लाइबनिट्ज के दर्शन में ईश्वर का महत्व

लाइबनिट्ज के दर्शन में ईश्वर का महत्व | Importance of God in Leibniz’s Philosophy in Hindi

ईश्वर विचार

 लाइबनिट्ज के दर्शन में ईश्वर का महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता है। चिदणु का आदि तथा अन्तिम कारण ईश्वर ही है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर ही चिदण की सृष्टि करता है तथा ईश्वर की इच्छा से ही चिदणु का विनाश सम्भव है। सभी चिदुण विकास के क्रम में हैं। उनका विकास ईश्वरोन्मुख है, ईश्वर को चिदणुओं का चिदणु (Monad of Monads) कहा गया है। चिदणु अनेक हैं, परन्त उनका कारण ईश्वर एक है। यह ईश्वर अद्वितीय, सार्वभौम, स्वतन्त्र, असीम स्वीकार किया गया है। चिदणु अनेक है, फिर भी उनमें एकता है। इसका कारण ईश्वर ही है। चिदणु गवाक्षहीन हैं फिर भी उनमें सहचार है। इसका कारण ईश्वर ही है।

ईश्वर परम विभु और स्वतन्त्र द्रव्य है; परन्तु निरंकुश नहीं। वह अनपे बनाये गये नियमों के प्रतिकूल कुछ भी नहीं करता। वह परम पूर्ण परमेश्वर है और अन्य प्राणियों की पूर्णता का कारण है। तात्पर्य यह है कि प्राणियों की पूर्णता ईश्वर के प्रभाव से ही है। प्राणियों मे अपूर्णता भी है जिसका कारण ईश्वर नहीं, स्वयं प्राणी है। अपनी अपूर्णता के कारण ही प्राणी ईश्वर से भिन्न होता है। लाइबनिट्ज ईश्वर को परम चेतन चिदणु भी कहते हैं क्योंकि उसे सभी विषयों का सदा स्पष्टतम ज्ञान रहता है। वह पूर्णतः सक्रिय है, क्योंकि उसमें जडाता बिल्कुल ही नहीं।

 

 

ईश्वर-सिद्धि के लिए प्रमाण

लाइबनिट्ज ने ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिये चार प्रमाण दिये हैं-

१. सत्तामूलक प्रमाण (Ontological proof)-

देकार्त ने भी ईश्वर के लिये सत्तामूलक तर्क का प्रयोग किया है। देकार्त के अनुसार पूर्ण ईश्वर का ज्ञान ही उसकी सत्ता के लिए प्रमाण है। त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोण के बराबर होते हैं। यह त्रिभुज में ज्ञान मात्र से ही सिद्ध होता है, उसी प्रकार ईश्वर के ज्ञान मात्र से ही उसकी सत्ता सिद्ध होती है। ईश्वर के बिना ईश्वर-ज्ञान का कारण कौन हो सकता है? लाइबनिट्ज का सत्तामूलक तर्क देकार्त से भिन्न है। लाइबनिटज का कहना है कि पूर्णता ही सत्ता का द्योतक है। हममें पूर्ण ईश्वर का विचार है, इससे सिद्ध है कि इस विचार के अनुरूप वस्तु (ईश्वर) भी है। लाइबनिट्ज पूर्णता की परिभाषा बतलाते हैं तथा पूर्णता से ईश्वर की सत्ता सिद्ध करते हैं। उनका कहना है। कि सत्ता ही पूर्णता है। देकार्त का कहना है कि यदि ईश्वर का विचार है तो उसके जनरूप ईश्वर भी है। लाइबनिट्ज का कहना है कि सत्ता तो उसकी पूर्णता का गोतक है। सत्ता ईश्वर के गुणों में एक है।

 

२. पर्याप्तकारणता नियम (Law of Sufficient Reason)-

यह मष्टिमुलक प्रमाण (Cosmological proof) का रूपान्तर है। सृष्टिमूलक प्रमाण के अनसार देकार्त ने बतलाया है कि ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता है। मनुष्य सान्त है वह अनन्त सृष्टि का कर्ता नहीं हो सकता। लाइबनिट्ज के पर्याप्य कारणता नियम के अनुसार जिस वस्तु के लिए कोई हेतु हो तभी उसकी सत्ता स्वीकार की जा सकती है। दूसरे शब्दों में यथेष्ट हेतु या प्रमाण के बिना वस्तु की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। सांसारिक वस्तुओं की सत्ता का पर्याप्त कारण होना चाहिये। इनका कारण सान्त नहीं, अनन्त ईश्वर ही है| सान्त का कारण अवश्य ही अनन्त मानना पड़ेगा। लाइबनिट्ज सम्भाव्य (Contingent) तथा अनिवार्य (Necessary) कारण में भेद करते हैं। उनका कहना है कि सांसारिक वस्तुओं का सान्त कारण तो केवल सम्भाव्य है, परन्तु अनिवार्य कारण ईश्वर है।

 

३. सनातन सत्य का नियम-

यह ज्ञान सम्बन्धी प्रमाण है। शाश्वत सत्य से ईश्वर की सत्ता सिद्ध है। लाइबनिट्ज का कहना है कि सनातन सत्य अनुभवातीत है, अर्थात ऐसे सत्यों की परीक्षा संसार में सम्भव नहीं। सम्भाव्य सत्य अनुभवगम्य है तथा इसकी परीक्षा भी सम्भव है। अतः अनुभवातीत सत्यों का आधार तो केवल ईश्वर ही है। सनातन सत्य ही ईश्वर की सत्ता सिद्ध करती है। ईश्वर इसका आधार है।

 

४.पूर्व-स्थापित सामअस्य का नियम (Pre-established Harmony)-

लाइबनिट्ज के अनुसार चिदणु स्वतन्त्र हैं तथा गवाक्षहीन हैं, फिर भी दो चिदणु में समानता है। यह समानता ईश्वर प्रदत्त है। ईश्वर ने यह पहले हो निश्चित कर दिया है कि एक के समान परिवर्तन दूसरे में भी होगा। जिस प्रकार दो घड़ियों में सहचार है वैसे ही जड़ और चेतन (शरीर और आत्मा) में भी सहचार है। सभी स्वतन्त्र होकर भी सहचारी है।

 

ईश्वर-विचार की समीक्षा

 बद्धिवादी दार्शनिक देकार्त, स्पिनोजा आदि सभी का दर्शन ईश्वर केन्द्रित है। लाइबनिट्ज भी इस परम्परा का अनुसरण करते हैं। तात्पर्य यह है कि अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के समान लाइबनिट्ज भी ईश्वरवादी है, परन्तु लाइबनिट्ज के ईश्वर अन्य दार्शनिकों से भिन्न है। लाइबनिटज के ईश्वर पूर्णतम चिदुण है। उन्हें चिदणुओं का चिदणु (Monad of Monads) कहा गया है। ईश्वर ही सभी चिदणुओं का कारण है, परन्तु ईश्वर स्वयं अकारण तथा स्वयम्भू है। परन्तु यहाँ एक असंगति सी दिखलायी पड़ती है। कभी तो ईश्वर को चिदणुओं का स्रष्टा कहा जाता है, क्योंकि चिदणु अनादि और अनन्त नहीं तथा कभी ईश्वर को ही पूर्णतम चिदणु कहा जाता है। ईश्वर को पूर्णतम चिदणु मानने का अर्थ है कि ईश्वर परम चेतन है।

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लाइबनिट्ज निम्नतम से लेकर उच्चतम चिदणु की श्रृंखला स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह है कि ईश्वर परम चेतन पुरुषोत्तम है। पूर्णतम चिदणु का अर्थ है कि वह अन्य चिदणुओं से भिन्न सर्वातिशय युक्त है। परन्तु वह चिदणु ही है इस प्रकार इन दोनों बातों में असंगति भी दिखलायी पड़ती है। ईश्वर स्वयं चिदणु है या चिदणुओं का स्रष्टा है।

लाइबनिट्ज अनेकों प्रकार से ईश्वर का वर्णन करते हैं। ईश्वर चिदणुओं का स्रष्टा है, ईश्वर सर्वोच्च चिदणु है, ईश्वर चिदणुओं में सामञ्जस्य का कारण है। प्रश्न यह है कि ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है तथा सम्पूर्ण चिदणुओं की सृष्टि वही करता है तो चिदणु अनादि तथा अनन्त नहीं। पुनः यदि चिदणु अनादि तथा अनन्त हैं तो ईश्वर उनका स्रष्टा नहीं हो सकता, क्योंकि अनादि की उत्पत्ति हो नहीं सकती। पुनः ईश्वर को चिदणुओं के सामञ्जस्य का कारण माना गया है, क्योंकि ईश्वर ही चिदणुओं में पूर्व-स्थापित मासञ्जस्य की अन्तिम कड़ी बतलाया गया है।

जिस प्रकार सुगन्धि का कारण पुष्प है उसी प्रकार पूर्व-स्थपित समाञ्जस्य का कारण ईश्वर है। परन्तु यह स्वीकार करने पर ईश्वर को ही एकमात्र निरपेक्ष सत्ता स्वीकार करना होगा तथा सभी चिदणु असत् प्रतिच्छाया मात्र होंगे। यदि ईश्वर ही एकमात्र सत् है। तो सभी चिदणु अवश्य असत् होंगे। परन्तु लाइबनिट्ज चिदणुओं को असत् नहीं मानते। इस प्रकार चिदणु और ईश्वर का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं प्रतीत होता।

लाइबनिट्ज स्वयं कहते हैं कि चिदणु न तो पूर्णतः अनादि और न तो निरपेक्ष ही है। वे ईश्वर पर आश्रित हैं और वह ईश्वर सर्वप्रथम, सरल द्रव्य हैं जिससे सभी चिदण उत्पन्न या उद्भूत हैं। इससे स्पष्ट है कि लाइबनिट्ज के ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता, चिदणु के स्रष्टा है। ईश्वर चिदणु का स्रष्टा है, परन्तु उनकी सत्ता जिदणुओं के परे हैं।

ईश्वर को परम चिदणु या पूर्णतम चिदणु कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर सर्वाधिक ज्ञान-सम्पन्न है, उसमें नाम मात्र की भी जड़ता नहीं। पवर के अतिरिक्त अन्य सभी जीवों में जड़ता की न्यूनाधिक मात्रा है। जड़ से चेतन की ओर विकास हो रहा है। ईश्वर ही इस विकास का सर्वोच्च शिखर है, अर्थात् वह परम चेतन है| वह चेतन को प्राप्त नहीं करता, वरन् चेतना ही उसका स्वरूप है, वह ज्ञान रूप है। वस्तुतः ईश्वर सृष्टि का कता है, परन्तु सृष्टि ही उसका स्वरूप नहीं। ईश्वर सृष्टि से अलग सत्ता रखता है।

उपरोक्त प्रमाणों से लाइबनिट्ज ईश्वर की सत्ता सिद्ध करते हैं। ईश्वर सष्टिकर्ता है। असीम सृष्टि का कर्त्ता असीम ईश्वर ही हो सकता। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि सृष्टि तथा ईश्वर का सम्बन्ध क्या है? देकार्त ने भी ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना है, परन्तु वह सृष्टि के पार है; अर्थात् विश्वातीत है। लाइबनिट्ज का मत भिन्न है। लाइबनिट्ज के अनुसार सारी सृष्टि चेतन है, क्योंकि परम ईश्वर की अभिव्यक्ति है। चेतना के विकास की श्रृंखला है।

पाषाण से लेकर ईश्वर तक सभी एक ही श्रृंखला की विभिन्न कड़ियाँ हैं। पाषाण जगत् निम्नतम चेतन है, वनस्पति जगत् निम्नतर चेतन है, पशु जगत् निम्न चेतन है, मानव जगत् चेतन जगत् है तथा परम चेतन ईश्वर है। दूसरी अवस्था पहली अवस्था की अपनेक्षा पर है, अर्थात् वनस्पति जगत् पाषाण जगत् की अपेक्षा पर है। इस प्रकार मानव की अपेक्षा ईश्वर पर है। इसी अर्थ में ईश्वर विश्वातीत है।

लाइबनिट्ज सर्वेश्वरवादी (Pantheist) तथा ईश्वरवादी (Theist) दोनों प्रतीत होते हैं। उनके अनुसार समस्त जगत् चेतन है, क्योंकि परम चेतन ईश्वर की अभिव्यक्ति है। पुनः वे ईश्वर को चिदणु का सृष्टिकर्ता भी मानते हैं। लाइबनिट्ज ईश्वर के सगुण रूप के समर्थक हैं| उनके अनुसार ईश्वर सर्वज्ञ. सर्वशक्तिमान तथा पूर्णतम है। पूर्णता उनका आवश्यक  गुण है। पूर्ण होने से वह अनन्त माना गया है।

लाइबनिट्ज सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर को मानते हैं। परन्तु ईश्वर को स्वतन्त्र मानते हुए भी स्वेच्छाचारी नहीं मानते। ईश्वर भी नियमों के अनुकूल ही कार्य करता है। नियम ईश्वर के बाहर नहीं, परन्तु वह नियमों का कभी उल्लंघन नहीं करता अर्थात उसके सभी कार्य नियत तथा नियमित होते हैं। इसी कारण लाइबनिट्ज के ईश्वर को निरंकुश सम्राट नहीं वरन् प्रधानमन्त्री माना गया है। 

 

नैतिक विचार

 बुद्धिवादी लाइबनिट्ज नैतिक नियमों को जन्मजात (Innate) मानते हैं। जिस प्रकार सहज प्रवृत्ति (Instincts) सानव में स्वभावतः है उसी प्रकार नैतिक नियम भी। उदाहरणार्थ, मनुष्य स्वभावतः सुख की प्राप्ति तथा दुःख के परिहार की चेष्टा करता है। तात्पर्य यह है कि वही कार्य करना चाहता है जिससे सुख प्राप्ति की आशा हो तथा ऐसे कर्मों का परित्याग करना चाहता है जिनके दुःखजनक होने की आशंका हो। अतः सुखद कार्य आदेय तथा दुःखद कार्य स्वभावतः हेय हैं। मनुष्य के इस स्वभाव से उसका आचरण भी नियन्त्रित होता है। यह स्वभाव यद्यपि जन्मजात है फिर भी शिक्षा, सभ्यता आदि से इसका विकास होता है। तात्पर्य यह है कि नैतिक नियम की चेतना तो जन्म से ही होती है, परन्तु शिक्षा इत्यादि से इसका विकास आवश्य है।

 

 

पाप और पुण्य

लाइबनिट्ज के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा पूर्णतम है। ईश्वर में असंख्य संसार को उत्पन्न करने की क्षमता है। यह संसार ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। यह संसार सर्वविध पूर्ण है। इसे अपूर्ण मानना ही ईश्वर के कार्य में दोष देखना है। अतः संसार को अपूर्ण मानना नास्तिकता का परिचायक है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब ईश्वर पूर्ण है, तो उसकी कृति सृष्टि (संसार) में दुःख और अभाव का कारण कौन? लाइबनिट्ज पाप का निषेध नहीं करते। संसार में दुःख और दैन्य अवश्य है। इनके रहते हुए भी संसार ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है।

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इस संसार के अतिरिक्त कोई भी दूसरा संसार होता तो दुःख, पाप आदि उसमें भी अवश्य ही होते। अतः दुःख, दैन्य, निराशा, अभाव इत्यादि से ईश्वर अश्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं। दुःख, दैन्य आदि का कारण मनुष्य है। दुःख अभाव आदि मानव की भलाई की जननी है। यदि पाप न हो तो लोग पुण्य की ओर प्रवृत्त नहीं होंगे। ईश्वर ने संसार में पाप को इसलिये बनाया है कि मनुष्य इस पर विजय पाकर पुण्य की ओर अग्रसर हो। अतः जगत में पाप की सत्ता की नैतिक आवश्यकता है। लाइबनिट्ज तीन प्रकार के पापों का उल्लेख करते हैं-

 

1. तात्विक पाप (Metaphysical evil)-

यह अपरिहार्य पाप है। यदि है तो उसमे दुःख तथा अभाव रहेगे ही। तात्पर्य यह है कि दुःख, दैन्य तो का स्वभाव है। यदि मानव इस संसार में आया है तो दुःख और अभाव तो न से उसमें विद्यमान रहेंगे। इनका निराकरण नहीं हो सकता।

 

2. नैतिक पाप (Moral evil)-

यह भी तात्विक पाप के समान मनुष्य के स्वभाव से सम्बद्ध है| सांसारिक मनुष्य कभी पूर्ण नहीं हो सकता। पाप तो केवल पण्य का अभाव है। पाप और पुण्य दोनों मार्ग मनुष्य के सामने प्रशस्त हैं। मनुष्य अपनी इच्छा से पाप का मार्ग चुन लेता है। इसमें मनुष्य की चयन शक्ति का दोष है, ईश्वर का नहीं। ईश्वर ने केवल पाप और पूर्ण दोनों का निमार्ण किया है। पाप को अपनाना तो मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। लाइबनिट्ज इसे दो जहाजों के उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं- दूसरे जहाज की गति तेज है, क्योंकि वह हलका है। दोनों की शक्ति समान है; परन्तु मनुष्य अज्ञानवश पाप में प्रवृत्त होता है। अतः पाप पुण्य का अभाव है तथा मनुष्य के स्वतन्त्र संकल्प का परिणाम है। पाप के लिये ईश्वर दोषी नहीं।

 

३. भौतिक पाप (Physical evil)-

भौतिक पाप शुभ है, अशुभ नहीं, क्योंकि यह पाप पुण्य का साधक है। चित्र में दीखती हुई छाया चित्र के सौन्दर्य का वर्धन करती है, ह्रास नहीं। इसी प्रकार भौतिक पाप से पुण्य का महत्व बढ़ता है। यदि भौतिक पाप न हो तो मनुष्य पुण्य कर्म में प्रेरित नहीं होगा। इसी प्रकार लाइबनिट्ज अभाव तथा दुःख को सुख का साधन मानते हैं। दुःख सहना आवश्यक है। अतः हमें दुःख दैन्य से घबड़ना नहीं चाहिये। किसी दशा में दुःख वाञ्छनीय भी है। युद्ध-क्षेत्र में क्षत-विक्षत होने का दुःख अवश्य है परन्तु विजय का सुख इससे बढ़कर है। अतः विजयश्री को अपनाने के लिये दुःख सहना बहादुरी है।

इस प्रकार लाइबनिट्ज पाप का निषेध नहीं करते। उनके अनुसार पाप पुण्य के लिये आवश्यक है, अशुभ शुभ का साधक है। यदि संसार में पाप न हो तो पुण्य का महत्त्व नहीं होगा, यदि दुःख न हो तो सुख की अनुभूति नहीं होगी। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता। गर्मी के दिन में प्यास से विकल मन लिये कोई ठण्डा पेय बड़ा आनन्ददायक होता है। यदि मनुष्य पहले व्याकुल न हो उसे पेषजन्य आनन्द की अनुभूति नहीं होगी।

अतः प्यासजन्य दुःख निरर्थक नहीं इसी प्रकार यदि संसार में अशुभ न हो तो शुभ का महत्त्व स्पष्ट नहीं होगा। पाप कारण ईश्वर नहीं। ईश्वर ने इस सर्वोत्तम संसार की सृष्टि की है। यदि वह चाहता तो पाप-शन्य जगत में का निर्माण कर सकता था पर ऐसा होना असम्भव है, क्योकि पाप-शून्य जगत पुण्य का महत्त्व नहीं होता। अज्ञान के कारण मनुष्य स्वभावतः पाप करता है। ईश्वर ने मनुष्य को स्वतन्त्र बनाना चाहा, परन्तु वे जानते थे कि आदर (Adam) और (Eve) ईव पाप करेंगे और फलस्वरूप दण्ड के भागी होंगे। आदिम मानव (आदम और ईव) की सन्तान होने के कारण मनुष्य स्वभावतः पापी है। इसका कारण ईश्वर नहीं, वरन् मनुष्य की अपनी प्रकृति या स्वतः अज्ञान है।

 

 

 

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