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प्रकार्यवाद का अर्थ तथा अवधारणा क्या है

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प्रकार्यवाद का अर्थ तथा अवधारणा क्या है

प्रकार्यवाद का अर्थ

समाज की विभिन्न निर्णाण इकाइयाँ/तत्व/भाग सामाजिक व्यवस्था/संगठन को व्यवस्थित बनाये रखने हेतु अपनी जिस निर्धारित भूमिका को निभाते हैं अर्थात अपना जो योगदान करते हैं, उसे ही प्रकार्य कहा जाता है। समाज कोई अखण्ड व्यवस्था नहीं  है, क्योंकि इसके अन्तर्गत अनेक इकाइयां, तत्व, भाग या अंग होते हैं। उनसे यह अपेक्ष की है कि वे सामाजिक व्यवस्था/ संगठन को बनाये रखने के लिए अपने का निश्चित कार्य करेंगे। स्पेन्सर के अनुसार, ‘सावयव’ (Organism) एवं समाज (Society) में कछ मलभूत समानताएँ/सादृश्यताएँ पाई जाती हैं, जिन्हें हम प्रकार्यवाद की पर्व मान्यता मान सकते हैं। प्रकार्यवाद पूर्व मान्यताएँ मुख्यतः अधोलिखित हैं –

  1. जिस प्रकार एक सावयव अत्यन्त सरल होता है, उसके विभिन्न अंग परस्पर इतने घुले-मिले हुए होते हैं कि उन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता, किन्तु धीरे-धीरे उसके विभिन्न अंग एवं कार्य स्पष्ट और पृथक होते जाते हैं। उसी प्रकार प्रारम्भ में समाज के विभिन्न अंग (परिवार, राज्य, धर्म, प्रथा, आचार, आदि) एक दूसरे के साथ इतने अधिक घुले-मिले होते हैं कि उन्हें पृथक-पृथक नहीं किया जा सकता है।
  2. सावयव के अंग जैसे-जैसे स्पष्ट और पृथक होते जाते हैं, उनमें कार्यो का विभाजन और विशेषीकरण होता जाता है। इसी प्रकार समाज के विभिन्न अंगों के मध्य भी प्रकार्यों का विभाजन एवं विशेषीकरण होता जाता है। परिवार, राज्य, श्रमिक संघ, कारखाना, धर्म, चर्च, प्रथा आदि सभी के अलग-अलग कार्य होते हैं।
  3. जिस प्रकार सावयव के विभिन्न अंगों के बीच प्रकार्यों का विभाजन और विशेषीकरण होने के बाद भी उनमें अन्तःसम्बन्ध एवं आत्मनिर्भरता बनी रहती है। प्रकार से समाज के विभिन्न अंगों में यह अन्तःसम्बन्ध और आत्मनिर्भरता कायम रहती है।
  4. जिस अनुपात में सावयविक संगठन कम होता जाता है, उसी अनुपात में सावयव के प्रत्येक अंग की दूसरे अंगों पर निर्भरता बढ़ती जाती है। यह अन्तःनिर्भरता कभी-कभी तो सावयव और समाज, दोनों पर ही समान रूप से लागू होती है।
  5. सामाजिक व्यवस्था/संगठन की स्थायित्व एवं निरन्तरता इस बात पर निर्भर है कि प्रत्येक अंग अपने-अपने निर्धारित कार्य को उचित ढंग से करता रहे।
  6. उद्विकास प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, प्रकार्यों की एकमत्यता आदि घनिष्ठ होती जाती है।कम विकसित वैयक्तिक एवं सामाजिक सावयवों में अंगों के प्रकार्य एक-दूसरे पर कम निर्भर होते हैं।

प्रकार्यवाद की अवधारणा

कहा जाता है कि प्रकार्यवाद का बीजारोपण समाजशास्त्रीय प्राणीवाद से हआ। अतः प्राणीवाद सम्प्रदाय ही इसका आधार है। इस सम्बन्ध में नैडेल ने उचित ही लिखा है, “प्रकार्यात्मक व्याख्या का प्राथमिक प्रारूप प्राणीशास्त्रीय प्रकार की व्यवस्था है। प्रकार्यवादी सम्प्रदाय के सच्चे जन्मदाता प्राणावादी ही है।’ प्रकार्यवादी सम्प्रदाय के अग्रदत हरबर्ट स्पेन्सर और अलबर्ट शैफिल माने जा सकते हैं। अन्य बाद के विद्वानों ने इनके आधार पर ही प्रकार्यवाद को विकसित किया है। प्राणीशास्त्र से अनेक उदाहरण स्पेन्सर ने दिये हैं तथा वह समाज को एक प्राणी के रूप में मानता है । यद्यपि स्पेन्सर की पद्धति भिन्न थी, पर उसने आधुनिक प्रकार्यवाद के सम्बोध (Concept) का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया। स्पेन्सर ने डारविन के प्राणीशास्त्रीय उद्वविकास के सिद्धान्त को आधार पर मानकर प्रकार्य आदि के सम्बन्ध में अपने  विचार व्यक्त किये। इसी प्रकार समाजशास्त्रीय प्राणीवादी सम्प्रदाय के अनुयायियों में शेफिल भी एक था। अमेरिका के समाजशास्त्री खास तौर पर स्माइल और कूले पर अत्यधिक प्रभाव शैफिल का पड़ा। स्माल ने प्रकार्यवाद के प्रत्ययों की ओर संकेत किया।

स्माल ने उपर्युक्त दो सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “सामाजिक संरचना और सामाजिक प्रकार्य के सम्बन्ध या इसी प्रकार के अन्य सम्बोधन सामाजिक वास्तविकता के विश्लेषण के लिए अनिवार्य हैं। ये सम्बोधन सामाजिक सिद्धान्तों के लिए मूल्यवान हैं।

प्रकार्यात्मकता को स्पष्ट करते हुए मैलिनोवास्की ने लिखा है कि “प्रकार सदैव प्रकार्य के द्वारा निश्चित होता है और जब तक इस प्रकार का निश्चायक सम्बन्ध निश्चित नहीं हो जाता है, ‘प्रकार’ के तत्त्व वैज्ञानिक तर्क में प्रयोग नहीं किये जा सकते व्यर्थ हैं।” असम्बन्धित तथ्यों के प्रत्यय जिनका मौलिक रूप से सम्बन्ध न स्थापित किया जा सके।

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प्रकार्यवाद पर मर्टन के विचारों की व्याख्या

समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी पौधे की प्रतिस्थापना का मूल श्रेय जीवशास्त्री डार्विन की खोज के आधार पर हरबर्ट स्पेन्सर को है। तत्पश्चात् मैलिनोवास्की, रेडक्लिफ ब्राउन तथा नैडेल ने इसे विकसित किया। किन्तु कालान्तर में आधुनिक समाजशास्त्रियों ने मानवशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित प्रकार्यवाद के सिद्धान्त को यथावत् स्वरूप में ग्रहण करने से इंकार कर दिया क्योंकि प्रकार्यवाद में काफी कुछ कमियाँ भी उपस्थित हैं। इस प्रकार्यवाद की आलोचना करने वालों में आर. के. मर्टन, टॉलकॉट पारसन्स तथा लेनी इत्यादि समाजशास्त्रियों के नाम प्रमुख हैं। इन लोगों ने प्रकार्यवाद की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर प्रस्तुत की है-

(1) मर्टन के विचारानुसार प्रकार्यवादियों की यह धारणा असत्य है कि सामाजिक ढांचे की समस्त इकाइयां कोई न कोई उपयोगी कार्य अवश्य करती है। यह भी सम्भव है कि कोई इकाई प्रकार्य के बजाय अकार्य करती हो और परिणामस्वरूप सामाजिक ढाँचे को संगठित करने के बजाय विघटन कर रही हो। यह भी सम्भव हो सकता है कि कुछ इकाइयाँ प्रकार्य-अकार्य न करके नकार्यात्मक (Non-function) स्थिति में रहकर सामाजिक संरचना या ढांचे में अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे हों।

(2) मर्टन ने सार्वभौमिक प्रकार्यवाद की धारणा का भी विरोध किया है। जिसका संक्षिप्त अर्थ यह है कि एक इकाई के प्रकार्य सभी समाजों में समान होते हैं। मर्टन के मतानुसार सभी इकाइयों के प्रकार्यात्मक परिणाम सभी समाजों पर नहीं लागू होते हैं। सामाजिक ढांचे की भिन्नता के कारण इकाइयों के प्रकार्यों में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जा सकती है।

(3) मर्टन का यह भी आक्षेप है कि प्रकार्यवादियों की यह धारणा है कि एक सामाजिक इकाई के द्वारा एक ही प्रकार्य सम्भव है, नितान्त भ्रामक और असत्य है क्योंकि यह भी सम्भव है कि एक ही इकाई के द्वारा एक से अधिक कार्य भी किये जायें और इसी के साथ-साथ एक ही तरह के काम करने वाली एक से अधिक इकाइयाँ विकल्प के रूप में सामाजिक ढांचे के सम्मुख उपस्थित हों।

(4) प्रकार्यात्मक व्याख्या की एक अन्य कमी यह है कि इसमें इकाइयों के केवल कुछ विशिष्ट व सतही तौर पर दिखाई पड़ने वाले प्रकार्यों- (Functions) का ही अध्ययन, हो सकता है। मर्टन के मतानुसार अन्य प्रकार्यों(अन्तर्निहित कार्य) का अध्ययन नहीं होता है। इस प्रकार प्रकार्यवादियों का अध्ययन सम्पूर्ण नहीं होता। यह बात संरचनातमक प्रकार्यात्मक पद्धति में सम्भव नहीं होती है।

(5) प्रकार्यवादी समस्त इकाइयों के प्रकार्यों का अध्ययन संरचनात्मक सन्दर्भ या परिप्रेक्ष्य से पृथक करते हैं। यह बात कदापि उचित नहीं है, क्योंकि आधुनिक समाजशास्त्र का यह अभिमत है कि इकाइयों में प्रकार्यों की वास्तविकता सरचनात्मक सन्दर्भ में भलीभाँति ज्ञात की जा सकती है।

(6) प्रकार्यवादी दृष्टिकोण तुलनात्मक अध्ययन हेतु भी उपयुक्त नहीं है। इस आलोचना का मुख्य आधार यह है कि दो इकाइयों के प्रकायों का तुलनात्मक अध्ययन सरचनात्मक सन्दर्भ की अनुपस्थिति में वास्तविक, यथार्थ और वैषयिक न होगा, क्योंकि किसी इकाई के वास्तविक प्रकार्य को समझने के लिए संरचनात्मक सन्दर्भ की नितान्त आवश्यकता होती है।

(7) दुखीम का आरोप है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण मात्र एक सामाजिक घटना का आवश्यकता या उद्देश्य को ही प्रकट करता है। यह उचित नहीं है, क्योंकि घटना के आस्तत्व का क्या कारण है? इसकी व्याख्या करना पहले आवश्यक होगा न कि परिणाम अथवा प्रकार्यात्मक विश्लेषण।

(8) दुखीम ने श्रम-विभाजन के अस्वाभाविक रूपों का विश्लेषण करके यह सिद्ध किया है कि कभी-कभी प्रकार्य इकाई से पृथक होकर स्वतन्त्र हो जाता है अर्थात् एक ही प्रकार्य को अनेक इकाइयों करने लगती है। इस परिस्थति में यह समस्या उत्पन्न होती है कि उस प्रकार्य को किस इकाई से संबद्ध किया जाना चाहिए। इस आलोचना का  प्रकार्यवादियों के पास कोई उत्तर वास्तव में नहीं है।

(9) प्रकार्यवाद का अन्तिम दोष प्रकार्य प्रथम और इकाई तत्पश्चात् होता है। अर्थात् एक सामाजिक इकाई का अस्तित्व इस हेतु है कि उससे समाज का कोई कार्य होना है। किन्तु यह स्थिति विपरीत भी सम्भव हो सकती है, क्योंकि इकाई समाज में विद्यमान है। इस कारणवश उसका प्रकार्य है। इस तरह से इकाई की उपस्थिति के कारण प्रकार्य का जन्म सम्भव हुआ है। उदाहरणार्थ- मनुष्य के पैर हैं, इसलिए ही वह चलता है। इसलिए नहीं कि चूंकि मनुष्य को चलना है, अतः इसी कारण टांगों की उत्पत्ति सम्भव हुई है।

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प्रकार्यवाद के उपर्युक्त दोषों के ही कारण आधुनिक समाजशास्त्र में संरचनात्मक  प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण (Structure-Functional approach) का विकास सम्भव हुआ है। यह एक वैज्ञानिक पद्धति है, जिसके माध्यम से संरचनात्मक सन्दर्भ में सामाजिक इकाइयों के प्रकार्यों की व्याख्या और विवेचना की जाती है।

 

संरचनात्मक प्रकार्यवाद का अर्थ

सामान्यतः ‘प्रकार्य’ का अर्थ समाज या समूह द्वारा किये जाने वाले कार्य या उसने योगदान से लगाया जाता है। किन्तु समाजशास्त्र में प्रकार्य का अर्थ सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को व्यवस्थित बनाये रखने तथा अनुकूलन करने में उसकी इकाइयों द्वारा जो  सकारात्मक योगदान दिया जाता है से लगाया जाता है। प्रकार्य की अवधारणा को शरीर के उदाहरण से स्पष्टतः समझा जा सकता है- शरीर की सरंचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों या अंगो, यथा- हाथ, पैर, नाक, कान, हृदय, फेफड़े, नेत्र, आदि से मिलकर होता है। शरीर के विभिन्न अंग शरीर व्यवस्था को बनाये रखने में अनुकूलन में जो योगदान  देते हैं ,जो कार्य वे करते हैं उसे ही इन इकाइयों  का प्रकार्य कहते है।अतः हम यह कह सकते हैं कि, ” प्रकार्य समाज तथा संस्कृति की इकाई का वह योगदान है, जो कि इनकी निरन्तरता एवं व्यवस्था बनाये रखने में सहायक होता है। प्रकार्य द्वारा सामाजिक इकाई समाज की आवश्यकताओं को सामंजस्य तथा अनुकूलन करने में सहायक होती है।”

प्रकार्यवादी सावयवी एकता पर आधारित एक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि समाज एक ऐसी संगठित तथा आत्म-अनुरक्षित व्यवस्था विरोधी परिवेश की स्थिति में भी सन्तुलन बना रहता है। प्रकार्यवाद इस अवलोकन आधार पर आगे बढ़ता है कि समाज में व्यवहार संरचित है अर्थात समाज के सदस्यों के बीच सम्बन्ध नियमों के रूप में संगठित होते है, अतः सामाजिक सम्बन्ध प्रतिमानित एवं निरन्तर बने रहने वाले होते हैं। प्रकार्यवाद समाज को अन्तःसम्बन्धित भागों की एक ऐसी स्वचालित व्यवस्था के रूप में देखने का एक सरल दृष्टिकोण या उपागम है, जिसके निर्णायक भागों के सामाजिक सम्बन्धों में संरचना तथा वस्तुनिष्ठ नियमितता पाई जाती है।। यह एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है, जो किसी सामाजिक तत्त्व या सांस्कृतिक प्रतिमान की व्याख्या किसी अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों एवं सम्पूर्ण व्यवस्था के लिये उसके परिणामों के संदर्भ में खोजता है। यह इस बात पर भी बल देता है कि हमें किसी भी सामाजिक घटना को पूर्णतः अलग-अलग न देखकर, उसे व्यवस्था के एक अंग के रूप में ही देखना-समझना चाहिये । व्यवस्था के निर्णायक अंग या भाग व्यवस्था को बनाये रखने में जो योगदान देते हैं, उनका भी अध्ययन किया जाना चाहिये।

वर्तमान समय में यह उपागम ‘संरचनावाद प्रकार्यवाद‘ कहलाता है। समाजशास्त्र में संरचनात्मक प्रकार्यवादी उपागम को मर्टन, पारसन्स, आदि ने विशेष रूप से प्रश्रय दिया। इस उपागम को सर्वाधिक प्रसिद्धि डेविस एवं मूर के स्तरीकरण के प्रकार्यात्मक विश्लेषण से प्राप्त हुई संरचनात्मक प्रकार्यवाद विभिन्न अवधारणाओं पर आधारित है, यथा –

1. प्रकार्य, अकार्य तथा दुष्प्रकार्य,

2. प्रकट और प्रच्छन्न प्रकार्य,

3. बहुप्रकार्य,

4. प्रकार्यात्मक विकल्प, प्रकार्यात्मक समतुल्य और प्रकार्यात्मक अनुकल्प,

5. प्रकार्यात्मक पूर्व-आवश्यकतायें तथा व्यवस्था की आवश्यकतायें,

6. समायोजन और एकीकरण।

 

 

इन्हें भी देखें-

 

 

 

 

 

 

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