डेविड ह्यूम की जीवनी और अनुभववाद

डेविड ह्यूम की जीवनी तथा अनुभववाद | David Hume’s Biography in Hindi

डेविड ह्यूम (David Hume)[ सन् १७११ ई. से सन् १७७६ ई. ]

डेविड ह्यूम का जन्म २६ अप्रैल सन् १७११ ई. में स्काटलैण्ड में हुआ था। ह्यूम ने मध्यम श्रेणी के परिवार में जन्म ग्रहण किया था। इनके पिता एक मध्यम श्रेणी के गृहस्थ थे। ह्यूम की बाल्यावस्था में ही इनके पिता का देहान्त हो गया, अतः इनका पालन-पोषण इनकी माता ने ही किया। इनकी शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई। सन् १७२३ में इन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। यहाँ इन्होंने ग्रीक तथा रोमन साहित्य का गहन अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही ह्यूम स्वतन्त्र विचार के व्यक्ति थे। बाद में इसाई धर्म के कट्टर आलोचक सिद्ध हुए। रूढ़िवाद तथा परम्परागत अन्धविश्वस के ये कटु आलोचक थे।

फ्रान्स जाकर इन्होंने दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया तथा फ्रान्स में २५ वर्ष की अवस्था में ‘मानव स्वभाव पर निबन्ध’ (Treatise of Human Nature) नामक प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ लिखा। ह्यूम के शब्दों में ही इस पुस्तक का उद्देश्य है कि नैतिक विषयों में प्रयोगात्मक प्रणाली से तर्क का प्रवेश (To Introduce the Experimental Method of Reasoning into Moral Subjects) इस पुस्तक के तीन भाग हैं प्रथम भाग में ज्ञान की समस्या पर विचार है, दूसरे भाग में संवेग के सिद्धान्तों पर विचार किया गया है तथा तीसरे भाग में नैतिक धारणाओं पर विचार है।

हम को बडी आशा थी कि इस प्रसिद्ध ग्रन्थ का अधिक सम्मान होगा; परन्तु वे घोर निराशा में कहते हैं कि प्रेस से मानो वह मृतक रूप में उत्पन्न हुई। इस पुस्तक का सम्मान न होने के कारण ह्यूम को दर्शन के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गयी तथा इनकी अभिरुचि इतिहास और राजनीति में परिवर्तित हो गयी।

सन् १७४१ में इनके नीतिशास्त्र तथा राजनीति पर निबन्ध प्रकाशित हुए। उन्हीं दिनों एडिनबर्ग के विश्वविद्यालय में नीतिशास्त्र के प्राध्यापक (Professor of Moral Philosophy) का स्थान रिक्त हआ। ह्यूम ने आवेदन पत्र तो दिया, परन्तु उस समय क प्रसिद्ध नीतिशास्त्र के प्राध्यापक हचसन (Hutchson) ने ह्यूम को स्थान न दिया।। इससे ह्यूम को बडी निराशा हुई और उन्होंने इतिहास का अध्ययन प्रारम्भ किया। इग्लैण्ड का इतिहास (History of England) लिखा। यह पुस्तक १८ वीं शताब्दी का सबसे सुन्दर इतिहास माना जाता है। कुछ दिनों बाद इन्हें एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में पुस्तकालयाध्यक्ष (Librarian) के रूप में नियुक्त किया गया। यहाँ अध्ययन करने की सुविधा मिली।

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मानव स्वभाव पर निबन्ध’ का नया नामकरण किया तथा इसका नया संस्करण (An Inquiry Concerning Human Understanding) सन् १७४८ में किया। सन् १७५१ में इन्होंने अपने नैतिक विचारों को और भी परिष्कृत किया तथा Inquiry Concerning the Principles of Morals रूप में प्रकाशित किया। इसके बाद इनकी अभिरुचि धार्मिक विषयों में हुई।

इन्होंने धर्मशास्त्र सम्बन्धी दो पुस्तकें लिखीं जिनके नाम हैं Natural History of Religion सन् १७५७ ई. में तथा Dialogues Concerning Natural Religion| अपने जीवन के अन्त में ये कुछ दिनों के लिए पेरिस स्थित राजदूत के सेक्रेटरी बने तथा स्कॉटलैण्ड में सहायक राज-मन्त्री भी रहे। इनकी मृत्यु २५ अगस्त सन् १७७६ ई० में हुई। ह्यूम अनुभववादी परम्परा की अन्तिम कडी माने जाते हैं।

लोक ने अनुभववाद को जन्म दिया, बर्कले के दर्शन में अनुभववाद का परिवर्द्धन हुआ तथा ह्यूम के दर्शन में अनुभववाद अपनी सीमा पर पहुंच गया। लॉक और बर्कले के समान ह्यूम भी अनुभववाद को ही ज्ञान का स्रोत मानते हैं, परन्तु ह्यूम का अनुभववाद अन्य दोनों से भिन्न है। लॉक ने जन्मजात प्रत्ययों का खण्डन कर अनुभव को ही ज्ञान का जनक सिद्ध किया। परन्तु बुद्धिवाद के ज्ञान सिद्धान्त का खण्डन करते हुए भी लॉक ने ईश्वर, जीव, जगत् आदि देकार्त की मान्यताओं को स्वीकार किया। बर्कले के अनुसार लॉक का अनुभववाद अपूर्ण है। बर्कले का कहना है कि यदि हमारा ज्ञान इन्द्रियानुभव तक ही सीमित है तो इन्द्रियातीत जड तत्त्व का स्वीकार सर्वथा असंगत है|

अतः बकले के अनुसार आत्मा और परमात्मा ही एकमात्र तत्त्व है। अस्तित्व तो अनुभवमूलक है, अतः जिसका अनुभव नहीं होता, उनका अस्तित्व भी नहीं। जड़ तत्त्व का अस्तित्व ही नहीं। ह्यूम का कहना है कि यदि अनुभव ही हमारे ज्ञान का साधन है तो जड़, आत्मा, परमात्मा आदि किसी की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। इसी कारण ह्यूम को अज्ञेयवादी कहा जाता है, क्योंकि ह्यूम के अनुसार आत्मा, परमात्मा, जड़ आदि सभी तत्त्व अज्ञेय है। ह्यूम बर्कले के सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार करते हैं कि अस्तित्व अनुभवमूलक है।

आत्मा-परमात्मा आदि किसी भी तत्त्व का इन्द्रियानुभव सम्भव नहीं, अतः इनका अस्तित्व भी नहीं। यदि हम मानव ज्ञान का विश्लेषण करें तो किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक तत्व को नहीं पाएँगे, फिर इनके अस्तित्व का प्रश्न कहाँ? इस प्रकार ह्यूम के दर्शन में सभी पूर्ववर्ती दार्शनिक मान्यताओं का पूर्णतः खण्डन है। कार्य कारण आदि सर्वस्वीकृति सिद्धान्त के प्रति सन्देह व्यक्त करने के कारण ही ह्यूम को सन्देहवादी भी कहा जाता है।

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डेविड ह्यूम का अनुभववाद

लॉक और बर्कले के समान ही ह्यूम स्वीकार करते हैं कि हमारे ज्ञान का एकमात्र स्रोत अनुभव है| लॉक ने अनुभववाद का समर्थन करते हुए कहा है कि संवेदन तथा स्वसंवेदन ही हमारे ज्ञान के दो वातायन है। संवेदन हमें बाह्य संसार का पर प्राप्त कराता है तथा स्वसंवेदन से हमें आन्तरिक अनुभूतियों (सुख दुःख आदि) का ज्ञान प्राप्त होता है। बर्कले ने इन दो के बदले केवल विज्ञान (Idea) को ही ज्ञान का स्रोत बतलाया है| जिसे हम वस्तु कहते हैं वह वस्तुतः विज्ञान या प्रत्यय रूप है। लॉक के अनुसार विज्ञान बाह्य पदार्थों के मूल गुणों के प्रतिबिम्ब है।

बर्कले इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि विज्ञान किसी के प्रतिबिम्ब नहीं, वरन् संवेदन तथा स्वसंवेदन दोनों ही विज्ञान रूप हैं। इससे स्पष्ट है कि बर्कले संवेदन तथा स्वसंवेदन बाह्य तथा आन्तरिक) के भेद का निराकरण करते हैं। ह्यूम पुनः इस भेद को स्वीकार करते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ह्यूम केवल लॉक की पुनरावृत्ति करते हैं। लॉक प्रतिपादित ज्ञान के दो साधनों से ह्यूम के दोनों साधन नितान्त भिन्न हैं।

ह्यूम के अनुसार हमारे ज्ञान के दो साधन हैं—संस्कार (Impression) तथा विज्ञान (Idea) विज्ञान को तो लॉक और बर्कले ने भी स्वीकार किया है, परन्तु संस्कार का प्रयोग सर्वप्रथम ह्यूम ही करते हैं। ह्यूम का कहना है कि हमारे ज्ञान की सम्पूर्ण सामग्री इन्हीं दो मार्गों से प्राप्त होती है। दोनों में स्पष्टता और प्रबलता का भेद है-

 

१. संस्कार-

संवेदना तथा स्वसंवेदना को ही ह्यूम संस्कार कहते हैं। हमारी इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं। बाह्य तथा आन्तरिक बाह्येन्द्रियाँ, जैसे चक्षु, श्रवण, घ्राण, रसना, त्वचा हैं जिनसे हमें रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श का ज्ञान प्राप्त होता है। ये पाँच प्रकार की बाह्य संवेदनाएँ हैं। आन्तरिक इन्द्रिय केवल मन है जिससे सुख-दुःख आदि का ज्ञान होता है। सुख-दुःख का ज्ञान ही स्वसंवेदना है। इन दोनों का सम्मिलित नाम ह्यूम ने संस्कार दिया है। अतः संवेदन, स्वसंवेदन में केवल नाम का भेद है, वस्तुत: कोई भेद नहीं। संक्षेप में, हम कहते हैं कि संस्कार दो प्रकार का है, पञ्चेन्द्रियों का संस्कार जिसे संवेदन कहते हैं तथा अन्तःकरण का संस्कार जिसे ‘स्वसंवेदन कहते हैं।

ह्यूम के अनुसार ये संस्कार प्रबल, सजीव, स्पष्ट होते हैं। ये हमारे सद्यः अनुभति के विषय हैं। विज्ञान संस्कार अपना प्रतिबिम्ब या प्रतिरूप (Copy) मन में छोड़ते हैं, इन्हें विज्ञान कहा गया है। विज्ञान को संस्कार का प्रतिरूप (Copy) कहा गया है। उदाहरणार्थ, सदी, गर्मी, सुख-दुःख आदि का हम सद्यः अनुभव करते हैं। संस्कार हैं जो पूर्णत: सजीव तथा स्पष्ट हैं, बाद में ये संस्कार क्षीण हो जाते हैं तथा अपना प्रतिरूप ही मानस पटल पर छोड़ देते हैं।

इन्हें ही विज्ञान कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि विज्ञान संस्कार पर निर्भर है। संस्कार प्राथमिक है तथा विज्ञान गाणा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, सुख-दुःख, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम आदि बाह्य तथा आन्तरिक संवेदनाओं की अनुभूति संस्कार है। इसके बाद इनका वेग कम होने लगता है और स्मृति में केवल इनके प्रतिरूप रह जाते हैं जो विज्ञान कहलाते हैं।

 

२. विज्ञान-

ह्यूम के अनुसार विज्ञान के दो प्रकार है-सरल तथा मिथिता। लॉक ने भी विज्ञान को सरल तथा मिश्रित रूप से दो प्रकार का माना है, परन्तु लॉक और ह्यूम के वर्गीकरण में भेद है। लॉक के अनुसार सरल विज्ञान स्वतन्त्र वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संवेदन तथा स्वसंवेदन दोनों से प्राप्त होते हैं। इनके प्रतिबिम्ब वस्तु के मूल गण से उत्पन्न होते हैं। मिश्र विज्ञानों का निर्माण आत्मा के द्वारा सरल विज्ञानों के माध्यम से होता है। ह्यूम के अनुसार सरल मूल संस्कारों के प्रतिरूप हैं, परन्तु मिश्र विज्ञानों के लिये मूल संस्कारों का होना आवश्यक नहीं, अर्थात् ये अपने मूल संस्कारों के प्रतिबिम्बित हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं।

उदाहरणार्थ, मूल संस्कार के बिना भी हम कल्पना तथा स्मृति के सहारे मिश्र विज्ञान का निर्माण कर सकते हैं तथा अनेक सरल विज्ञानों के योग से मिश्र विज्ञानों का निर्माण होता है। हम छोटे से पर्वत को देखकर सुमेरु पर्वत की कल्पना कर सकते हैं। इसमें सरल तथा मिश्र विज्ञान का भेद स्पष्ट है। संस्कार के बिना सरल विज्ञान नहीं उत्पन्न हो सकता है। उदाहरणार्थ, जन्मान्ध को रूप विज्ञान तथा बहरे को शब्द विज्ञान का अनुभव नहीं हो सकता। अतः संस्कार के बिना विज्ञान सम्भव नहीं परन्तु मिश्र विज्ञानों के लिये यह आवश्यक नहीं।

 

 

संस्कार और विज्ञान में भेद

संस्कार अधिक सजीव, प्रबल तथा स्पष्ट होते हैं। इनकी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है तथा ये प्राथमिक माने गए हैं। इनकी अपेक्षा विज्ञान में स्पष्टता तथा सजीवता न्यून मात्रा में रहती है अतः इन्हें गौण माना गया है। इनकी अनुभूति परोक्ष होती है। क्योंकि ये संस्कार पर आश्रित होते हैं। किसी भी विज्ञान का प्रारम्भ संस्कार से होता है, अत: संस्कार विज्ञान का मूल है। काल की दृष्टि से संस्कार पूर्ववती तथा विज्ञान अनुवर्ती है।

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संस्कार सद्यः गृहीत होते हैं तथा विज्ञान निर्मित होते हैं। परन्तु ह्यूम यह भी कहते हैं कि कभी-कभी संस्कार धूमिल तथा विज्ञान स्पष्ट प्रतीत हात है। उदाहरणार्थ, स्वप्नावस्था, पागलपन, ज्वर, क्रोध, घृणा, द्वेष आदि की अवस्था में विज्ञान अधिक स्पष्ट प्रतीत होते हैं तथा संस्कार धुमिल और मन्द प्रतीत होते है। परन्तु सामान्यतः दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं। इस प्रकार ह्यूम सिद्ध करते हैं कि संस्कार और विज्ञान ही हमारे ज्ञान के विषय हैं।

 

विज्ञानों का पारस्पररिक सम्बन्ध(Association of Ideas)

 ह्यूम के अनुसार हमारा मन विज्ञानों का भण्डार है। इसमें विज्ञानों का प्रवाह सर्वदा नियमित रूप से चलता रहता है| विज्ञान के इस अनवरत प्रवाह में अवरोध नहीं होता। एक के बाद दूसरे का क्रम चलता रहता है। साथ ही साथ ह्यूम का कहना है कि ये विज्ञान असम्बद्ध नहीं होते। यदि इनमें सम्बन्ध नहीं होता तो ये विज्ञान अर्थहीन हो जाते लेकिन ऐसा नहीं है। अतः ये विज्ञान आकस्मिक और असम्बद्ध नहीं, इनमें. साहचर्य स्वाभाविक है।

ह्यूम के अनुसार यह अनुषङ्ग नियम (Law of Association) से सम्भव है। परन्तु ये नियम सार्वभौम तथा अनिवार्य नहीं। ये विज्ञान एक के बाद एक आते रहते हैं तथा हम स्वभावतः इनमें सम्बन्ध की कल्पना कर लेते हैं। इनका सम्बन्ध अनिवार्य नहीं, वरन् केवल आनन्तर्य है। तात्पर्य यह है कि एक के बाद दूसरा विज्ञान स्वभावतः आता रहता है। इन विज्ञानों में आत्यन्तिक विरोध भी नहीं होता, अर्थात् पहला विज्ञान दूसरे विज्ञान का विरोधी नहीं हो सकता।

अनुषङ्ग नियम निम्नलिखित तीन सम्बन्धों में किसी एक के अनुसार कार्य करता है-

१. सादृश्य सम्बन्ध (Association of Resemblance or Similarity)

२. कालगत या देशगत साहचर्य सम्बन्ध (Association of contiguity in time or space),

३. कार्य-कारण सम्बन्ध (Association of Causality)

सादृश्य सम्बन्ध का आधार समानता है। यदि दो वस्तुएँ समान हों तो एक का विज्ञान उपस्थित होने पर दूसरे का भी विज्ञान उपस्थित हो जाता है, क्योंकि दोनों में समानता है। उदाहरणार्थ, जब हम किसी मनुष्य के बारे में विचार करने लगते हैं, तो उस मनुष्य का विज्ञान हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है, साथ-साथ उसके गुण और स्वभाव से समानता रखने वाले इसके मित्र का भी विज्ञान उपस्थित हो जाता है।

देशगत या कालगत सम्बन्ध के अनुसार यदि दो घटनाओं में एक घटना दूसरी घटना के बाद एक ही स्थान एक ही समय में घटित हो तो उनमें देशगत या कालगत साहचर्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा एक के विज्ञान के उपस्थित होने पर दूसरे का विज्ञान भी उपस्थित हो जाता है। कारण-कार्य सम्बन्ध के अनुसार भी एक विज्ञान के उपस्थित होने पर दूसरे का विज्ञान उपस्थित हो जाता है। उदाहरणार्थ, अग्नि और ताप, विषपान और मृत्यु में एक के उपस्थित होने पर दूसरा भी उपस्थित हो जाता है।

कारण-कार्य सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि वैज्ञानिक ज्ञान का आधार यही है। इसी कारण इसे सार्वभौम नियम भी स्वीकार किया गया है। इन तीनों नियमों से ही हमारे विज्ञानों में संयोग-वियोग होते रहते है। जिनसे हमारा ज्ञान बढ़ता है। जिस प्रकार भौतिक जगत् में गुरुत्वाकर्षण नियम (Law of Gravitation) कार्य करता है उसी प्रकार विज्ञान जगत् में अनुषङ्ग उपरोक्त तीन सम्बन्धों के अतिरिक्त ह्यूम चार अन्य सम्बन्ध की भी चर्चा करते है जो निम्नलिखित हैं-

 

१. विपरीत सम्बन्ध (Relation of Contradiction)—एक समय में यदि एक विचार को सत्य मानें तो उसके विपरीत विचार को उसी समय अवश्य असत्य मानना होगा।

२. तादात्म्य सम्बन्ध (Relation of Identity)—जो विज्ञान एक समय उपस्थित हों तथा पुनः उनका तादात्म्य दूसरे समय में प्राप्त विज्ञानों से है।

३. गुण में मात्रा (Degrees in Quality)-जैसे, भार में, रंग के विभिन्न छायाओं में आदि।

४. मात्रा और संख्या (Quantity and Number)- जैसे, गणित में २+२=४, १८ का १/२ =९ इत्यादि।

 

इस प्रकार ह्यूम के अनुसार सम्बन्ध की संख्या सात हुई। इनमें सादृश्य कालगत देश-गत तथा कार्य-कारण सम्बन्ध को प्राकृतिक तथा परिवर्तनीय माना गया है तथा शेष चार को अपरिवर्तनीय स्वीकार किया गया है। शेष चार को प्रत्ययात्मक सम्बन्ध भी कहा गया है, क्योंकि ये प्रत्ययों या विज्ञानों पर आधारित हैं।

 

 

 

 

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