मध्यकालीन युग
मध्य युग धर्मप्रधान युग है। इस युग में दर्शन धर्म का दास बन गया। यह आस्थाप्रधान युग है, बुद्धिप्रधान नहीं। यूरोप के इतिहास में इस युग का सर्वाधिक महत्त्व धर्म के लिए है। इसी युग में इसाई-धर्म का अभ्युदय और विकास हुआ। एक प्रकार से यह युग इसाई युग कहलाता है। अतः हम इसाई धर्म के मूल लक्षणों को जाने बिना इस युग को अच्छी तरह नहीं समझ सकते।
इसाई धर्म के प्रवर्तक महात्मा ईसा मसीह का जन्म ४ ई. पू. रोमन प्रान्त पैलेस्टाइन में हुआ था। उस समय पैलेस्टाइन में यहूदी लोगों का बोलबाला था। ३० वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया तथा यहूदी धर्म की बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इनके प्रचार से क्षुब्ध होकर यहूदी लोगों ने इन्हें रोमन राज्यपाल पाइलेट के सामने प्रस्तुत किया। इन पर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया तथा इन्हें जेरुसलेम की एक पहाड़ी पर शूली पर चढ़ा दिया गया ये सहर्ष शूली पर चढ़ गये। महात्मा ईसा के बलिदान से धर्म का एक नया आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। ईसा मसीह के १२ शिष्यों (Apostles) ने अपने गुरु की शिक्षाओं का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। इसी समय रोमन साम्राज्य का पतन हुआ तथा इसाई धर्म का अभ्युदय काल प्रारम्भ हो गया।
सन्त पॉल ने इसाई धर्म को सबसे महत्वपूर्ण बनाया। ये टारसन के निवासी थे। ये पहले यहूदी थे तथा इसाई धर्म के कट्टर विरोधी थे। कहा जाता है कि एक दिन इन्हें दोपहर के समय सूर्य की प्रचण्ड ज्वाला में महात्मा ईसा मसीह के दर्शन हुए तथा इन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि इसाई धर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। इसी धर्म से विश्व का कल्याण हो सकता है। यह सुनते ही सन्त पॉल ईसा मसीह के पक्के शिष्य बन गये। वे २० वर्षों तक इसाई धर्म का जोरों से प्रचार करते रहे, चर्च की स्थापना की तथा धर्म का संगठन के रूप में प्रचार आरम्भ किया। इनके प्रयलों के फलस्वरूप रोमन साम्राज्य में इसाई धर्म फैल गया। कुछ सामाजिक परिस्थितियों ने भी इन्हें बड़ी सहायता की। उन दिनों रोम में प्रतिमापूजक धर्म (Paganism) बड़े जोरों से चल रहा था। इस धर्म में कर्मकाण्ड और बाह्य आडम्बर पर बहुत अधिक बल दिया जाता था। उसकी अपेक्षा इसाई धर्म सरल था।
प्रतिमा पूजन और बाह्य कर्म-काण्डों में खर्च बहुत अधिक लगता था, अतः लोगों ने इस प्रतिमापूजक धर्म की अपेक्षा सच्चे सरल और स्पष्ट ईसाई धर्म को बड़ी तेजी से अपनाना शुरू कर दिया। चौथी शताब्दी तक बहुत से रोमन सैनिक भी इसाई बन गये तथा रोमन सम्राट के बदले ईसा मसीह की पूजा करने लगे। इसका फल यह हुआ कि रोमन सम्राट् कॉन्स्टेण्टाइन (Constantine) को भी इसाई धर्म स्वीकार करना पड़ा। बाद में रोम सम्राट डॉसिस (Thiodosis) ने ३८० ई. में इसाई धर्म को साम्राज्य का कानुनी धर्म पोषित कर दिया। इस प्रकार पूरी जनता और राजा का एकमात्र धर्म ईसाई धर्म हो गया।
इसाई धर्म और मठ
प्रारम्भ में इसाई धर्म एक आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्रान्ति था। बाद में यह राजकीय धर्म बन गया। बड़े-बड़े मठ स्थापित किये गये जिसके फलस्वरूप धर्म का चार संगठन के माध्यम से प्रारम्भ हो गया इसाई धर्म अब केवल धार्मिक आन्दोलन न रह गया, वरन् धार्मिक राजनीतिक शक्ति बन गया। राज्य-धर्म होने के कारण इसाई मठों (Churches) को बड़ी शक्ति मिली। राजकीय धर्म बनने के कारण धर्म का क्षेत्र केवल चर्च ही नहीं था, वरन् चर्च ने राजनीतिक मामलों में भी हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे चर्च की शक्ति राजा से भी अधिक हो गयी। राजा निर्बल होने लगे तथा मठों के नेता सबल होने लगे। राजाओं की अयोग्यता के कारण धार्मिक नेताओं ने सत्ता पर अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया। चर्च राज्य का एक विभाग बन गया तथा बिशप (Bishop) गण सरकारी अधिकारी बन बैठे।
पोपशाही(Papacy)
पोपशाही मध्य युग का बड़ा महत्वपूर्ण लक्षण है। पोपशाही पोप की सत्ता का चरम उत्कर्ष है। राजशाही के समान यह मध्य युग का एक अंग है। यह इसाई धर्म का संगठनात्मक रूप है। सर्वप्रथम इसाई धर्म का चर्च के रूप में संगठन प्रारम्भ हुआ। यह संगठन स्थानीय तथा प्रान्तीय था। बाद में रोमन साम्राज्य के सभी बड़े शहरों में एक-एक चर्च की स्थापना हुई। इन चर्चों के प्रमुख बिशप (Bishop) कहलाते थे। ये बिशप स्वतन्त्र सत्ताधारी होते थे।
स्थानीय बिशपों का मालिक एक प्रान्तीय बिशप होता था। यह सभी नगरीय बिशपों से अधिक शक्तिशाली था। सबसे बड़ा बिशप रोम का पोप कहलाता था, इसके हाथ में केन्द्रीय शक्ति होती थी। पहले तो रोम के पोप बड़े आदर्शवादी एवं पवित्र व्यक्ति हुआ करते थे। विद्या एवं आचरण की पवित्रता के आधार पर ही रोम का पोप चुना जाता था। पोप का मुख्य कार्य जनता को धार्मिक बनाना था, परन्त बाद में इसका स्वरूप अत्यन्त विकृत हो गया। धीरे-धीरे जब चर्च की शक्ति का विकास होने लगा तो रोम के बिशप के हाथ और भी सदढ हो गये।
रोम का बिशप अब राजा का धार्मिक सलाहकार बन गया। साथ ही साथ वह कानूनी सलाहकार का कार्य भी करने लगा। वह ईसा मसीह का धरती पर साक्षात उत्तराधिकारी समझा जाता था। इसका प्रमुख कारण यह था कि राम के चर्च की स्थापना ईसा मसीह के प्रमुख शिष्य पीटर ने की थी। अतः लोगों में यह विश्वास हो गया कि रोम का बिशप ईसा मसीह का उत्तराधिकारी है। इसी कारण रोम के पोप की प्रतिष्ठा समाज में बहुत बढ़ गयी। चौथी शताब्दी के अन्त तक रोम का बिशप धार्मिक मामलों को सुनने के लिये सर्वोच्च अधिकारी बन बैठा। अब रोम के बिशप ने एक स्वतन्त्र न्यायालय भी खोल दिया तथा सभी प्रकार के धार्मिक विवादों की अपीलें भी सनना शरू किया। इस प्रकार रोम इसाई धर्म का केन्द्रीय स्थान माना गया तथा रोमन बिशप सभी बिशपों का सम्राट् बन गया।
कालान्तर में रोमन राज्य दो भागों में बँट गया। पूर्वी भाग की राजधानी कुस्तुन्तुनिया (Constantinople)) बनी तथा पश्चिमी भाग का केन्द्रीय स्थान रोम ही बना रहा। इस प्रकार रोमन साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया, परन्तु रोम के विशप की प्रभता बढ़ती गई। अनेक बर्बर जातियों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया। इनका मुकाबला करने में रोमन राजा असफल रहे। परन्त रोम के पोपों ने अपनी विलक्षण शक्ति का परिचय दिया। पोप लियो प्रथम के अभाव में हूण नेता एटिला (Attila) ने रोम की शाश्वत नगरी (Eternal City) को छोड़ दिया। इससे रोम के पोप का समाज में महत्त्व बहुत बढ़ गया। लोगों में पोप के प्रति राजा से कहीं अधिक बढ़-चढ़कर श्रद्धा हो गयी।
रोमन चर्च ने एम्बोज, जेरोम और ऑगस्टाइन जैसे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न महापुरुषों को उत्पन्न किया। सन्त ऑगस्टाइन ने ईश्वरीय नगरी (City of God) की स्थापना करके चर्च को सर्वोच्च शक्तिसम्पन्न बना दिया। यहीं से पोपशाही का आरम्भ हुआ। पाँचवीं शताब्दी में सम्राट ऑगस्टस गद्दी से उतार दिये गए तथा रोम का पश्चिमी साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इसी समय रोमन बिशप पश्चिमी चर्च का भी सर्वोच्च अधिकारी बन गया। धीरे-धीरे रोमन राज्य की पूरी राजनीतिक शक्ति पोप के हाथ में आ गयी। बाद में पोप ग्रिनरी ने इटली पर भी राजनैतिक प्रभुता कायम की। अत: पोप अब एक धार्मिक संरक्षक न रहकर स्वाधीन, स्वतन्त्र शासक बन बैठे।
कालान्तर में चर्च और राज्य में संघर्ष छिड़ गया। लोगों में एक आम धारणा प्रचलित थी कि ईश्वर ने समाज के शासन के लिए दो सत्ताओं को नियुक्त किया हैराजनीतिक राजा तथा धार्मिक राजा।
राजनीतिक राजा सम्राट् कहलाता था तथा धार्मिक राजा पोप कहलाता था। सम्राट लौकिक शासक था तथा पोप आध्यात्मिक शासका पोप के अधिकार दैवी थे तथा सम्राट के अधिकार प्राकृतिक थे। किसी-किसी मामले में पोप को सम्राट से भी अधिक अधिकार प्राप्त थे। दसवीं शताब्दी में पोप का पतन प्रारभ हो गया। पोप सम्राट के समान भोग-विलास में जीवन व्यतीत करने लगे। इस कारण सम्राटों ने पोप के सुधार के लिए कुछ नियम बनाये परन्तु पोप ने इन नियमों को मानने से अस्वीकार कर दिया। सन्त अम्ब्रेज के अनुसार पोप ईश्वर के द्वारा नियक्त शासक है। उसके ऊपर सम्राट का किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं हो सकता। इस प्रकार सम्राट और पोप का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। ग्यारहवीं शताब्दी में निकोलस द्वितीय ने पोप की निर्वाचन प्रणाली में कुछ परिवर्तन की घोषणा की। पोप ने इसे अस्वीकार कर दिया।
पोप और सम्राट का सबसे अधिक संघर्ष ग्रेगरी सप्तम के समय हुआ। ग्रेगरी का कहना था कि इसाई समाज के लिए सर्वच्च शक्तिसम्पन्न पोप ही हो सकता है, अतः पोप का प्रत्येक इसाई समाज पर नैतिक शासन है। सन्त एम्ब्रेज की भाँति उसने भी बिशपों के चुनाव के मामले में सम्राट की अवहेलना की। इस पर क्षुब्ध होकर हेनरी चतुर्थ ने ग्रेगरी को पदच्युत करने का प्रयास किया। इसके बदले ग्रेगरी ने सम्राट को धर्म बहिष्कृत कर दिया तथा जनता में यह प्रचार प्रारम्भ कर दिया कि धर्म बहिष्कृत राजा का इसाई समाज में कोई अधिकार नहीं। ग्रेगरी का यह विश्वास था कि शासन की उत्पत्ति पाप से हुई है।
आध्यात्मिक शासक लौकिक शासक से अधिक पवित्र होता है। इस प्रकार सम्राट और पोप अपने अपने दावे को सिद्ध करने के लिए जनता के सामने अनेक तर्क दिया करते थे। पोप के दावे का सारांश यह है कि चर्च ही सच्चा राज्य है। चर्च और इसाई संघ की स्थापना स्वयं भगवान् ने की है। दो सत्ताओं का जन्म ईश्वर ने दिया है।
आध्यात्मिक शक्ति का प्रधान पोप है तथा सांसारिक शक्ति का प्रधान राजा है। परन्तु पोप राजा से बढ़कर है। किसी भी मामले में पोप का निर्णय राजा से अधिक मान्य है। सन्त अम्ब्रेज ने कहा है-शीशे और सोने की चमक में जो अन्तर है, वही राजाओं और बिशपों के गौरव में अन्तर है। दो तलवारों के सिद्धान्त के आधार पर सांसारिक शक्ति के प्रतीक तलवार को ईश्वर ने राजा के हाथ में दिया है परन्तु आध्यात्मिक शक्ति के प्रतीक तलवार को पोप को दिया है। राजा पोप के माध्यम से ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है। इस विश्वास के कारण बड़े-बड़े राजाओं को भी पोप के सामने घुटने टेकना पड़ता था। जनता धर्मान्ध थी और पोप के धार्मिक दण्ड के भय से अधिक त्रस्त रहती थी। कभी-कभी संघर्ष के बढ़ जाने पर पोप राजा को धर्म बहिष्कृत कर देता था तथा उन्हें गैर इसाई घोषित कर देता था, जिसके कारण राजाओं के सामने समस्या उत्पन्न हो जाती थी। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक चर्च और पोप की समाज में तूती बोलती रही।
संक्षेप में, मध्य युग धर्म प्रधान युग है। इस युग में धार्मिक संस्था चर्च समाज की सर्वोपरि संस्था मानी गयी है। इस युग में यूनान और रोम की संस्कृति को केवल धर्म के रूप में देखा गया है। चर्च की प्रभुता के कारण राजसत्ता भी चर्च में ही केन्द्रित हो गयी। जनता के सामने दो शासक थे। दो शासन का सिद्धान्त था-सम्राट तथा पोप का शासन। चर्च ने अपने समर्थन में दो तलवारों का सिद्धान्त अपनाया तथा धार्मिक सत्ता को राज-सत्ता से अधिक श्रेयष्कर बतलाया। तेरहवीं शताब्दी के तीसरे चरण में धार्मिक परिवर्तन प्रारम्भ हो गये और राजकीय सत्ता को पुनः समर्थन मिलने लगा।
मध्य युग की दार्शनिक समस्या
ऐतिहासिक दृष्टि से ३९५ई. से १४५३ ई. का काल मध्य युग कहलाता है। इन दोनों तिथियों का मध्य युग में बड़ा महत्व है। ३९५ ई. में प्राचीन दर्शन का अन्त माना जाता है। इसी समय से धर्म और दर्शन का घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है, क्योंकि इस समय से दर्शन इसाई धर्म का दास बन जाता है। १४५३ ई. भी ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसी समय पूर्वी यूरोपीय साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया पर बर्बर तुर्कों का अधिकार हो गया। इस कारण ग्रीक विद्वान् यूरोप के अन्य देशों में भागकर अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार करने लगे। अतः इन्हीं दोनों तिथियों के मध्य का समय मध्य काल कहा जाता है। इस युग की अनेक दार्शनिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-
१. धर्म प्रधान युगः
यह युग इसाई धर्म की उत्पत्ति तथा उत्थान का समय है। इसी युग में इसाई धर्म का सबसे अधिक प्रचार और प्रसार हुआ। इसाई धर्म का आविर्भाव यहूदी लोगों के बीच हुआ, परन्तु इसकी व्याख्या एक नये सिरे से की गयी। इस युग में क्राइस्ट (Christ) का ईश्वरीय शक्ति या प्रज्ञा (Logos) के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया। इसका तात्पर्य है कि ईसा मसीह तथा ईश्वरीय शक्ति में तादात्म्य है। ईसा मसीह मनुष्य के सर्वप्रथम रूप (Archetype) है।।
२. शास्त्रीय युग (Scholastic Age) :
यह मध्य युग का सबसे प्रमुख लक्षण है। इस युग में बड़े-बड़े धर्मशास्त्रों की रचना हई तथा सभी धर्मशास्त्रों की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी। धर्मशास्त्र के अन्धविश्वास से ओत-प्रोत सिद्धान्तों को दार्शनिक तर्कों के आधार पर युक्तिसंगत बनाने का प्रयास किया गया। अरस्तू के तर्कशास्त्र के अनुसार इसाई धर्म की व्याख्या करने का प्रयास प्रायः इस युग के सभी विद्वान करते हैं। इस प्रकार दर्शन के तर्क का कार्य केवल धार्मिक तथ्यों की व्याख्या करना ही माना गया है। सही दर्शन वही है जिससे इसाई मत प्रकाशित हो। यह कथन अतिशयोक्ति न होगा कि इस युग के दर्शन का प्रयास केवल इसाई धर्म के मताग्रहों की बौद्धिक व्याख्या करना है।
३. संकल्प स्वातन्त्र्य तथा प्रारम्भिक पापः
मध्य युग में प्रारम्भिक पाप तथा संकल्प स्वतन्त्रता पर बहुत विचार किया गया है। इसाई धर्मग्रन्थ के अनसार ईश्वर ने सर्वप्रथम मानव आदम (Adam) को उत्पन्न किया। उन्हें धरती पर स्वर्गीय सुख प्राप्त था। परन्तु शैतान के बहकावे में आकर उन्होंने ‘निषिद्ध फल को खा लिया। इसी कारण वे पापी बने तथा उनकी सन्तान होने के कारण सम्पूर्ण मानव जाति पापी है। उनके सामने दो विकल्प थे। वे निषिद्ध फल को छोड़कर और फलों को खा सकते थे। परन्तु उन्होंने अपनी स्वतन्त्र इच्छाशक्ति से निषिद्ध फल को ही खाने का निश्चय किया, अतः वे पाप के भागी बने। उनके किये गए पापों से मुक्ति के लिए ही महात्मा ईसा मसीह को ईश्वर ने भेजा। यह धार्मिक समस्या प्राय: मध्य युग के सभी दार्शनिकों में विद्यमान है।
४.दो तलवारों का सिद्धान्त (Theory of two swords) :
यह मध्य युग का बड़ा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। मध्य युग के चर्च पिताओं ने समाज में दोहरे अंगठन की आवश्यकता बतलायी। दो प्रकार के मूल्य हैं, लौकिक तथा आध्यात्मिका इन दोनों मूल्यों की रक्षा होनी चाहिए। सामाजिक शान्ति, न्याय, नागरिक सुरक्षा आदि लौकिक मूल्य हैं। इन मूल्यों की प्राप्ति राज्य के माध्यम से हो सकती है। अतः मनष्य को राज्य का शासन स्वीकार करना चाहिए, राजाज्ञा को मानना चाहिए। दसरा मूल्य आध्यात्मिक है। यह आत्मोन्नति तथा मोक्ष का मार्ग है। इसके लिए। मनष्य को धर्म का शासन स्वीकार करना चाहिए तथा चर्च-पिताओं की आज्ञा का पालन करना चाहिये। अत: लौकिक शान्ति और सुरक्षा के लिये राज्य की शरण और पारलौकिक एवं आध्यात्मिक शान्ति के लिये चर्च की शरण आवश्यक है।
मानव का दोहरा लक्ष्य है- लौकिक तथा पारलौकिक इन दो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये दो संगठन और दो शासन की आवश्यकता है, राज्य और चर्च। चर्चपिताओं के अनुसार ईश्वर ने धरती पर दो शासक नियुक्त किये हैं-राजा और पोप। परम-पिता परमात्मा ने दोनों के हाथ में तलवार दिया है, एक तलवार राजा को तथा दूसरी पोप को। ईसा मसीह ने बतलाया कि जनता को लौकिक विषयों में राजा का और आध्यात्मिक विषयों में ईश्वर के आदेश का पालन करना चाहिये।
दोनों शासकों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं, किसी को एक दूसरे में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं। यही दोहरा संगठन, दोहरा शासन है। दोनों पूर्णतः स्वतन्त्र शासक है। यदि चर्च पथ-भ्रष्ट हो जाता है, पोप विलासी बन जाता है तो भी राजा चर्च के शासन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। पुनः यदि राज्य में अराजकता उत्पन्न हो तो पोप हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ईसा मसीह के अनुसार दोनों स्वतन्त्र शासक हैं तथा दोनों का कार्य जनता के लौकिक तथा पारलौकिक हितों की रक्षा करना है।
प्रारम्भ में इन दोनों शासकों में सहयोग तथा दोनों तलवारों में समानता थी। बाद में चर्च-पिता की प्रभुता बढ़ी। पोप राजा से अधिक शक्तिशाली होने का दावा करने लगे। पोप का प्रचार यह होने लगा कि आध्यात्मिक शासक ईश्वर का प्रतिनिधि होने के कारण लौकिक शासक से श्रेयस्कर है। धार्मिक मामलों में राजा भी चर्च के अधीन है। धार्मिक मामलों और विवादों की सुनवाई धार्मिक अदालतों में होनी चाहिये, न कि राजकीय न्यायालयों में।
पोप गिलेशियस प्रथम (Pope Gelasius I) के शब्दों में महान् सम्राट! इस संसार में दो शक्तियों का शासन है-बिशप तथा राजा का। इनमें बिशप का उत्तरदायित्व अधिक है; क्योंकि उसे राजाओं के कार्य का भी ईश्वर को हिसाब देना पड़ता है, तम्हें श्रद्धा से बिशप के सामने नतमस्तक रहना चाहिए। मुक्ति-मार्ग पर चलने के लिये उसकी शरण लेनी चाहिए, धर्म का आदेश देना उसका (बिशप का) कार्य है, तुम्हारा कार्य आदेश पालन है। तुम्हें उसके निर्णय पर निर्भर रहना चाहिये। पादरी सभी लौकिक व्यवहारों में तुम्हारे नियमों का पालन करते हैं।
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