नृजातीयता (Ethnicity) को ‘प्रजातिकता’ भी कहते हैं। व्यक्तियों के एक ऐसा समूह को नृजातीयता के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो स्वयं अथवा दूसरों के द्वारा यह समझा जाता है कि उसकी कुछ ऐसी सामान्य विशेषताएँ हैं, जो कि उन्हें समाज के अन्य समूहों से अलग करती है। ऐसे समूह का अपना एक अलग विशिष्ट सांस्कृतिक व्यवहार होता है। कभी-कभी ‘नस्ल’ (Race) और नृजातीयता को एक ही समझ लिया जाता है, लेकिन ये दो भिन्न अवधारणाएँ हैं। वास्तव में ‘नृजातीयता’ शब्द की रचना ‘नस्ल’ शब्द के विरोध में हुई है। नस्ल की पहचान के लिए प्राणीशास्त्रीय लक्षणों को प्रयोग किया जाता है, जबकि नृजातीयता की पहचान के लिए नस्लीय लक्षणों के साथ-साथ धर्म, भाषा, व्यवसाय, राजनीति का रूप, आदि सांस्कृतिक विशेषताओं को भी ध्यान में रखा जाता है।
नृजातीय सघर्ष के कारणों की विवेचना
नृजातीय संघर्ष का मुख्य कारण संगठित साम्प्रदायिक संस्थाएँ हैं, जो जनता के इस संघर्ष से जोडने के लिए, सामान्यतः राजनीतिक दलों के समर्थन से आगे आ जाती है। सजातीय संघर्षों से यह संकेत मिलता है कि चाहे भाषा, क्षेत्र, धर्म अथवा इनमें से द्विजातीय संघर्ष का स्पष्ट कारण कोई भी क्यों न हो, किन्तु सांस्कृतिक विषमताएँ, इनका मूल कारण बिल्कुल नहीं है। विरोधी आर्थिक-राजनीतिक हित ही इन संघर्षों के निहित मूल कारण है। प्रायः तनाव तब उत्पन्न होता है, जब अल्पसंख्यक समूह यह अनुभव करता है कि बहुसंख्यक समूह की अपेक्षा इसे आर्थिक या राजनीतिक क्षेत्र में समानता का दर्जा नहीं मिल रहा है। तब वहाँ जिस समूह का प्रभाव होता है, उसके खिलाफ वह समूह अपने नृजातीय समूह को सक्रिय बनाता है और संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। कभी-कभी नृजातीय संघर्ष ऐसे लोगों में भी होते हैं, जिनका लक्ष्य तो एक ही होता है, किन्तु इनके हित अलग-अलग होते हैं।
भारत में नृजातीय संघर्ष के मुख्य कारण धर्म व भाषा ही है। नृजातीय समूहों के बीच विरोध और हिंसात्मक संघर्षों की समस्या का समाधान करने के लिए नृजातीय संघर्ष की संगत एवं प्रभावशाली प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर एक ऐसे सामान्य तथा एकमात्र कारण की खोज करनी होगी, जो दो समूहों के बीच संघर्ष के लिए उत्तरदायी हो। कुछ विद्वानों के अनुसार, जब तक लोगों में आर्थिक असमानताएँ बनी हैं, ये संघर्ष भी बने रहेंगे। लोगों की आर्थिक असमानातों को सरलतापूर्वक दूर नहीं किया जा सकता, अतः ऐसे संघर्षों की रोकथाम करना कठिन है।
कुछ विद्वानों का कथन है कि इन संघर्षों के दूरगामी समाधानों की खोज करने के पहले कुछ तात्कालिक एवं कारगर कदम उठाए जा सकते हैं। जो लोग इसके पक्षधर हैं, उनका मत यह है कि दोनों समूहों में सद्भाव बनाए रखने के लिए सर्वप्रथम संघर्ष को उत्पन्न/भड़काने वाले कारकों/ कारणों की पहचान करना आवश्यक है। ये कारण अफवाह, दूसरे समूहों/समुदायों के प्रति सन्देह की भावना और धार्मिक समूहों के प्रधानों, स्थानीय राजनैतिक दलों और तथाकथित नेताओं द्वारा लोगों में साम्प्रदायिकता की भावनाएँ भड़काना, आदि हो सकते हैं।
ऐसी भावनाओं को नियन्त्रित करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि लोगों को प्रोत्साहित किया जाए, उनके मानसिक दृष्टिकोण को व्यापक बनाया जाए, उनके मन-मस्तिष्क को साम्प्रदायिक भावना से दूर ही रखा जाए तथा दूसरी के प्रति सहिष्णु एवं उदार बनाया जाए। इसके लिए विभिन्न समूहों/समुदायों के लोगों को आपसी बातचीत के लिए प्रेरित किया जाना भी जरूरी है। इससे व्यक्ति को दूसरों को ठीक से समझने में सहायता मिलेगी। साथ-साथ स्वयं की अक्षमताएँ स्पष्ट होगी या जानी जा सकेगी। उन पर नियन्त्रण पाने की सम्भावनाएँ भी उत्पन्न होंगी।
जो विद्वान नजातीय संघर्ष की रोकथाम के इन उपायों के समर्थक है, उनका विचार है कि वे एक दूसरे के सांस्कृतिक समारोहों में अधिकाधिक भाग लें, विशेषकर त्यौहारों तथा दूसरे आयोजनों में, जो लोग उपद्रव (दंगाग्रस्त) क्षेत्रों में निवास करते हैं, उन्हें समझाया जाना चाहिए कि वे उस समय तक अफवाहों पर विश्वास न करें, जब तक उनके पास ठोस प्रमाण/साक्ष्य उपलब्ध न हों, क्योंकि अफवाहों से तनाव बढ़ता है। इसमें साम्प्रदायिक सदभाव बनाए रखने की प्रक्रिया भी अत्यावश्यक है, भले ही वह धीमी और इसके लिए धैर्य की आवश्यकता क्यों न हो।
नृजातिपद्धतिशास्त्र क्या है
समाजशास्त्र में नृजातिपद्धतिशास्त्र को विकसित करने का श्रेय हेराॅल्ड गारफिंकल को है। अध्ययन के इस नए परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्र के चिर-परिचित संरचनात्मक प्रकार्यात्मक उपागम के विरोध में तर्क देकर रूढ़िवादी समाजशास्त्र को नकारा है। इस उपगम का मुख्य उद्देश्य उन पद्धतियों का पता लगाना है, जिसे लोग अपने दैनिक जीवन में अपनी क्रियाओं की विवेचना करने में और उनका अर्थ खोजने में किया करते हैं। व्यक्ति किस तरह से सामाजिक यथार्थ के अन्तर्निहितभाव की रचना करते हैं। उसको बनाए रखने में प्रयुक्त करते हैं। इसकी जानकारी पाने में गारफिंकल की विशेष रुचि थी। सामाजिक स्थितियों में लोग अपनी क्षमताओं का प्रयोग कैसे करते हैं इसको स्पष्ट करने के लिए गारफिंकल ने बाह्य सामाजिक व्यवस्था के प्रभाव पर केन्द्रित समाजशास्त्रीय विचारक, मुख्यततः संरचनात्मक प्रकार्यात्मक उपागम की अत्यन्त ही तीखी आलोचना की है।
भारतीय संविधान में नजातीय समूहों के लिए किए गए प्रावधानों (व्यवस्थाओं) की व्याख्या
भारतीय संविधान में कुछ समूहों को अलग रखते हुए उनके लिए विशेष व्यवस्था की गई, जैसे –
1. अनुसूचित जातियाँ, 2. अनुसूचित जनजातियाँ और 3. सामाजिक शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्ग एवं जातियाँ।
भारत के संविधान में शैक्षणिक संस्थाओं सरकारी रोजगार नौकरियों, राज्य की विधानसभाओं एवं विधान-मण्डलों और संसद में इन स्थान आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संवैधानिक व्यवस्थाएँ पाँच भागों में निहित हैं। ये व्यवस्था जीवन के कई पहलओं से जुड़ी है, यथा – समानता का अधिकार, धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाते हुए सभी नागरिकों को अपने धर्म का खुले आम व्यवहार करने की स्वतन्त्रता दी गई। संविधान के 17वें अनुच्छेद के द्वारा छुआछूत के आचरण को कानूनी अपराध बताया गया, जिसके लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है।
संविधान में यद्यपि अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया, किन्तु उनकी स्वतन्त्रता का उल्लेख मिलता है, क्योंकि किसी भी तरह की निर्योग्यता से मुक्ति को संविधान के मूल अधिकार में सम्मिलित किया गया है। संविधान के अनुसार, कोई भी समूह, जो जनसंख्या के 50 प्रतिशत से कम है, उसे अल्पसंख्यक माना जा सकता है। अल्पसंख्यक अधिनियम में हिन्दू धर्म, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों को मानने वालों को अल्पसंख्यक माना गया है। अल्पसंख्यकों के लिए संविधान में कई प्रावधान किये गये हैं।
संविधान के अधिनियम 15 में धर्म, जाति, प्रजाति, लिंग आदि के बारे में विशिष्ट भेदभाव वाली स्थितियों की व्याख्या मिलती है। इसमें किसी भी भारतीय नागरिक की किसी निर्योग्यता, दायित्व अथवा पूर्व उल्लिखित कारणों की वजह से दमन पर अथवा किसी समूह पर कुछ प्रतिबन्धादि लगाकर उसे रोका गया है। संविधान के अधिनियम 29 (1) में यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति का संरक्षण कर सकता है। इसी तरह अधिनियम 30 (1) धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है कि वे अपनी शिक्षा संस्थाएं चला सकते हैं।
संविधान में अल्पसंख्यकों को गारन्टी दिए जाने का कारण यह है कि इन वर्गों के व्यक्ति भारत में अपनी भाषायी एवं धार्मिक विशिष्टता कायम रख सकें। संविधान निर्माताओ ने यह महसूस किया कि देश के अल्पसंख्यक अलाभकर स्थिति में हैं। अतः उन्हें राष्ट्रीय विकास में भागीदार बनाने के लिए उनका संरक्षण करना आवश्यक होगा। अनुसूचित जाति और जनजाति तथा दूसरे पिछड़े वर्गों/ जातियों के कानून बनाने का अर्थ यह था कि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से वंचित और सुविधाजनक समूहों को भी आगे बढ़ने यानी विकास करने के अवसर उपलब्ध कराए जाएं।
भारतीय समाज में पर्याप्त विविधता और असमानता है। अल्पसंख्यकों के अधिकार अन्य दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए की गई आरक्षण की नीति दोनों ही मुद्दों पर लोगों की संवेदनशीलता वर्तमान समय में भी शान्त नहीं हो पाई है। कई अवसरों पर ये मुद्दे मतभेद उत्पन्न करने वाली बहस और विनाशकारी हिंसा के केन्द्र बिन्दु रहे हैं। आज भी इनकी अग्नि धधक रही है, क्योंकि सरकार अब मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी आरक्षण व्यवस्था उपलब्ध कराने पर विचार करने लगी है।
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इतिहास/History–
- प्राचीन इतिहास / Ancient History in Hindi
- मध्यकालीन इतिहास / Medieval History of India
- आधुनिक इतिहास / Modern History
समाजशास्त्र/Sociology–
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