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संस्कृतिकरण का अर्थ | संस्कृतिकरण पर निबंध

इस पोस्ट में हम लोग संस्कृतिकरण किसे कहते हैं?, संस्कृतिकरण क्या है?, संस्कृतिकरण का अर्थ एवं परिभाषा क्या है,संस्कृतिकरण की अवधारणा,संस्कृतिकरण प्रमुख विशेषताओं आदि के बारे में अध्ययन करेंगे।

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संस्कृतिकरण का अर्थ एवं परिभाषा

भारत में सामाजिक परिवर्तन के विश्लेषण के सम्बन्ध में कुछ अवधारणाओं का विकास हुआ है, जिनमें भारतीय समाजशास्त्री डा0 एम0 एन0 श्रीवास्तव की संस्कृतिकरण की अवधारणा विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इस अवधारणा की रचना डा0 श्रीनिवास द्वारा मैसूर के ‘रामपुरा’ नामक गाँव के अध्ययन के दौरान की गई। डॉ० श्रीनिवास ने इसको परिभाषित करते हुए लिखा है, “यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अनुसार निम्न हिन्दू जातियाँ या जनजातीय समूह उच्च या द्विज कही जाने वाली जातियों की दिशा में अपनी पृथाओं, संस्कारों, विचारों एवं जीवन शैली को बदलने का प्रयत्न करती हैं। संस्कृतिकरण समाज के सांस्कृतिक प्रतिमान के संदर्भ में अर्थात् प्रभु जाति के संदर्भ में सामाजिक परिवर्तन का एक आन्दोलन है।”

श्रीनिवास के अनुसार निम्न जातियाँ उच्च जातियों के जीवन प्रतिमानों और संस्कारों को इसलिए अंगीकार करती हैं, ताकि सामाजिक स्तरीकरण में वे अपनी सामाजिक प्रस्थिति को ऊँचा उठा सकें। वे उन आदतों तथा संस्कारों को त्यागने का प्रयास करती हैं, जिनको हेय समझा जाता है यथा – ठर्रा (देशी शराब पीना) यो गोमांस खाना, आदि। श्रीनिवास ने जाति की प्रक्रिया को व्यक्त करने के लिए ‘संस्कृतिकरण’ के सम्प्रत्यय का प्रयोग किया है। उन्होंने बताया है कि हिन्दओं की जाति प्रथा उस कठोर प्रणाली से काफी दूर है, जिसमें अत्यक घटक जाति की स्थिति सदैव के लिए निश्चित कर दी जाती है। जाति प्रथा में सदैव तशीलता सम्भव रही है और विशेष रूप से मध्य जातियों में।

प्रारम्भ में डॉ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को इन शब्दों में परिभाषित किया, “एक नम्न जाति एक अथवा दो. पीढ़ियों में शाकाहारी बनकर, मद्यपान को छोड़कर और अपने कर्मकाण्ड तथा देवगण का संस्कृतिकरण करके स्तरीकरण की प्रणाली में अपनी प्रस्थिति ऊंची उठाने में समर्थ हो जाती है। संक्षेप में वह यथासम्भव ब्राह्मणीय  की प्रथाओं, अनुष्ठानों एवं विश्वासों को अपना लेती है। सामान्यतः निम्न जातियों द्वारा ब्राह्मणीय जीवन प्रणाली को प्रायः अपना लिया जाता है, यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से यह वर्जित था।”

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श्रीनिवास ने उक्त परिभाषा को आगे चलकर पुनः संशोधित करते हुए कि संस्कतिकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दु जाति या कोई या कोई अन्य समूह किसी उच्च एवं प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा एवं पद्धति को बदलता है। सामान्यतः ऐसे परिवर्तनों के निम्न जाति, जातीय स्तरीकरण की प्रणाली में स्थानीय समुदाय में उसे परम्परागत से रूप जो प्रस्थिति प्राप्त है, उससे उच्च प्रस्थिति का दावा करने लगती है। सामान्यतः बहुत दिनों तक बल्कि वास्तव में एक-दो पीढ़ियों तक दावा किए जाने के पश्चात ही स्वीकृति मिलती है।”

संस्कृतिकरण की यह परिभाषा इसके पहले की परिभाषा की अपेक्षा अधिक व्यापक है, क्योंकि इसमें संस्कृतिकरण के केवल ब्राह्मणीय आदर्श को ही नहीं, बल्कि अन्य आदर्शो को भी सम्मिलित किया गया है। डा० योगेन्द्र सिंह ने संस्कृतिकरण के प्रत्यय पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस अवधारणा के दो पक्ष हैं – ऐतिहासिक तथा सन्दर्भात्मक। ऐतिहासिक सन्दर्भ में समाज के इतिहास में संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया रही है, जबकि सन्दर्भात्मक अर्थ में सापेक्षिक भाव में संस्कृतिकरण परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।

संस्कृतिकरण की प्रमुख विशेषताएँ

संस्कृतिकरण की अवधारणा को इसकी निम्नलिखित विशेषताओं के आधार पर और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है –

  1. संस्कृतिकरण का सम्बन्ध निम्न जातियों से है, अर्थात जब कोई निम्न जाति  द्विज जातियों या प्रभु जाति की प्रथाओं, परम्पराओं, देवी-देवताओं, संस्कारों, विचारों, जीवन शैली को अपनाकर जाति स्तरीकरण को ऊँचा उठने का प्रयास करती है, तो उसे संस्कृतिकरण कहते हैं।
  2. संस्कृतिकरण मात्र हिन्दू जातियों तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि कई जनजातियो  और अर्द्ध जनजातीय समूहों में भी यह प्रक्रिया पाई जाती है। जो जनजाति संस्कृतिकरण करती है, वह धीरे-धीरे एक जाति होने का दावा करने लगती है तथा अपने को हिन्दु मानने लगती है। पश्चिमी भारत के भीलों, मध्य भारत के गोण्डों हिमालय के पहाड़ी लोगों ने। हिन्दुओं की जीवन शैली अपनाने का प्रयास किया है।
  3. संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता को व्यक्त करने वाली प्रक्रिया है, अर्थात् यह प्रक्रिया संस्कृतिकरण करने वाली जाति में केवल ‘पदमूलक’ (Positional) परिवतन करती यानी वह जाति अपने आसपास की जातियों से ऊपर उठ जाती है तथा दूसरी नीचे आ जाती है। किन्तु यह सब अलग सोपान में ही होता है। स्वयं व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप अलग-अलग जातियाँ तो ऊपर या नीचे आई, किन्तु सम्पूर्ण ढाँचा वैसा ही बना रहा। डॉ० श्रीनिवास ने इस तथ्य की दृष्टि हेतु इतिहास से कई उदाहरण भी प्रस्तुत किए।
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