सामाजिक परिर्वतन की प्रक्रियाओं को समझने के लिए हमें प्रक्रिया को अलग-अलग क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं को समझना पड़ेगा जैसे कि सांस्कृतिक परिवर्तन में प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा या पश्चिमीकरण पर क्या प्रभाव पड़ा या इनका का क्या कारण था सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं से आप क्या समझते हैं?
सामाजिक अन्तःक्रिया का ऐसा कोई भी रूप, जो न्यूनाधिक मात्रा में पनरावर्तक, अभिज्ञेय और निरन्तर प्रवाहित होने वाला हो, सामाजिक प्रक्रिया कहलाता है। जब कोई सामाजिक अन्तःक्रिया एक लम्बे काल तक निरन्तर चलती रहती है और उसको देखा-परखा जा सकता है, तब वह सामाजिक प्रक्रिया का रूप धारण कर लेती है। सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक परिवर्तन को परिलक्षित करती है, जिसमें कुछ स्थाई गुण और एक स्थायी दिशा भी होती है। प्रत्येक सामाजिक प्रक्रिया के कुछ सम्भावित रूप होते हैं –
1. व्यक्ति-व्यक्ति के बीच,
2. व्यक्ति से समूह की ओर,
3. समूह से व्यक्ति की ओर,
4. समूह-समूह के बीच तथा
5. अन्तःव्यक्तिगत यानी कि स्व एवं व्यक्तित्व के संकुलों के बीच होने वाली अन्तःक्रिया/समाजशास्त्रियों ने मुख्य सामाजिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत संघर्ष, प्रतियोगिता, सहयोग, समायोजन आदि को सम्मिलित किया है।
सामाजिक परिवर्तन के विविध प्रकारों की व्याख्या
सामाजिक परिवर्तन एक स्वाभाविक, अनिवार्य, शाश्वत तथा सार्वभौमिक प्रक्रिया है, जिससे कोई समाज, देश और काल अछूता नहीं रहता। सामाजिक परिवर्तन के विषय में बहुधा एक प्रश्न उसकी प्रक्रियाओं के बारे में यह किया जाता है कि क्या समाज स्वयं ही परिवर्तन की किन्हीं प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है? यदि ऐसा होता है, तो क्या परिवर्तन की इन प्रक्रियाओं की कोई विशिष्ट प्रकृति और दिशा होती है। इन प्रश्नों के सम्बन्ध में विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं। मैकाइवर तथा सोरोकिन ने सामाजिक परिवर्तन के तीन प्रतिमानों अर्थात्-
1. प्रौद्योगिकीय तथा वैज्ञानिक परिवर्तन के क्षेत्र में,
2. जनसंख्या और आर्थिक क्रियाओं के क्षेत्र में एवं
3. फैशन व सांस्कृतिक परिवर्तन के क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन की कुछ प्रक्रियाओं की चर्चा की है।
सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में निम्नलिखित पाँच प्रक्रियाएं विशेष उल्लेखनीय हैं-
1. सामाजिक परिवर्तन : एक चक्रीय प्रक्रिया के रूप में।
2. सामाजिक परिवर्तन : एक उद्विकास प्रक्रिया के रूप में।
3. सामाजिक परिवर्तन : एक प्रगतिशील प्रक्रिया के रूप में।
4. सामाजिक परिवर्तन : क्रान्ति की एक प्रक्रिया के रूप में।
5. सामाजिक परिवर्तन : अनुकूलन की प्रक्रिया के रूप में।
सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया के रूप में संस्कृतिकरण के कारणों और परिणामों की व्याख्या
संस्कृतिकरण क्या है।
भारत में सामाजिक परिवर्तन के विश्लेषण के सम्बन्ध में कुछ अवधारणाओं हुआ है, जिनमें भारतीय समाजशास्त्रीय डा० एम० एन० श्रीनिवास की का अवधारणा विशेष महत्व रखती है। संस्कृतिकरण की इस अवधारणा का निर्माण डाॅ0 श्रीनिवास द्वारा मैसूर के ‘रामपुरा’ नामक गाँव के अध्ययन के दौरान की गयी। इसे परिभाषित करते हुए डा0 श्रीनिवास ने लिखा है, “यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अनुसार निम्न हिन्दू जातियाँ जनजातीय समूह या उच्च अथवा द्विज कही जाने वाली जातियों की दिशा में अपनी प्रथाओं, संस्कारों, विचारों एवं जीवन शैली को प्रयत्न करती है। संस्कृतिकरण समाज के सांस्कृतिक प्रतिमान के संदर्भ में स्थानीय प्रभु-जाति के संदर्भ में सामाजिक जागरूकता का एक आन्दोलन है। निम्न जातियाँ उच्च जातियों के जीवन प्रतिमानों को इसलिए अंगीकार करती है, ताकि सामाजिक स्तरीकरण में वे अपनी सामाजिक प्रस्थिति को उठा सके। वे उन आदतों तथा संस्कारों को त्यागने का प्रयास करते है, जिनको हेय माना जाता है, जैसे ठर्रा (देशी शराब) पीना या गोमांस खाना।
डॉ० श्रीनिवास ने यह भी स्पष्ट किया है कि, “संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नई प्रथाओं तथा आदतों को ग्रहण करना ही नहीं है, बल्कि पवित्र एवं लौकिक जीवन से सम्बन्धित नवीन विचारों तथा मूल्यों को प्रकट करना भी है। कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मोक्ष आदि संस्कृति के कुछ अत्यन्त लोकप्रिय आध्यात्मिक विचार हैं और जब लोगों का संस्कृतिकरण हो जाता है, तब वे अपनी बातचीत में इन शब्दों का बहुधा प्रयोग करने लगते है।”
संस्कृतिकरण वह क्रिया है, जिसके द्वारा निम्न हिन्दू जाति या समूह के लोग अपनी जातीय अथवा सामाजिक स्थिति को परिशुद्ध, परिमार्जित एवं उन्नत करने के उद्देश्य सेवा उच्च जाति के आदर्शो, मूल्यों, विचारों, कृतियों तथा संस्कारों को ग्रहण कर लेते हैं। ऐतिहासिक संदर्भ में भारतीय समाज के इतिहास में संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया रही है, जबकि सन्दर्भात्मक अर्थ में सापेक्षिक भाव में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।
संस्कृतिकरण के प्रमुख कारण/कारक और प्रभाव निम्नलिखित हैं –
- भारतीय समाज की पिछड़ी जातियों के उत्थान हेतु आर्थिक सुधार कार्यक्रमों ने उनका जीवन स्तर ऊँचा उठाया। आज वे अपने जीवन-स्तर को ऊंची और प्रभुता सम्पन्न जातियों के अनुरूप बनाने में लगी है।
- स्वतन्त्र भारत के संविधान तथा कानूनों ने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 ने अन्तर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने व अस्पृश्यता निवारण कानून, 1955 में छुआछूत को दण्डनीय अपराध माना है।
- औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रिया के कारण जातिगत भेदभाव कम हुआ है। आज इन दोनों स्थानों में उच्च एवं प्रभुत-जाति निम्न जातियों पर नियन्त्रण करने में सक्षम नहीं रही है। निम्न जाति द्वारा खान-पान, रहन-सहन, कर्मकाण्ड, जीवन शैली अपनाने पर अब उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पड़ता है।
- धार्मिक स्थानों और तीर्थस्थलों ने भी संस्कृतिकरण को बढ़ाया है । भजन-मण्डलियों, कथा-वाचकों, साधु-सन्यासियों, समाचार-पत्रों, राजनैतिक सम्मेलनों की भूमिका भी उल्लेखनीय मानी जाती है।
- विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधार आन्दोलनों के प्रभाव से भी निम्न जातियों को अपनी स्थिति सुधारने की प्रेरणा दी। ब्रह्म-समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज और महात्मा गाँधी के प्रयत्नों ने निम्न जातियों में चेतना उत्पन्न की। इससे भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला।
- शिक्षा के विस्तार ने निम्न और पिछड़ी जातियों के शिक्षित लोगों को उच्च और प्रभुता सम्पन्न जातियों की जीवन शैली अपनाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है।
- संचार और यातायात के साधनों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के फलस्वरूप संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को पर्याप्त प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। सांस्कृतिक स्तर पर निम्न व उच्च जातियों के मध्य विचारों का आदान-प्रदान हुआ तथा लघु और वृहत् परम्पराओं के मध्य अन्तःक्रियाओं में भी वृद्धि हुई है।
- देश के विभिन्न भागों में कई निम्न जातियों ने आर्थिक सुविधाओं तथा आरक्षण का लाभ प्राप्त कर अपने जीवन के तरीके को उच्च जातियों के समान बनाने तथा किसी द्विज वर्ण-समूह में अपने को सम्मिलित करने में सफलता प्राप्त की है।
सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया के रूप में पश्चिमीकरण के कारणों तथा परिणामों की व्याख्या
पश्चिमीकरण क्या है।
विभिन्न समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों का विचार है कि पश्चिमीकरण एक अनुपयुक्त एवं संकुचित अवधारणा है। एम0 एन0 श्रीनिवास ने भारत में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन का सारा श्रेय ब्रिटिश शासन काल को दिया है । भारत में पश्चिमीकरण का सारा स्रोत ब्रिटिश शासन काल था, यह मत उचित नहीं है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास से दूर संचार एवं विभिन्न प्रकार के यातायात के साधनों द्वारा भी काफी परिवर्तन आये हैं। भारत यदि उपनिवेश नहीं होता, तो भी पश्चिमीकरण की प्रक्रिया यहाँ अवश्य चलती। एशिया के कुछ ऐसे भी देश हैं, जो उपनिवेशवाद की चपेट में नहीं आये, पर वहाँ भी पश्चिमीकरण की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है, जैसे- नेपाल, थाइलैण्ड, जापान इत्यादि ।
सैद्धान्तिक रूप से संस्कृतीकरण की तरह पश्चिमीकरण भी एक ढीला-ढाला शब्द है। वैज्ञानिक स्तर पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को मापा नहीं जा सकता है। बाह्य स्रोतों के द्वारा होने वाले सारे परिवर्तनों के बारे में यह कहना कि इनके पीछे पश्चिमीकरण की भूमिका रही है, सही न होगा।
भारतीय समाज पर अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए श्रीनिवास ने आधुनिकीकरण की जगह पश्चिमीकरण जैसे शब्द का प्रयोग ज्यादा उचित समझा है, क्योंकि आधुनिकीकरण की तुलना में पश्चिमीकरण में नैतिक तटस्थता है। उनका यह विचार काफी वैयक्तिक है । आज काफी लोग इससे सहमत नहीं हैं। परन्तु यह विचार ज्यादा उपयुक्त है कि भारतीय समाज में परिवर्तन का मुख्य स्रोत अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति ही रही है। परन्तु इसकी भी अपनी कमजोरी है। आजादी के बाद के दिनों में भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन का स्रोत अमेरिकन एवं रूसी प्रारूप भी रहा है। आज पश्चिमीकरण जैसे शब्द के प्रयोग से मात्र अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति के अपनाने का बोध नहीं होता । पश्चिमीकरण कहने से सभी विकसित देशों को जीवन शैली या उनके सामाजिक मूल्यों को अपनाने का भी बोध होता है।
पश्चिमीकरण ने संयक्त परिवार जैसी संस्था को काफी चोट पहुंचाई है – स्त्री शिक्षा, व्यक्तिवाद, आधुनिकता और भौतिकवाद आदि के कारण संयुक्त परिवार का अस्तित्व एक बन्धन लगने लगा। जिससे छटकारा पाने के लिए सभी बेचैन होने लगे। औद्योगीकरण ने प्रवृत्ति को और बल दिया, क्योंकि उद्योग अधिकतर शहरों में स्थापित हो रहे थे, जहाँ समस्या थी। इस कारण संयुक्त परिवार विघटित हुए। इस प्रकार पश्चिमीकरण समाज की एक बहुत पुरानी और मजबूत संस्था की जड़ें हिला दी। संक्षेप में पश्चिमीकरण ने भारतीय प्रथा और परम्परा को काफी प्रभावित किया, यहाँसतक कि पश्चिमी प्रभाव भारतीयो के दैनिक जीवन में परिलक्षित होने लगा। वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल आदि सभी में पाश्चात्य संस्कृति की छाप दिखलाई देने लगी। पश्चिमी मूल्यों और परम्पराओं के प्रति वफादारी को प्रगतिशील होने का लक्षण और कसौटी माना जाने लगा। पश्चिमी आचार-विचार भारतीयता के प्रतिद्वन्द्वी के रूप हो गया। इन दो संस्कृतियों का द्वन्द्व वर्तमान में भी भारत में चल रहा है । उपरोक्त आधार पर यह कहा जाता है कि पश्चिमीकरण ने संयुक्त परिवार जैसी संस्था को काफी चोट पहुंचाई है ।
पश्चिमीकरण के कारणों तथा परिणामों की व्याख्या
डा० एम० एन० श्रीनिवास ने भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के लिये ‘पश्चिमीकरण’ (Westernization) की अवधारणा प्रस्तुत की। पश्चिमीकरण की अवधारणा उन परिवर्तनों से परिचित कराती है, जो पश्चिम, विशेषत ग्रेट ब्रिटेन के उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में भारत पर शासनकाल के दौरान हुये और जिसका कारण ग्रेट ब्रिटेन के साथ सांस्कृतिक सम्पर्क था। डा० श्रीनिवास के अनुसार, ” मैंने ‘पश्चिमीकरण’ शब्द का प्रयोग भारतीय समाज और संस्कृति में उन परिवर्तनों के लिये किया है, जो एक सौ पचास वर्षों से अधिक समय के अंग्रेजी राज्य के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुये तथा यह शब्द प्रौद्योगिकी, संस्थाओं, वैचारिकी और मूल्यों, आदि विभिन्न स्तरों पर होने वाले परिवर्तनों को समाहित करता है।”
ओ0 एम0 लिंच ने डॉ० श्रीनिवास को उद्धृत करते हुये लिखा है, ” पश्चिमीकरण में पश्चिमी पोशाक, खान-पान, तौर-तरीके, शिक्षा, विधियाँ और खेल एवं मूल्यों, आदि . चारमा को सम्मिलित किया जाता है।
पश्चिमीकरण के मुख्य लक्षण/विशेषतायें हैं
1. नैतिक रूप से तटस्थ अवधारणा,
2. व्यापक, जटिल एवं बहुस्तरीय अवधारणा,
3. चेतन एवं नियोजन अचेतन प्रक्रिया,
4. अंग्रेजों द्वारा लाई गई पाश्चात्य संस्कृति,
5. अनेक पश्चिमी देशों के अनुगविक प्रारूप एवं आदर्श एवं
6. एक आदर्श अवधारणा।
सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया के रूप में पश्चिमीकरण के परिणामों एवं प्रभावों में कुछ रचनात्मक/सकारात्मक है, तो कुछ नकारात्मक/विघटनात्मक भी।
पश्चिमीकरण निरपेक्षता के मुख्य परिणाम
पश्चिमीकरण निरपेक्षता के मुख्य परिणाम निम्नलिखित थे –
- पश्चिमीकरण के कारण सामाजिक जीवन एवं संस्थाओं में परिवर्तन आया। जाति-प्रणाली, संयुक्त परिवार प्रणाली, स्त्रियों की सामाजिक प्रस्थिति, विवाह, नातेदारी, जजमानी प्रथा, ग्रामीण पंचायत, आदि में उल्लेखनीय परिवर्तन हुये। प्रेस, मतदान, ईसाई मिशनरी जैसी नई संस्थाओं का भी जन्म हुआ।
- पश्चिमीकरण के प्रभाव से देश में अनेक राजनीतिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ। भारत प्रशासनिक दृष्टि से मजबूत हुआ। विदेशों से सम्पर्क हुआ। आधुनिक प्रजातंत्र एवं संसदीय प्रणाली तथा नौकरशाही तंत्र स्थापित हुआ। किन्तु भाषावाद, क्षेत्रवाद/प्रान्तवाद, जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता की भावनाओं ने जोर पकड़ा। देश पूँजीवादी, साम्यवादी एवं साम्यवादी विचारों एवं आदर्शों से परिचित हुआ।
- पश्चिमीकरण ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक क्षेत्र में भी परिवर्तन किये। देश में बड़े-बड़े उद्योग एवं कारखाने स्थापित हुये, जहाँ मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रारम्भ हुआ। बाजार स्थानीय सीमाओं को लाँघकर प्रान्तीय, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया। औद्योगीकरण हुआ, किन्तु कुटीर उद्योग नष्ट हो गये। जमींदारी व्यवस्था लागू किये जाने से किसानों की दशा गिरती गई। श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण पनपा। पूंजीवादी एवं एकाधिकारी व्यवस्था ने जन्म लिया, जिससे श्रमिक समस्यायें उत्पन्न हुई, वर्ग संघर्ष बढ़ने लगा। औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण गरीबी, बेकारी, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, गन्दी बस्तियाँ एवं रोग की समस्यायें पैदा हुई। पश्चिमीकरण के अन्य परिणाम भी देखे गये, जैसे –
- शिक्षा का प्रसार एवं नारी शिक्षा पर बल,
- मूल्यों एवं आदर्शों में परिवर्तन,
- राज्य के कार्य-क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि,
- हिन्दू धर्म की पुनःव्याख्या,
- साहित्य एवं ललित कलाओं में परिवर्तन,
- उदारवादी एवं मानवतावादी विचारधारा को प्रोत्साहन,
- धार्मिक जीवन में परिवर्तन,
- धर्म निरपेक्षीकरण की विचारधारा का जन्म,
- अस्पृश्यता के विचार का अन्त और समानता के सिद्धान्त को प्रोत्साहन,
- खान-पान, रहन-सहन एवं वेश-भूषा में परिवर्तन।
- परिवार में परिवर्तन,
- रीति-नीति, प्रथाओं एवं परम्पराओं में परिवर्तन,
- राष्ट्रीयता की भावना का विकास, आदि। स्पष्ट है कि पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय समाज और संस्कृति के सभी क्षेत्रों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया।
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समाजशास्त्र/Sociology–
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