वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय
शिक्षा शास्त्रियों एवं शिक्षा दार्शनिकों में यह विवाद का विषय उठ खड़ा होता है कि शिक्षा का वैयक्तिक उद्देश्य महत्वपूर्ण है या सामाजिक उद्देश्य। शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों के संकुचित एवं व्यापक अर्थों का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष उभरता है कि अपने-अपने चरम रूपों में दोनों उद्देश्य न तो आवश्यक हैं और न ही वांछनीय कारण स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर वैयक्तिक उद्देश्य के समर्थक व्यक्ति को इसके विशेष व्यक्तित्व हेतु पूर्णरूपेण स्वतंत्रता प्रदान करने का विचार रखते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक उद्देश्य के समर्थक इस पक्ष में हैं कि समाज और राष्ट्र की भलाई और कल्याण के लिए व्यक्ति को सब कुछ न्यौछावर कर देना चाहिए।
व्यक्ति को इतना स्वच्छन्द बना देना कि वह व्यक्ति का शोषण करने लगे, दोनों ही स्थितियाँ उचित नहीं। जब भी व्यक्ति अथवा समाज में से किसी एक को सीमा से अधिक महत्त्व दिया गया, व्यक्ति अथवा समाज को हानि ही उठानी पड़ी है। दोनों उद्देश्यों को संकुचित अर्थ की दष्टि से देखें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि दोनों में समन्वय स्थापित करना असंभव प्रतीत होता है। यदि इन दोनों उद्देश्यों को व्यापक अर्थ के रूप में देखें तो इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय आसानी से स्थापित होता प्रतीत होता है।
व्यक्ति तथा समाज एक दूसरे के पूरक हैं। शिक्षा इस सत्य से उदासीन नहीं हो सकती। व्यक्ति तथा समाज में उचित समन्वय की बात करते समय हम एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना करते हैं, जहाँ व्यक्ति और समाज दोनों एक सूत्र से बँधे हों, जहाँ एक का उद्देश्य दूसरे के उद्देश्यों में अडचन न डालता हो, जहां दोनों ही एक दूसरे को लाभान्वित करने को सदैव प्रयत्न करते रहते हों। ऐसा समाज व्यक्ति का विरोधी न होकर उसके विकास में सहायक होगा। इसी बात से सम्बद्ध एक और बात है कि व्यक्ति समाज को समृद्ध बनाने की क्षमता रखता है, यदि वह-
(1) आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हो,
(2) उसमें समाज के लिए त्याग करने की भावना हो,
(3) समाज के हित का सदैव ध्यान रखे।
जो शिक्षा किसी व्यक्ति में उक्त योग्यताएँ नहीं उत्पन्न कर सकती, वह शिक्षा अधूरी है। विद्यालयों की शिक्षा का आदर्श, इन्हीं योग्यताओं का छात्र में विकास करना होना चाहिए।
व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन समाज की देन है, अतः अपने सम्पूर्ण विकास के लिए वह समाज का ऋणी है। यदि व्यक्ति को समाज से अलग कर दिया जाए तो सम्भवतः उसका जीवित रहना दूभर हो जायेगा। ऐसी दशा में व्यक्ति से ऐसी आशा की जाती है कि वह समाज के विरुद्ध कोई दुराचरण नहीं करेगा।
जिस प्रकार बिना समाज के व्यक्ति की कोरी कल्पना है, उसी प्रकार बिना व्यक्तियों के समाज की कल्पना भी भारी भूल है। समाज व्यक्तियों का समूह है। व्यक्तियों ने अपने हितों की रक्षार्थ समाज की रचना की है। विकसित व्यक्तियों ने ही समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों में अपना अमूल्य योगदान देकर ही समाज को उन्नतिशील बनाया है। इससे स्पष्ट है कि व्यक्ति को अपने विकास के लिए समाज की तथा समाज को अपनी प्रगति के लिए व्यक्तियों की आवश्यकता है। वस्तुतः व्यक्ति और समाज में कोई अंतर नहीं है, दोनों परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक का स्वस्थ कल्याण करने पर दूसरे का स्वतः ही कल्याण हो जाता है।
मेकाइवर (Mac-Iver) ने ठीक ही कहा है कि “वैयक्तीकरण तथा समाजीकरण एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं।” शिक्षा के दोनों उद्देश्य-वैयक्तिक एवं सामाजिक- एक दूसरे के पूरक हैं एवं पोषक हैं। दोनों उद्देश्यों का प्रतिपादन दर्शन की दो विचारधाराओं ने किया है। वैयक्तिक उद्देश्य प्रकृतिवादी विचारधारा तथा सामाजिक उद्देश्य आदर्शवादी विचारधारा की देन हैं। वैयक्तिक उद्देश्य वैज्ञानिक प्रवृत्ति पर तथा सामाजिक उद्देश्य सामाजिक प्रवृत्ति पर आधारित हैं। इन दोनों ही प्रवृत्तियों ने शिक्षा को प्रभावित किया है। ऐसी स्थिति में दोनों उद्देश्य शिक्षा के महत्वपर्ण उद्देश्य हैं। दोनों उद्देश्यों के व्यापक रूपों के समन्वय से शिक्षा की ऐसी योजना निर्मित की जानी चाहिए जिससे बालक के व्यक्तित्व का विकास तथा समाज की उन्नति संभव हो सके। रास का भी यही मत है, “वास्तव में जीवन और शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में आत्म-विकास तथा समाज सेवा में कोई टकराव नहीं है क्योंकि दोनों एक ही हैं।”
रास और नन दोनों ने इन उद्देश्यों के बीच दार्शनिक प्रणाली को समन्वय स्थापित करने के लिए अपनाया। रास ने वैयक्तिकता के आत्मानुभूति एवं आत्माभिव्यक्ति दो रूप माने। आत्माभिव्यक्ति में आत्मा का तात्पर्य है, ‘जैसा मैं उसे चाहता हूँ।’ इसमें आत्म प्रकाशन की भावना प्रधान है। इस भावना से प्रेरित होकर मनुष्य स्वच्छंद रूप से कार्य करता है, चाहे समाज को लाभ हो या हानि। ऐसी अवस्था में वह समाज के कल्याण एवं विनाश का कोई ध्यान नहीं रखता। आत्मानुभूति में आत्मा का अर्थ है- “जैसा मैं उसका होना चाहता हूँ।’ इसमें आत्मादर्श है।
इस आदर्श को प्राप्त करने में व्यक्ति सदैव प्रयत्नशील रहता है। इस दशा में मनुष्य अपने आपको नियंत्रित रखते हुए समाज की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझता है। आत्मानुभूति में व्यक्ति की आत्मा परिष्कत हो जाती है और व्यक्ति अपने ऊपर नियंत्रण रख सकता है तथा इस बात का सदैव ध्यान रखता है कि उसके आचारण से अन्य व्यक्तियों का भला हो एवं समाज की उन्नति होती रहे। इस दृष्टि से शिक्षा के दोनों उद्देश्यों को व्यापक रूपों में समन्वित कर शिक्षा का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, जो बालक में आत्मानुभूति को जाग्रत करे। इस उद्देश्य से व्यक्ति के साथ-साथ समाज का भी भला होगा।
रास ने इस संबंध में लिखा है, “जिस सामाजिक वातावरण में रहकर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास करता है उसके अलग होने पर उसकी वैयक्तिकता का कोई मुल्य ही नहीं रह जाता तथा उसका व्यक्तित्व निरर्थक हो जाता है। आत्मबोध केवल सामाजिक सेवा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है तथा ऐसे व्यक्तियों के द्वारा ही समाज के लिए सामाजिक आदर्शों को उपस्थित किया जा सकता है, जिनके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो गया हो। यह चक्र तोड़ा नहीं जा सकता।”
सभी की भलाई से ही प्रत्येक व्यक्ति की भलाई हो सकती है, इसलिए व्यक्ति के विकास से नन का तात्पर्य आदर्श आत्मानुभूति को प्राप्त करना था। नन ने लिखा है कि “व्यक्तित्व का विकास सामाजिक वातावरण में ही होता है जहाँ कि सामाजिक रुचियों और क्रियाओं का उसे भोजन मिलता है।”
अतः शिक्षा की योजना इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे व्यक्ति और समाज के बीच समन्वय स्थापित करते हुए दोनों की प्रगति संभव हो सके, तथा दोनों को विकसित होने के पूर्ण अवसर प्रदान किये जा सकें।
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