शुभ, आनन्द और सन्तुलित जीवन (Good Pleasure and Harmonious Life)
अन्त में एक आवश्यक प्रश्न यह है कि प्लेटो के अनुसार शुभ क्या है? किस कार्य को हम नैतिक दृष्टि से शुभ या उचित कह सकते है? इस सम्बन्ध में हमने पहले सिरेनाइक और सिनिक सम्प्रदाय के मत का उल्लेख किया है। इन सम्प्रदायों की मान्यता है कि व्यक्तिगत सुख ही शुभ है, अर्थात् जिस कार्य से व्यक्ति को सुख मिले वही कार्य व्यक्ति के लिए शुभ है। यह इन्द्रियजन्य भौतिक सुख है। ठीक इसके विपरीत अन्य लोगों ने इन्द्रिय सुख की अवहेलना की है। उनके अनुसार बौद्धिक सुख या आनन्द ही यथार्थ सुख है। अतः जिस कार्य से बौद्धिक आनन्द की प्राप्ति हो वही कार्य शुभ है। प्लेटो इन दोनों मतों को एकांगी (One sided) बतलाते हैं तथा अन्त में दोनों का समन्वय संतुलित जीवन में करते हैं ।
प्रश्न यह है कि शुभ क्या है? कुछ लोग इन्द्रिय सुख को ही शुभ मानते है। तात्पर्य यह है कि जिस कार्य से इन्द्रियों को सुख प्राप्त हो वही कार्य शुभ है, उचित है। प्लेटो इन्द्रिय, भौतिक सुख को यथार्थ सुख नहीं मानते। इन्द्रिय सुख के विरुद्ध प्लेटो के तर्क निम्नलिखित है-
(क) शुभ स्वतः शुभ है। यह किसी वस्तु की अपेक्षा से शुभ नहीं होता। यदि शुभ की सत्ता वस्तु के अधीन हो तो वह निरपेक्ष और स्वतन्त्र शुभ नहीं। यदि वह सापेक्ष और परतन्त्र है तो सर्वमान्य शुभ नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि शुभ सबके लिए शुभ है। सबका शुभ किसी व्यक्ति या वस्तु की अपेक्षा नहीं करता।
(ख) इन्द्रिय सुख को शुभ नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि इन्द्रिय-सुख का स्वरूप भिन्न भिन्न है। किसी वस्तु से हमारी इन्द्रियों को सुख मिल सकता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि उसी वस्तु से दूसरे की इन्द्रियों को भी वैसा ही सुख मिले। इसका कारण यह है कि इन्द्रिय सुख का स्वरूप भिन्न भिन्न है। अत: इन्द्रिय सुख को सर्वमान्य नहीं स्वीकार किया जा सकता। इन्द्रियों का कोई ऐसा विषय नहीं जो सभी को समानत. सुखद प्रतीत हो।
(ग) इन्द्रिय-सुख दुःख से उत्पन्न होता है। प्राय: सभी भौतिक सुख दुःख से उत्पन्न होते हैं। हम किसी कमी या अभाव का अनुभव करते है। यह दुःख या पीडा की स्थिति है। इस अभाव को दूर करते हैं तो अभाव भाव में, दुःख सुख में बदल जाता है। इस प्रकार का सुख शुभ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शुभ की अपनी सत्ता है। यह मानव मात्र का लक्ष्य है। यह किसी अभाव या कमी से नहीं उत्पन्न होता। अतः शुभ मूलतः भाव पदार्थ है। भाव पदार्थ होने का कारण ही यह मानव मात्र का लक्ष्य होता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इन्द्रिय सुख शुभ नहीं। भौतिक सुख हमारे कार्यों का मापदण्ड नहीं हो सकता। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि शुभ का स्वरूप बौद्धिक है। तात्पर्य यह है कि बौद्धिक सुख अर्थात् आनन्द ही शुभ है, कार्यो का नैतिक मापदण्ड है। बौद्धिक सुख व्यक्तिगत नहीं, सामान्य सुख है। यह भावनाजन्य नहीं बुद्धिजन्य है। भावनाओं के कारण व्यक्ति व्यक्ति में भेद है, बद्धि या चिन्तन के कारण सभी व्यक्तियों में अभेद है।
विचार या चिन्तन से सभी में एकता है, परन्तु भावनाओं से अनेकता। भावनाओं के वश में होकर ही व्यक्ति व्यक्तिगत तथा इन्द्रिय सुख चाहता है। विचार की दृष्टि से सभी के सुख में समता है। यही सर्वमान्य सुख शुभ है। इससे स्पष्ट है कि हमारे लिये वही कार्य शुभ है जिससे। सबको सुख प्राप्त हो। परन्तु इस सिद्धान्त में एक कठिनाई है।
भावना और बुद्धि के क्षेत्र को बिल्कुल पृथक् कर देना कठिन कार्य है। कोई ऐसा सुख नहीं जिसका सम्बन्ध केवल विचार से हो और इन्द्रियों से नहीं। विचार का जगत् भावनाओं के बिना अधूरा है। सामान्य तथा सर्वमान्य सुख का अनुभव भी व्यक्ति की भावनाओं से ही सम्भव है। कोई भी व्यक्ति केवल सख के विचार से ही सुखी नहीं हो सकता। सुख की सामग्री या उपादान के बिना सख का विचार निराधार है।
सुख की सामग्री हमें इन्द्रियों के माध्यम से ही प्राप्त होती है। अतः इन्द्रियों या भावनाओं की नितान्त उपेक्षा सम्भव नहीं। इन्द्रियों के माध्यम से ही विचार के उपकरण प्राप्त होते हैं। विशेष के बिना सामान्य की सत्ता नहीं।
प्लेटो इन्द्रिय सुख और बौद्धिक एख, भावना और बुद्धि दोनों का समन्वय करत हा प्लेटो के अनुसार संतलित तथा सामञ्जस्य पूर्ण जीवन के लिये दोनों की आवश्यकता है। दोनों का सामजस्य ही सुख है तथा सुख ही शुभ है। प्लेटो के अनुसार कोई सुख कोई अभाव या दःख से ही उत्पन्न होता है। यह इन्द्रिय या भौतिक सुख है।
वह व्यक्तिगत भावनात्मक स्तर का सुख है। परन्तु इससे बढ़कर सामान्य स्तर का सुख है| जिसे बौद्धिक सुख कहते है। यह शुद्ध आनन्द है। यह इन्द्रिय सुख के समान अभाव से उत्पन्न नहीं होता। यह पहले की अपेक्षा श्रेयस्कर है, परन्तु शुभ के लिये दोनों की आवश्यकता है।
इन्द्रिय सुख और बौद्धिक सुख का समन्वय ही जीवन की सुव्यवस्था (Harmonious life) है। सुव्यवस्थित जीवन को ही प्लेटो कल्याणमय (Well-being) बतलाते हैं। केवल वही व्यक्ति सुखी हो सकता है तथा कल्याणमय जीवन व्यतीत कर सकता है जिसके जीवन में संतलन और सुव्यवस्था हो। इस प्रकार जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये या कल्याणमय जीवन व्यतीत करने के लिये इन्द्रिय और बौद्धिक सुख का समन्वय आवश्यक है। प्रश्न यह है कि इस समन्वय तथा सुव्यवस्था में इन्द्रिय सुख और बौद्धिक सुख की मात्रा क्या होगा?
प्लेटो के अनुसार मात्रा का निर्णय विवेक (Wisdom) के अधीन है। तात्पर्य यह है कि हमारा विवेक ही निर्णय कर सकता है कि किस सुख को हमें किस मात्रा में अपनाना चाहिये, जिससे हमारा जीवन सुखी हो, कल्याणमय हो। संक्षेप में, समन्वित तथा सुव्यवस्थित जीवन ही सुखी तथा कल्याणमय जीवन है। यही शुभ है।
अपने शुभ तथा सुख के सिद्धान्त में प्लेटो पूर्णतः समन्वयवादी हैं। वे सिनिक और सिरेनाइक दोनों सम्प्रदाय की मान्यताओं का समन्वय करते हैं। हमने पहले विचार किया है कि इन दोनों की मान्यताएँ नितान्त भिन्न-भिन्न हैं। एक भोग को दूसरा योग को, एक आसक्ति को दूसरा विरक्ति को, एक संसार को दूसरा संन्यास को आदर्श मानता है। प्लेटो इन दोनों का समन्वय करते हैं। आसक्ति और विरक्ति दोनों आवश्यक हैं। किसी की अवहेलना उचित नहीं| वस्तुतः सुखी जीवन समन्वित, सुव्यवस्थित होता है।
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