अशुभ विचार
सन्त ऑगस्टाइन के दर्शन में अशुभ की समस्या पर एक नये दृष्टिकोण से विचार किया गया है। इसाई धर्म के अनुसार ईश्वर परम शुभ है। सारी सृष्टि ईश्वर की अभिव्यक्ति है अर्थात् शुभ की अभिव्यक्ति है। ईश्वर पर कोई बन्धन नहीं, नियन्त्रण नहीं, वह शुद्ध प्रेम के कारण ही जगत् की सृष्टि करता है। सृष्टि उसके शुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति ही है। प्रश्न यह है कि यदि ईश्वर परम शुभ है और शुद्ध प्रेम है और सृष्टि ही उसकी अभिव्यक्ति है तो संसार में अशुभ और द्वेष कसे? तात्पर्य यह है कि यदि ईश्वर ही जगत् का कारण है और वह शुभ है तो अशुभ की उत्पत्ति कैसे? ऑगस्टाइन इसकी बड़ी सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार अशुभ का शुभ से पृथक अस्तित्व नहीं। अशुभ तो केवल शुभ का अभाव है।
अशुभ निष्प्रयोजन नहीं सप्रयोजन है। अशुभ से शुभ का महत्व बढ़ता है जैसे अन्धकार से प्रकाश का। इसलिये सन्त ऑगस्टाइन कहते हैं कि ‘अशुभ नहीं है, किन्तु यह शुभ है। कि अशुभ है। तात्पर्य यह है कि अशुभ का कोई निजी भावात्मक स्वरूप नहीं है, वह तो केवल शुभ का अभाव है जैसे अन्धकार प्रकाश का। परन्तु अशुभ अनावश्यक नहीं, इससे शुभ का महत्त्व बढ़ता है। इस प्रकार ऑगस्टाइन पाप और अशुभ के बार में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं जिसके अनुसार अशुभ हेय नहीं आदेय है, त्याज्य नहीं ग्राह्य है।
इस प्रकार सन्त ऑगस्टाइन शुभ और अशुभ के द्वैत भाव का निराकरण करते हैं। ईश्वर परम शुभ है परन्तु इसे इस रूप में वही जान सकता है जिसे उसके प्रति प्रेम हो। प्रेम के कारण ही हम ईश्वर की शक्ति को पहचानते है। परन्तु ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम वही कर सकता है जिसे ईश्वर की कृपा प्राप्त हो। इस कृपा को प्राप्त करने का धरती पर एकमात्र माध्यम चर्च है। इस प्रकार अशुभ और पाप की समस्या के माध्यम से ऑगस्टाइन परम शुभ और ईश्वरीय प्रेम पर प्रकाश डालते हैं। स्वयं ऑगस्टाइन के शब्दों में प्रेम के बिना आस्था असम्भव है तथा आस्था के अभाव में आशा निराधार है। आशा के अभाव में प्रेम नहीं तथा प्रेम के अभाव में आशा और आस्था के अभाव में प्रेम और आशा दोनों नहीं।
नियतिवाद और स्वतन्त्रता(Fatalism and Freedom)
सन्त ऑगस्टाइन के दर्शन में नियतिवाद और स्वतन्त्रता की समस्या पर बदल विचार किया गया है। वस्तुतः यह दार्शनिक समस्या है, परन्तु ऑगस्टाइन इसका धार्मिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। हम पहले विचार कर आये है कि इसाई मतानुसार संसार के सर्वप्रथम मनुष्य आदम थे। आदम सभी प्रकार से स्वतन्त्र तथा स्वच्छन्द थे। परन्तु निषिद्ध फल को खाकर उन्होंने स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया, फलतः पाप के भागी बने। इस आदम के माध्यम से ईश्वर ने मनुष्य जाति को स्वतन्त्रता प्रदान की थी, परन्तु आदम ने इसका दुरुपयोग किया। आदम की सन्तान होने के कारण आदमी पापी बना, अशभ का शिकार बना।
इस विवरण से स्पष्ट है कि मानव स्वभावतः पापी है। मानव का पापी स्वभाव ही पूर्व नियत है। यदि मनुष्य है तो जन्मतः परतन्त्र तथा पापी है। यह बड़ा ही निराशावादी दृष्टिकोण है। प्रश्न यह है कि मानव पाप-मुक्त हो सकता है या नहीं? पुनः स्वतन्त्रता पा सकता है या नहीं? यहाँ ऑगस्टाइन आशावादी है। उनके अनुसार ईश्वर स्वभावतः दयालु है। वह मानव-मात्र का कल्याण चाहता है। आद्य पाप से मुक्ति के लिये ही उसने अपने परम-प्रिय इकलौते पुत्र (Only begolucn son) ईसा मसीह को धरती पर भेजा। ईसा मसीह के माध्यम से ही पूजा तथा प्रार्थना के कारण मनुष्य पुनः स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकता है, ईश्वरीय नगर का निवासी बन सकता है। परन्तु पुनः प्रश्न है कि क्या ईसा मसीह के माध्यम से सभी लोग स्वतन्त्र हो जायेंगे? इस प्रश्न का उत्तर भी ऑगस्टाइन के अनुसार नियतिवादी है।
ऑगस्टाइन के अनुसार ईश्वर ने कुछ लोगों को ईश्वरीय साम्राज्य (Kingdom of God) के लिए चुन लिया है तथा कुछ लोगों को अशुभ साम्राज्य (Kingdom of Evil) के लिए चुन लिया है। इस चयन में मनुष्य का हाथ नहीं। यहाँ तो नियतिवाद या भाग्यवाद ही प्रधान है। परन्तु जो अशुभ साम्राज्य के लिए गये हैं, उन्हें बिल्कुल निराश होने की आवश्यकता नहीं, उन पर भी ईसा मसीह के माध्यम से ईश्वरीय कृपा की वृष्टि हो सकती है। अतः अन्ततोगत्वा ऑगस्टाइन आशावादी हैं। परन्तु स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का निर्धारण, शुभ और अशुभ साम्राज्य में निवास का प्रश्न देवाधीन है, भाग्याधीन है।
ऑगस्टाइन के अन्य विचार
सन्त ऑगस्टाइन ने राज्य, न्याय, सम्पत्ति, दासता आदि सभी महत्वपूर्ण विषयों पर विचार व्यक्त किया है। परन्तु उनके सभी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विचारों पर धर्म की गहरी छाप है। सभी विषयों पर वे इसाई धर्म के अनुसार ही विचार करते है। इसाई धर्म ही उनका सर्वश्रेष्ठ विचार है। उदाहरणार्थ, राज्य को वे मानव पाप के उपचार स्वरूप स्वीकार करते है। राज्य के द्वारा ही मानव को पाप से मुक्ति मिल सकती है।
राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है, परन्तु राज्य तो शैतान का राज्य है। ऑगस्टाइन राज्य का आधार न्याय नहीं मानते, सांसारिक राज्य पर शैतान का शासन होता है। राज्य एक दूसरे के अधिकारों का अपहरण करना चाहते है। अतः यह अन्याय पर आधारित है। राजा गैर इसाई भी हो सकता है। वस्तुतः न्याय इसाई राज्य (चर्च) का गुण है। चर्च में ही यथार्थ न्याय और शान्ति मिल सकती है, क्योंकि यह ईश्वर निर्मित है। सांसारिक राज्य का कर्तव्य है कि यथार्थ राज्य (चर्च) की भूमि-भवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करे।
चर्च-सत्ता राज-सत्ता से श्रेयस्कर ऑगस्टाइन निजी सम्पत्ति का समर्थन करते हैं। क्योंकि सम्पत्ति के बिना सामाजिक तथा आध्यात्मिक कर्तव्यों का पालन नहीं हो सकता। परन्तु आवश्यकता से अधिक निजी सम्पत्ति का उपयोग सामाजिक कल्याण के लिए होना चाहिए। ऑगस्टाइन दास प्रथा को भी निजी सम्पत्ति का एक अंग मानते है। वे अरस्तू की दास-प्रथा का समर्थन तो करते हैं, परन्तु उनका तर्क अरस्तू से भिन्न है। अरस्तू के अनुसार दास प्रथा स्वाभाविक है। स्वभाव से ही कुछ व्यक्ति स्वामी तथा कुछ दास उत्पन्न होते हैं। ऑगस्टाइन के अनुसार दासता मानव पाप का प्रायश्चित है। यह ईश्वर प्रदत्त मानव पाप का फल है। आद्य-पाप में मानव ने समानता और स्वतन्त्रता को खो दिया। अतः दासता मानव पाप का ईश्वरीय उपचार है। दास दण्ड का भागी है। दास को स्वामी की सेवा कर पाप से मुक्त होना चाहिये।
सन्त ऑगस्टाइन मध्य युग से सबसे बड़े विचारक माने जाते हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति ‘दि सिटि आफ गॉड’ है। इसमें दो नगरों के सिद्धान्त (सांसारिक नगर तथा ईश्वरीय नगर) का प्रतिपादन किया गया है। इस विचार से यूरोप बहुत दिनों तक प्रभावित रहा। मध्य युग से लेकर वर्तमान युग तक यह विचार चलता रहा। शार्लोमेन तथा ऑटो महान् (Charleoman and Oto the great) ने पवित्र रोमन साम्राज्य के भवन का निर्माण किया जिसकी नींव ऑगस्टाइन के विचारों में है।
ऑगस्टाइन का मुख्य कार्य इसाई धर्म का प्रचार और प्रसार है। ये सचमुच चर्च-पिता माने जाते हैं, क्योंकि चर्च की स्वायत्तता और स्वाधीनता पर इन्होंने बहुत बल दिया है। इनके अनुसार धरती पर चर्च ही सर्वोपरि संस्था है| चर्च की आज्ञा ईश्वर का आदेश है। राजाज्ञा का उल्लंघन सम्भव है, परन्तु चर्च की आज्ञा का नहीं। आगे चलकर ग्रेगरी महान (Gregory the Grea) में इस सिद्धान्त को अधिक महत्वपूर्ण बनाया। ‘दो तलवारों के सिद्धान्त’ का बीज ऑगस्टाइन के विचारों में है।
ऑगस्टाइन के बाद का मध्य युग
सन् १३० में सन्त ऑगस्टाइन की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद और एरिजेना के पहले तक का समय पाश्चात्य दर्शन का अन्धकारमय युग कहलाता है। सन् 476 में रोम का शासन बर्बर जर्मन विजेताओं के हाथ में चला गया। बर्बर आक्रमणकारियों ने रोम की राजनीतिक शक्ति नष्ट करने के साथ-साथ पश्चिम युरोप की संस्कृति का भी विनाश कर दिया। सभी प्राचीन साहित्य नष्ट हो गये तथा ज्ञान का पूर्ण विराम-सा हो गया। समाज में अराजकता को रोकने के लिये चर्च ही एकमात्र साधन था तथा दर्शन ज्योति को न बुझने देने का कारण केवल इसाई पण्डित थे।
चर्च सर्वप्रथम तो पूर्णतः धार्मिक संस्था थी, परन्तु धीरे-धीरे चर्च का प्रभाव बढ़ने लगा। चर्च केवल धर्म का केन्द्र न होकर न्याय तथा शिक्षा का भी केन्ट हो गया। इस प्रकार समाज में चर्च का शासन प्रारम्भ हो गया। चर्च का केन्द्र रोम था परन्तु इसकी शाखाएँ पूरे यूरोप में फैली थीं। सभी शाखाओं पर रोम के पोप का शासन था। इस प्रकार रोम का पोप सम्राटों का सम्राट बन गया।
चर्च का सर्वप्रथम स्वरूप प्रशंसनीय था, क्योंकि चर्च के माध्यम से ही प्राचीन शिक्षा और संस्कृति की रक्षा हो सकती थी। परन्तु धीरे-धीरे जब चर्च शासन और न्याय का माध्यम बना तो चर्च में भी दोष आने लगे। चर्च संस्था बन गयी तथा उस युग को चर्च के प्राधान्य के कारण चर्च-युग (Church-age) कहा जाने लगा। इस चर्च युग में सर्वत्र चर्च का ही बोलबाला था। अत: चर्च की सत्ता सार्वभौम स्वीकार की गयी। चर्च के अध्यक्ष पादरी कहलाते थे। अतः इस युग को पादरी युग भी कहते हैं। पादरी लोग पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि माने जाते थे तथा उनकी वाणी में विश्वास ईश्वर में विश्वास था।
इस प्रकार धीरे-धीरे अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादी का जन्म हुआ जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आगे आधुनिक युग का जन्म हुआ। इस युग को शास्त्रीय युग (Scholatic age) भी कहते हैं, क्योंकि इस युग में धर्म-शास्त्र ही एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाते थे। बाइबिल ही एकमात्र शास्त्र था तथा इसाई होने के नाते इस पुनीत शास्त्र में विश्वास आवश्यक था।
वस्तुतः मध्य युग दर्शन का नहीं, वरन् धर्म प्रधान युग है। इस युग में दर्शन धर्म का दास बन गया। धर्म से अलग दर्शन का कोई स्वरूप नहीं रह गया। सभी दार्शनिक सिद्धान्तों की धार्मिक व्याख्याएँ प्रारम्भ हुई। इसाई पादरी लोग जो मूलत: धार्मिक थे, वे दार्शनिक बन बैठे। दर्शन चर्च की चहारदीवारियों में बन्द हो गया, प्रत्येक दार्शनिक को अपने सिद्धान्तों को चर्च के साँचे में बैठाना पड़ता था। आस्था का बुद्धि पर आधिपत्य स्थापित हो गया, पादरी दार्शनिक हो गये। इससे धार्मिक प्रगति तो अवश्य हुई, परन्तु दार्शनिक ह्रास भी हुआ। यह धर्म प्रधान युग इसाई धर्म का सर्वश्रेष्ठ काल है। इसाई धर्म का प्रचार और प्रसार ही इस युग की प्रधानता रही। धर्म की आधारशिला आस्था है, अत: इसे आस्था-प्रधान युग भी कहा गया है। बाइबिल में आस्था, ईश्वर वचन में विश्वास और पादरी की पूजा आदि इस युग की सामान्य विशषताएँ हैं।
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