भारतीय समाज में सामाजिक विकास की समस्याएँ
सामाजिक विकास समाजशास्त्र की एक व्यापक अवधारणा है, जिसके अन्तर्गत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में होने वाले अपेक्षित परिवर्तनों की प्रक्रिया सम्मिलित होती है। वर्तमान समय में यह माना जाता है कि मात्र आर्थिक विकास कर लेने से ही औसत जनता को खुशहाल नहीं किया जा सकता। इसके लिए उसके जीवन के समस्त पक्षों का समुचित और सन्तुलित विकास होना जरूरी है। विकास परिवर्तनों की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें कि विभेदीकरण की वृद्धि होती है। विकास सदैव नीचे से ऊपर की दिशा में होता है। विकास का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से नहीं होता, अतः विकास समाज का एक ऐसा विकासोन्मुखी परिवर्तन है, जिसमें कि निश्चित उद्देश्य/लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नियन्त्रित एवं जागरूक प्रयास किये जाते हैं।।
विकास एक सतत् प्रक्रिया है। भारतीय समाज में औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के फलस्वरूप सामाजिक विकास की गति उत्तरोत्तर तीव्र होती जा रही है। भारत सरकार ने सामाजिक विकास को और अधिक गतिमान रूप देने के लिए नियोजन (Planning) व्यवस्था बाई है। किन्तु यह भी मानना होगा कि भारत में कुछ सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक विकासए के मार्ग में कई समस्याएँ एवं बाधाएँ डालती हैं। फलस्वरूप विकास-क्रम में व्यवधान पड़ता है। कुछ लोगों की मनोवृत्ति इतनी संकीर्ण होती है कि वे नए आविष्कारो/परिवर्तनों को स्वीकार करने के स्थान पर उसका विरोध करने में अधिक सक्रियता दिखाते हैं। परिवार नियोजन कार्यक्रम इसका उदाहरण है कि एक समुदाय इसका खुले आम विरोध करता आ रहा है। इसी तरह कुछ लोग नवीन तकनीकी को अपनाने में विरोधी विचार प्रकट करते हैं। स्वाभाविक है कि इस स्थिति में सामाजिक विकास बाधित होता है, उसकी गति मन्द हो जाती है।
भारत में अनेक दैवी आपदाएँ भी सामाजिक विकास में अवरोधक हैं – बाढ़, सूखा, अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, भूस्खलन ऐसे ही कारण हैं। कश्मीर को किसी समय धरती का स्वर्ग माना जाता था, किन्तु वर्तमान समय में वह आन्तरिक एवं बाह्य आतंकवादियो का गढ़ बन गया है। आतंकवादियों की मार से लाखों कश्मीरी हिन्दू अपना घर-बार, कारोबार छोड़कर देश के विभिन्न स्थानों में स्थापित शरणार्थी शिविरों में कष्टमय जिन्दगी जी रहे हैं। आतंकवाद के शिकार इन शरणार्थियों का सरकार पर अतिरिक्त आर्थिक भार बना रहता है। ये समस्याएँ हल की जा सकती हैं, किन्तु इसको हल करने का साहस फिलहाल कोई सरकार नहीं जुटा सकी है। इसका समाधान करने में वोट-बैंक की चिन्ता और राजनीतिक अस्थिरता भी एक बड़ी बाधा है। गत दो दशकों से कोई भी राजनीतिक दल केन्द्र में पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सका है। फलस्वरूप विरोधी विचारधारा की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल अपने सिद्धान्तों से विमुख होकर साझा सरकार चला रहे हैं।
सामाजिक विकास के क्षेत्र में साम्प्रदायिक दंगे-फसाद भी बाधा डालते हैं। देश में कुछ पिछड़े राज्य हैं, जहाँ जातिगत विद्वेष, संकीर्णताएँ और रूढ़िवादिता सामाजिक विकास में बाधा डालती है। जनजाति बहुलता वाले क्षेत्रों में वहाँ के निवासी आदिवासी अपने पिछड़ेपन को स्वीकार करने में अपने सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन को गौरवपूर्ण मानते हैं। भारत में विभिन्न ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ बड़ी संख्या में लोग गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। राजनीति एवं नौकरशाही में विद्यमान भ्रष्टाचार भी सामाजिक विकास में बाधा डालता है। गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, क्षेत्रवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, दैवी आपदाएँ, अकुशलता, नौकरशाही, भ्रष्ट एवं अयोग्य राजनेता, उग्रवाद, आतंकवाद आदि ऐसी ही मुख्य समस्याएँ है, जो सामाजिक विकास के मार्ग में अवरोध डालती हैं।
विकास और आधुनिकीकरण का एक-दूसरे से सम्बन्ध
आधुनिकीकरण से तात्पर्य एक परम्परागत या पूर्व आधुनिक समाज का पूर्ण रूपान्तरण ऐसी प्राविधिकी तथा संबद्ध संगठन के रूप में होता है, जो पाश्चात्य विश्व के उन्नतशील आर्थिक दृष्टि से समृद्ध एवं अपेक्षाकृत राजनीतिक दृष्टि से दृढ़ राष्ट्रों में ही उपलब्ध हटिंगटन (1968) राजनीतिक ह्रास (decay) को भी इससे जोड़ते है । आधुनिकीकरण राजनीतिक विकास के आधार पर विभिन्न देशों की तुलना की जा सकती है। विकास तक प्रणाली में आधुनिक उभार लाता है। जिसमें व्यवस्थाएं क्रमबद्ध हो सकती हैं। उन्हें एडवर्ड शल्स ने (1962) में (i) परम्परागत (ii) संक्रमणकालीन (iii) आधुनिक क्रम दिया। परन्तु सामाजिक परिवर्तन के सभी प्रकारो के आकलन में आधुनिकीकरण सम्प्रत्यय सक्षम नहीं है आधुनिकीकरण की संदेहात्मकता संशोधनवादी प्रयास से तथा सामने आये कि आधुनिकीकरण आदर्शात्मक रहेगा। आधुनिकीकरण की राजनीतिक के संदर्भ में संयुक्तता बनी रही है। परम्परा का अन्त आधुनिकता लाने से नहीं हुआ है अपितु परिवर्तनों जो सदैव विकास नहीं ला पाता आधुनिक भी नहीं होता। विकासशील देशों का एक समय आधुनिकीकरण ‘लक्ष्य’ था जो विकास की अवधारणा में आधुनिकीकरण समष्टि समानता, क्षमता, विभेदीकरण, विशिष्टीकरण के विकास में चिन्हित करने के साथ धर्म निरपेक्षता भी एक तत्व है ।
विकास के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में विकासशील देश समाचार से वंचित: ये समस्याएं, राष्ट्र निर्माण, सहभागिता, एकात्मकता, वितरण तथा राजनीतिक प्रभाव डालती है। रिगन ने विकास को विवर्तन के उभरते स्तर द्वारा संभाल प्रणालियों में वर्तमान स्वायत्तता (विवेक) की प्रक्रिया के रूप में माना है। विवेक अर्थात् विकल्पों में से चुनाव करने की क्षमता, दूसरे विवर्तन अर्थात् सामाजिक प्रणाली में विशिष्टीकरण एवं एकीकरण की मात्रा आधुनिकीकरण के कुछ आदर्श विकास से पूरा होते दिखाई हैं। अपने को आधुनिक बनाने का जो लक्ष्य समाज चुनता है, ये विकास (संवृद्धि + परिवर्त) से पूरे होंगे। यह तथ्य विकासशील देशों की दिशाओं से सम्बन्धित है या उनके लिए हैं।
विकास के आधुनिकीकरण संवाद के लिए उल्लेखनीय यह है कि पश्चिमी समाजशास्त्रियों ने परम्परा-आधुनिकता सातत्य छोड़ने पर बल दिया । तार्किक विशिष्टात्मक सामाजिक परिवर्तन के पक्षों से संबद्ध है । आधुनिकीकरण के आनुभविक पक्ष में सिद्धान्त और शोध का अन्तर बढ़ा है ।
दीर्घकालीन पोषणीय विकास पर प्रकाश
सामाजिक विकास की दृष्टि से वर्तमान समय में समन्वित विकास पर काफी जोर दिया जाने लगा है, जो सामाजिक विकास की एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है। समन्वित विकास से आशय उस विकास से है, जो वर्तमान की आवश्यकताओं को परा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं के प्रति भी पूर्ण जवाबदेही रखता है। यह एक ऐसा आर्थिक विकास है, जिसमें हमारे प्राकृतिक संसाधनों के भण्डारों (यथा, मौसम) बरकरार रहते हैं तथा आगे आने वालों के लिए कोई अभाव अथवा समस्या नहीं उत्पन्न होती है।
समन्वित विकास के विचार का जन्म 1980 में IUCN, UNDP एवं WWF द्वारा संयुक्त रूप से प्रायोजित ‘विश्व संरक्षण प्रणाली’ के अन्तर्गत हआ। जैव संसाधनों के संरक्षण द्वारा समन्वित विकास की उपलब्धियों में वृद्धि करना इसका प्रधान लक्ष्य था। इसमें मानवेत्तर प्राणी/वनस्पति के पूर्ण संस्करण पर भी बल दिया गया था, क्योंकि ये मानव-अस्तित्व से सम्बन्धित होती है। स्पष्ट है कि यही वह तरीका है, जिस पर मानव की सभी विकासात्मक गतिविधियाँ भविष्य में आधारित होंगी और जिस पर उनकी सम्परीक्षा होगी।
समन्वित विकास की अवधारणा ने मानव की दिनों-दिन बढ़ती हई आबादी और उसके द्वारा अपनी विभिन्न बढ़ती हुई इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रकृति के विवेकहीन और अन्धाधुन्ध शोषण पर अनेक तर्कपूर्ण आपत्तियों की है। वर्तमान समय में जनसंख्या तथा लिप्सा प्राकृतिक संसाधनों पर इतना दबाव डाल रहे हैं, कि पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व में पड़ गया है। योजन बनाने वालों और जनता को स्मृति में रखना होगा कि पृथ्वी आवासीय भूमि तथा संसाधनों का भण्डार सीमित है, अतः इनका अपव्यय नहीं किया जाना चाहिए।
जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि के फलस्वरूप आर्थिक संकट भी विस्फोटक हो रहा है। बीसवीं शताब्दी के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था का बीस गुना विस्तार हुआ है, जबकि 4000 से लेकर आज तक औद्योगीकरण पांच गुना बढ़ा है। स्पष्ट है कि इस महाविकास के कारण पारिस्थितिकी पूंजी के भण्डार यानी मिट्टी, इधन, वन, मत्स्य व अन्य प्राणी, वातावरण, जल, आदि पदार्थों का शोषण बड़ी तीव्र गति से किया गया है। पारिस्थितिकी पूँजी भण्डार अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त करने में उत्तरोत्तर अक्षम हो रहा है। इसका फल यह है कि मानव की अपनी सफलता ही उसे अक्षम बनाती जा रही है।
इसे विरोधाभास ही कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में एक तरफ पर्यावरण का बड़े पैमाने पर सतत ह्रास हो रहा है, तो दूसरी तरफ समृद्धि की प्राप्ति हेतु मनुष्य अपनी प्रयासशीलता को और अधिक बढ़ाने में जुटा हुआ है। मानवीय संसाधनों एवं पर्यावरणीय व्यवस्था को गंभीर क्षति उठानी पड़ रही है। ग्रीन हाउस प्रभाव, ओजोन स्तर में छिद्र (hole), जैसे मनुष्य निर्मित संकट सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं। पर्यावरण में ह्रास के ये संकेत वर्तमान आर्थिक विकास को ही व्यक्त करते हैं। जो प्राकृतिक संसाधनों के असीमित व अनियन्त्रित उपभोग पर आधारित है। इस कारण इसे समन्वित नहीं माना जा सकता। मानवीय अस्तित्व और विकास दो तथ्यों पर निर्भर करता है – जनसंख्या पर नियन्त्रण तथा प्राकृतिक संसाधनों के शोषण के स्थान पर उनका समुचित प्रबन्धन करना।
विकास का मूल एवं अन्तिम उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना है।
विकास बहुमुखी होता है। यह बहुत सी समस्याओं से सम्बन्धित है जैसे- समानता, सहभागिता, पर्यावरण बनाये रखने की क्षमता, विकेन्द्रीकरण, स्वनिर्भरता, मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आदि। इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति को भोजन, वस्त्र और आवास, बिजली, पानी, परिवहन और संचार जैसी बुनियादी सुविधायें उपलब्ध हों। इसके साथ ही साथ मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा हो जिसके लिए प्रदूषण रहित पर्यावरण, पोषक, आहार तथा चिकित्सा सुविधाओं का होना आवश्यक है। समाज में मनुष्य को आर्थिक गतिविधियों में रोजगार के अवसर प्रदान होना चाहिए, ताकि उसका रहन-सहन का स्तर ऊँचा बने। विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक संसाधनों तथा अवसरों तक पहुँचने में कम से कम विषमतायें हों।
विकास के अन्तर्गत केवल आर्थिक और औद्योगीकरण को ही न देखा जाये, बल्कि उसके सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है । समाजशास्त्रियों ने यह अनुभव किया है कि विकास का दृष्टिकोण समग्र हो। अगर समाज के एक समूह में आर्थिक समृद्धि हो, तो दूसरे समूह में उसका लाभ आर्थिक स्वतः पहुँच जायेगा, किन्तु यह मान लेना गलत साबित हुआ। कुछ राष्ट्रों में उच्च स्तर की आर्थिक प्रगति के बाद भी उनकी गंभीर समस्यायें सुलझ नहीं सकी, इसलिए अब यह माना जाने लगा है कि विकास का अन्तिम उद्देश्य समाज के प्रत्येक मानव के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना है ।
देश के नागरिक यदि साक्षर होंगे, तो उनमें पेशेवर तथा नैतिक शिक्षा एवं सृजनात्मक क्षमता का विकास होगा, परिणामस्वरूप सामाजिक समन्वय होगा। सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक कार्यकलापों से लोजों का लगाव और भागीदारी होगी और सामाजिक संस्थाये सही ढंग से चलने लगेगी। बहुमुखी विकास के लिए कुछ समाजशासियों ने राजनैतिक, जर्षिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को भी जीवन के गुणात्मक सुधारों में सम्मिलित करने पर बल दिया है । उनका मत है कि जीवन की मनोवैज्ञानिक गुणात्मकता में सुधार जीवन में संतोष लायेगा और व्यक्ति सकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करेगा। यदि जीवन में मनुष्य सुखी होगा, तो वह भौतिकवादी एवं गैर भौतिकवादी उद्देश्यों के मध्य सामंजस्य बनाये रख सकता है।
मानव जीवन में सामाजिक गुणों का सुधार होगा, जिससे उसके परिवार में स्थायित्व बनेगा, उसके अन्तः व्यक्तिगत सम्बन्ध एवं सामाजिक एकरूपता बनी रहेगी । इसके अतिरिक्त उसके नैतिक गुणों में भी सुधार आयेगा । उसके अन्दर सामाजिक जागरुकता आयेगी, वह अपने में ही नहीं, बल्कि दूसरों में भी दिलचस्पी लेगा। व्यक्ति में आपसी स्नेह-सम्बन्ध और समाज में एक दूसरे के काम बनाने की भावनाये मजबूत होंगी। आज विकास का अर्थ किसी समाज की पूरी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से प्रेरित कर सर्वांगीण अपेक्षित लक्ष्यों की ओर ले जाना है । विकास की संरचना और गुणवत्ता से माँग की जाती है कि वह मानवीय विकास, रोजगार-जनन, निर्धनता की समाप्ति और दीर्घकालीन पोषणीयता की ओर अधिक ध्यान दिया जाना जरूरी है। अन्य देशों की भांति भारत में भी दबाव बढ़ रहे हैं कि संसाधनों के संरक्षण, प्रदूषण, असमानता एवं बेरोजगारी के रूप में विकास प्रक्रिया के दुष्प्रभाव को कम करने की जरूरत है। वास्तव में विकास का अन्तिम उद्देश्य समाज के प्रत्येक मानव के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना है।
भारत में सामाजिक विकास की सूचना प्रदान करने वाले प्रमुख सूचकांको की विवेचना
जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने हेतु आठवीं योजना में सामाजिक विकास के सूचकों सम्बन्धी कुछ लक्ष्य तय किये गये थे। आठवीं योजना के लक्ष्यों पर ध्यान देने के फलस्वरूप भारत की जनसंख्या 1991 की जनगणना के अनुसार 84.4 करोड़ रही। जनसंख्या की वृद्धि दर, चाहे अस्सी के दशक में थोड़ी कम है, फिर भी वह लगभग 2.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जोकि काफी ऊँची है। सन् 2001 में तो भारत की जनसंख्या 102 करोड़ के आंकड़े को भी पार कर गई ।आठवीं योजना के प्रारूप में साफ शब्दों में लिखा है – “यदि इस प्रवृत्ति को रोका न गया, तो हमारे देश के करोड़ों व्यक्तियों को सामाजिक और आर्थिक न्याय देना सम्भव नहीं हो सकेगा।” इस वृद्धि को रोकने के लिए जन आन्दोलन को भी कायम करना होगा।
- जन्म व मृत्यु दर – सामाजिक कारण तत्व जैसे स्त्री साक्षरता, विवाह के समय आयु, स्त्रियों के लिए रोजगार के अवसर, शिशु मृत्यु दर में कमी जन्म दर के मुख्य निर्धारक है । आठवीं योजना में शिशु मृत्युदर (1996-97) तक 78 से कम करके 68 पर लाने का लक्ष्य था । साक्षरता दर (Literacy rate) जो 1991-92 में 28.9 प्रति हजार थी कम होकर 1996-97 तक 25.7 हो जाएगी और सन् 2006-07 तक गिरकर 21.7 हो जाएगी।
- साक्षरता – आठवीं योजना सभी राज्यों में 15 से 35 वर्ष के आयु वर्ग में 100 प्रतिशत साक्षरता प्राप्त करने का लक्ष्य था, साक्षरता दर (Literacy rate) जो 1991-92 म ८० थी, 1996-97 तक बढ़ाकर 75 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य था । इसके रामस्वरूप यह आशा की गई थी कि यह लक्ष्य समय पर पूरा हो जायेगा । इसके लिए वयस्कों (Adults) को साक्षर बनाना था । इस उद्देश्य के लिए साक्षरता की दृष्टि से पिछड़े राज्यों अर्थात् राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में भरसक प्रयत्न किये गये ।
- पेय जल – आठवीं योजना में यह उल्लेख किया गया कि सातवीं योजना के आरम्भ में (1 अप्रैल 1985) में 1.62 लाख गाँव ऐसे थे जहाँ पानी का कोई स्त्रोत नहीं था। इनमें से 1.54 लाख गाँव में पानी का स्रोत उपलब्ध कराया गया । अतः गाँव बिना पानी के स्रोत शेष रह गये हैं । परन्तु सरकारी मापदण्ड के अनुसार, की जनसंख्या को 1.6 किलोमीटर दूरी के अन्तर्गत पानी का स्रोत उपलब्ध यह थोड़ा कड़ा मानदण्ड है। इस बात का प्रयास करना चाहिए कि पानी अधिक सुविधाजनक रूप में उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त पानी की गुणवत्ता को भी उन्नत कर ताकि ‘सुरक्षित पीने का पानी जनता को उपलब्ध हो। अतः पीने के पानी की का समाधान की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।
सामाजिक विकास के प्रमुख आयामों का उल्लेख
सामाजिक विकास को समाजशास्त्र को एक व्यापक अवधारणा माना जाता है, जिसके अन्तर्गत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कतिक और राजनैतिक सभी क्षेत्रों में होने वाले अपेक्षित परिवर्तनों की प्रक्रिया भी सम्मिलित होती है। आज यह तथ्य निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि मात्र आर्थिक विकास कर लेने से ही आम जनता के जीवन को समृद्ध या खुशहाल बनाना सम्भव नहीं। इसके लिए जनता के जीवन के समस्त पक्षों का समुचित और सन्तुलित रूप से विकसित होना अपरिहार्य है। सामाजिक विकास के आयामों के अन्तर्गत अधोलिखित बातों को सम्मिलित किया जा सकता है –
- आम जनता को भोजन, वस्त्र और आवास जैसी मौलिक एवं अनिवार्य आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति होना।
- शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के उत्तर स्तर को बनाए रखने के लिए जरूरी पोषक आहार, चिकित्सा, प्रदूषण रहित पर्यावरण, आदि की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध होना।
- राष्ट्रीय स्वाभिमान, राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय पहचान को कायम रखना।
- समाज के पिछड़े, दलित एवं शोषित वर्गों, कृषकों, स्त्रियों एवं बच्चों, विकलांगों के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध होना।
- रोजगार के समुचित अवसर और रहन-सहन का उच्च स्तर, योग्यता और कार्य कुशलता के आधार पर सुनिश्चित करना, न कि जाति, प्रजाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर।
- विभिन्न सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक असमानताओं/विषमताओं को समाप्त करना, जिससे कि समाज में समता लाते हुए सामाजिक बदलाव करना सम्भव हो।
- शिक्षा का समुचित विस्तार, जिसके अन्तर्गत वैज्ञानिक शिक्षा नैतिक शिक्षा का समावेश हो, जिससे कि समाज में सृजनात्मक क्षमता का विकास, अनसन्धान एवं आविष्कारादि सम्भव हो।
- विद्युत, परिशुद्ध पेय जल तथा संचार जैसी आधारभूत सुविधाएँ सर्वसुलभ होना।
- विदेशों पर निर्भरता को कम करके राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास करना।
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