स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर-विचार

स्पिनोजा का ईश्वर-विचार क्या है | स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद | Spinoza’s idea of God in Hindi

ईश्वर-विचार

स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर-विचार बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। स्पिनोजा की दृष्टि में ईश्वर ही एक, अद्वैत, अनन्त, निरपेक्ष, पूर्ण द्रव्य है। चित्, अचित् आदि सभी ईश्वर के गुण हैं। ईश्वर ही समस्त सृष्टि का कारण है, परन्तु स्वयं अकारण है। सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर प्रसूत है, अर्थात् ईश्वर ही सृष्टि का सर्वप्रथम कारण है। स्रष्टा और सृष्टि के सम्बन्ध में स्पिनोजा का कहना है कि सृष्टि का सार्वभौम ईश्वर का नियत स्वभाव है या सहज गुण है।

जिस प्रकार त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोण के बराबर होते हैं। उसी प्रकार संसार के समस्त गुण और कार्य सार्वभौम ईश्वर की आवश्यक अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार तीनों कोणों के बिना त्रिभुज की सत्ता नहीं, उसी प्रकार सृष्टि के बिना स्रष्टा (ईश्वर) का विचार ही असंगत है। ईश्वर अनन्त है, उसके गुण अनन्त है, उसकी अभिव्यक्ति भी अनन्त प्रकार से ही होती है। सार्वभौम ईश्वर के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं। विश्व उसकी आवश्यक अभिव्यक्ति है, जैस तीनों कोण त्रिभुज की।

 

सृष्टि और स्रष्टा का सम्बन्ध

स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर सृष्टि का उपादान और निमित्त दोनों कारण है। सुष्टि ईश्वर का स्वभाव है। यह स्वभाव नियत या अनिवार्य है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर का कोई नियन्त्रण करने वाला है। वह परम स्वतन्त्र है, क्योंकि वह सृष्टि का परम कारण है। सृष्टि स्रष्टा का उसी प्रकार अनिवार्य परिणाम है, जिस प्रकार तीनों कोण त्रिभुज के परिणाम है। ईश्वर को सृष्टि का कारण कहने से स्पिनोजा का तात्पर्य यह है कि ईश्वर सृष्टि का अधिष्ठान है। जिस प्रकार दिक् अनन्त होते हुए भी त्रिभुज, चतुर्भुज आदि का अधिष्ठान कारण है, उसी प्रकार ईश्वर भी सम्पूर्ण सृष्टि का कारण है।

ईश्वर के बिना हम सृष्टि की कल्पना नहीं कर सकते जैस दिक् के बिना त्रिभुज आदि की कल्पना नहीं हो सकती। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि ईश्वर तथा सृष्टि में तादात्म्य सम्बन्ध (Relation of identity) है। सृष्टि ईश्वर के बाहर नहीं जैसे त्रिभुज आदि की सत्ता अनन्त दिक् से इतर नहीं। जैसे अनन्त दिक् के त्रिभुज, वृत्त, चतुर्भुज आदि सभी परिणाम हैं, उसी प्रकार एक, अद्वैत, नित्य, स्वयम्भू द्रव्यरूप ईश्वर के ही विश्व आदि सभी परिणाम हैं।

 

 

ईश्वर का विश्वरूप तथा विश्वातीत रूप

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ईश्वर ही एकमात्र परम द्रव्य है तथा सम्पूर्ण सृष्टि उसकी अनिवार्य अभिव्यक्ति है। वह अकारण होते हुए भी सबका आधार है। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ईश्वर की सत्ता विश्व तक ही सीमित है या विश्व के परे भी (Immanent and transcendent) है। सर्वप्रथम विश्व ईश्वर की अनिवार्य अभिव्यक्ति होने के कारण ईश्वर रूप ही है। कार्य कारण से पृथक् नहीं, आधेय आधार से भिन्न नहीं है, अतः विश्व की सत्ता भी ईश्वर से अलग नहीं।

ईश्वर और जगत् कारण और कार्य में, आधेय और अधिष्ठान में पूर्णतः अभेद या तादात्म्य है। इसी कारण स्पिनोजा सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर रूप मानते हैं। सृष्टि स्रष्टा की आवश्यक अभिव्यक्ति होने के कारण स्रष्टा स्वरूप ही है। प्रकृति का कण-कण ईश्वर प्रदत्त होने के कारण ईश्वरमय है। यही ईश्वर का विश्वात्मरूप है परन्तु ईश्वर अनन्त है। उसकी सत्ता की सीमा नहीं, अर्थात् वह केवल विश्व रूप ही नहीं, विश्वातीत भी है। कार्य-कारण की अभिव्यक्ति होने से कारण रूप ही है, परन्तु कारण की सत्ता कार्य के परे भी है।

ईश्वर जगत में है तथा जगत् ईश्वर में जगत और ईश्वर में तादात्य सम्बन्ध है। परन्तु जगत अनन्त ईश्वर की सीमा नहीं, वह असीम है। ईश्वर अनन्त है, उसके गुण भी अनन्त हैं। इन अनन्त गुणों में प्रत्येक गुण अनन्त सत्ताओं की अभिव्यक्ति करता है। तात्पर्य यह है कि स्पिनोजा ईश्वर के विश्वात्म तथा विश्वातीत दोनों स्वरूपों को स्वीकार करते हैं।

स्पिनोजा के ईश्वर का विश्वरूप तथा विश्वातीत रूप भगवद्गीता के व्यक्त तथा अव्यक्त रूप से मिलता जलता है। गीता में भी दो रूप बतलाये गये हैं। सम्पूर्ण जगत ईश्वर का व्यक्त स्वरूप या विभक्त रूप है परन्तु वस्तुतः ईश्वर अविभक्त है। वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के समान परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त सा प्रतीत होता है। वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण करने वाला, रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है। तात्पर्य यह है कि जैसे महाकाश वास्तव में विभाग रहित है तो भी भिन्न-भिन्न घटों में सम्बन्ध से विभक्त-सा प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा वास्तव में विभागरहित है, तो भी समस्त चराचर प्राणियों में क्षेत्रज्ञरूप से पृथक-पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है। परन्तु यथार्थ में यह भिन्नता केवल प्रतीतिमात्र है, वस्तुतः परमात्मा एक अद्वैत रूप है।

 

 

सर्वेश्वरवाद

स्पिनोजा सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर स्वरूप ही मानते हैं। जिस प्रकार त्रिभुज, चतुर्भुज आदि सभी विकार है, उसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर की अभिव्यक्ति है। विश्व ईश्वर का स्वरूप है। ईश्वर और उसका स्वरूप विश्व एक ही है। कारण से पृथक कार्य की सत्ता नहीं, अतः विश्व की भी ईश्वर से अलग कोई सत्ता नहीं। सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर से ही व्याप्त है। यही स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद है।

स्पिनोजा ईश्वर को समस्त व्यावहारिक जगत की कारण प्रकृति मानते हैं तथा ईश्वर को ही समस्त जागतिक पदार्थों की कार्य प्रकृति भी मानते हैं। तात्पर्य यह है कि विश्व का अधिष्ठान या आधार ईश्वर है, अत: स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद उपनिषद् के बहुत निकट है। उपनिषद् में भी बतलाया गया है कि यह सारी सृष्टि ब्रह्ममय है (सर्वं खलु इदं ब्रह्म) पुनः बतलाया गया है कि यह दृश्य जगत् आत्मस्वरूप ही है (इदं सर्व यत् अयमात्मा )। भगवद्गीता में भी भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव मे अन्तर्गत देखता है उनके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

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पुनः भगवान् कहते है कि मुझसे भिन्न कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र के मणियों के समान मुझे (परमात्मा) में गुंथा हुआ हार तात्पर्य यह है कि बादलों में आकाश और आकाश में बादल है, वैसे ही सम्पूर्ण भूतों में भगवान् वासुदेव है और वासुदेव में सम्पूर्ण भूत हैं। ईश्वर ही सर्वत्र है। जैसे महाकाश बादल का कारण और आधार है और उसका कार्य बादल महाकाश स्वरूप ही है। वस्तुतः वह अपने कारण से भिन्न नहीं, वैस ही परमात्मा भी इस जगत् का कारण और आधार है तथा यह जगत् उन्हीं का स्वरूप है उनसे भिन्न नहीं।

 

 

ईश्वर का निर्गुण रूप

स्पिनोजा के ईश्वर इसाई मत के ईश्वर से बिल्कुल भिन्न है। इसाई मत में ईश्वर सगुण है। ईश्वर के तीन रूप (Trinity) हैं, अतः ईश्वर को निराकार नहीं कहा जा सकता। स्पिनोजा के ईशवर निर्गुण और निराकार हैं। स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर के सगुण होने का अर्थ है कि ईश्वर सीमित है तथा सीमित का अर्थ परतन्त्र है। परन्तु वस्तुतः ईश्वर स्वतन्त्र है, इसलिये असीम है तथा निर्गुण है।

सार्वभौम ईश्वर के लिये किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं। ईश्वर के लिये किसी विशेषण का प्रयोग तो उसे सीमित करना है। जब हम ईश्वर के लिये किसी विशेषण का प्रयोग करते हैं तो इसका अर्थ है कि उसकी अनन्त गुणराशि से कुछ के द्वारा ही हम ईश्वर का निर्वचन करना चाहते है। यह निर्वचन तो असीम को ससीम बना देता है, निर्गुण और निराकार को सगुण और साकार बनाता है। अतः ईश्वर का निर्वचन मिथ्या है। वस्ततः विशेषण से तो वह सीमित हो जाता है (All determination is negation)| तात्पर्य यह है कि सार्वभौम ईश्वर के लिये विशेषण का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

स्पिनोजा का निर्गुण ईश्वर उपनिषद के निर्गुण ब्रह्म के समान है। उपनिषदों में ब्रह्म को नति ‘नेति’ कहकर ब्रह्म को अनिर्वचनीय बतलाया गया है। ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं-नेह नानास्ति किञ्चन। तात्पर्य यह है कि सब ब्रह्म ही है- सर्व खलु इदं ब्रह्मा जब ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं तो उसका निर्वचन कैसे सम्भव है? इसी कारण ब्रह्म का नेति रूप से निरूपण किया गया है। वस्तुतः गुण बुद्धि प्रसूत है और इश्वर बुद्धि के परे है-यो बुद्धे परतस्त सः। अतः बुद्धिप्रदत्त गुण सविकल्पक होने के कारण ईश्वर के लिय प्रमाण नहीं माने जा सकते, क्योंकि ईश्वर निर्विकल्पक अनुभूति का विषय है. सविकल्पक बद्धि का नहीं। इस कारण ईश्वरज्ञान के लिए एकमात्र स्वानुभूति को ही प्रमाण माना गया है। स्वानुभूत्येकमानाय:-भर्तृहरि तात्पर्य यह है कि अवाङ्मनसगोचर ब्रह्म शब्दातीत है।

 

 

स्पिनोजा के ईश्वर-विचार की समालोचना

पहले हमने विचार किया है कि स्पिनोजा के अनुसार द्रव्य सार्वभौम निरपेक्ष है। यह सार्वभौम द्रव्य एक अद्वैत, अनन्त अनिर्वचनीय ईश्वर है। विश्व ईश्वर की अनिवार्य अभिव्यक्ति है। सर्वेश्वरवादी स्पिनोजा के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ईश्वर का स्वरूप है। ईश्वर अकारण होकर भी सबका कारण है परन्तु यहाँ एक आवश्यक प्रश्न है कि ईश्वर और विश्व में किस प्रकार की कारणता है? किस प्रयोजन से ईश्वर विश्व की सष्टि करता है? स्पिनोजा के अनुसार कारण का अर्थ अधिष्ठान है तथा कार्योत्पत्ति का अर्थ ‘अभिव्यक्ति है। ईश्वर विश्व का कारण है, का अर्थ है कि ईश्वर ही विश्व का अधिष्ठान, आश्रय या आधार है।

पुनः विश्व ईश्वर से उत्पन्न होता है का अर्थ है कि विश्व ईश्वर की आवश्यक अभिव्यक्ति हो जैसे त्रिभुज आदि अनन्तादिक के विकार (Modification) मात्र है, वैस ही विश्व ईश्वर का विकार मात्र है। यहाँ स्पष्टतः स्पिनोजा का ईश्वर-विचार परम्परागत विचार से भिन्न है। स्पिनोजा के पूर्व ईश्वर को डीमर्ज माना गया है। ईश्वर की यह धारणा प्रयोजनवादी (Teleological) है। स्पिनोजा के अनुसार प्रयोजन या उद्देश्य तो ईश्वर को सीमित कर देता है। अतः स्पिनोजा निरुद्देश्य-निरपेक्ष ईश्वर को स्वीकार करते हैं। स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर विश्व का कारण है; परन्तु निष्प्रयोजन रूप से सृष्टि की प्रयोजनवादी धारणा धार्मिक भावना को अपील करती है, दार्शनिक बुद्धि को नहीं।

अनेक विद्वान् समालोचकों का कहना है कि स्पिनोजा का ईश्वर-विचार यहूदी धर्मग्रन्थों से प्रभावित है। यहूदी धर्मग्रन्थों में ईश्वर-विचार के सम्बन्ध में चार प्रमुख बातें बतलायी गयी है-ईश्वर की सत्ता, ईश्वर की अनन्तता तथा सर्वव्यापकता, ईश्वर का जगत् कारणत्व और प्रकृति नियन्त्रण तथा सुख-दुःखादि फलों का अभिधान करना। स्पिनोजा अपने ईश्वर विचार में इन चारों बातो को मानकर चलते है।

 

 

गुण विचार

स्पिनोजा के अनुसार द्रव्य निर्गण और निराकार है। यही स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर है जो सार्वभौम, अनन्त, निरपेक्ष, शुद्ध सत्ता है। ईश्वर ही संसार का अधिष्ठान रूप कारण है। प्रश्न यह है कि निर्गुण, निराकार ईश्वर से सृष्टि कैसे? दूसरे शब्दों में शुद्ध सत्ता (Pure Being) से संसार की व्याख्या केसे निराकार ईश्वर में क्रिया का सर्वथा अभाव है, अतः वह सष्टि कैसे करता है? ईश्वर निर्विकार है। परन्तु सृष्टि तो विकार है? ईश्वर अपरिणामी है, परन्तु संसार को उत्पन्न करना तो निश्चित रूप से परिणाम है।

इन सभी प्रश्नों का समाधान स्पिनोजा अपने गण के द्वारा करते है। स्पिनोजा के अनुसार गण वे धर्म हैं जिनको बद्धि द्रव्य का स्वरूप समझती है। स्वरूप से स्पिनोजा का तात्पर्य सार तत्त्व (Essence) से है। अतः बुद्धि जिसे द्रव्य (ईश्वर) का सार तत्त्व समझती है वही गण या धर्म है। यहाँ यह स्पष्ट है कि गुणों के कारण ही निर्गुण द्रव्य (ईश्वर) सगुण हो जाता है। यदि गुण या धर्म न हो तो द्रव्य का स्वरूप या धर्म बुद्धिगम्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह सर्वथा अगन्य होता है।

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द्रव्य ज्ञान के लिए गुणों की नितान्त आवश्यकता है। इसी कारण (ज्ञान के लिए ही) स्पिनोजा की ये परिभाषा वृद्धि जिसे समझती है कहते है। पुनः किसी भी वस्तु के बुद्धिगम्य होने के लिए उस वस्तु में धर्म अवश्य होना चाहिए। निधर्मक वस्तु का ज्ञान कठिन है। इसी कारण स्पिनोजा गण को द्रव्य का धर्म या स्वरूप मानते हैं। गुण ही द्रव्य का सार है जिससे हम द्रव्य को समझ सकते है। द्रव्य अनन्तधर्मात्मक है, ईश्वर के गुण अनन्त हैं, परन्तु मानवी बुद्धि केवल दो ही गुणों को जानती है। वे दोनों गुण या धर्म है चैतन्य और विस्तारा चैतन्य चित् का गुण है और विस्तार अचित् का गुण है।

ये दोनों विरोधी प्रतीत होते हैं, परन्तु वस्तुत: एक ही द्रव्य ईश्वर के गुण होने के कारण विरोधी नहीं, वरन् परस्पर में भिन्न है। अत: चैतन्य और विस्तार, दो परस्पर भिन्न गुण है, विरोधी नहीं। देकार्त ने चित्-अचित् को विरोधी माना है, इसी कारण उनके दर्शन में द्वैतवाद (Dualism) है। स्पिनोजा दोनों को परस्पर भिन्न मानते हैं। चित् और अचित् दोनों एक ही द्रव्य के दो धर्म है, दो स्वरूप है। चित् आध्यात्मिक स्वरूप है तथा अचित् भौतिक स्वरूप है। इन दोनों धर्मों का धर्मी एक ही द्रव्य (ईश्वर) है। यही स्पिनोजा का चिदचित् समानान्तरवाद (Parallelism) कहलाता है।

स्पिनोजा का गुण-सिद्धान्त विवादास्पद है। गुण-सिद्धान्त की दो भिन्न व्याख्याएं। की गयी हैं। कुछ लोग गुणों को वास्तविक मानते हैं और कुछ काल्पनिका। कुछ व्याख्याकारों के अनुसार गुण वस्तुगत धर्म हैं तथा कुछ के अनुसार गुण बुद्धिगत धर्म हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि गुण द्रव्य का वस्तुतः धर्म है या मानवी बुद्धि की देन है? हेगल (Hegel), अर्डमैन आदि के अनुसार गुण द्रव्य के धर्म नहीं, वरन् बुद्धि प्रसूत हैं। तात्पर्य यह है कि गुण वास्तविक नहीं काल्पनिक है। निर्गुण द्रव्य में किसी प्रकार के गुणों का अभिधान करना सर्वथा विरुद्ध है।

वस्तुतः ये गुण बुद्धिगत विचार हैं अथवा बुद्धि के द्वारा द्रव्य पर आरोप है। हम जानते हैं कि स्पिनोजा का ईश्वर अनन्त, असीम, अनिवर्चनीय है। अत: यदि गुणों को द्रव्य का धर्म मान लिया जाय तो द्रव्य का निर्गुण, अनिर्वचनीय स्वरूप समाप्त हो जाता है। अतः गुण द्रव्य के धर्म नहीं, मानवी बुद्धि के धर्म हैं अथवा काल्पनिक हैं। गुण को द्रव्य का धर्म मानना तो उसे सीमित करना है। कुनो फिशर (Kuno Fischer) आदि व्याख्याकार गुणों को द्रव्य का वास्तविक धर्म मानते हैं। इनके अनुसार गुण ईश्वर के स्वरूप हैं। ईश्वर ही अनन्त गुणों का धाम है।

एक ही ईश्वर चित् और अचित् सभी तत्त्वों का कारण है। यदि चित्, अचित् गुणों को स्वीकार नहीं किया जाय तो ईश्वर की अनन्तता ही समाप्त हो जायगी। दूसरी बात यह है कि स्पीनोजा का समानान्तरवाद भी गुणों की वास्तविक सत्ता पर ही निर्भर है। यदि गुण वास्तविक ही नहीं तो उनका समानान्तर कैसा? अतः इस व्याख्या के अनुसार गुण ही द्रव्य के वास्तविक धर्म हैं। ईश्वर अनन्त है, उसके गुण भी अनन्त है, परन्तु चित्-अचित् रूप से ही उसकी अनन्तता अभिव्यक्त होती है। अतः चित् और अचित् वास्तविक धर्म है।

प्रश्न यह है कि उपरोक्त दोनों व्याख्याओं में कौन प्रामाणिक है? स्पिनोजा ने बतलाया कि गुण वै धर्म हैं जिनको बुद्धि द्रव्य का स्वरूप समझती है। इस परिभाषा में यदि पूर्वार्द्ध अर्थात् गुण वे धर्म है पर बल दिया जाय तो स्पष्टतः गुण द्रव्य के धर्म या स्वरूप प्रतीत होते हैं। परन्तु यदि परिभाषा के उत्तरार्द्ध अर्थात् जिनको बुद्धि द्रव्य का स्वरूप समझती है पर बल दिया जाय तो निश्चित रूप से प्रतीत होता है कि गुण बुद्धगत विचार हैं, द्रव्यगत स्वरूप नहीं। अतः दोनों व्याख्याएँ प्रामाणिक प्रतीत होती है। दूसरा प्रश्न यह है कि स्पिनोजा के दर्शन में संगति किसकी है? स्पिनोजा का द्रव्य तो निर्गुण और निराकार ईश्वर है जैसे वेदान्त का ब्रह्म।

अतः जिस प्रकार वेदान्त में ब्रह्म की उपाधि को स्वीकार किया गया है वैसे ही स्पिनोजा के गुण उनके निर्गुण ईश्वर के उपाधि स्वरूप प्रतीत होते है। वेदान्त में माया को निर्गुण ब्रह्म की उपाधि स्वीकार किया गया है। माया ब्रह्म की कारण-उपाधि है जिससे नाम-रूपात्मक जगत् की सृष्टि होती है। अतः स्पिनोजा के गुण भी मायारूप कारण उपाधि के समान हैं। इन्हीं से समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् की सृष्टि होती है।

 

 

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