विजयनगर राज्य की स्थापना कब और कैसे हुई?
विजयनगर की स्थापना इस राज्य का जन्म मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में हुआ था। दक्षिण की अव्यवस्था से लाभ उठाकर हरिहर तथा बुक्का नाम के दो भाइयों ने 1336 ई० में तुंगभद्रा नदी के किनारे पर विजयनगर की नींव डाली। ये दोनों भाई वारंगल के काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव की नौकरी में थे। विजयनगर की स्थापना करने में इन्हें उस समय के प्रकाण्ड विद्वान विद्यारण्य से भारी सहायता प्राप्त हुई। यह राज्य लगभग 250 वर्षों तक बना रहा। इस काल में विजयनगर पर चार राजवंशों ने शासन किया जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
(1) संगम वंश (1336-1486 ई०)-
इस वंश के प्रथम दो शासक हरिहर एवं बुक्का हुए। इन दोनों शासकों ने किसी प्रकार की उपाधियाँ धारण नहीं की। ये ही इस राज्य के जन्मदाता थे। इन्होंने अपने राज्य का खूब विस्तार किया। बुक्का की मृत्यु के बाद उसके पुत्र हरिहर द्वितीय ने राजमुकुट धारण किया। इसने राजकीय उपाधियाँ धारण कीं। उसने दक्षिण के कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काँची आदि प्रदेशों को जीत लिया। हरिहर द्वितीय शिव का उपासक होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। उसकी मृत्यु के बाद इस वंश का सबसे प्रतापी सम्राट देवराय द्वितीय सिंहासन पर बैठा। इसने शासन-व्यवस्था का अच्छा संगठन किय । देवराय की मृत्यु के बाद उसके अयोग्य एवं दुर्बल उत्तराधिकारी राज्य की रक्षा न कर सके। अतः इस वंश के अन्तिम शासक को पदच्युत कर नरसिंह सलुव 1486 ई० में सिंहासनारूढ़ हुआ।
(2) सलुव वंश (1486-1505 ई०)-
नरसिंह ने सलुव वंश की नींव डाली। नरसिंह ने बहमनी सुल्तानों तथा उड़ीसा के शासक से अनेक युद्ध किये। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी नितान्त अयोग्य सिद्ध हुए। अतः 1505 ई० में नरसिंह के निकम्मे पुत्र को दूसरे सेनानायक वीर नरसिंह ने सिंहासन से पदच्युत् कर दिया और स्वयं विजयनगर का शासक बन गया।
(3) तुलुव वंश (1505-1570 ई०)-
वीर नरसिंह ने एक नये राजवंश की स्थापना की। इस वंश का सबसे अधिक योग्य शासक कृष्णदेव राय था। वह 1509 ई० में सिंहासनरूढ़ हुआ। उसने उड़ीसा के शासक प्रतापरुद्र तथा बीजापुर के सुल्तान को परास्त किया। उसके शासन काल में विजयनगर साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में दक्षिणी कोंकण, पूर्व में विजयपट्टम और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के छोर तक हो गया।
तालीकोट का युद्ध कृष्णदेव राय की मृत्यु के बाद उसके भाई ने शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका भतीजा सदाशिव सिंहासन पर आया। उसकी दुर्बलता एवं अयोग्यता के कारण राज्य की वास्तविक शक्ति उसके मन्त्री रामराजा के हाथों में थी। रामराजा की आक्रामक नीति से दक्षिण के मुस्लिम राज्य असंतुष्ट एवं अप्रसन्न थे। अतः चार मुसलमानी राज्यों (बीजापुर, गोलकुण्डा, बरार तथा बीदर) ने संघ बनाकर विजयनगर पर आक्रमण कर दिया और 1565 ई० में तालीकोट के युद्ध में रामराजा को भीषण पराजय दी। मुसलमानी सेना ने विजयनगर शहर को खूब लूटा और उसका सर्वनाश कर दिया। सेवल के शब्दों में “संसार के इतिहास में कभी भी वैभवशाली नगर को इस प्रकार सहसा सर्वनाश नहीं किया गया जैसा कि विजयनगर का ।” विजयनगर की लूट से मुसलमानों को विपुल सम्पत्ति मिली। तालीकोट का युद्ध वास्तव में भारत के निर्णयात्मक युद्धों में से एक है। इससे दक्षिण में हिन्दुओं की प्रभुता का अवसर जाता रहा और यह सत्रहवीं सदी में मराठा अभ्युदय तक एक नये तुर्की वंश के शासकों के आक्रमणों के लिए खुला रह गया। इसके पश्चात् यह साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
(4) अरबिंदु वंश-
तालीकोट के युद्ध के बाद रामराजा के भाई तिरुमल्ल ने 1570 ई० में विजयनगर के शासक सदाशिव को हराकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उसने एक नये वंश की नींव डाली। इसके बाद उसका भाई वेंकट द्वितीय शासक हुआ । इस वंश का अन्तिम स्वतन्त्र शासक रङ्ग तृतीय हुआ। वह इतना दुर्बल एवं अयोग्य था कि बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तानों के आक्रमण को नहीं रोक सका। परिणाम यह हुआ कि इसके अधीनस्थ सामन्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य का अन्त हो गया।
विजयनगर का शासन-प्रबंध
(1) राजा और मन्त्रिपरिषद्-
विजयनगर के राजा निरंकुश शासक थे परन्तु वे अन्यायी न थे। प्रजा की भलाई करना वे अपना परम उद्देश्य मानते थे। राजा शासन का सर्वेसर्वा था। वह साम्राज्य का सेनापति एवं प्रधान न्यायाधीश था। राजा की सहायता तथा परामर्श के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी। इस परिषद् के सदस्य राजा द्वारा नियुक्त तथा पदच्युत किये जाते थे।
(2) प्रान्तीय शासन-
साम्राज्य प्रान्तों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार होता था जो राजपरिवार का सदस्य या स्वामिभक्त सामन्त होता था। युद्ध के समय में सूबेदारों को राजा के लिए सैनिक सहायता भेजनी पड़ती थी। प्रत्येक प्रान्त की कुल आय का एक तिहाई भाग राजा को मिलता था। प्रान्ताध्यक्ष अपने प्रान्त का सर्वोच्च शासक होता था, परन्तु केन्द्रीय सरकार का उस पर कड़ा नियंत्रण रहता था। .
(3) स्थानीय शासन-
प्रान्त जिलों में और जिले छोटी इकाइयों में बँटे थे। शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। गाँव में ग्राम सभाएँ होती थीं जो छोटे-मोटे झगड़ों का फैसला करती तथा शांति एवं व्यवस्था बनाये रखती थीं।
(4) आय के साधन-
राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। भमि-कर उपज का 1/6 से 1/5 भाग तक लगता था। इसके अतिरिक्त जनता को चारागाह कर, विवाह कर, उद्यानों और दास्तकारी की चीजों पर भी सरकार को कर देना पड़ता था। कर या तो नकद या उपज के रूप में वसूल किया जाता था।
(5) सेना-
राजा की स्थायी सेना के अलावा प्रान्तीय शासकों के पास भी सेना होती थी जो युद्ध काल में राजा को सैनिक दिया करते थे और हर प्रकार की सहायता करते थे। सेना में हाथियों का महत्व अधिक था।
(6) न्याय-व्यवस्था-
राजा ही प्रधान न्यायाधीश था। वह अन्य न्यायाधीशों को नियुक्त करता था। दण्ड-विधान कठोर था। चोरी, व्यभिचार एवं राजद्रोह के लिए प्राणदण्ड अथवा अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। दीवानी कानून तोड़ने वाले को अर्थदण्ड भी दिया जाता था । न्याय हिन्दू धार्मिक नियमों के अनुसार होता था।
धार्मिक सहिष्णुता-
विजयनगर के शासक वैष्णव धर्म के मानने वाले थे किन्तु धर्मों के प्रति उनका व्यवहार अच्छा था। इनके राज्य में धर्म के नाम पर मार-काट अन्य नहीं होती थी।
सम्मान-
विजयनगर की सामाजिक दशा उच्च श्रेणी के लोगों का जीवन वैभव-सम्पन्न एवम् विलासितापूर्ण था और झोपड़ियों हने वाले गरीबों का जीवन दुःखपूर्ण था। समाज में ब्राह्मणों को अधिक प्रभाव एवं था। स्त्रियों को भी समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। उन्हें संगीत एवं ललित नाओं के अलावा उच्चकोटि की साहित्यिक शिक्षा भी मिलती थी। समाज में बहु-विवाह सपथा प्रचलित थी। सती की प्रथा भी खूब प्रचलित थी। विजयनगर की जनता गाय तथा बैल को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के पशु-पक्षियों के मांस का भोजन में प्रयोग करती थी।
कला तथा साहित्य-
विजयनगर के शासकों को विद्या से अनुराग था और वे कवियों तथा विद्वानों को आश्रय देते थे। कृष्णदेवराय स्वयं उच्चकोटि का विद्वान था। संस्कृत तथा तेलुगु भाषा की आशातीत उन्नति इन शासकों के आश्रय में हुई। भवन-निर्माण कला से भी इन शासकों को विशेष प्रेम था। इन्होंने किलों, मन्दिरों, झीलों व नहरों का निर्माण कराया। हजारा और विट्ठलस्वामी के मन्दिर इनकी कला के उत्तम नमूने हैं। कृष्णदेवराय ने भव्य भवन एवं सौन्दर्यपूर्ण मन्दिरों का निर्माण कराया। साम्राज्य की राजधानी विजयनगर एक अत्यन्त सुन्दर नगर था जिसकी प्रशंसा सभी विदेशी पर्यटकों ने की थी। चित्रकला तथा संगीत को भी विजयनगर के राजाओं ने प्रोत्साहन दिया।
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