अरस्तू-उत्तर ग्रीक दर्शन (Greek Philosophy after Aristotle)
अरस्तू के बाद ग्रीक दर्शन प्रायः का पतन काल है। अरस्तू के बाद भी ग्रीस में अनेक विचारक हुए, परन्तु उनमें प्लेटो और अरस्तू की मौलिक प्रतिभा न थी। अतः किसी ने मौलिक सिद्धान्त का जन्म नही दिया। साथ ही साथ अरस्तू के बाद ग्रीस देश का राजनैतिक और सामाजिक पतन भी प्रारम्भ हो गया। देश में अराजकता छा गयी। ग्रीस देश कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया तथा ई. पू. १४६ में ग्रीस अपनी स्वतन्त्रता खोकर रोमन राज्य का एक प्रान्त बन गया। ग्रीस देश के लोग अपनी दार्शनिक परम्परा को भूल गये। ग्रीसवासी दर्शन को तटस्थ विचार न मानकर जीवन का साधन मानने लगे। ज्ञान-ज्ञान के लिये न होकर जीवन की समस्याओं के समाधान का साधन बन गया। दार्शनिक व्यवहार के लिये सिद्धान्त की खोज करने लगे, अर्थात् दर्शन को जीवन के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास होने लगा। अतः दर्शन का शुद्ध सैद्धान्तिक स्वरूप प्रायः नष्ट-सा हो गया तथा व्यावहारिक समस्याओं के लिये नये-नये दार्शनिक सिद्धान्त भी उत्पन्न हुए। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकाला नहीं जा सकता कि ग्रीसवासी बिल्कुल परम्परा विमुक्त हो गये, वरन् परम्परा को उन लोगों ने एक नये दृष्टिकोण से देखना प्रारम्भ किया। इसी कारण अरस्तू के बाद जितने भी विचारक हुए उन लोगों ने किसी नयी समस्या को जन्म न देकर पुरानी समस्या को ही नये रूप से रखा है। अतः अरस्तू उत्तर दार्शनिको की सभी समस्याओं का मूल अरस्तू-पूर्व या अरस्तू के विचार हैं। अरस्तू के बाद चार दार्शनिक सम्प्रदाय हैं:
एपिक्यूरियन सम्प्रदाय (Epicureanism),
स्टोइक सम्प्रदाय (Stioicism),
संशयवादी सम्प्रदाय (Scepticism)तथा
नव्य-प्लेटो सम्प्रदाय (Neo-Platonism)|
एपिक्यूरियन सम्प्रदाय का आधार डिमॉक्रिटस का परमाणुवाद है, स्टोइक सम्प्रदाय का आधार हेरेक्लाइटस का सिद्धान्त (अग्नि ही मूल तत्व) है। संशयवादियों का आधार सुकरात की ज्ञान पद्धति है और नव्य प्लेटो सम्प्रदाय का आधार प्लेटो का दर्शन है।
एपिक्यूरियन सम्प्रदाय(Epicureanism)
इस सम्प्रदाय को जन्म देने वाले एपिक्यूरस है। इनका जन्म ई. पू. ३४२ में सेंमॉस में हआ। ई. पू. ३०६ में एपिक्यूरस ने अपने सम्प्रदाय की स्थापना की। उनका गृह-उद्यान ही इस सम्प्रदाय का दर्शन पीठ था। इसीलिये इस सम्प्रदाय के दार्शनिको को उद्यान के दार्शनिक (Philosophers of the garden) कहते हैं। यह सम्प्रदाय प्राय. ६०० वर्ष तक चलता रहा। इस सम्प्रदाय के प्रसिद्ध दार्शनिको के नाम हैं- हर्मेशस (Hermashus), पॉलिसट्रेटस (Poloystratus) डायनिसियस (Dionyjsius), अपोलोडोरस (Apolodorous), फीड्स (Phaedus) एवं ल्युक्रेटियस केरस (Lucretias Carus) आदि।
एपिक्यूरस के अनुसार सुखमय जीवन व्यतीत करना ही जीवन का उद्देश्य है। इनके अनुसार सुख ही परम शुभ है तथा दुःख ही अशुभ है। नैतिकता का आधार सुख प्राप्ति है। जो कार्य जितना ही सुखप्रद है उतना ही वह नैतिक भी है। सदगण का स्वतः कोई मूल्य नहीं, उसका मूल्य इसलिये है कि वह सुखोत्पत्ति का साधन है, परन्तु एपिक्यूरस भौतिक दुःख को नहीं, वरन् आध्यात्मिक सुख को जीवन का लक्ष्या मानते हैं। एपिक्यूरस सुख-प्राप्ति की अपेक्षा दुःख-परिहार पर अधिक बल देते हैं। क्योंकि सांसारिक सुख सर्वदा दुःख-युक्त होता है। अतः सुख का अर्थ दुःख का अभाव है। इसके लिए प्रसन्नता, मुदिता, संयम आदि गुणों की आवश्यकता है। आवश्यकता को बढ़ाना ही दुःख है तथा आवश्यकताओं को सीमित करना ही सच्चा सुख है। इत्यादि, एपिक्यूरस के महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। एपिक्यूरस के समय धार्मिक अन्धविश्वास की ओट में जनता का शोषण हो रहा था। इस मानवी यन्त्रणा को समाप्त करने के लिए एपिक्यूरस ने डिमॉक्रिटस के समान भौतिक यन्त्रवादी दर्शन पर अपने नीतिशास्त्र को स्थापित किया। इनके अनुसार संसार की प्रत्येक घटना यान्त्रिक है, जगत् का कोई प्रयोजन नहीं, आत्मा परमाणु द्वारा निर्मित है। ये परमाणु मृत्यु के समय बिखर जाते हैं, अतः भावी जीवन की कल्पना करना व्यर्थ है। भावी जीवन के अभाव में हमें मृत्यु के बाद दण्ड के भय से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं।
एपिक्यूरस के दार्शनिक विचारों को हम दो प्रमुख भागों में विभाजित कर सकते-
१.ज्ञान सिद्धान्त, २. नीति सिद्धान्त
१. ज्ञान सिद्धान्त :
एपिक्यूरस के दर्शन में दार्शनिक ज्ञान को शीर्ष ज्ञान माना गया है। इसका कारण यह है कि दर्शनशास्त्र में ही हम धर्म तथा सदगण के विषय में विचार करते हैं। इससे स्पष्ट है कि दर्शन का महत्व नीतिशास्त्र के कारण है। भौतिकशास्त्र, तर्कशास्त्र आदि में हम सद्गुण पर विचार नहीं करते। अतः ये शास्त्र दर्शन (नीतिशास्त्र) के समान महत्वपूर्ण नहीं। प्रश्न यह है कि ज्ञान क्या है तथा इसकी प्रामाणिकता क्या है? एपिक्यूरस का कहना है कि ज्ञान तो सत्य का सिद्धान्त है। ज्ञान का साधन सत्य प्राप्ति का साधन या मार्ग है| यह साधन या मार्ग केवल इन्द्रिय है, अर्थात् ज्ञान इन्द्रियजन्य है| इन्द्रियों के माध्यम से ही हमें संवेदनाएँ प्राप्त होती है। ये संवेदनाएँ ही ज्ञान हैं। इनके अतिरिक्त कोई अतीन्द्रिय सत्य या ज्ञान मनुष्य को नहीं होता। इन्द्रियों की सीमा को पार करना तो असत्य ज्ञान प्राप्त करना है। इस प्रकार ज्ञान की प्रामाणिकता भी इन्द्रियों की संवेदनाओं पर ही निर्भर है। जिसकी संवेदना हमें नहीं होती, वह मेरे लिए असत्य है। इस प्रकार ज्ञान की उत्पत्ति तथा इसकी प्रामाणिकता दोनों संवेदनाजन्य हैं।
२. नीति सिद्धान्तः
एपिक्यूरस के अनुसार सुख प्राप्ति और दुःख-परिहार ही मानव के कर्त्तव्य का मूल है। हम कोई कार्य इसलिए करते हैं कि हमें सुख मिले और दुःख न मिले| अतः सुख का भाव और दुःख का अभाव ही हमारे कर्म के प्रेरकतत्व हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये ही दो मानव कर्म के मूल प्रेरक तत्त्व माने जाते हैं। अतः एपिक्यूरस का नीति-सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक सुखवाद (Psychological Hedonism) प्रतीत होता है। परन्तु वास्तव में इनका नीति-सिद्धान्त नैतिक सुखवाद (Ethical Hedonism) है। अपने नैतिक सुखवाद को सिद्ध करने के लिए ये निम्न लिखित तर्क देते हैं:-
(क) संसार के सभी मनुष्य स्वभाव से ही सुख चाहते है तथा दुःख नहीं चाहते। अतः सुख और दुःख का विचार ही मूल प्रेरक तत्व है। यही सुखवाद है।
(ख) यद्यपि सुख और दुःख की भावना से ही हम प्रेरित होकर कोई कार्य करते हैं; परन्तु हमारा लक्ष्य केवल वर्तमान सुख का उपभोग ही नहीं होता, हम केवल सद्यः सुख ही नहीं चाहते, हम भविष्य में भी सुख ही चाहते हैं। अतः हम शाश्वत सुख की भी कामना करते है। भविष्य तथा शाश्वत सुख की कामना में हमें तर्क या बुद्धि से भी काम लेना पड़ता है। हम बुद्धि से विचार करते हैं कि वस्तुतः सद्यः सुख या वर्तमान का सुख ही नहीं वरन् भविष्य में रहने वाला सुख ही वांछनीय है।
भविष्य में भी रहने वाला सुख शाश्वत या दीर्घकालीन है, इसमें स्थिरता अधिक है। इससे एपिक्यूरस यह निष्कर्ष निकालते हैं कि बौद्धिक सुख (शाश्वत सुख), शारीरिक सुख (सद्यः सुख) की अपेक्षा वांछनीय है। यह एपिक्यूरस का सिरेनिक सम्प्रदाय से भेद है। सिरेनिक सम्प्रदाय वर्तमान सुख को ही लक्ष्य बतलाता है। एपिक्यूरस वर्तमान के साथ-साथ भविष्य सुख, क्षणिक के साथ-साथ शाश्वत सुख को भी लक्ष्य बतलाते।
(ग) एपिक्यूरस का नैतिक सुखवाद विवेकमूलक है। विवेक प्रधान होने के कारण इनका सुखवाद सिरेनिक सम्प्रदाय के भावनामूलक सुखवाद से भिन्न है। एपिक्यूरस का कहना है कि ‘सद्गुण’ होना ही व्यक्ति में सबसे बड़ा नैतिक गुण है। परन्तु सद्गुण’ को प्राप्त करने में विवेक का बड़ा योग है। विवेक के बिना मनुष्य सद्गुण को नहीं प्राप्त कर सकता। विवेक से ही हम सुख के साधनों में चयन कर है तथा जिस कार्य से अधिकतम सुख प्राप्त हो उसे करते हैं। अधिकतम सख में वर्तमान और भविष्य (दोनों) के सुख सम्मिलित हैं।अधिकतम सुख के निर्धारण में विवेक का हाथ है। अतः विवेक सर्वोच्च सद्गुण है।
(घ) एपिक्यूरस का नैतिक सुखवाद व्यक्ति और समाज दोनों के सुख को लक्ष्य मानता है इसके अनुसार व्यक्ति को सुख तभी मिल सकता है जब व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों को दुःख न दे तथा अन्य सामाजिक व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष को दुःख न दें। अतः व्यक्ति का सुख सामाजिक सुख का ही एक भाग है। इस प्रकार एपिक्यूरस सामाजिक सुख को भी वाञ्छनीय मानते हैं।
स्टोइस सम्प्रदाय(The Stoics)
स्टोइकवाद एपिक्यूरसवाद का पूर्णतः प्रतिवाद (Antithesis) है। इस सम्प्रदाय के जन्मदाता जीनो (Zeno) थे| जीनो का जन्म ई. पू. ३४२ में सीटियम नगर में हुआ था। ये पार्मेनाइडिज के शिष्य जेनो से भिन्न व्यक्ति थे। सुकरात तथा एण्टिथेनीज के दार्शनिक विचारों से ये अत्यन्त प्रभावित थे। सुकरात के समान इनका भी मुख्य उद्देश्य मनुष्य को नैतिक बनाना था। नैतिक कार्य बौद्धिक है। बुद्धि के अनुसार जीवनयापन करना ही सद्गुण (Virtue) है।
सद्गुणों की प्रप्ति में ही जीवन का परम शुभ निहित है। सांसारिक धन, यश आदि का जीवन में कोई महत्व नहीं। बुद्धिमान व्यक्ति इच्छाओं द्वारा नहीं वरन् बुद्धि द्वारा नियन्त्रित होता है। मनुष्य को विवेक या बुद्धि द्वारा सामान नियमों को जानकर उनके अनुसार जीवनयापन करना चाहिए। अतः विवेक के अनुसार जीवन-यापन करना ही नैतिकता का आधार है। सद्गुण केवल नैतिक कार्य है जो बुद्धि पर आधारित है। बुद्धि का आदेश है कि हमें सत्कर्मों द्वारा सदगुणों की प्राप्ति करनी चाहिए। सद्गुणों की प्राप्ति से मनुष्य यथार्थ आनन्द प्राप्त कर सकता है। स्टोइक विचारकों के अनुसार शुभ ही एकमात्र सद्गुण है तथा अशुभ ही एकमात्र दुर्गुण है। सद्बुद्धि नियमों पर आधारित है, अतः स्टोइक मत में नैतिकता बौद्धिक है।
स्टोइक दर्शन में सबसे प्रमुख विचार नीति-सिद्धान्त है। इनका नीति-सिद्धान्त एपिक्यूरस के नैतिक विचारों के विरुद्ध है। एपिक्यूरस सुख के भाव तथा दुःख के अभाव को मनुष्य के कार्यों का प्रेरक तत्त्व मानते हैं। हम कोई कार्य इसलिए करते है कि हमें सुख मिले और दुःख न मिले। अत: नैतिकता की आधारशिला तो सुख-दुःख की भावना है। इस प्रकार नीति शास्त्र का सम्बन्ध भावनाओं (Feelings) से है। स्टोइक सम्प्रदाय के अनुसार नैतिकता भावनाजन्य नहीं, वरन् विवेकजन्य है। दसरे शब्दों में, नैतिक नियम बौद्धिक है। हमारी बुद्धि हमें स्वाभाविक या प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने को बतलाती है। अतः प्राकृतिक जीवन ही नैतिक जीवन है, वाञ्छनीय है। प्रश्न यह है कि प्राकृतिक जीवन क्या है? स्टोइक सम्प्रदाय के अनुसार प्राकृतिक जीवन का अर्थ प्राकृतिक नियमों से है, जिनकी अभिव्यक्ति मानव समाज में होती है।
प्रकृति ने मानव को जीने का अधिकार दिया है। मानव चेतन प्राणी होने के कारण इस अधिकार का उपभोग करता है। मनुष्य में यह चेतना ही विवेक है। अतः विवेकपूर्वक जीवन ही प्राकृतिक जीवन है। स्टोइक सम्प्रदाय का प्रसिद्ध कथन है। कि हमें प्रकृति का अनुगमन करना (Follow nature) चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हमें विवेकपूर्वक कार्य करना चाहिए (Act rationally) तथा विवेकपूर्ण जीवनयापन करना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक अवस्था का अर्थ अविवेकी या अनियमित अवस्था नहीं है। अपनी प्रकृति के अनुसार वही जीवनयापन कर सकता है जो प्रकृति के नियमों को समझे। इस प्रकार विवेकपूर्वक नियमित जीवनयापन करना ही नैतिक जीवन है।
स्टोइक सम्प्रदाय के अनुसार शुभ का सम्बन्ध विवेक से है और विवेक का सम्बन्ध प्रकृति से है। अतः नैतिक दृष्टि से शुभ वही है जो विवेकपूर्ण हो तथा प्रकृति के अनुकूल हो। शुभ को ही वे सद्गुण मानते हैं। उनकी दृष्टि से व्यावहारिक बुद्धि, न्याय, साहस आदि सभी सद्गुण हैं, नैतिक दृष्टि से शुभ है। इसके विपरीत मूर्खता अन्याय, कायरता आदि सभी अनैतिक हैं, अशुभ हैं। इससे पता चलता है कि सद्गुण और दुर्गुण, शुभ और अशुभ, नैतिक और अनैतिक एक दूसरे के नितान्त विरोधी हैं। स्टोइक सम्प्रदाय का कहना है कि किसी भी अवस्था में नैतिक सद्गुण ही वाञ्छनीय है तथा शुभ है। इसके विपरीत अनैतिक अशुभ है तथा अवाञ्छनीय है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्टोइक सम्प्रदाय के नीति-मीमांसा में विवेक को बहुत ही महत्त्व किया गया है। वे बौद्धिक जीवन को ही नैतिक जीवन कहते हैं। हम जानते हैं कि ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है और नैतिक सद्गुणों का सम्बन्ध कर्म से है। परन्तु स्टोइक सम्प्रदाय के अनुसार ज्ञान और कर्म में अभेद है। वही व्यक्ति नैतिक कर्म कर सकता है जो नैतिक नियमों को जानता हो। इन नियमों को न जानना तो अनैतिकता का सूचक है। किसी दृष्टि से ये लोग भी स्वीकार करते हैं कि ज्ञान ही सद्गुण है। अज्ञानी ही अनैतिक, अशुभ तथा पाप कर्म करता है।
सन्देहवाद(Scepticism)
सन्देहवाद के जन्मदाता पाईरो (Pyrrho) माने जाते हैं। इनका जन्म ई. पू. ३६७ में एलिस नामक नगर में हुआ था। इन्होंने अपने नगर में पायोरोनियन नामक संस्था की स्थापना की। पाइरो दार्शनिक सिद्धान्तों में मतभेद को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानवी बुद्धि के लिए निश्चयात्मक ज्ञान असम्भव है। हमारा ज्ञान केवल वस्तु की प्रतीति तक सीमित है। हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते। यथार्थ ज्ञान के प्रति सन्देह व्यक्त करने के कारण ही इन्हें सन्देहवादी कहते हैं। इस मत के अनुसार हमें श्वेत रंग की प्रतीति हो रही है, परन्तु वस्तुतः वह वस्तु श्वेत है या नहीं, हम नहीं कह सकते। तात्पर्य यह है कि हमारी प्रतीति तथा वस्तु के स्वरूप में संवाद का कोई निश्चय नहीं। पाइरो की कोई रचना उपलब्ध नहीं। उनके सिद्धान्तों का पता हमें उनके शिष्य टाइमस से लगता है। टाइमस के अनुसार जीवन को आनन्दमय बनाने के लिये मनुष्य को तीन बातों पर विचार करना चाहिए:-
१. वस्तु क्या है, अर्थात् इसका स्वरूप क्या है?
२. वस्तु का हमसे क्या सम्बन्ध है, अर्थात् हमें वस्तु के प्रति कैसा दृष्टिकोण . रखना चाहिए?
३. वस्तु के प्रति किसी दृष्टिकोण से क्या लाभ है? इनमें प्रथम प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि वस्तु के यथार्थ स्वरूप की हमें जानकारी नहीं है। हमारा ज्ञान तो वस्तु की प्रतीति तक सीमित है। दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि सापेक्षता ही वस्तु के प्रति हमारा दृष्टिकोण है। हम केवल यही कह सकते हैं कि अमुक वस्तु ऐसी प्रतीत होती है। तीसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि वस्तु के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण से आत्मसंयम का लाभ होता है तथा आत्मसंयम से वैराग्य लाभ होता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानने के कारण व्यक्ति वस्तु को शुभ या अशुभ नहीं कह सकता।
नव्य-प्लेटोवाद(Neo-Platonism)
यह प्लेटो के मत का पुनरुद्धार है। इसके संस्थापक प्लेटाइनस हैं। इनका जन्म २०४ ई. में मिस्र के लाइकोपोलिस (Lycopolis) नगर में हुआ था। ये महान् दार्शनिक अम्मोनियम सैकस के शिष्य थे। २४४ ई. में ये रोम गये और वहाँ एक संस्था की स्थापना की तथा आजीवन इसके अध्यक्ष बने रहे। २७० ई. में कैम्पेनिया (Campania) में इनकी मृत्यु हो गयी।
प्लोटाइनस के अनुसार ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् का आधार है। वह ईश्वर एक, अनन्त, अविनाशी है। ईश्वर अनन्त होने के कारण वर्णनातीत है। ईश्वर के विषय में हम इदमित्थं रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। प्लोटाइनस ईश्वर को अनिर्वचनीय कहते हैं। ईश्वर शुद्ध, सत्, निर्गुण, निर्विकार और निराकार है। वह अन्तर्यामी (Immanent) भी है और विश्वातीत (Transcendent) भी है। वह प्लेटो का विज्ञान स्वरूप शिवतत्व है| सृष्टि इसका शरीर है और यह सृष्टि की आत्मा है। इसके बाहरकुछ नहीं। इस वर्णन से ईश्वर के दो रूप स्पष्ट हैं:-
१. ईश्वर ही परम तत्त्व है, वह नित्य तथा कूटस्थ है।
२. असीम ईश्वर ही सभी वस्तुओं का कारण है। ईश्वर का प्रथम रूप तो निर्गुण, निराकार है। इससे सृष्टि सम्भव नहीं। दूसरे रूप में ईश्वर जगत् का कर्ता होना सिद्ध होता है। अकर्ता और जगत् कर्त्ता में विरोध स्पष्ट है। प्लोटाइनस ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया है। अतः उनके दर्शन में यह स्पष्ट विरोध है। इस विरोध का परिहार प्लोटाइनस ने एक रूपक द्वारा किया है। उनके अनुसार ईश्वर अलौकिक होते हुए भी लौकिक पूर्णता में अपने को उत्प्रवाहित करता है। अत: जगत् ईश्वर का अनिवार्य उत्प्रवाह माना गया है। ईश्वर से सबसे पहले एक किरण उत्पन्न होती है तथा किरण ही जगत् का रूप धारण कर लेती है। वे ईश्वर को सूर्य रूप मानते हैं जिनसे निरन्तर प्रकाश निकलता रहता है, ईश्वर जल-स्रोत है जिससे निरन्तर जल-प्रवाह निकलते रहते हैं।
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