दोस्तों हम इस लेख में ग्रामदान के बारे में जानने का प्रयास करेंगे कि ग्रामदान आन्दोलन क्या है/ ग्रामोत्थान आन्दोलनं क्या है, ग्रामदान का अर्थ क्या है। यह सब हम ग्रामदान पर एक लेख माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे और यह भी जानने का प्रयास करेंगे की ग्रामदान आन्दोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका एवं योगदान क्या है।
ग्रामोत्थान/ग्रामदान आन्दोलन का अर्थ
भारतवर्ष की सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 82 प्रतिशत भाग अभी तक लाखों ग्रामों मे ही निवास करता है तथा न्यूनाधिक अंशों में कृषि के द्वारा ही अपनी जीविका उपार्जित करता है । इसी से प्रेरित होकर कछ विद्वानों ने इसको ‘गाँवों का देश‘ भी कहा है । वास्तविकता भी यही है कि भारतीयता का प्रत्यक्ष और नैसर्गिक स्वरूप वस्तुतः ग्रामों में ही दृष्टिगत होता है. नगरों में कदापि नहीं । राष्ट्रपिता बापू का मत था कि भारत की आत्मा ग्रामों में ही निवास करती है । इससे स्पष्ट है कि भारतीय समाज का वास्तविक उदय और विकास ग्रामों पर ही निर्भर करता है । लगभग सभी विद्वानों का विचार है कि जिस समय तक भारतीय ग्रामों का उत्थान न होगा, तब तक भारतवर्ष का चतुर्दिक उत्थान भी संभव नहीं है । ग्रामोदय अथवा ग्रामदान आन्दोलन इसी से सम्बन्धित है । यदि हमारे ग्रामीण निवासी अभाव से मुक्ति प्राप्त करते हैं तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं जैसी रोटी. कपड़ा, मकान, चिकित्सा तथा शिक्षा आदि की सन्तुष्टि में सफल होते हैं, पारस्परिक झगडो, फसादों, कलह, संघर्ष आदि से स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेते है, तब इस अवस्था में ग्रामों का सच्चा उदय होगा। बापू के ग्रामोत्थान का सपना पूरा होगा और इसके परिणामस्वरूप अतुलनीय भारतीय समाज और संस्कृति अपनी विजय पताका अन्यान्य देशों तक पुनः फहराने में भी सफल होगी। यही ग्रामोदय या ग्रामदान आन्दोलन का सारसंक्षेप है।
वर्तमान समय में भारतवर्ष के ग्रामों की स्थिति अति शोचनीय है। करोड़ों ग्रामवासी जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति और संन्तष्टि तक नहीं कर पाते है । भारतीय ग्रामों में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना, छुआछूत की समस्या, बाल विवाहों का प्रचलन, विधवा विवाह निषेध, नित्य प्रति होने वाले झगड़े फसाद और पारस्परिक कलह, ईर्ष्या तथा संघर्ष जाति और ग्राम पंचायतों के चुनावी षड़यन्त्र ग्रामीण बेकारी निर्धनता, अशिक्षा, बीमारी तथा अन्यान्य। विभिन्न सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं ने एक ओर तो सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय की गौरवशाली परम्परा को नष्ट किया है, तो वहीं पर दूसरी ओर इससे औसत ग्रामवासियों के आचार-विचारों, मूल्यो, आदर्शो, व्यवहार प्रतिमानों प्रथा-परम्पराआ तथा सामुदायिकता की भावना को भी नष्ट किया है । अतीत काल में जो ग्राम स्वर्ग से भी आधक सुन्दर माने जाते थे, वे वर्तमान में रौरव नरक की भाँति प्रतीत होते हैं । ग्रामोदय आन्दोलन, इसी दुरावस्था की समाप्ति हेतु आयोजित किया गया एक महान कार्यक्रम अथवा यज्ञ है।
ग्रामदान आन्दोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका
भारतीय ग्रामों की इस दयनीय अवस्था की ओर जिस प्रथम नेता ने दृष्टिपात किया, वह हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ही थे । उन्होंने मशीनों के दुष्प्रभाव को वास्तविक दष्टिकोण से देखा-समझा और उसके प्रत्युत्तर में सम्पूर्ण देश में अविलम्ब अपना “चरखा आन्दोलन जारी किया। महात्मा गाँधी कृत खादी का चरखा केवलमात्र सूत कातने वाला एक लघुयंत्र ही नहीं, अपितु बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भी सिद्ध हुआ और इसके प्रभाववश मृ सऋऱतप्रायः भारतीय ग्रामों में पुनर्जीवन का संचार भी दृष्टिगत होने लगा । महात्मा। गाँधी का दृढ विश्वास था कि भारतीय ग्रामों का उदय-विकास और ग्रामोत्थान वस्ततः चरखे द्वारा ही सम्भव है, बड़ी-बड़ी मशीनों के द्वारा कदापि नहीं । चरखा ही परम्परागत ग्रामीण कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित कर सकता है । आज भी बडे और भारी उद्योग-धन्धे हमारे सम्मुख एक गम्मीर समस्या के रूप में उपस्थित खडे हैं, क्योंकि जब तक इनको बन्द नहीं किया जाता, तब तक धन का विकेन्द्रीयकरण भी सम्भव नहीं है । चरखा ही हमें भारत की गौरवशाली परम्परा पुनः प्रदान कर सकता है । महात्मा गाँधी के विचारानुसार भारत की वास्तविक प्रगति चरखे और ग्रामोत्थान के गर्भ में निहित है, नगरों के विकास में नहीं , कुटीर उद्योग धन्धों के आधार पर ही ग्रामवासी नगरों के नागपाश से विमुक्त हो सकते हैं, क्योंकि उत्पादन और कच्चे माल का मुख्य स्रोत अति प्रारम्भ से ही ग्राम केन्द्र ही रहे हैं, नगर तो केवल मात्र विनिमय और उत्पादन के वितरण से ही सम्बन्धित होते हैं।
सभी प्रमुख अर्थशास्त्रीय विद्वानों के मतानुसार उत्पादन हेतु भूमि तथा श्रम ही अत्यावश्यक तत्व हैं, जो कि ग्रामों से ही उपलब्ध होते हैं । भारतीय ग्राम अभी तक केवल-मात्र इस कारण वश दीन-हीन है कि वे इस तथ्य को सर्वथा विस्मृत कर चुके हैं कि नगरवासी उन पर निर्भर करते हैं, न कि वे नगरवासियों पर निर्भर करते हैं । इसलिये वर्तमान युग में भी ग्रामों में कोई लाभप्रद उद्योग धन्धे विकसित नहीं हो पाते हैं । महात्मा गाँधी का मत था कि ग्रामीणों को इस रहस्य को तत्काल समझ लेना चाहिये तथा शीघ्रातिशीघ्र विभिन्न प्रकार के कुटीर उद्योगों की स्थापना करके स्वयं को स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिये । इसी प्रकार गाँधी ने यह भी अनुभव किया कि शासन सम्बन्धी भार भी नगरों की तुलनाकृत ग्रामों पर अधिक मात्रा में डाला जाता है । इस अवस्था से भी ग्रामों को बचाया जाना चाहिये, तथापि यह तभी सम्भव होगा, जबकि सभी ग्रामवासी पारस्परिक एकता, सदभाव और सहयोगी प्रवृति का प्रदर्शन करेगें । यदि उनको शासन की मार से बचना है, तो उनको शीघ्रातिशीघ्र स्वावलम्बी भी बनना होगा, अन्यथा नगर उन पर आजीवन बोझ की भाँति लदे रहेगें । यह एक बड़ी बिडम्बना है कि जिन ग्रामों और ग्रामवासियों को भारतीय शासन-तंत्र का स्वामी होना चाहिये, वे अभी तक बोझा ढोने वाले सवक की भाँति जीवन-यापन करते हैं और नगर निवासी सेवक, मालिकों की भाँति उनका बहुविधि शोषण करते हैं ।
महात्मा गाँधी का मत था कि ‘यह भारतीय ग्रामों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही है कि उनकी स्थिति ठीक उस मालिक जैसी है , जिसे अपने सेवकों की नियुक्ति और का बर्खास्तगी तक का अधिकार नहीं प्राप्त है तथा उनसे सेवा लेने की इच्छा न होने बावजूद भी उनको सेवा में रखने पडे तथा इस पर भी उनको मनचाही तनख्वाह भी देनी पड़ी । यह तो भारतीय ग्रामों का दर्भाग्य ही है कि वर्तमान जागृति के यग में वह दुरावस्था में जीवित है | महात्मा गाँधी का सम्पूर्ण जीवन वृत इस बात का साक्षी है उन्होंने अति प्रारम्भ से ही ग्रामोदय अथवा ग्रामदान अथवा ग्रामोत्थान के मूल में निहित महत्व को समझा और जीवन-पर्यन्त इनके लिये कड़ा संघर्ष भी किया।
ग्रामोदय अथवा ग्रामोत्थान की सफलता का मूलमंत्र वस्तुतः सर्वोदय भावना निहित है.,क्योंकि इसी से भारतीय ग्रामों में परिवार की भावना का विकास होना सर्वोदय की अवधारणा का मूलाधार प्राणीमात्र से प्रेम तथा करूणा है, जिस प्रकार एक परिवार में कम मात्रा में भोजन की अवस्था में सर्वप्रथम रूग्ण, अक्षम, आतरों – वृद्धों को ही भोजन कराया जाता है और शेष बचे हुये भोजन को सभी व्यक्ति आपस में बाँटकर खाते है अर्थात न तो कोई सदस्य भर पेट उदरपूर्ति कर पाता है और न ही कोई व्यक्ति बगैर भोजन किये भूखा रह पाता है, तभी सर्वोदय उत्पन्न होता है । सर्वोदय की ‘भावना में सर्वत्र प्रेम, स्नेह और दयालुता का साम्राज्य स्थापित रहेगा, जिसके परिणाम समाज स्वर्ग के समान बन जायेगा तथा इस प्रकार की विश्व बन्धत्व और परिवार भावना ही उसको सभी प्रकार के शोषण, अत्याचार और शासन के बोझ से भी मुक्ति मिल दिलायेगी । इसी परिवार भावना के कारण उसकी पारस्परिक लड़ाई-झगड़ों, मुकदमेबाजी , व्यसन तथा न्यायालय आदि से भी छुटकारा प्राप्त होगा और इस प्रकार सर्वोदय की यह भावना भी अन्ततोगत्वा भारतीय ग्रामों की सम्पूर्ण दुरावस्था को समाप्त कर इसको पुनः एक प्रतिष्ठित और गौरवशाली स्थिति पर भी आसीन करेगी।
भारतीय ग्रामों का उत्थान इसलिए भी अवरुद्ध है कि समुचित शिक्षा के अभाव में परम्परागत परिवार भावना भी समाप्तप्रायः है । वर्तमान शिक्षा प्रणाली भारतीय आवश्यकताओं और परिवेश के सर्वथा प्रतिकूल भी है । सामान्यतः उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु जो भी ग्रामीण युवक नगरों में आ जाते हैं, तो वे पुनः अपने ग्राम में वापस जाना पसन्द नहीं करते हैं । यह कैसी बिडम्बना है कि जिस ग्राम्य भूमि पर एक बालक का पालन पोषण हुआ, वही उसको त्याग देता है । कुछ विद्वानों ने ऐसे बालकों को ‘ग्रामों के विलप्त बच्चे (lost childrens of villages) भी कहा है । इस सन्दर्भ में हुये एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि लगभग 99 प्रतिशत ग्रामीण बालक शिक्षा की प्रप्ति की पश्चात ग्राम वापस नहीं लौटते हैं । इसके परिणामस्वरूप ग्रामवासी जनमानस के मूल्यों और आदर्शों को गहरा आघात पहुँचता है और वे अपनी-अपनी सन्तानों को नगरीय उच्च शिक्षा देने से घबराते भी हैं । इसके अतिरिक्त नगरीय शिक्षा का एक यह भी दोष प्रमुख है कि उच्च शिक्षित ग्रामीण युवक अपने जीवन को कृत्रिमतापूर्ण और आडम्बरी भी बना लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे ग्रामीण जीवन से सामंजस्य नहीं कर पाते है । कृत्रिम और बनावटी जीवन के आदी इन नवयुवकों से साधारण ग्रामीण जन भी तादात्मय स्थापित नहीं कर पाते हैं, जिसके परिणामतः इनके मध्य सामाजिक दूरी उत्तरोत्तर वृद्धि करती जाती है । इससे स्पष्ट होता है कि यदि इन ग्रामीण युवकों में यह प्रवृति परिवर्तित की जाये, तो वह निश्चिय ही ग्रामोत्थान आन्दोलन में जुड़ जायेगें और सम्पूर्ण देश में तुरन्तातुरन्त ग्रामोदय होने लगेगा।
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