प्लेटो का प्रयोजनवाद क्या है

प्लेटो का प्रयोजनवाद, आत्मा, नीति मीमांसा | Plato’s Pragmatism, Soul, Ethics in Hindi

प्लेटो का प्रयोजनवाद 

प्लेटो का दर्शन यन्त्रवादी नहीं, वरन प्रयोजनवादी है। तात्पर्य है कि प्लटा का अनुसार सम्पूर्ण विश्व का एक प्रयोजन है। प्रयोजनवाद की अभिव्यक्ति विज्ञान के माध्यम से होती है। प्लेटो के अनुसार विज्ञान वस्तुओं के सार ही नहीं वरन् आदश भी हैं। विज्ञान ही वह लक्ष्य है जिस ओर सभी वस्तएँ अग्रसर हो रही हैं। सुन्दर वस्तएँ सौन्दर्य विज्ञान की ओर अग्रसर है। इतना ही नहीं प्लेटो यहाँ तक स्वीकार करते हैं कि सत् और असत् का निर्णायक विज्ञान ही है, वस्त जहाँ तक विज्ञान का ओर हैं, वहाँ तक सत् है तथा जहाँ तक विज्ञान से दूर है वह असत् है।

संसार की सभी वस्तुएँ विज्ञान की ओर अग्रसर हैं। विज्ञान आदर्श है। जिसे न प्राप्त नहीं किया जा सकता परन्तु सभी वस्तुएँ अपने लक्ष्य या आदर्श की ही बढ़ रही हैं। सभी सुन्दर वस्तुएँ सौन्दर्य विज्ञान की ओर उन्मुख है। कोई भी मन्दर इसलिए है कि वह सौन्दर्य विज्ञान के अनुरूप है। प्लेटो ने अपने लिक में आदर्श राज्य की स्थापना की है। कुछ लोग इसे काल्पनिक राज्य भारते हैं। वस्तुतः यह आदर्श राज्य सभी राज्यों का लक्ष्य या उद्देश्य है। एथेन्स और मार्ग के राज्य इस आदर्श राज्य के अनुरूप होने के कारण ही वास्तविक है। इसी कार कोई भी वस्तु वहाँ तक वास्तविक है जहाँ तक विज्ञान के अनुरूप है। अतः विज्ञान आदर्श है जिसकी प्राप्ति करना ही विभिन्न वस्तुओं का आदर्श है। यही प्लेटो का प्रयोजनवाद है।

आत्मा(Human Soul)

प्लेटो के अनुसार आत्मा जीवन शक्ति है। शरीर की गति तथा सक्रियता का कारण आत्मा ही है। यह सम्पूर्ण प्रकृति में गति का मूल कारण है। प्रकृति के सभी पदार्थ जड़ होने के कारण गति शून्य हैं। आत्मा केवल गति का ही कारण नहीं, वरन् विवेक का आश्रय भी है। विवेक का कारण होने से आत्मा का सम्बन्ध विज्ञान से है तथा गति का कारण होने से इसका सम्बन्ध इन्द्रिय जगत् से है। अतः विज्ञान तथा वस्तु दोनों जगत् का आधार आत्मा ही है।

प्लेटो ने आत्मा को विश्वात्मा (World Soul) के समान बतलाया है। परन्तु विश्वात्मा के समान यह पूर्ण तथा असीम नहीं। तात्पर्य यह है कि मानव आत्मा अपूर्ण तथा असीम है। आत्मा के स्वभाव की व्याख्या में प्लेटो ने राज्य की उपमा दी है। राज्य के समान यह भी एक (Organism) अंगी है। व्यक्ति की अच्छाई राज्य की अच्छाई के रूप में प्रतिबिम्बित होती है। इसी प्रकार व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द्व राज्य के रूप में प्रकट होता है। राज्य तीन प्रकार का है: राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र और लोकतन्त्र।

मनुष्य भी तीन प्रकार के हैंजिनमें विवेक का प्राधान्य है वे संरक्षक (Guardian) हैं, जिनमें बल का प्राधान्य है। वे सैनिक (Soldiers) और जिनमें क्रिया का प्राधान्य है वे पृथग्जन (Artisans) कहलाते हैं। प्रथम जाति के मनुष्य स्वर्ण के, द्वितीय चाँदी के तथा तृतीय पीतल या लोहे के हैं। इसी प्रकार जीवात्मा के भी तीन विभाग हैं: बुद्धि, (Cognition), संकल्प(Conation) और वेदना (Affection)। बुद्धि का धर्म ज्ञान (Wisdom) है, संकल्प का धर्म बल (Courage) और वेदना का धर्म क्रिया (Appetite) है।।

प्लेटो के अनुसार जीवात्मा के दो मुख्य विभाग हैं:

१. बौद्धिक आत्मा (Rational Soul) एवं

२. अबौद्धिक आत्मा (Irrational Soul)

बौद्धिक आत्मा से मनुष्य विवेक करता है। यह आत्मा का श्रेष्ठतम रूप है। इसका कार्य विज्ञानों का साक्षात्कार करना है। यह सरल, अदैहिक, अविभाज्य और अमर है। अबौद्धिक आत्मा का कार्य संवेदना, वेदना, वासना और क्रिया है। अभौतिक आत्मा मिश्रित, दैहिक, विभाज्य, अविनाशी और मर्त्य है। अबौद्धिक आत्मा के दो प्रकार हैं: कुलीन (Noble) तथा अकुलीन। साहस, आत्मसम्मान और उच्च संवेग आदि कुलीन आत्मा के धर्म है। भय, अपवित्रता, कुत्सित भावना इत्यादि अकुलीन आत्मा के धर्म हैं। बौद्धिक तथा अबौद्धिक दोनों आत्मा का सम्बन्ध भी दो जगत् से। है।

बौद्धिक आत्मा का सम्बन्ध विज्ञान जगत् तथा अबौद्धिक आत्मा का सम्बन्ध इन्द्रिय जगत् से है। बौद्धिक आत्मा विवेक करता है तथा अबौद्धिक आत्मा प्रेम घृणा, तृष्णा आदि का अनुभव करता है। बौद्धिक आत्मा का अनुसरण कर मनुष्य दिव्य ज्ञान तथा विज्ञान लोक की प्राप्ति करता है। अबौद्धिक आत्मा का अनुसरण कर मनुष्य भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है। इनकी व्याख्या करने के लिए। प्लेटो नेत्र की उपमा देते हैं।

प्लेटो का कहना है कि जब आत्मारूपी आँखें उस पर ठहरती हैं जिस पर सत्य तथा अस्तित्व चमकते हैं तब वह देखती तथा समझती है और बुद्धि से देदीप्यमान हो जाती है, परन्तु जब वह गोधूलि तथा अस्तित्व में आने तथा नष्ट हो जाने वाले पदार्थों की ओर घूमती है तब उसके पास केवल मत होता है और वह नेत्र झपकाते इधर उधर फिरती है; और प्रथम एक मत रखती है तब फिर दूसरा और बुद्धिहीन-सी प्रतीत होती है। पुनः जब बौद्धिक आत्मा अबौद्धिक पर नियन्त्रण रखती है तो व्यक्ति अपना स्वामी कहलाता है। परन्तु जब कुसंगति के कारण अबौद्धिक से बौद्धिक परास्त हो जाती है तो व्यक्ति की निन्दा होती है तथा वह अपना दास बन जाता है और व्यसनी कहलाता है। ।

 

आत्मा की अमरता (Immortality) :

प्लेटो के अनुसार आत्मा अमर, प्रमाण देते हैं: अविनाशी, शाश्वत, चेतन है। इसकी अमरता की सिद्धि के लिए प्लेटो निम्नलिखित प्रमाण देते है-

१. सभी वस्तु अपने विरोधी से उत्पन्न होती है। मत्य जीवन का विरोधी है। अत: जीवन मृत्यु से उत्पन्न होता है। जीवित आत्मा मृत आत्मा को जन्म देती है। और मत आत्मा जीवित आत्मा को उत्पन्न करती है। जीवन और मत्य का यह चक्र (Cycle) चलता ही रहता है। इस चक्र से आत्मा की अमरता सिद्ध होती है।

२. संस्मरण (Recollection) : प्लेटो के अनुसार विज्ञान ही यथार्थ ज्ञान के विषय हैं, परन्तु विज्ञान का हमें प्रत्यक्ष नहीं होता। इन्द्रियानुभव के आधार पर हमें केवल विज्ञानों का स्मरण होता है। यह संस्मरण तो आत्मा की अमरता के कारण ही है, क्योंकि आत्मा ही मूलावस्था में विज्ञानों का साक्षात्कार करती है। संस्मरण सिद्धान्त के भी दो पक्ष हैं: तार्किक तथा प्रायोगिक तार्किक पक्ष के अनुसार जान दो प्रकार का होता है: बौद्धिक तथा ऐन्द्रिका बौद्धिक ज्ञान सार्वभौम तथा अनिवार्य ज्ञान है तथा इसका विपरीत सम्भव नहीं। उदाहरणार्थ, त्रिभज के तीनों कोण मिलकर दो समकोण के बराबर होते हैं। यह अनिवार्य ज्ञान है, अतः बौद्धिक है।

ऐन्द्रिक ज्ञान अनुभवजन्य होता है, इसमें अनिवार्यता नहीं होती। उदाहरणार्थ, स्वर्ण पीत है। यह अनुभवजन्य ज्ञान ऐन्द्रिक ज्ञान है। बौद्धिक ज्ञान अनुभव-निरपेक्ष ज्ञान है तथा जन्म से आत्मा में विद्यमान रहता है। अतः आत्मा अमर है। आत्मा को संस्मरण के द्वारा दूसरे जन्म में इस ज्ञान की स्मृति हो जाती है।

३ विज्ञान से आत्मा की अमरता सिद्ध होती है। संसार में दो प्रकार की सत्ता। है वस्तु तथा विज्ञान की। आत्मा का कार्य शरीर पर शासन करना और विज्ञानों का ज्ञान प्राप्त करना है। अतः आत्मा को भी दिव्य विज्ञानों के समान ही होना चाहिये। विज्ञान सरल, अमिश्रित और नित्य है। अतः आत्मा को भी सरल, अमिश्रित और नित्य होना चाहिये। इसलिए आत्मा की अमरता सिद्ध है।

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४. आत्मा ही गति का मूल स्रोत है। सभी भौतिक पदार्थों में गति आत्मा के कारण ही है। संसार में जहाँ कहीं गति दिखलायी पड़ती है उसका कारण कोई दूसरा है। उदाहरणार्थ, क की गति का कारण ख है, ख की गति का कारण ग है इत्यादि। अन्ततोगत्वा हमें गति के एक मूल कारण की कल्पना करनी पड़ती है जो सबका आधार हो। आत्मा ही सभी पदार्थों में गति का कारण है। यह कारण अभौतिक, अनादि तथा अनन्त (आत्मा) है।

५. संसार के सभी पदार्थ सावयव हैं, अतः सान्त है। आत्मा निरवयव है, अतः अनन्त है। प्रश्न यह है कि आत्मा की अमरता का ज्ञान हमें कैसे होता है? प्लेटो के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ सावयव हैं अत: इन्द्रियगम्य है। आत्मा निरवयव है। यह केवल विचार का विषय है, प्रत्यक्ष का नहीं| विचार से आत्मा को हम नित्य, अपरिणामी और सरल जानते हैं। आत्मा को अमर मानने के कारण ही प्लेटो पुनर्जन्म मानते हैं। वे आत्मा को अमर तथा नित्य मानते हैं। शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा विज्ञानों के लोक में चली जाती है। जो लोग इस संसार में पुण्य करते हैं तथा विज्ञानों का अनुशीलन करते हैं वे मृत्यु के बाद दिव्यलोक में निवास करते हैं। इसके विपरीत पापी को पुनः इस संसार में जन्म लेना पड़ता है। प्लेटो का आत्मा सम्बन्धी मत ऑर्फिक धर्म (Orphic Religion) से प्रभावित है। आर्फिक धर्म में शरीर को आत्मा का बन्दीगह बतलाया गया है। विशुद्ध ज्ञान से ही इस बन्धन का नाश सम्भव है तथा बन्धन के नाश से देवलोक की प्राप्ति होती है। प्लेटो ने आत्मा को ऊर्ध्वगामी बतलाया है। शारीरिक अवस्था में जो आत्मा प्रेम, सौन्दर्य का अनुशीलन करती है उसमें स्वर्गलोक पहुँचने के लिए पंख उत्पन्न हो जाते हैं। वहाँ पहुंच कर आत्मा नित्य विज्ञानों का साक्षात्कार करती है।

नीति-मीमांसा (Ethics)

जिस प्रकार प्लेटो की ज्ञान-मीमांसा के दो पक्ष हैं: खण्डन तथा मण्डन, उसी प्रकार उनकी नीति-मीमांसा के भी दो पक्ष हैं। तात्पर्य यह है कि उन्होंने सर्वप्रथम मिथ्या सिद्धान्तों का खण्डन किया है तदनन्तर उन्होंने यथार्थ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। नीतिशास्त्र में सबसे महत्त्वपर्ण प्रश्न है कि सद्गुण क्या है? प्रोटागोरस तथा सॉफिस्ट लोगों के अनुसार सुख ही सदगुण है। सर्वप्रथम प्लेटो इसकी आलोचना करते हैं।

१. जिस प्रकार सत्य तथा ज्ञान को इन्द्रिय-जन्य मानने से सत्य आत्मगत हो जाता है उसी प्रकार सद्गुण को सुख मानने से सद्गुण भी आत्मगत हो जाता है। तथा इसका विषयगत, वस्तुनिष्ठ स्वरूप ही समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार यदि व्यक्तिगत सुख ही सद्गुण है तो जिससे सुख प्राप्त हो वही उसके लिए सद्गुण है। इस प्रकार सद्गुण तथा नैतिकता पूर्णरूप से आत्मनिष्ठ, सापेक्ष हो जाती है। परन्तु नैतिकता का मापदण्ड तो वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि नैतिक मूल्य व्यक्तिनिष्ठ नहीं, वस्तुनिष्ठ होते हैं। यदि मेरे लिये जो सुखकर हो वही सद्गुण हो तो सद्गुण का बाह्य, विषयगत रूप ही समाप्त हो जायेगा।

२. सद्गुण को व्यक्तिगत मानने पर, अर्थात् नैतिक नियमों को आत्मगत मानने पर शुभ और अशुभ का भेद समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, कोई विषय किसी व्यक्ति को सुखकर प्रतीत हो सकता है तथा दूसरे व्यक्ति को दुःखकर प्रतीत हो सकता है। जिसके लिए सुखकर है उसके लिए वह विषय शुभ है तथा जिसके लिए दुःखकर प्रतीत होता है उसके लिए अशुभ है। इस प्रकार एक ही विषय शुभ तथा अशुभ दोनों एक ही समय में प्रतीत हो सकता है। अतः शुभ और अशुभ, अच्छा और बुरा का भेद मिट जाता है।

३. यदि सद्गुण केवल सुख है तो नैतिकता का आधार भावना (Belief) सिद्ध होगी; क्योंकि सुख तो इच्छाओं की तृप्ति है तथा इच्छा तो भावना है। परन्तु भावनाएँ व्यक्तिगत होती हैं तथा व्यक्तिगत भावना विषयगत नैतिकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक संहिता (Moral code) को सामान्य होना चाहिये तथा उसे सामान्य होने के लिए बुद्धि पर आश्रित होना चाहिये, व्यक्तिगत भावना पर आधारित नहीं। तात्पर्य यह है कि नैतिक नियमों को सार्वभौम, सार्वजनीन होना चाहिये जिससे सभी लोग उनका पालन कर सकें।

४. नैतिक नियमों को स्वयं मूल्यवान होना चाहिये, अर्थात् नैतिकता स्वयं अपना साध्य है। नैतिक नियमों का मूल्य आन्तरिक होता है, बाह्य नहीं। नैतिक कर्त्तव्य किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं, वरन् कर्त्तव्य’ के लिए ही हो सकता है। हमें किसी कार्य को स्वयं साध्य मानकर करना चाहिये, न कि किसी फल की प्राप्ति के लिए। नैतिक नियम तो आदेश हैं जिनका पालन किसी शर्त के बिना ही करना चाहिये। परन्तु यदि सदगण सुख है तो नैतिक नियम स्वयं साध्य नहीं, क्योंकि हम किसी कार्य को इसलिये करते हैं कि वह हमारे लिये सुखकर है।

कुछ लोगों का कहना है कि उचित कार्य ही सदगुण है। प्लेटो इसका भी खण्डन करते हैं। जिस प्रकार यथार्थ धारणा ज्ञान नहीं, उसी प्रकार उचित कार्य भी सद्गुण नहीं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार यथार्थ धारणा का आधार गलत हो सकता है उसी प्रकार उचित कार्य का भी आधार गलत हो सकता है। यथार्थ सद्गुण के लिए केवल यह जानना पर्याप्त नहीं कि क्या उचित है बल्कि यह भी जानना आवश्यक है कि क्यों उचित है? किसी कार्य के औचित्य का पता लगाना तो बुद्धि का कार्य है। अतः यथार्थ सदगुण उस उचित कार्य को कहते हैं जो सत्य मूल्यों के बौद्धिक ज्ञान पर आश्रित हो।

प्लेटो के अनुसार सद्गुण दो प्रकार के हैं दार्शनिक सद्गुण (Philosophic virtue) तथा परम्परागत सद्गुण (Customary virtue)। दार्शनिक सद्गुण तो केवल बुद्धि पर आधारित होता है। इसीलिये जो व्यक्ति उसके अनुसार कार्य करता है, वह इसके औचित्य को भी जानता है अर्थात उसे इस बात का ज्ञान रहता है कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। परम्परागत सद्गुण रीति-रिवाज, अभ्यास, आवेग (Impulse) तथा करुणापूर्ण भावना आदि पर आधारित रहता है। इस प्रकार के सद्गुणों के औचित्य का ज्ञान मनुष्य को नहीं। हम उचित कार्य केवल दूसरों को देखकर, परम्परा के अनुसार भी करते हैं जिसका कारण हम नहीं जानते। यह सामान्य, ईमानदार तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सदगुण है। प्लेटो इसे मक्षिका और पिपीलिका (चींटी) का सद्गुण मानते हैं।

प्लेटो के अनुसार मुख्य दार्शनिक सद्गुण चार हैं-प्रज्ञा (Wisdom) विवेकशील आत्मा का सद्गुण है, साहस (Courage) मात्मा के अच्छे अर्धांश का सद्गुण है, आत्म-नियन्त्रण (Temperance) बुरे अर्धांश, अर्थात् वासनाओं का गुण है तथा न्याय (Justice) नामक सद्गुण अन्य गुणों के द्वारा उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्लेटो के चार मूलभूत सद्गुण है, जिनमें प्रथम तीन तो आत्मा के तीन भागों के अनुरूप हैं तथा चौथा (अन्तिम) तीनों के बीच एकता स्थापित करता है।

न्याय नामक सद्गुण तभी उत्पन्न होता है जब आत्मा के तीनों भाग पारस्परिक सहयोग से अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से करते हैं। अतः न्याय तीनों में सामञ्जस्य (Harmony) है। इस प्रकार न्याय दार्शनिक सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ है। प्लेटो दार्शनिक के लिए न्याय को सबसे महत्वपूर्ण बतलाते हैं। न्यायनिष्ठ व्यक्ति ही दार्शनिक होता है या दार्शनिक ही न्यायनिष्ठ होता है। सम्भवतः इसी कारण न्यायनिष्ठ व्यक्ति या दार्शनिक को ही प्लेटो देश का शासक मानते हैं।

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न्याय प्लेटो के अनुसार सर्वोच्च सद्गुण है। इसका कारण यह है कि इस सद्गुण में अन्य सभी सद्गुण समाहित है, अर्थात् यह सभी सद्गुणों का विकसित रूप है। न्यायनिष्ठ व्यक्ति ही परम विवेकी, राज्य का सर्वोच्च शासक हो सकता है। प्लेटो राज्य और व्यक्ति की नैतिकता में अभेद बतलाते हैं। उनके अनुसार राज्य का चरित्र तो राज्य के नागरिको का चरित्र है। राज्य के नागरिकों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है कृषक, रक्षक और शासका कृषक खेती-बारी, व्यापार से राज्य को समृद्ध बनाता है।

रक्षक सैनिक वर्ग है जो राज्य की सुरक्षा करता है। शासक विवेकी व्यक्ति होता है जो नागरिकों पर शासन करता है। इसी प्रकार नागरिक के भी तीन गुण है-वासना, साहस और विवेक वासना प्रधान व्यक्ति कृषक है, साहस प्रधान संरक्षक है तथा विवेक प्रधान नागरिक शासक होता है। विवेक के अन्तर्गत अन्य सभी सदगुण आ जाते हैं। अतः विवेक सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है। इसी प्रकार शासक सर्वोच्च व्यक्ति है, क्योंकि वही दार्शनिक विवेकी व्यक्ति होता है, वहीं न्यायनिष्ठ होता है। अतः न्याय और विवेक में अभेद माना गया है।

वासना, साहस आदि सभी विवेक के अधीन है। विवेक का सम्बन्ध न्याय से है। अतः न्याय सर्वोच्च सद्गुण है। प्लेटो का कहना है कि वही राज्य पूर्ण है जिसमें न्याय हो, अर्थात् जिसके नागरिकों में सभी सद्गुण हों। उदाहरणार्थ, कृषक या व्यापारी वर्ग राज्य की समृद्धि करे, रक्षक वर्ग साहसपूर्वक राज्य की रक्षा करे तथा शासक विवेकपूर्ण राज्य को चलाये। इस विवरण से स्पष्ट होता है कि प्लेटो का न्याय सभी वर्ग के व्यक्तियों का पूर्ण रूप है, आदर्श है। यदि राज्य के सभी नागरिक अपने स्वरूप को पहचानें, अपने स्वाभाविक कार्य को करें, दूसरों के कार्य में बाधा न दें तो उस राज्य में न्याय होगा। दूसरे शब्दों में, यदि सभी वर्ग अपने स्वधर्म में रत रहें तथा परधर्म से विरत रहें तभी न्याय होगा, अन्यथा नहीं। तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति में वासना, साहस, बुद्धि आदि सबका नियन्त्रण होगा तभी न्याय नामक सर्वोच्च सद्गुण उत्पन्न होगा। यदि वासना, साहस आदि न रहे तो न्याय नहीं होगा।

अत: न्याय सभी सद्गुणों का सामञ्जस्य है, सर्वोच्च है। इसका महत्व तो सर्वोपरि है, परन्तु इसकी उत्पत्ति स्वतन्त्र नहीं। यह तभी उत्पन्न होगा जब व्यक्ति में अन्य सभी सद्गुण सम्यक् रूप से विद्यमान हों। जिस व्यक्ति में वासना, साहस, बुद्धि आदि ठीक प्रकार से कार्य करते हों, उसी में विवक होगा, वही न्यायनिष्ठ होगा। उसकी प्रकार जिस प्रकार जिस राज्य के सभी नागरिक अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें तो वह राज्य पूर्ण होगा, नैतिक होगा, आदर्श होगा। अतः न्याय व्यक्ति और राज्य दोनों का आदर्श है।

एक आवश्यक प्रश्न यहाँ यह उपस्थित होता है कि न्याय व्यक्ति का गुण है या राज्य या समाज का? यदि न्याय व्यक्ति का गुण है तो इसे व्यक्तिगत या आत्मगत कहा जायेगा तथा नैतिकता व्यक्तिगत होगी। यदि यह समाज या राज्य का गुण है तो इसका स्वरूप आन्तरिक न होकर बाह्य होगा। यह वस्तुनिष्ठ सामाजिक आदर्श होगा। अतः प्रश्न यह है कि न्याय आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ, आन्तरिक है या बाह्य? इसका उत्तर यह है कि प्लेटो न्याय का स्वरूप तो अवश्य बाह्य मानते हैं (यह राज्य या समाज का आदर्श है), परन्तु न्याय व्यक्ति से भिन्न नहीं।

यह सामाजिक पूर्णता तथा आदर्श अवश्य है, परन्तु इसकी अभिव्यक्ति व्यक्ति के माध्यम से होती है। व्यक्ति के बिना विवेक कहाँ और विवेक के बिना न्याय कहाँ? प्लेटो के अनुसार न्याय तो आत्मा के शुभांश विवेक का गुण है। अतः यह आत्मनिष्ठ या व्यक्तिगत अवश्य है। आध्यात्मिक गुण होने के कारण यह व्यक्ति की आत्मा में निवास करता है। न्याय  तो व्यक्ति में विवेक का परिचायक है और विवेक व्यक्ति का आध्यात्मिक (शुभ आर्धाश) गुण है, अत: यह व्यक्तिगत है। परन्तु व्यक्ति में निवास करते हुए भी न्याय समाज या राज्य का आदर्श है।

प्लेटो इसे एक उपमा द्वारा स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार समाज और व्यक्ति में जीवाणु और जीव का सम्बन्ध है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में जो भी विशेषताएँ अल्प रूप में पाई जाती हैं, वे ही राज्य या समाज में विशाल रूप में उपलब्ध होती है। अतः व्यक्ति के गुण ही राज्य के गुण है। राज्य के नियम व्यक्ति के नियमों के बाह्य रूप है। राज्यों का जन्म वृक्षों या चट्टानों से नहीं, वरन् उसमें रहने वाले मनुष्यों के चरित्र से होता है। इस प्रकार वीरों का राज्य भी वीर और नपुंसकों का राज्य नपुंसक होगा। इस प्रकार राज्य व्यक्तिगत चेतना की बाह्य अभिव्यक्ति है। यदि राज्य के नागरिक अनैतिक हों तो राज्य भी अनैतिक ही होगा। व्यक्ति के गुण, वासना, साहस, बुद्धि (विवेक) आदि है। इसी के अनुसार राज्य के नागरिक भी कृषक, रक्षक और शासक आदि है। अतः राज्य व्यक्ति का विराट् रूप है।

व्यक्ति में वासना, साहस, बुद्धि आदि जब सम्यक रूप से कार्य करते हैं तो विवेक का अभ्युदय होता है। यह विवेक ही न्याय का परिचायक है। इसी प्रकार राज्य में। कृषक, रक्षक, शासक आदि सभी के सचारु रूप से कार्य सम्पादन से न्याय नामक राज्य में गण उत्पन्न होता है। इसकी उत्पत्ति तो व्यक्ति के द्वारा होती है, परन्तु इसकी अभिव्यक्ति समाज या राज्य के माध्यम से होती है। न्याय के दो रूप है-राज्य सम्बन्धी और व्यक्ति सम्बन्धी प्रथम के विषय में प्लेटो का कहना है कि न्याय राज्य के सभी सद्गुणों का आधार है। न्याय के बिना राज्य पूर्ण नहीं हो सकता। राज्य के सभी नागरिको को अपने अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। इससे राज्य आत्मनिर्भर होगा। यह न्याय का सामाजिक या बाह्य स्वरूप है। व्यक्ति सम्बन्धी न्याय पर विचार करते हुए प्लेटो का कहना है कि व्यक्ति राज्यरूपी शरीर का एक अंग है। व्यक्ति में विवेक (न्याय) होने से ही राज्य में न्याय होगा, अन्यथा नहीं।

 

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