन्देह के बिना नहीं जाना जा सकता। अतः सन्देह ही सत्य का मार्ग है, संशय ही ज्ञान का स्रोत है। यही देकार्त की सन्देह विधि (Method of doubt) है। यह सन्देह पद्धति एक सर्वथा नयी प्रणाली है। इसी कारण उन्हें इस प्रणाली का पिता मानते हैं।
रेने देकार्त ने सत्य की प्राप्ति के लिये सन्देह की पद्धति को अपनाया, अतः पद्धति को सन्देह पद्धति (Method of doubt) कहते हैं। उनके अनुसार सत्य साधा है तथा रान्देह साधन है। हम पहले विचार कर आये है कि देकार्त परीक्षा के किसी सत्य को नहीं स्वीकार कर सकते। यूरोपीय दर्शन के इतिहास में टेका सर्वप्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने सन्देह की कसौटी पर सत्य की परीक्षा प्रारम्भ की। देकार्त के पूर्व पाइरो, सेक्सटस आदि कई सन्देहवादी हो चुके थे, परन्तु सन्देह को दार्शनिक पद्धति के रूप में स्वीकार करने वाले सर्वप्रथम देकार्त ही हुए। इसी कारण देकार्त को आधुनिक प्रणाली का पिता (Father of modern method) मानते हैं।
रेने देकार्त के पूर्व मध्य युग में ज्ञान का उद्गम विश्वास माना जाता था। प्रसिद्ध मध्ययुगीन दार्शनिक सन्त ऑगस्टाइन (St. Augustine) का कहना है कि ज्ञान के लिये विश्वास की आवश्यकता (Believe in order to understand) है। देकार्त का मत ठीक इसके विपरीत है। विश्वास के लिये ज्ञान की आवश्यकता है। अतः रेने देकार्त के मत में ज्ञान का उद्गम सन्देह है| सन्देह की कसौटी पर कसे बिना ज्ञान का स्वरूप निखरता नहीं, विश्वास की नींव सुदृढ़ नहीं होती। ज्ञान में प्रामाणिकता और निश्चयात्मकता के लिये सन्देह की नितान्त आवश्यकता है। निस्सन्देह सत्य सन्देह से ही प्राप्त हो सकता है।
इसी कारण रेने देकार्त ने सत्य की प्राप्ति के लिये सन्देह का मार्ग अपनाया। रेने देकार्त के समान ही ह्यूम (Hume) का दर्शन भी सन्देह से प्रारम्भ होता है। अत: दोनों ही समानतः सन्देहवादी है। परन्तु दोनों में एक भेद है। देकार्त के दर्शन में सन्देह केवल साधन है, परन्तु ह्यूम के दर्शन में सन्देह साधन और साध्य दोनों है। देकार्त के लिये सन्देह केवल मार्ग है, उपाय है, परन्तु ह्यूम के दर्शन में सन्देह गन्तव्य स्थान है, उपेय है, लक्ष्य है, आदि और अन्त दोनों है।
रेने देकार्त सन्देह से प्रारम्भ कर सत्य पर पहुँचते हैं, परन्तु ह्यूम के दर्शन में सन्देह आदि और अन्त दोनों है। तात्पर्य यह है कि ह्यूम का दर्शन सन्देह से प्रारम्भ हो सन्देह में ही अन्त कर जाता है। ह्यूम को देकार्त के समान सत्य की प्राप्ति नहीं होती। इसी कारण सन्देह साधन को अपनाते हुए भी देकार्त सन्देहवादी नहीं कहे जाते, परन्तु ह्यूम निश्चित रूप से सन्देहवादी हैं। देकार्त का सन्देह मनोवैज्ञानिक संशय किसी वस्तु के स्वरूप का स्पष्ट निर्देश न होने के कारण ही उत्पन्न होता है।
प्रकाश के अभाव में हमें रज्जु का स्वरूप स्पष्टतः प्रतीत नहीं होता। अतः सर्प का संशय उत्पन्न होता है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं, वरन वस्तु जन्य होता है। इसके विपरीत देकार्त का सन्देह पूर्णत: देकार्त की इच्छा पर निर्भर है, अर्थात् सन्देह आत्मगत है। देकार्त ने स्वेच्छा से सन्देह को सत्य का साधन माना है। मनोवैज्ञानिक संशय विषयगत होता है| वस्तु का स्वरूप स्पष्टतः न प्रतीत होने के कारण संशय विषय से ही उत्पन्न होता है।
रेने देकार्त द्वितीय मनन या मेडिटेशन: आत्मा का अस्तित्व
मेडिटेशन भाग दो में देकार्त सन्देह से निस्सन्देह सत्य की खोज करते है। सन्देह क्रिया से सन्देह-कर्ता (आत्मा) के अस्तित्व का स्पष्ट अनुभव उन्हें होता है। चिन्तन करने से चिन्तन करने वाले चेतन आत्म-तत्व का ज्ञान होता है। देकार्त का निष्कर्ष है ‘मैं सोचता हूँ इसलिये मैं हूं’ यह सुनिश्चित तथा सुस्पष्ट सत्य है। संशयवादी भी इस सत्य को स्वीकार करेगा। संशयवादी सब कुछ पर संशय करता है, परन्तु संशय करने वाले अपने आप (आत्मा) पर संशय नहीं करता। यदि सन्देह-कर्ता (आत्मा) पर भी सन्देह किया जाय तो सन्देह निराधार होगा। अतः सन्देह के आधार-स्वरूप आत्मा का अस्तित्व तो निर्विवाद है।
हम विचार करते हैं, हमारे विचार का विषय दोषपूर्ण हो सकता है, परन्तु विचार के विषय से विषयी (आत्मा) की सत्ता स्वतः सिद्ध है। इस प्रकार विचार करने से विचारक या विषयी का स्पष्ट ज्ञान हमें होता है। देकार्त के अनुसार विचार ही विचार कर्त्ता (आत्मा) का गुण है। सन्देह और सन्देहकर्ता में गुण और गुणी, धर्म और धर्मी का सम्बन्ध है। गुण और गुणी, धर्म और धर्मी में अविच्छेद्य सम्बन्ध है। यदि सन्देह नामक गुण है तो इसका गुणी । (आत्मा) अवश्य है। मैं संदेह कर रहा हूँ’ अत: मेरी सत्ता निश्चित रूप से है। यदि “मैं नहीं तो ‘मेरा विचार भी नहीं यही सन्देह से सत्य की प्राप्ति है।
सन्देह और सत्य
रेने देकार्त ने सन्देह को ही सत्य का माध्यम स्वीकार किया है। निस्सन्देह सत्य तभी प्राप्त हो सकता है जब हम सभी मान्यताओं की सन्देहात्मक दृष्टि से परीक्षा करें। इसी को ध्यान में रखकर देकार्त का कहना है कि हमें सत्य-प्राप्ति के लिये परम्परागत मान्यताओं से अपने को पूरी तरह पृथक् करना है। जिससे हमें निश्चित सत्य की प्राप्ति हो| इसके परम्परागत विचारों और भावनाओं से मुक्ति पाना आवश्यक है। हम परम्परागत विचार को स्वीकार कर सकते हैं, परन्तु परीक्षा के बादा तात्पर्य यह है कि परीक्षित सत्य ही निश्चित सत्य माना जा सकता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि देकार्त ने एक नयी दार्शनिक पद्धति की खोज की जिसे सन्देहात्मक पद्धति (Method of doubt) कहते हैं। संक्षेप में देकार्त के अनसार संशय ही ज्ञान का स्रोत है। ज्ञान व्यक्तिगत धारणा नहीं, वरन समष्टिगत बौद्धिक सिद्धान्त है। प्रश्न यह है कि ज्ञान की प्रामाणिकता से निश्चात्मक तथा स्वयंसिद्ध सत्यों की प्राप्ति कैसे हो?
प्रारम्भ से ही देकार्त गणित के प्रेमी थे। उनकी दृष्टि में गणित शास्त्र के सत्य ही निश्चयात्मक तथा स्वयंसिद्ध हैं। उदाहरणार्थ २+२-४ को हम बिना विवाद के ही मान लेते हैं तथा त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोण के बराबर होते है। इसमें सन्देह नहीं करते। यदि इसी प्रकार के निश्चयात्मक सत्यों की प्राप्ति हमें। दार्शनिक विषयों जैसे ईश्वर का अस्तित्व, आत्मा की अमरता आदि के सम्बन्ध में भी प्राप्त हो जाँय तो प्रायः दार्शनिक विवादों का अन्त हो जाय। अतः सुनिश्चित तथा स्वयंसिद्ध गणित की प्रणाली ही दर्शन शास्त्र की प्रणाली होनी चाहिये।
गणित में आधार-वाक्य पूर्णतः सत्य होते हैं, इन्हीं आधार वाक्यों के आधार पर अन्य वाक्यों की सत्यता निर्भर है। इसी प्रकार दर्शन शास्त्र में भी हम स्वयंसिद्ध आधार-वाक्यों की खोज करें जिस पर अन्य वाक्यों की सत्यता निर्भर हो। प्रश्न यह है कि इन स्वयं सिद्ध आधार-वाक्यों की प्राप्ति कैसे हो? देकार्त का उत्तर है कि स्वयंसिद्ध आधार-वाक्यों की प्राप्ति हमें आन्तरिक दृष्टि से होगी जिसे देकार्त प्रज्ञा (Intuition) कहते हैं। प्रज्ञा से प्राप्त सत्य मापदण्ड है। इन सत्यो पर ही दूसरे वाक्यों की सत्यता निर्भर है, अर्थात् अन्य वाक्यों की सत्यता आधार वाक्यों से निकलेगी (Deduce) या अनुमानजन्य होगी।
अतः संक्षेप में, देकार्त के अनुसार दार्शनिक पद्धति दो हैं। पहली प्रज्ञात्मक पद्धति (Intuition) है। यह पद्धति सद्यः अनुभूति है जो विचार या तर्क के परे है। दूसरी पद्धति निगमनात्मक (Deductive) है। इस पद्धति के अनुसार हम आधार-वाक्यों को सत्य मानकर कुछ निष्कर्ष निकालते हैं, अर्थात् अनुमान करते हैं। निष्कर्ष की सत्यता आधार वाक्यों की सत्यता पर निर्भर है। इन दोनों में देकार्त के अनुसार प्रज्ञात्मक पद्धति अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सद्यः अनुभूति तथा पूर्ण सत्य ज्ञान है।
अब हमें यह देखना है कि देकार्त सन्देह से कैसे प्रारम्भ करते हैं। सन्देह से प्रज्ञाजन्य निस्सन्देह स्वयंसिद्ध ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है तथा प्रज्ञा-जन्य आधारवाक्यों से अन्य वाक्यों की सत्यता का अनुमान कैसे करते हैं? अपनी सन्देह पद्धति से यों देकार्त विचार प्रारम्भ करते हैं अभी तक मैं जिसे सर्वथा सत्य और निश्चयात्मक मानता आया हूँ, वह ज्ञान मुझे या तो इन्द्रियों से साक्षात् मिला है या इन्द्रियों के द्वारा। परन्तु मुझे इन्द्रियों ने कई बार धोखा दिया है और बुद्धिमानी इसी में है कि जो एक बार धोखा दे जाय उसका पूरा विश्वास कभी न किया जाय।
कुछ बातों में इन्द्रियाँ भले ही धोखा दे जाये किन्तु बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें इन्द्रियाँ धोखा नहीं दे सकतीं। उदाहरणार्थ, मैं कैसे सन्देह करूँ कि मैं यहाँ आग के पास, रात के कपड़े पहने और हाथ में यह कागज लिये बैठा हूँ? यह मैं कैसे कहूं कि हाथ और यह शरीर मेरा नहीं है? यह कथन पागलपन होगा। किन्तु स्वप्न में कई बार ऐसा पागलपन कर देता हूँ जो पागल लोग जाग्रत में करते हैं।
स्वप्न और जाग्रत में कोई निश्चित भेद नहीं प्रतीत होता। इस प्रकार देकार्त सम्पूर्ण जगत् तथा जागतिक पदार्थों को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। हो सकता है कि सारा जगत् ही भ्रम हो। जगत् का कर्त्ता ईश्वर भी भ्रम ही हो। ईश्वर को हम परम मंगलमय सत्य स्वरूप मानते हैं परन्तु हो सकता है कि ईश्वर के समान शक्ति वाले किसी शैतान ने हमें धोखा देने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी हो।
स्वर्ग, पृथ्वी, रूप, रंग, शब्दादि, बाह्य पदार्थ सभी भ्रम है, स्वप्न हैं। उस शैतान ने हमारे विश्वास का अपहरण करने के लिए केवल यह सब जाल रचा है। अतः मुझको हाथ नहीं, आँख नहीं, मेरे शरीर में माँस नहीं, रक्त नहीं, हमें कोई इन्द्रियाँ नहीं। मैं भ्रमवश समझता आया हूँ कि ये सब मेरे हैं। अब मैं सब पर सन्देह करता हूँ। मुझे सन्देह है कि यह दृश्यमान संसार सत् है, ईश्वर है, बाह्य पदार्थ है, मुझे शरीर है, दो और दो का योग चार है, इन सभी पर हमें सन्देह है परन्तु सन्देहकर्ता पर मुझे सन्देह नहीं। सन्देह का विराम स्थान यही है।
मैं सभी पर कुछ सन्देह कर सकता हूँ परन्तु सन्देहकर्ता पर सन्देह नहीं कर सकता। सन्देह की क्रिया होती है, इससे इसका कर्ता अवश्य है। उपरोक्त सभी विषयों में कोई बड़ा शैतान हमें धोखा दे रहा हो, परन्तु वह भी धोखा देने में सफल नहीं होता यदि मेरी सत्ता नहीं होती। ‘मुझे धोखा हो रहा है का अर्थ है कि मेरे चिन्तन का विषय गलत है, परन्तु मेरा चिन्तन करना गलत नहीं है, अत: चिन्तन कार्य भ्रम नहीं, भले ही चिन्तन का विषय भ्रम हो। हो सकता है कि संसार में कोई भी पदार्थ न हो, परन्तु सभी पदार्थों के अभाव का ग्रहण करने वाला कोर्ड अवश्य होना चाहिये।
निराकरण करने से ही निराकर्ता की सत्ता सिद्ध है। ज्ञान का विषय भ्रमात्मक हो सकता है, परन्तु ज्ञाता भ्रम नहीं। इस प्रकार देकार्त आत्मा (ज्ञाता या चिन्तनकर्ता) की सत्ता निस्सन्देह रूप से स्वयं सिद्ध मानते हैं। देकार्त स्वयं कहते हैं कि ज्यों ही मैंने सोचा कि सब कुछ मिथ्या या भ्रम है, त्यों हि यह अनिवार्यतः सिद्ध हो गया कि मैं जिसने यह सोचा अवश्य कुछ है। पुन: मैंने विचार किया कि ‘मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ’ यह पूर्णतः सुनिश्चित तथा सुस्पष्ट सत्य है।
यह स्वतः सिद्ध है। संशयवादी भी इस मान्यता की जड़ को नहीं हिला सकता, अत. मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इसे दर्शन शास्त्र का सर्वप्रथम सत्य मान लिया जाय जिसकी खोज में मैं रत था…मैंने बड़ी सावधानी से परीक्षा की कि मैं क्या हूँ मैंने विचार किया कि मैं सोच सकता हूँ कि मेरा शरीर नहीं था संसार में कोई स्थान नहीं जहां मैं हो सकता। इतना होने पर मैंने विचार किया कि ‘मैं नहीं सोच सकता था कि मैं नहीं था। इसके विपरीत अन्य वस्तुओं की सत्ता पर जो मैंने सन्देह किया उसी से यह स्पष्ट निश्चित निष्कर्ष निकला कि मैं था।
यदि एक क्षण के लिए भी मैं विचार करना स्थगित कर देता तो मुझे यह विश्वास करने का कोई आधार प्राप्त नहीं होता कि उस क्षण में ‘मैं’ या मेरा अस्तित्व भी हो सकता था। इससे मुझे स्पष्टतः प्रतीत हुआ कि मैं (आत्मा) एक द्रव्य है जिसका धर्म सोचना (चिन्तन करना) है। इसकी सत्ता के लिए किसी स्थान की अपेक्षा नहीं, यह किसी भौतिक पदार्थ पर आधारित नहीं। अतः यह “मैं या आत्मा देह से सर्वथा भिन्न है। इसका (आत्मा का) ज्ञान शरीर के ज्ञान से सरल है, यदि शरीर नष्ट भी हो तो यह नष्ट नहीं होगा।
देकार्त ने सन्देह क्रिया से ही सन्देहकर्ता की सत्ता को स्वतः सिद्ध माना है। यदि सन्देहकर्ता (आत्मा) की सत्ता में भी सन्देह किया जाय तो सन्देह निराधार होगा। तात्पर्य यह है कि आत्मा की सत्ता ज्ञान की पूर्वमान्यता है। पाश्चात्य और प्राच्य प्रायः सभी दार्शनिक इसे स्वीकार करते हैं। सन्त ऑगस्टाइन का कहना है यदि मैं अपना निराकरण भी करूँ, तो भी मेरी (आत्मा की) सत्ता अनिवार्य है।’ कम्पानेल के अनसार ‘मेरे ज्ञाता होने से ही मेरी सत्ता स्वतः सिद्ध है।’ काण्ट के अनुसार ‘आत्मा को नित्य माने बिना संवेदनाओं से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं।
पाश्चात्य दार्शनिकों की यह दष्टि भारतीय विचारकों के सन्निकट है। श्री शंकराचार्य का कहना है कि आत्मा का निराकरण भी आत्मा की सत्ता माने बिना सम्भव नहीं।’ तात्पर्य यह है कि निराकरण भी सद्वस्तु का हो सकता है। जिसका भाव नहीं, उसका अभाव भी असिद्ध है। इसी प्रकार न्याय वैशेषिक में आत्मा को ज्ञान का अधिकरण स्वीकार किया गया है। आत्मा के अभाव में ज्ञान निराश्रय तथा निराधार होगा। इस प्रकार दोनों परम्पराओं के अनुसार आत्मा की सत्ता ज्ञान की पूर्व मान्यता है।
आत्मा का स्वरूप
देकार्त सन्देह की पद्धति से निस्सन्देह आत्मा की सत्ता पर पहुँचते हैं। अतः उनकी प्रसिद्ध उक्ति है: Cogilo Ergo Sum या I think, therefore, I am अर्थात् मैं सोचता हूँ इसीलिए मेरी (आत्मा की) सत्ता स्वयंसिद्ध है। ज्ञान, ज्ञाता के बिना सम्भव नहीं। ‘मैं ज्ञाता हूँ इसीलिए मेरी सत्ता अनिवार्यतः सिद्ध है। इस प्रसिद्ध उक्ति। के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं-
१. मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ यह अनुमान नहीं, वरन् सद्यः अनुभूति है। यदि यह अनुमानजन्य होता तो इसे आधार वाक्यों की आवश्यकता होती। तात्पर्य यह है कि जो ज्ञाता है उसकी सत्ता अनिवार्य है। मैं ज्ञाता हूँ, अत: मेरी सत्ता अनिवार्य है’
ऐसा निगमनात्मक तर्क नहीं किया जा सकता परन्तु आत्मा की सत्ता तो स्वयं सबका आधार है। यह तो ज्ञान की पूर्व मान्यता है।
२. ‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ’ का अर्थ कि मेरी (आत्मा की) सत्ता चिन्तन करने पर निर्भर है। चिन्तन के अनेक स्वरूप हैं, जैसे सन्देह करना, समझना, स्वीकार करना, अस्वीकार करना, इच्छा करना, कल्पना करना आदि। ये सभी मानसिक क्रियाएँ है, अतः इनकी सत्ता मेरी आत्मा पर ही निर्भर है। तात्पर्य यह है कि यदि में। (मेरी आत्मा) नहीं तो स्वीकार, अस्वीकार आदि सभी क्रियाएँ भी न हो सकेंगी।
३. मैं सोचता हूँ, इसलिये मैं हूँ’ से स्पष्ट सिद्ध है कि मानसिक क्रिया आत्मा के अस्तित्व पर ही निर्भर है। परन्तु इसी प्रकार हम शारीरिक क्रियाओं के आधार पर आत्मा का अस्तित्व निर्भर नहीं मान सकते। तात्पर्य यह है कि ‘मैं सोचता हूँ इसलिये मैं हूँ, के समान ही यह नहीं कहा जा सकता कि मैं घूमता हूँ, इसलिये मैं हूँ| घूमना शारीरिक क्रिया है। इससे आत्मा का अस्तित्व नहीं, वरन् शरीर का अस्तित्व स्पष्टतः सिद्ध होता है।
४, मैं सोचता हूँ, इसलिये मैं हूँ अर्थात् ज्ञाता होने के कारण आत्मा की सत्ता स्वतः सिद्ध है, इससे स्पष्ट पता चलता है कि ज्ञान आत्मा का गुण है, अर्थात् आत्मा का धर्म है। ज्ञान तथा आत्मा में गुण-गुणी, धर्म-धर्मी का सम्बन्ध है।
५. ‘मैं सोचता हूँ, इसलिये मैं हूँ यह सर्वप्रथम असन्दिग्ध, निश्चयात्मक ज्ञान है। देकार्त के लिये यह मापदण्ड है। यही निस्सन्देह सत्य सन्देह के माध्यम से देकार्त को प्राप्त हुआ था। अतः देकार्त इसे सर्वप्रथम असन्दिग्ध और स्वतः सिद्ध मानते हैं। यही सत्य का मापदण्ड है। आत्मा के समान असन्दिग्ध, स्वतः सिद्ध जो भी सत्य है। वह मान्य है।
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