महात्मा सुकरात के अनुयायी(The Semi Socratics)
महात्मा सुकरात की मृत्यु के समय तक उनकी शिक्षा का प्रचार और प्रसार अधिक हो चुका था। उनके अनुयायी भी अधिक हो चुके थे। परन्तु उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में विवाद उत्पन्न होने लगा उनकी शिक्षा का यथार्थ तात्पर्य ही विवाद का विषय बन गया। मनमाने ढंग से उनकी व्याख्या प्रारम्भ हो गयी। एक ही शिक्षा की दो विरोधी व्याख्याएँ भी प्रस्तुत होने लगीं। इस प्रकार महात्मा सुकरात की शिक्षा के तात्पर्य को लेकर नये-नये सम्प्रदाय बन गये। ऐसे नये सम्प्रदायों में तीन सम्प्रदाय सिरेनाइक, सिनिक और मेगारी विशेष महत्वपूर्ण है।
इन तीनों सम्प्रदायों में बड़ा अन्तर है, परन्तु तीनों अपने-अपने सम्प्रदाय का आधार महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा को ही स्वीकार करते हैं। सम्भवतः इसका कारण महात्मा सुकरात के अस्पष्ट शब्द है। उदाहरणार्थ, महात्मा सुकरात को ज्ञान और आचरण के प्रति बड़ी निष्ठा थी और उन्होंने लोगों को जीवन भर इसका महत्त्व बतलाया। उनके अनुसार सद्गुण प्राप्त करना ही जीवन का सर्वोच्च शुभ है, परम लक्ष्य है। यह सद्गुण ज्ञान है। परन्तु प्रश्न यह है कि यह ज्ञान सांसारिक विषयों का ज्ञान है अथवा नैतिक सद्गुण या शुभ मात्र का ज्ञान हर सम्भवतः महात्मा सुकरात का तात्पर्य सांसारिक ज्ञान से नहीं, वरन् नैतिक सद्गुणों के ज्ञान से है।
सद्गुणों का सही ज्ञान सद्गुणी व्यक्ति को ही हो सकता है, जो इसके अनुसार आचरण करे। जिसे पाप का ज्ञान होगा, वह पाप का आचरण नहीं करेगा। स्पष्ट है कि महात्मा सुकरात ज्ञान और चरित्र में घनिष्ठ समबन्ध मानते हैं। जब तक मनुष्य को सत्कर्म का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह सत्कर्म का आचरण नहीं करता। ज्ञान और आचरण में एकता के कारण ही महात्मा सुकरात ने सद्गुण को सर्वोच्च नैतिक प्रत्यय स्वीकार किया है। परन्तु प्रश्न यह है कि सद्गुण स्वत: साध्य है या साधन? यदि सद्गुण ही साध्य है, जीवन का एकमाक्ष लक्ष्य है तो व्यक्ति को सांसारिक सुख की परवाह नहीं करनी चाहिये। परन्त यदि हम सद्गुण को अपना कर समाज में सुखी जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, तो यह साधन है। साध्य तो सुख है। यह विवाद ही निम्नलिखित तीनों सम्प्रदायों का मूल है-
सिरेनाइक सम्प्रदाय(The Cyrenaics)
इस सम्प्रदाय के संस्थापक सिरीन नगर के निवासी अरिस्टपस थे। अत: इस सम्प्रदाय के मानने वाले सिरेनाइक कहलाते हैं। अरिस्टपस अपने आपको महात्मा सुकरात का अनुयायी मानते थे। उनके मतानुसार महात्मा सुकरात मनुष्य को सुखी बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने बतलाया कि मानव सदगुणों के माध्यम से ही सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि सद्गुण सुख का साधन है। ज्ञान का महत्त्व इसलिये है कि इससे सुख मिलता है। इन्द्रिय संयम आदि सभी सुख के साधन है। अतः नैतिक दृष्टि से शुभ वही कार्य है जिससे सुख-प्राप्ति हो|
अतः सुख प्राप्त करना ही मानव का लक्ष्य है। नीतिशास्त्र आदि सभी शास्त्रों का ज्ञान केवल सुख का साधन है। यह सुख भौतिक या सांसारिक सुख है| इसी की प्राप्ति के लिये मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है तथा कोई कार्य करता है। अरिस्टपस महोदय का कहना है कि मनुष्य स्वभावतः सुख की इच्छा करता है। अतः जिस कार्य से सुख प्राप्त होता है, उसे शुभ मानता है। इस प्रकार शुभ-अशुभ का निर्णय तो मानव स्वभाव के विश्लेषण से ही होता है। जो मनुष्य को स्वभावतः प्रिय है, वही उसका साध्य है। अतः जिस कार्य से अधिकतम सुख मिले, वही कार्य मानव का कर्तव्य है। इस प्रकार अरिस्टपस मनोवैज्ञानिक सुखवाद के समर्थक हैं।
एक आवश्यक प्रश्न यहाँ यह उपस्थित होता है कि अरिस्टपस महात्मा सुकरात के अनुयायी होते हुए भी सांसारिक सुख को जीवन का लक्ष्य कैसे मानते हैं? या तो वे महात्मा सुकरात के यथार्थ अनुयायी नहीं या उनकी शिक्षा का यथार्थ तात्पर्य नहीं ग्रहण करते? अरिस्टपस अपने को महात्मा सुकरात का यथार्थ अनुयायी मानते हैं तथा उनकी शिक्षा का यथार्थ तात्पर्य भौतिक सुखवाद बतलाते हैं। अरिस्टपस महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा का तार्किक निष्कर्ष इस प्रकार निकालते हैं कि महात्मा ने बतलाया कि सद्गुण जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इसे यों समझा जा सकता है-
सद्गुण जीवन का लक्ष्य है।
सद्गुण का लक्ष्य सुख है।
इसलिये जीवन का लक्ष्य सुख है।
इसी आधार पर वे अपने सुखवाद की स्थापना करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक ज्ञानी या बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य है सुख-प्राप्त करना। एक आवश्यक प्रश्न यह है कि सुख भी कई प्रकार का होता है। उत्कृष्ट और निकृष्ट सुख में भेद है। अतः कौन सा सुख वांछनीय है? सिरेनाइक दार्शनिकों का कहना है कि सभी सुख समान है। किसी सुख को उत्कृष्ट और किसी को निकृष्ट नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य है कि भविष्य में मिलने वाले सुख की अपेक्षा वर्तमान सुख अच्छा है। अतः तात्कालिक सुख वांछनीय है| तात्कालिक के साथ ही सुख की मात्रा अधिकतम होनी चाहिये, अर्थात् अधिक से अधिक सुख ही वांछनीय है। इससे स्पष्ट है कि नैतिक दृष्टि से वही कार्य शुभ है जिससे सद्यः या तात्कालिक और अधिकतम सुख प्राप्त हो। भविष्य में मिलने वाला सुख तो मात्र काल्पनिक है।
बुद्धिमान व्यक्ति इसमें विश्वास नहीं करता। इस प्रकार सुदूरवर्ती सुख त्याज्य है। इसके अतिरिक्त, सुख की मात्रा अधिक होनी चाहिये। यह अधिकतम सुख केवल सांसारिक या भौतिक विषयों में ही मिल सकता है। अत: बुद्धिमान व्यक्ति को सांसारिक सुख की खोज में लगा रहना चाहियो आत्मा और परमात्मा का सुख तो काल्पनिक पारमार्थिक है। सिरेनाइक सम्प्रदाय का इनमें विश्वास नहीं। आत्म-लाभ असम्भव है, ईश्वर-प्राप्ति मिथ्या है। इस प्रकार ये दार्शनिक शुद्ध भौतिक सुख को ही कार्य का मापदण्ड मानते हैं तथा आध्यात्मिक सुख को नहीं स्वीकार करते। यह स्थूल इन्द्रिय सुखवाद है।
सिनिक सम्प्रदाय(The Cynics)
इस सम्प्रदाय के संस्थापक ऐण्टिथेनीज (Antethenies) माने जाते हैं। ये एथेन्स के साइनोसार्जिस (Cynosarges) नामक विद्यालय में अपने सिद्धान्त का प्रचार करते थे। सम्भवतः इस विद्यालय से सम्बद्ध सिद्धान्त का नाम सिनिक पडा। ऐण्टिथेनीज महात्मा सुकरात के सच्चे अनुयायी थे। इनके अनुसार महात्मा सुकरात की नैति शिक्षा आचरण की उत्कृष्टता के लिये है। उत्कृष्ट आचरण योग और वैरान सम्भव है, भोग-विलास से नहीं| भोग-विलास तो मनुष्य को इन्द्रियों का दास देता है। वस्तुतः मनुष्य का प्रधान गुण विवेक है, वह इन्द्रियों का स्वामी है, इन्द्रिय-निग्रह और आत्म-नियन्त्रण ही उसका कर्तव्य है। अविवेकी पश ही दर सख के पीछे दौडता है।
विवेक सम्पन्न व्यक्ति इन्द्रिय-निग्रह और नियंत्रण में आप का अनुभव करता है। सच्चा सुख विषयों का दास होने में नहीं, वरन विषयों स्वामी बनने में है। केवल मूर्ख ही सुख के पीछे दौड़ते हैं, बुद्धिमान के पीछे सुख दौड़ता है। बुद्धि या ज्ञान की प्रचण्ड ज्वाला में सांसारिक भोग की पिपासा जलकर शान्त हो जाती है। भोग योग में बदल जाता है, विलास वैराग्य को प्राप्त हो जाता है।
ऐण्टिथेनीज के अनुसार सदगुण ही महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा का सार है। अतः सद्गुण ही एकमात्र शुभ है तथा दुर्गुण ही अशुभ है। सद्गुणी व्यक्ति के लिये किसी सांसारिक वस्तु की आवश्यकता नहीं। सांसारिक वस्तु की आवश्यकता उसे होती है जिसमें इच्छा या कामना है। जिसकी कामनायें शान्त हो चुकी हैं, वह सांसारिक वस्तुओं की कामना नहीं करता। ऐसा निष्काम व्यक्ति ही सद्गुणी हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि सद्गुण स्वतः साध्य है। यह किसी का साधन नहीं सद्गुण सम्पन्न व्यक्ति समाज और संसार से स्वतंत्र होता है।
समाज का नियन्त्रण इसके लिये बाह्य मिथ्या नियन्त्रण है| वह आन्तरिक आत्म-नियन्त्रण को सर्वस्व समझता है। इसी कारण सद्गुणी व्यक्ति को सम्पूर्ण संसार का नागरिक समझा जाता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में समता है विषमता नहीं। अतः सम्पूर्ण संसार ही उसका घर है। आत्मलोक में निवास करने के कारण वह आत्मानन्द को सर्वस्व समझता है तथा सांसारिक सुख को हेय और तुच्छ मानता है। सांसारिक तथा शारीरिक सुख तो आत्मानन्द के मार्ग में बाधक है। अत: आत्मानन्द की उपलब्धि के लिये शरीर को कष्ट देना आवश्यक है। शरीर और संसार में लगा व्यक्ति कभी सख नहीं पा सकता। सच्चे सुख के लिये कामनाओं और वासनाओं का सर्वथा त्याग करना आवश्यक है।
मेगारी सम्प्रदाय (The Megarics)
इस सम्प्रदाय के संस्थापक मेगारा नगर के निवासी युक्लिड (Euclid) थे। यूक्लिड (Euclid) ने महात्मा सुकरात की शिक्षा की एक नये ढंग से व्याख्या प्रस्तुत की। यूक्लिड महात्मा सकुरात और इलियाई मत में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं। महात्मा सुकरात ने बतलाया कि ज्ञान ही सद्गुण है। परन्तु प्रश्न यह है कि इस ज्ञान का स्वरूप क्या है? यह सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान है या पारमार्थिक, निरपेक्ष सत् का? मेगारी सम्प्रदाय के अनुसार यह निरपेक्ष सत् का ज्ञान है। हम पहले विचार कर आये है कि इलियाई मत के अनुसार सत् एक, अद्वैत तथा निरपेक्ष तत्त्व है।
संसार में दिखलायी पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु असत् है, मिथ्या है। संसार परिवर्तनशील है तथा सत् अपरिवर्तनशील। इस प्रकार संसार असत् का प्रतीक है तथा सत् परम तत्त्व का सूचक है। सत् और असत् नितान्त विरोधी हैं। इस परम तत्त्व अर्थात् सत् का ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। इस यथार्थ ज्ञान से ही मनुष्य सर्वोच्च शुभ को प्राप्त कर सकता है। पारमेनाइडीज के अनुसार सत् ही सर्वोच्च है और सुकरात के अनुसार शुभ सर्वोच्च है। यूक्लिड इन दोनों का समन्वय करते हुए बतलाते हैं कि सत् ही शुभ है।
सत् और शुभ दोनों ईश्वर या ईश्वरीय गुण के नाम है। इन्हें दैवी गुण कहा गया है। यही सद्गुण है, पुण्य का पथ है। इसके विपरीत असत् है, यह पाप का नाम है। यह असत् मिथ्या और माया है। इसका अस्तित्व नहीं। केवल सत की ही सत्ता है। अतः सत परम तत्व का नाम है तथा असत् अतत्व का है। एक आवश्यक प्रश्न यह है कि सत या शुभ क्या है। यूक्लिड महात्मा। सुकरात की शिक्षा का सार बतलाते हुए कहते हैं कि सत् या शुभ ही सद्गुण का ज्ञान है।
तात्पर्य यह है कि सत् को जानने वाला ही शुभ आचरण कर सकता है। यही सद्गुणों का आचरण है। सद्गुणी व्यक्ति सत् का ज्ञाता है। इसके विपरीत दुर्गुणी व्यक्ति असत् को जानता है, सत् को नहीं। यही सत् और शुभ का समन्वय है। पुनः एस आवश्यक प्रश्न है कि सद्गुणों की संख्या कितनी है। उत्तर यह है कि सद्गुण तो शुभ है, एक है। इस एक शुभ के अन्तर्गत परोपकार, धैर्य आदि सभी सद्गुण आ जाते हैं। सदगुण में सभी समाहित हो जाते हैं। सद्गुण वस्तुतः एक ही शुभ है। परन्तु इसके रूप अनेक है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सिनिक, सिरेनाइक और मेगारी, सम्प्रदायों का आधार महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा है, परन्त निष्कर्ष भिन्न-भिन्न है। सिरेनाइक सम्प्रदाय के अनुसार महात्मा सुकरात ? सांसारिक दृष्टि से सुखी बनाने के लिये ही सद्गुणों की शिक्षा देते थे। अब बनाने का एकमात्र लक्ष्य व्यावहारिक जीवन को सुखी बनाना है। सब कुछ का महत्व मनष्य के लिये ही है। अतः सद्गुणों का लक्ष्य मनुष्य को सांसारिक दृष्टि से सुखी बनाना है।
ज्ञानी व्यक्ति ही सद्गुणी हो सकता है और सद्गुणी ही अधिक से अधिक सांसारिक सुख प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को सांसारिक सुख की खोज में जीवन व्यतीत करना चाहिए। ठीक इसके विपरीत सिनिक सम्प्रदाय निवृत्ति मार्ग का प्रतिपादन करता है। इनके अनुसार निवृत्ति मार्ग ही यथार्थ नैतिक मार्ग है। त्याग का सुख सबसे बढ़कर है। त्याग के कारण ही सिनिक सम्प्रदाय की नैतिकता निषेधमूलक है। इनके अनुसार सब कुछ छोड़कर संन्यास ग्रहण करना ही जीवन का आदर्श है। सांसारिक सुख और वैभव तो बन्धन है।
सिनिक सम्प्रदाय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये लोग सांसारिक सुख को केवल छोड़ने की ही नहीं वरन् सांसारिक दुःख को सहने की भी शिक्षा देते हैं। शरीर को कष्ट दिये बिना हमें आत्मा का आनन्द नहीं मिल सकता। अत: शरीर को कष्ट देना नैतिक जीवन का एक आवश्यक भाग है। आत्म-नियंत्रण और इन्द्रिय-दमन नितान्त आवश्यक है। इसके बिना मनुष्य सद्गुण नामक श्रेष्ठ गुण को नहीं प्राप्त कर सकता। सद्गुण से सम्पन्न होने के लिये हमें सांसारिक सुख का त्याग करना आवश्यक है|
विषय-वासना से मुक्ति पाये बिना हम आत्मानन्द को नहीं प्राप्त कर सकते। सच्चे सुख के लिये सांसारिक दुःख को सहना आवश्यक है। संसार सुख भोगने के लिये नहीं वरन् दुःख सहने की जगह है। जो व्यक्ति यहाँ सुख भोगना चाहता है, वह तो अपने लक्ष्य से पदच्युत होकर मिथ्या सुख के पीछे दौड़ता है। उसका लक्ष्य तो सद्गुण के लिये इन्द्रिय-दमन की आवश्यकता है। इन्द्रिय-दमन सांसारिक सख का भोग नहीं वरन् त्याग है, आध्यात्मिक योग है। मेगारी सम्प्रदाय महात्मा सुकरात के सद्गुण को परम सत् या परम तत्व मानते हैं। सद्गुणी व्यक्ति सत् की ओर आकृष्ट होता है। यह मनुष्य में ईश्वरीय या दैवीगुण है। संसार असत् और मिथ्या है। इसके विपरीत परमार्थ सत् और तत्त्व है।
सुकरात की समीक्षा
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में नैतिक सिद्धान्तों के लिए महात्मा सुकरात का नाम अमर है। सच पूछा जाय तो ये दार्शनिक नहीं वरन महात्मा थे। इन्होंने जीवन भर लोगों को नैतिक शिक्षा दी, सद्गुण का पाठ पढ़ाया। इन्होंने सर्वप्रथम नैतिक सिद्धान्तों के वस्तुनिष्ठ (Objective) स्वरूप का प्रतिपादन किया। यहीं इनका सॉफिस्ट महात्माओं से विरोध था। सॉफिस्ट लोगों ने मानव का महत्व तो बतलाया है। इसे महात्मा सुकरात भी स्वीकार करते है कि नैतिक शिक्षा का केन्द्र तो मनुष्य है।
यहाँ तक महात्मा सुकरात का प्रोटागोरस आदि सॉफिस्ट महात्माओं से विरोध नहीं है। परन्तु बाद में सॉफिस्ट लोगों ने (मुख्यतः जार्जियस आदि ने) नीतिशास्त्र के क्षेत्र में व्यक्तिवादी या स्वार्थवादी नैतिकता का प्रचार किया है। यहाँ पर महात्मा सुकरात का सॉफिस्ट लोगों से बहुत बड़ा मतभेद है। सुकरात के अनुसार सत्य और शुभ का मापदण्ड व्यक्ति विशेष नहीं हो सकाता। सत्य आत्मगत नहीं, सर्वगत है। नातकता आत्मनिष्ठ नहीं वरन वस्तुनिष्ठ होती है। जो मेरे लिए नैतिक दृष्टि से शुभ और श्रेयस्कर है, वही दूसरों के लिए भी है| जो सबके लिए सत्य है वही वस्तुतः वस्तुनिष्ठ सत्य मान्य है। यह वस्तनिष्ठ सत्य सामान्य है, विशेष नहीं। यदि यह सामान्य सिद्धान्त है, तो इसकी शिक्षा सम्भव है। इसी दृष्टि से महात्मा सुकरात का कहना है कि सत्य तथा सद्गुण की शिक्षा सम्भव है।
जब तक मनुष्य को उचित सदगुण की शिक्षा नहीं मिलती तब तक वह सद्गुण का आचरण नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि सदगुणों से यथार्थ परिचय के बिना हम सद्गुणी नहीं हो सकते। धार्मिक होने के लिए हमें धर्म की उचित शिक्षा मिलनी चाहिये। हम पुण्य के पथ पर नहीं चल सकते यदि हमें पुण्य का ज्ञान न हो। पाप तो अज्ञानमूलक है। हमें पुण्य का ज्ञान नहीं, इसी कारण हम पाप करते हैं। यदि हम पाप के दुष्परिणामों से परिचित हो जॉय तो सम्भवतः पाप का आचरण न करें। धर्म तो ज्ञान का फल है तथा अधर्म अज्ञान का परिणाम है। कोई अपनी इच्छा से पाप या अधर्म नहीं करता, वरन वह पुण्य या धर्म को न जानने के कारण करता है।
महात्मा सुकरात को नैतिक नियमों का जन्मदाता मानते हैं। उन्होंने नीतिशास्त्र का कोई ग्रन्थ तो नहीं लिखा, परन्तु नैतिकता का पाठ पढ़ाया और धर्म का मार्ग दिखलाया; परन्तु विश्लेषण करने पर उनके मार्ग को समझने में कुछ कठिनाई होती है। उदाहरणार्थ, उनका यह सिद्धान्त बडा सुन्दर है कि सत्य का ज्ञान न होने पर ही मनुष्य असत्य मार्ग पर चलता है। यदि किसी व्यक्ति को यथार्थ धर्म का ज्ञान हो जाय तो वह अधर्म का आचरण न करे। परन्तु व्यवहार में हम कुछ दूसरा ही देखते हैं। हमारा दैनिक अनुभव यह बतलाता है कि मनुष्य पाप प्रवृत्ति के कारण करता है, अज्ञान के कारण नहीं। धर्मशास्त्र के नियमों का ज्ञान हमें हो सकता है, परन्तु हम उनके अनुकूल आचरण नहीं कर सकते। इसका कारण अज्ञान नहीं वरन् हमारी प्रवृत्ति है। मनुष्य जानता है कि अधर्म क्या है, पाप क्या है? परन्तु वह पाप का त्याग नहीं करता। अतः पाप प्रवृत्ति का ही परिणाम है, अज्ञान का नहीं। हम स्वभाव के कारण पाप करते हैं।
पाप और पुण्य के आचरण करने में मनुष्य का स्वभाव तथा उसकी निजी प्रवृत्ति अवश्य ही कारण है। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि महात्मा सुकरात की शिक्षा अव्यावहारिक और व्यर्थ है। यदि मनुष्य धर्म सीख कर नहीं जानता तो धर्मशास्त्रों की रचना ही क्यों होती? अतः किसी अर्थ में धर्म का सम्बन्ध ज्ञान से अवश्य है। साथ ही साथ, यह भी सत्य है कि केवल धर्मशास्त्र पढ़ने और सीखने से ही मनुष्य धार्मिक और नैतिक नहीं बन जाता। इसके लिए आचरण की आवश्यकता है। आचरण का सम्बन्ध क्रिया से है और ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि या विवेक से है। वस्तुतः धर्म में दोनों ही समानतः कारण हैं। किसी एक को उपेक्षा करना तो धर्म या नैतिकता को एकांगी बनाना है।
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