लाइबनिट्ज की जीवनी और द्रव्य-विचार

लाइबनिट्ज की जीवनी, मूलभूत सिद्धान्त और द्रव्य विचार | Leibnitz Philosophy in Hindi

लाइबनिट्ज(Leibnitz)(सन् १६४६ ई० से सन् १७१६ ई.)

अरस्तू के बाद सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न दार्शनिकों में लाइबनिट्ज का नाम अग्रगण्य है। इनका पूरा नाम गॉटफ्रिड विल्हेल्म लाइबनिट्ज (Goutried Wilhelm Leibnitz) था। इनका जन्म जर्मनी के लिपजिग नगर में हुआ था। जर्मनी के तीस वर्षीय युद्ध (Thirty years war) के समाप्ति काल में ही इनका जन्म हुआ था। इस महान् युद्ध की विभीषिका से सम्पूर्ण देश त्रस्त था। अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये ‘धमई की ओट में सभी लोग युद्ध प्रिय हो चुके थे। इसाई धर्म में फूट के बीज का वपन हो चुका था। कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट दोनों सम्प्रदाय एक दूसरे के विरुद्ध आपस में भी युद्ध को अपना धर्म मानते थे लाइबनिट्ज के जन्म के समय जर्मनी की दशा दयनीय थी।

लाइबनिट्ज के पिता यूनिवर्सिटी प्रोफेसर थे। लाइबनिट्ज के बाल्यकाल में ही उनका देहावसान हो गया। पिता के दर्शनशास्त्र के प्रध्यापक होने के कारण लाइबनिट्ज को दार्शनिक शिक्षा बाल्यकाल से ही मिलनी प्रारम्भ हो गयी थी। बाल्यकाल से ही वे बड़े मेधावी छात्र थे। इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। ये अपने समय के अच्छे गणितज्ञ थे, कवि थे, कानून के ज्ञाता थे। इनकी अभिरुचि धर्मशास्त्र इतिहास, दर्शन, आदि विविध विषयों में थी। ग्रीक, लैटिन, जर्मन, फ्रेञ्च आदि सभी भाषाओं में ये पारंगत थे। बीस वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम मेञ्ज के प्रधान पादरी के अनुरोध पर वहाँ के राजनीतिक विभाग में नियुक्त किये गए।

इन्होंने इस पद पर शहर के नियमों में अधिक सुधार किया। इसके बाद ये कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर कार्य करते रहे। जर्मन की राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने के लिये ये पेरिस भेजे गये तथा बहुत दिनों तक चौदहवें लूइ के सम्पर्क में रहे। पेरिस में ये आरनॉल्ड और तिसिनहसन आदि के विचारों से बहुत प्रभावित हुए थे। पेरिस के बाद ये लन्दन गये और वहां बॉयल (Boyle) और सर आइजक न्यूटन (Sir Isaac Newton)आदि महान विचारकों के सम्पर्क में रहे। न्यूटन के साथ इन्होंने गणित शास्त्र में अनेक महत्वपूर्ण शोध किये। पेरिस और लन्दन की यात्रा ने इनके बौद्धिक जीवन में एक नया मोड़ दिया। जर्मनी लौटकर ये राजकीय पुस्तकालय के अध्यक्ष नियुक्त किये गये।

इस पद पर कार्य करते हुए इन्होंने हेनोबर वंश के शासको का विशद इतिहास लिखा। इसके बाद इन्होंने बर्लिन के प्रसिद्ध विज्ञान संस्थान की स्थापना की। इनके जीवन का अन्तिम काल बड़ा ही दुःखद रहा। लोगों ने लाइबनिट्ज की देन को अच्छी तरह नहीं। पहचाना। अतः इन्हें अन्त में अपनी कृतियों का श्रेय पूरी तरह नहीं मिल सका। घोर निराशा में ही 1716 ई0 में इनकी मृत्यु हो गयी। उनके एक निजी सचिव के अनुसार, लाइबनिट्ज देश का रत्न होते हुए भी एक लुटेरे के समान दफनाया गया।

लाइबनिट्ज की कृतियाँ(Works of Leibnitz)

१. मोनॉडोलाजी (Monadology) १७१४ में।

२. प्रिन्सिपुल्स आफ नेचर एण्ड ग्रेस (Principles of Nature and Grace) १७१४ में।

३ दि डिसकोर्स ऑन मेटाफिजिक्स (The Discourse on Metaphysics)

४.थियोडिसी (Theodicy)

 

लाइबनिट्ज की सभी कृतियों में मोनॉडोलाजी या चिदणुशास्त्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ से उनके तत्वमीमांसा सम्बन्धी सभी विचारों का पर्याप्त रूप से परिचय मिलता है। दी डिसकोर्स ऑन मेटाफिजिक्स से उनके धार्मिक विचारों का परिचय मिलता हैं।

 

 

लाइबनिट्ज का दार्शनिक दृष्टिकोण

जर्मनी की दार्शनिक प्रगति का मुख्य श्रेय लाइबनिट्ज को ही है। अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्व जर्मन के दार्शनिकों की कोई उल्लेखनीय देन नहीं है। अतः लाइबनिट्ज को जर्मनी की सांस्कृतिक तथा दार्शनिक प्रगति के शुभारम्भ का श्रेय निश्चितरूप से प्राप्त है। लाइबनिट्ज की दार्शनिक दृष्टि समन्वयवादी है। दूसरे शब्दों में, उनके दर्शन की सबसे बड़ी समस्या समन्वयवाद (Reconciliation) है। लाइबनिट्ज स्वत: एक स्थान पर कहते हैं- मैंने प्लेटो तथा डिमॉक्रिटस के, अरस्तू तथा देकार्त के, मध्ययुगीन तथा वर्तमान दार्शनिकों के धर्मशास्त्र तथा बुद्धिवाद के समन्वय का प्रयास किया है।

धार्मिक क्षेत्र में इन्होंने प्रोटेस्टेण्ट तथा कैथोलिक लोगों का समन्वय किया। लाइबनिटज इसाई धर्म पर आधारित विश्व धर्म (Universal religion) की स्थापना करना चाहते थे। इसी दृष्टि से उन्होंने ईश्वरीय नगर (City Or God) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसी प्रकार वे विज्ञान और धर्म (Science and Theology) का समन्वय करना चाहते थे। इनका कहना था कि कोई भी वैज्ञानिक व्याख्या धार्मिक दृष्टिकोण के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। इसी प्रकार उन्होंने संज्ञावाद और वस्तुवाद (Realism)का समन्वय किया। इन दोनों के बीच में इन्होंने एक मध्यम सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

लाइबनिट्ज के पूर्व स्पिनोजा (Spinoza) और गेसेण्डी दो अन्तवादी दार्शनिक हए। लाइबनिटज ने इन दोनों का समन्वय किया। स्पिनोजा के अनुसार तत्व एक, अद्वैत रूप है, गेसेण्डी के अनुसार तत्व अनेक है। लाइबनिट्ज ने इस एक और अनेक का समन्वय किया है। इसी प्रकार लाइबनिट्ज ने यंत्रवाद (Mechanism)और प्रयोजनवाद (Teleology) तथा नियति (Determinism)और स्वतन्त्रता (Freedom) का भी समन्वय किया है।

लाइबनिट्ज ने दर्शन में पूर्ववर्ती और परवर्ती सभी विचारों का समन्वय किया है। बेकन (Bacon) आदि दार्शनिकों ने मध्ययुग को रूढिवाद और अन्धविश्वास का युग बतलाया है। लाइबनिट्ज के अनुसार वर्तमान के निर्माण में भूत का हाथ है। परम्परा को बिल्कुल व्यर्थ मानना बुद्धिमत्ता नहीं। एक्विनस आदि दार्शनिकों के विचार वर्तमान के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

लाइबनिट्ज के दर्शन में तीन मूलभूत सिद्धान्त हैं– निरन्तरता का सिद्धान्त (Principal of Continuity), व्यक्ति विशेष का सिद्धान्त (Principle of Pre-established Harmony)तथा पूर्व स्थापित सामञ्जस्य (Principle of pre-established Harmony) निरन्तरता का सिद्धान्त यह बतलाता है कि विश्व का विकास निरन्तर क्रमबद्ध है। एक परिवर्तन दूसरे को जन्म देता है तथा दूसरा तीसरे को इस प्रकार कोई भी परिवर्तन अकारण नहीं सकारण है।

व्यक्ति विशेष का सिद्धान्त यह बतलाता है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु सत् (Real) है, अवयव का अस्तित्व है, प्रत्येक इकाई की निजी सत्ता है। अवयव के बिना अवयवी का कोई महत्व नहीं। अतः स्पिनोजा के समान लाइबनिट्ज अवयव निषेध सिद्धान्त नहीं मानते। पूर्व स्थापित सामञ्जस्य विश्व की एकता तथा नियमबद्धता का प्रतिपादन करता है। विश्व वैचित्र्य अनियन्त्रित, नहीं, वरन् नियमित है। विश्व की प्रत्येक वस्तु भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक ही नियम से परिचालित है।

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लाइबनिट्ज-दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त की व्याख्या

१. निरन्तरता का नियम (Law of Continuity) –

लाइबनिट्ज ने गणित शास्त्र में अनेक महत्वपूर्ण शोध किये थे तथा कई नये सिद्धान्तों का पता लगाया था। उदाहरणार्थ, उन्होंने गणित के गहरे अध्ययन के पश्चात् यह पता लगाया कि संख्या का कहीं अन्त नहीं। संख्या को असीमतः बढ़ाया जा सकता है साथ ही साथ इस असीमता को छोटे से छोटे भाग में बाँटा जा सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला कि किसी पदार्थ के विभाजन में कोई सीमा नहीं तथा अंशों के योग्य की भी सीमा नहीं। परन्तु अंशों में निरन्तरता (Continuity) अवश्य है। उदाहरणार्थ, रेखा विभिन्न बिन्दुओं में विभक्त हो सकती है तथा विभिन्न बिन्दुओं के निरन्तर योग से ही रेखा बन सकती है। उस निरन्तरता नियम से लाइबनिट्ज विकासवाद की समुचित व्याख्या करते हैं।

लाइबनिट्ज के अनुसार विश्व के मूल तत्व चिदणु है। सभी चिदणु एक समान नहीं। चिदणु में चेतना का भेद है। निम्न, उच्च, उच्चतर और उच्चतम आदि चिदणु की अनेक श्रेणियाँ है। परन्तु ये श्रेणियाँ आकस्मिक नहीं। एक स्तर दूसरे स्तर से पूर्णतः सम्बद्ध है। उदाहरणार्थ, निम्नतम से लेकर उच्चतम श्रेणी तक चेतना के विभिन्न स्तर हैं। इनमें परिणाम का भेद अवश्य है, परन्तु इनमें गुणात्मक भेद नहीं। इसका आधार निरन्तरता का नियम है। इस नियम के आधार पर ही लाइबनिट्ज सजीव और निर्जीव, चेतन और अचेतन का भेद समाप्त करते हैं। चेतन और अचेतन में केवल चेतन की न्यूनाधिक मात्रा का भेद है। वस्तुतः चेतनाशून्य विश्व में कुछ भी नहीं। इस प्रकार यह नियम नितान्त भेद का निराकरण करता है।

 

२. व्यक्तित्व का नियम (Law of Individuality)-

लाइबनिट्ज के दर्शन में परम तत्व व्यक्ति विशेष है। विशेष पदार्थ चिदणु (Monad) कहलाते हैं। चिदणु अनेक हैं, परन्तु सभी चिदणु व्यक्ति विशेष हैं। एक चिदणु दूसरे के समान नहीं, अतः सभी विशेष है। सभी चिदणु को अलग-अलग मानने के कारण लाइबनिट्ज परम तत्व की अनेकता स्वीकार करते हैं। विश्व में चिदणु असंख्य हैं। सभी परम तत्व है। ये परम तत्व चिदणु कहलाते हैं। ये चिदणु ही लाइबनिट्ज के द्रव्य हैं।

लाइबनिट्ज का चिदणुवाद अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों का समन्वय है। चिदणु डिमॉनिटस आदि दार्शनिकों के परमाणु से भिन्न है। चिदणु विश्व के परम तत्व तो है, परन्तु अन्तिम अविभाज्य, न्यूनतम पदार्थ नहीं। परमाणुवादियों के अनुसार विश्व का अविभाज्य पदार्थ ही परमाणु कहलाता है। लाइबनिट्ज की मान्यता इससे भिन्न है। उनके अनुसार किसी पदार्थ का असीमतः विभाजन सम्भव है। दूसरी बात यह है कि वैज्ञानिकों के परमाणु अचेतन पदार्थ हैं।

लाइबनिट्ज के परमाणु चेतन है। विकास का कोई स्तर चेतना शून्य नहीं। अत: लाइबनिट्ज न तो परमाणुवादी दार्शनिकों के न्यूनतम, अविभाज्य पदार्थ को ही मानते हैं और न अचेतन रूप ही स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार लाइबनिट्ज के चिदणु गणित के बिन्दु से भी भिन्न हैं। गणितीयबिन्दु (Mathematical point) निर्जीव हैं, उनमें शक्ति नहीं। लाइबनिट्ज के अनुसार शक्ति ही द्रव्य का सार है। शक्तिहीन द्रव्य की कल्पना ही व्यर्थ है। इसी कारण लाइबनिट्ज चिदण को शक्तिमान विशेष पदार्थ मानते है। पुनः लाइबनिट्ज का द्रव्य देकार्त के समान परम स्वतन्त्र भी है। देकार्त ने स्वतन्त्र, सत्तावान को द्रव्य माना, लाइबनिट्ज ने स्वतन्त्र शक्तिमान को द्रव्य स्वीकार किया है। इस प्रकार द्रव्य स्वतन्त्र शक्तिमान विशेष है।

लाइबनिट्ज ने चिदणु के माध्यम से ही विश्व के विविधता की व्याख्या की है। विश्व में विविधता है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः परम तत्व भी अनेक होना चाहिये। चिदणु अनेक हैं, परन्तु सभी एक से नहीं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक चिदण का अपना ‘स्वत्व’ है। एक चिदणु का स्वत्व दूसरे से भिन्न है। इस स्वत्व के कारण ही चिदणु में भेद सम्भव है। प्रत्येक चिदणु स्वतन्त्र शक्ति सम्पन्न तथा प्रत्यक्ष शक्ति (चेतना से) युक्त है। परन्तु सबकी प्रत्यक्ष शक्ति एक सी नहीं, इसका कारण चिदणुओं का निजत्व है।

इस निजत्व या स्वत्व के कारण ही चिदणु का अचेतन, चेतन, आत्मा चेतन आदि श्रेणियों में विभाजन सम्भव है। सम्पूर्ण विश्व जीवसंस्थान है। वनस्पति जगत से लेकर मानव तक सभी स्तरों में जीव व्याप्त है। सभी चेतना सम्पन्न है, परन्तु चेतना में न्यूनाधिक मात्रा है, अर्थात् कोई न्यून चेतना से सम्पन्न है तथा कोई अधिक चेतना से यह भेद चिदणु का स्वत्व या निजत्व सिद्ध करता है।

 

३. सामञ्जस्य का नियम (Law of Harmony) –

चिदणु अनेक है तथा सबका अपना अपना स्वत्व है, परन्तु सबों में एकता भी है, विविधता में भी सामञ्जस्य है। चिदणु भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक सामान्य सूत्र से बँधे हैं। यदि इस सामान्य सत्र को न स्वीकार किया जाये तो लाइबनिट्ज के अनन्त द्रव्य अनन्त संसार की रचना कैसे करेंगे? सभी का स्वरूप भिन्न है, अतः सभी का संसार भी भिन्न होगा। इससे विश्व की आन्तरिक एकता तथा सामञ्जस्य समाप्त हो जायेगा। इसी आन्तरिक एकता की व्याख्या के लिये लाइबनिटज ने चिदणु में चेतन शक्ति की कल्पना की है।

चिदणु भिन्न-भिन्न है, परन्तु सबमें चेतना शक्ति है, कोई भी चिदण अचेतन तथा शक्तिहीन नहीं। चिदणु में आन्तरिक एकता है। इसी कारण विश्व में सामञ्जस्य तथा व्यवस्था है। इस एकता का कारण ईश्वर है। लाइबनिट्ज इसे पूर्व स्थापित सामञ्जस्य (Pre-established Harmony) कहते हैं। चिदणु में पारस्परिक एकता तथा विश्व में व्यवस्था ईश्वर के द्वारा पहले से स्थापित है। इसी पूर्व स्थापित सामञ्जस्य के सूत्र में बँधकर सभी चिदण एक से कार्य करते हैं। चिदणु अनेक हैं। परन्तु सबका स्वभाव नियत है। चिदणु में अनन्त विकास की सम्भावना विद्यमान हैं। यह सम्भावना एक निश्चित क्रम से वास्तविकता को प्राप्त होती है। यह निश्चित क्रम चिदणु के नियत स्वभाव का फल है।

 

४. पर्याप्त कारणता नियम (Law of Sufficient Reason) –

इस नियम के अनुसार यह सिद्ध किया जाता है कि किसी वस्तु की सत्ता सिद्ध करने के लिए पर्याप्त युक्ति या कारण होना चाहिये। विश्व कार्य-कारण की श्रृंखला है, परन्तु सर्वप्रथम कारण तो स्वयम्भू या अकारण होता है। यह परम कारण ईश्वर है। लाइबनिट्ज इसे अनिवार्य और सह सम्भाव्य सत्य के द्वारा स्पष्ट करते है। अनिवार्य सत्य अविरोध नियम पर आधारित रहते हैं, परन्तु सम्भाव्य सत्य पर्याप्त- कारणता नियम पर सिद्ध किये जाते हैं।

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लाइबनिट्ज के अनुसार इस विश्व की ही नहीं, वरन् अनेकों विश्व में ईश्वर की सम्भावनाएँ हैं। अब प्रश्न यह है कि जब अनेक विश्व संभव थे तो केवल इसी की रचना क्यों हुई? यदि अनेक सम्भव न होते तो इस विश्व की भी सम्भावना नहीं होती। ईश्वर ने अनेक सम्भव विश्वों में इसी विश्व का चयन किया, क्योंकि इसमें अधिक पूर्णता थी, यही पर्याप्त कारणता है। अत: यह संसार सभी संसारों में श्रेष्ठ है। इस प्रकार पर्याप्त कारणता नियम से ही मन ईश्वर तक पहुँचता है। ईश्वर ही सम्भाव्यों में से किसी एक को सम्भव बनाता है।

 

द्रव्य-विचार

लाइबनिटज अपने द्रव्य-विचार में अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों से प्रभावित हैं। लाइबनिट्ज के पूर्व देकार्त, स्पिनोजा आदि दार्शनिकों ने भी द्रव्य पर पर्याप्त विचार किया है, परन्तु लाइबनिट्ज के अनुसार उनके विचार में कुछ असंगतियाँ हैं, अतः उनका द्रव्य-विचार दोषपूर्ण है। लाइबनिट्ज इन असंगतियों को दूर कर संगति पूर्ण द्रव्य-विचार का प्रयास करते हैं। देकार्त ने द्रव्य को स्वतन्त्र माना है, अर्थात् स्वतन्त्रता ही द्रव्य का आवश्यक गुण है, तो द्रव्य एक, अद्वैतरूप ही हो सकता है।

देकार्त के चित् या अचित् तत्व द्रव्य नहीं माने जा सकते, क्योंकि ये स्वतन्त्र नहीं, इसकी सत्ता ईश्वर पर आधारित है। इसी कारण स्पिनोजा ने ईश्वर को ही परम द्रव्य माना है। देकार्त द्वैतवादी थे, क्योंकि उन्होंने चित्-अचित् को भी तत्व माना। स्पिनोजा चित्-अचित् को ईश्वर का गुण बतलाकर ईश्वर को ही परम द्रव्य मानते हैं। अतः स्पिनोजा अद्वैतवादी थे।

लाइबनिट्ज के अनुसार देकार्त और स्पिनोजा दोनों के द्रव्यविचार में दोष है। देकार्त ने चित् और अचित् दोनों को द्रव्य मान कर जगत् के सभी चेतन और अचेतन पदार्थों की व्याख्या करने का प्रयास किया है। परन्तु देकार्त के दर्शन में स्पष्टतः द्वैतवाद की स्थापना है| जड़ और चेतन में, शरीर और मन में किसी प्रकार की अन्तक्रिया सम्भव नहीं। अतः द्वैतवाद से चित्-अचित् के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या सम्भव नहीं। अतः देकार्त का द्वैतवाद मान्य नहीं।

स्पिनोजा देकार्त के द्रव्य-विचार को संगतिपूर्ण बनाया। यदि द्रव्य का लक्षण स्वतन्त्रता है तो परम स्वतन्त्र ईश्वर ही एकमात्र द्रव्य हो सकता है। अतः स्पिनोजा ने देकार्त के चित और अचित तत्व को गुण बतलाकर ईश्वर के अद्वैतरूप का प्रतिपादन किया परन्तु स्पिनोजा के ईश्वर निर्गुण तथा निर्विशेष हैं। यह ईश्वर इसाई धर्म के ईश्वर से भिन्न है।

स्पिनोजा के ईश्वर जगत् के उसी प्रकार है जिस प्रकार अनन्त दिक् त्रिभुज, चतुर्भुज आदि का कारण होता है। स्पिनोजा के अनुसार विश्व ईश्वर की आवश्यक अभिव्यक्ति है। स्पिनोजा का समानान्तरवाद चित्-अचित के सम्बन्ध को तो बतलाया है, परन्तु इसकी व्याख्या नहीं कर पाता। स्पिनोजा के द्रव्य सिद्धान्त में कुछ गुण भी हैं। लाइबनिट्ज इनके गुणों से पूर्णतः प्रभावित है।

लाइबनिट्ज के द्रव्य-विचार पर देकार्त के द्रव्य-विचार तथा परमाणुवादियों के विचार का गहरा प्रभाव है। लाइबनिट्ज के अनुसार द्रव्य को परम स्वतन्त्र मानना उचित है, परन्तु स्वतन्त्रता का तात्पर्य देकार्त और स्पिनोजा से भिन्न है। देकार्त के अनुसार स्वतन्त्र होने का अर्थ असीम होना है। इसी अर्थ के अनुसार स्पिनोजा ईश्वर को ही एकमात्र द्रव्य मानते है, क्योंकि ईश्वर ही असीम तथा अनन्त है। लाइबनिट्ज के अनुसार स्वतन्त्र होने का अर्थ स्वतन्त्र शक्ति है।

अतः द्रव्य वह नहीं जिसकी सत्ता अपने आप पर आश्रित हो, वरन् (यदि यही द्रव्य का लक्षण हो तो सान्त द्रव्य नहीं हो सकते) वह जिसमें स्वतन्त्र क्रिया हो तथा सभी प्रकार के परिणामों का जो स्वतः आधार हो, अतः द्रव्य परिणामी है, क्रियात्मक है। इस प्रकार लाइबनिट्ज द्रव्य का लक्षण सत्ता नहीं, क्रिया स्वीकार करते है। उनके अनुसार क्रियाशीलता ही द्रव्य का धर्म है। क्रियात्मक शक्ति के कारण किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय होता है तथा उसका दूसरी वस्तु से भेद सम्भव होता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य शक्ति सम्पन्न विशेष पदार्थ है।

लाइबनिट्ज के द्रव्य विचार को प्रभावित करने वाला दूसरा सिद्धान्त परमाणुवाद है। परमाणुवाद के अनुसार विश्व का प्रत्येक सावयव पदार्थ निरवयव परमाणुओं के योग से बना है। सावयव पदार्थों की अन्तिम, अविभाज्य भौतिक इकाई परमाणु है। लाइबनिट्ज परमाणुओं के भौतिक स्वरूप का निषेध करते हैं। उनके अनुसार भौतिक पदार्थ निरवयव, अविभाज्य नहीं हो सकता। भौतिक या जडात्मक होने के कारण वह नित्य भी नहीं हो सकता। भौतिक कण यदि जितना भी छोटा हो, विभाज्य है तथा अनित्य है। अतः इन परमाणुओं का स्वरूप अभौतिक, आध्यात्मिक या चिदात्मक स्वीकार करना होगा।

तात्पर्य यह है कि विश्व की अन्तिम, अविभाज्य इकाई आध्यात्मिक है। यही जगत् का निरवयव भाग है, अविभाज्य परमाणु है जिसका स्वरूप अचित् नहीं, चित् है। इसे लाइबनिट्ज चिदणु (Monad) कहते हैं। लाइबनिट्ज के अनुसार किसी भी औतिक पदार्थ का न्यूनतम भाग भौतिक परमाणु नहीं हो सकता, क्योंकि जड़ का स्वभाव या गुण विस्तार है। यदि न्यूनतम भाग जड़ है तो उसमें भी विस्तार अवश्य होना चाहिये। यदि उसमें विस्तार है तो उसका विभाजन अवश्य हो सकता है। अतः सनतम भाग या तो अविभाज्य नहीं है या भौतिक नहीं। लाइबनिट्ज न्यूनतम अंश का कथमपि विभाजन नहीं मानते, अतः वे अविभाज्य परमाणु है। परन्तु ये जड़ात्मक नहीं चिदात्मक हैं, अर्थात् चिदणु है। लाइबनिट्ज के चिदणु शक्तिसम्पन्न और चेतन हैं। इससे भौतिक तथा आध्यात्मिक द्वैत समाप्त हो जाता है।

 

 

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