स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त की व्याख्या
सामाजिक उद्विकास की धारणा हरबर्ट स्पेन्सर ने प्रस्तुत की है। उसका विचार है कि डार्विन के प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के सिद्धान्त के नियम मानव समाज और संस्कृति पर भी लागू होते हैं। इसे निम्नानुसार समझा जा सकता है –
1. आरम्भ में यानी अति आदिम युग में समाज अत्यन्त सादा और सरल था। समाज के विभिन्न अंग परस्पर इस प्रकार घुले-मिले होते थे कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता था। एक परिवार ही सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सभी कार्य करता था। प्रत्येक व्यक्ति मात्र अपने परिवार के बारे में ही जानता था। सभी के कार्य, व्यवसाय तथा विचार लगभग एक से होते थे, अतः इस दृष्टि से सभी लोग प्रायः समान थे। किन्तु धीरे-धीरे उनके विचार, अनुभव एवं ज्ञान में वृद्धि और उन्नति हुई। अब वे मिल-जुलकर कार्य करना समझ गये और साथ ही उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट होते गये। उदाहरणार्थ, परिवार, राज्य, धार्मिक संस्था, गांव, शहर, कारखाना, आदि।
2. विकास के दौरान समाज के विभिन्न अंग जैसे-जैसे स्पष्ट होते जाते हैं, प्रत्येक अंग/भाग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है। यानी समाज के विभिन्न अंगों के बीच । श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हो जाता है। परिवार एक विशेष प्रकार का कार्य करता है। स्कूल दूसरे प्रकार, राज्य तीसरे प्रकार का कार्य, मिलें एवं कारखाने अन्य प्रकार के अलग-अलग कार्य करते हैं। यह हो ही नहीं सकता कि स्कूल परिवार का कार्य करे और राज्य श्रमिक संघ का।
3. समाज के विभिन्न अंगों के विकसित हो जाने से उनमें श्रम विभाजन एवं। विशेषीकरण हो जाता है, किन्तु वे एक दूसरे से अलग अथवा पूर्णतः परे नहीं होते। उनमें कुछ निश्चित अन्तःसम्बन्ध एवं अन्तःनिर्भरता बनी रहती है। यदि परिवार राज्य से सम्बन्धित और उस पर निर्भर होता है, तो राज्य भी परिवार से सम्बन्धित और उस पर निर्भर होता है। इसी प्रकार किसान, मजदूर, शिक्षक, व्यापारी, धोबी, लोहार, जुलाहा, भंगी इन सबमें एक अन्तःसम्बन्ध और अन्तःनिर्भरता पाई जाती है।
4. सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और इसके ही फलस्वरूप एक सम्पूर्ण समाज की रचना अनेक वर्षों में धीरे-धीरे होती रहती है।
5. सामाजिक उद्विकास की यह प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों/अवस्थाओं में से गुजरकर होती है, जिस दौरान समाज का सरल रूप धीरे-धीरे जटिल रूप ग्रहण कर लेता है। उदाहरणार्थ, आर्थिक जीवन की शुरुआत में वस्तुओं के अदल-बदल (Barter system) से काम आरम्भ किया गया था, किन्तु आज उस सादी तथा सरल आर्थिक व्यवस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का रूप धारण कर लिया है। पहले व्यक्ति पैदल चलते थे, फिर पशुओं पर चलने लगे, आज हवाई जहाज से काम लेते हैं। पहले लोगों का जीवन मात्र परिवार तक सीमित था, किन्तु आज वही अन्तर्राष्ट्रीय जीवन हो गया है। यह सम्पूर्ण विकास कुछ दिनों में नहीं, वरन् धीरे-धीरे कुछ निश्चित स्तरों में से गुजरकर हुआ है।
मॉर्गन ने मानव समाज के उद्विकास के तीन स्तरों का उल्लेख किया है – 1. जंगली (Savage) स्तर, 2. असभ्य (Barbarian) स्तर और 3. सभ्य (Civilized) स्तर। इसी प्रकार आर्थिक जीवन का उद्विकास चार स्तरों में से होकर गुजरा है – 1. शिकार करने तथा भोजन एकत्र करने का स्तर, 2. पशुपालन अथवा चरागाह का स्तर, 3. कृषि स्तर एवं 4. औद्योगिक स्तर।
मॉर्गन के अनुसार परिवार पाँच अवस्थाओं में से गुजरकर अपनी वर्तमान स्थिति में पहुँचा है – 1. समान रक्त वाले परिवार, 2. समूह परिवार, 3. सिडेस्मियन परिवार, 4. पितृ सत्तात्मक परिवार तथा 5. एकविवाही परिवार।
स्पेन्सर का सिद्धान्त
हरबर्ट स्पेन्सर ने उद्विकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी दो पुस्तकों ‘The Development of Hypothesis और ‘First Principle’ नामक दो निबन्धों के अन्तर्गत किया है। स्पेन्सर के अनुसार भौतिक जगत अत्यन्त जटिल है। इसमें विभिन्न पदार्थ परस्पर इतने अधिक जुड़े हुये है कि उन्हें एक-दूसरे से पृथक करके अपेक्षित ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता। रासायनिक पदार्थों की भाँति उनका विश्लेषण नहीं दिया जा सकता। इस कठिनाई को हल करने के लिये स्पेन्सर ने एक सूत्र प्रस्तुत किया, जिसके द्वारा दृश्य जगत का विश्लेषण करके, वास्तविकता को ज्ञात किया जा सकता है। इस सूत्र के अनुसार भौतिक जगत शक्ति व पदार्थ के सम्मिलन से निर्मित हुआ है। शक्ति एवं पदार्थ दो ऐसे तत्व है, जिनका किसी भी प्रकार से विश्लेषण करना कठिन कार्य है। इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट करना सम्भव है कि कौन सा तत्व कहां से प्रारम्भ होता है और कहां पर उसका अन्त होता है। स्पेन्सर के अनुसार शक्ति व पदार्थ अपने असितत्व की सुरक्षार्थ एक-दूसरे पर ही आधारित है।
शक्ति एवं पदार्थ की विशेषताएं – स्पेन्सर के अनुसार शक्ति सदैव गतिमान रहती है। शक्ति की इस विशेषता में कभी कोई अन्तर नहीं आता और न ही शक्ति का विनाश होता है। अतः शक्ति गतिमान होने के साथ-साथ शाश्वत भी है। शक्ति की दूसरी विशेषता यह है। कि इसे न तो कोई समाप्त कर सकता है और न ही इसको बना सकता है। शक्ति की राशि में भी कभी कोई अन्तर नहीं आता, भले ही शक्ति के स्वरूप में अन्तर आ जाये। स्पष्ट है कि स्पेन्सर रूपान्तर के द्वारा शक्ति का अन्त होना स्वीकार नहीं करता है।
यही बात स्पेन्सर पदार्थ के सम्बन्ध में भी कहता है। उसका विचार है कि पदार्थ का भी कभी विनाश नहीं होता, केवल उसका रूप ही बदलता है। कोयले को जलाने पर राख बन जाती है, किन्तु पदार्थ का विनाश तो नहीं होता पदार्थ के मात्र रुप का ही परिवर्तन होता है।
स्पष्ट है कि स्पेन्सर ने शक्ति व पदार्थ की शाश्वत् विशेषताओं का अध्ययन करके तत्वों की निरन्तरता/ शाश्वतता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। उसने यह भी माना है कि यद्यपि शक्ति व पदार्थ अविनाशी है, फिर भी उनमें सदैव परिवर्तन होते रहते है। उनका स्वरूप स्थिर नहीं है, अतः शक्ति व पदार्थ से निर्मित भौतिक जगत सदैव परिवर्तित होता रहता है। उसका कहना है कि भौतिक जगत में इसकी उत्पत्ति के पश्चात विभिन्न परिवर्तन हो चुके है। परिवर्तन से उसका अभिप्राय शक्ति व पदार्थों के उस परिवर्तन से ही है जो कि एक दूसरे के अनुकूल न रहने के कारण बनते बिगड़ते रहते है। इन परिवर्तनों के बारे में स्पेन्सर का मत है कि यह सदैव ही उद्देश्यपूर्ण होते है। शक्ति व पदार्थ में परिवर्तन एक विशेष विधि की प्रेरणावश होता है। इसकी पृष्ठभूमि में जो विधि क्रियाशील होती है, स्पेन्सर के अनुसार वह विकासवाद की विधि ही है। विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्पेन्सर ने निम्नलिखित विवेचन प्रस्तुत किया है-
उद्विकास का क्रम
स्पेन्सर के अनुसार प्रारम्भ में समस्त पदार्थ एक ढेर मात्र ही था, किन्तु यह ढेर शक्तिमान था। शक्ति व पदार्थ की इस अवस्था में समस्त अणुओं का स्वरूप एक सा था। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, अणुओं का स्वरूप क्रमशः परिवर्तित होता गया। इस क्रम में सितार और नक्षत्र बने, भौतिक जगत निर्मित हुआ. जल एवं मिट्टी ने भातिक जगत को हरियाली प्रदान की, हरियाले पेड-पौधो ने जीवों की विभिन्न जातियों को उत्पन्न किया। स्पेन्सर का विचार है कि विभिन्न जातियों के जन्म ने के पूर्व विभिन्न विभिन्न प्रकार के जीव उत्पन्न हुये होंगे। इस प्रकार द्रश्य-जगत की विभिन्न वस्तुयें उत्पन्न हुई तथा नष्ट होती चला गयी, जिनका अब कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के प्रमुख तत्व है –
1- उद्विकास का सम्बन्ध पदार्थ (matter) के एकीकरण एवं उससे सम्बन्धित गति (Motion) से है।
2- इस गति की विशेषताएं है-
(अ) यह अनिश्चित से निश्चित की ओर होता है,
(ब) इसमें स्पष्टीकरण से विभेदीकरण होता रहता है,
(स) यह सजातीयता से विजातीयता की ओर होता है अर्थात् एक ही जाति से विभिन्न जातियों/ प्रकारों का विकास होता है।
स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त के दो मुख्य निष्कर्ष है –
(क)- सामाजिक उद्विकास सरल से जटिल की ओर होता है। पहले समाज सरल था, किन्तु बाद में जटिल होता गया, पहले परिवार, विवाह, धर्म, राज्य, एवं आर्थिक संस्थाऐ आदि अत्यन्त ही सरल थी, किन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ उनकी जटिलता में भी वृद्धि होती गयी। उदाहरणार्थ- पहले विवाह की संस्था सरल थी।
(ख)- पुरुष ने एक स्त्री के साथ सहमति से विवाह कर लिया। इसके पीछे कोई कानून, निषेध/ प्रतिबन्ध नहीं थे। बाद में यह संस्था जटिल होती गयी, क्योंकि अब विवाह नियमों/ रीतियों के अनुसार होने लगे, विवाह से सम्बन्धित विभिन्न प्रतिबन्ध विकसित हो गये, यथा- विवाह माता-पिता की इच्छानुसार होना चाहिये, विवाह में दहेज दिया जाना चाहिये, विवाह अपनी ही जाति के सदस्यों में करना चाहिये, एक ही गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिये, आदि-आदि।
2- दूसरा नियम श्रम विभाजन है। पहले समाज में श्रम का विभाजन नहीं पाया जाता था, अतः एक ही व्यक्ति सभी तरह के कार्य करता था। वह खेती, पशुपालन एवं लघु-उद्योग धन्धे करता था। बाद में धीरे-धीरे श्रम-विभाजन का प्रचलन होता गया। अब खेती का कार्य एक ही व्यक्ति के द्वारा किया जाने लगा। खेती में भी हल बनाने के लिये बढ़ई, औजार बनाने के लिये लुहार, पानी देने के लिये कहार, फसल की कटाई करने के लिए मजदूर आदि की आवश्यकता उत्पन्न हुयी। इस प्रकार शनैः-शनैः श्रम-विभाजन और फिर विशेषीकरण भी होता गया।
इन्हें भी देखें-
- सामाजिक उद्विकास की अवधारणा, अर्थ, सिद्धान्त तथा विशेषताएं | Social Evolution in hindi
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सामाजिक उद्विकास के प्रमुख कारक | Factors of Social Evolution in hindi