सतत विकास का अर्थ
सतत विकास से तात्पर्य पोषणीय विकास (Sustainable Development) से है, जिसका अर्थ है- विकास ऐसा होना चाहिए, जो न केवल मानव समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं को ही पूरा करे, वरन् स्थायी तौर पर भविष्य के लिए निर्वाध/सतत विकास का आधार प्रस्तुत करे। सतत विकास की अवधारणा सर्वप्रथम सन् 1987 में ब्रटलैन्ड रिर्पोर्ट में प्रकट हुई, जिसमें इस तथ्य पर बल दिया गया कि आर्थिक विकास हेतु कोई ऐसी पद्धति निर्मित की जाये कि भावी पीढ़ियों के विकास के आधार पर कोई आँच न आए। ऐसा संरक्षण सकारात्मक है, क्योंकि इसके अन्तर्गत परिस्थितिकरण तन्त्र के तत्वों का संचय, रख-रखाव, पुनर्स्थापन, दीर्घ अवधि तक उपयोग और अभिवृद्धि सभी कुछ सम्मिलित है। सतत विकास की मान्यता है कि परिस्थितिकी तन्त्र पूर्वजों से प्राप्त हुई विरासत न होकर, भावी सन्ततियों की ही धरोहर है।
भारतीय समाज में सतत विकास प्रक्रिया से अभिप्राय
इतिहासकारों के अनुसार भारतीय समाज लगभग पांच हजार वर्ष प्राचीन है। जिसे चार भागों में बाँटा जा सकता है -1. प्राचीन काल (300 ई0 पू0 से 700 ईसवी), 2. मध्यकाल (700 ई0 से 1750 ई0), 3. आधुनिक काल (1750 ई0 से 1947 ई०) और 4. समकालीन काल (1947 ई0 से अब तक)। भारत का यह इतिहास दीर्घकालिक विकास की सतत प्रक्रिया (Sustainable Process) को स्पष्ट करता है। इस सम्पूर्ण काल में भारतीय समाज की परम्पराओं का क्रमिक विकास होता रहा। वैदिक युग में हिन्दुओं का सामाजिक संगठन संस्थागत तथा वैचारिक मान्यताओं के आधार पर विकसित हुआ। हिन्दू सामाजिक संगठन की संस्थागत आधारशिलाओं में वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, पित-सत्ता, लिंग-भेद, जाति-भेद, ग्रामों की प्रधानता, कर्म एवं पुनर्जन्म आदि था। मध्य व आधुनिक काल में यद्यपि इनमें परिवर्तन होते रहे, किन्तु समकालीन समाज इन मूल-मान्यताओं को स्वीकार करता है।
भारतीय भूगोल, इसके प्राकृतिक तत्व, पर्वत, नदियों, मरुस्थल, नदियों एवं महासागरों ने किसी भी अन्य देश की अपेक्षा भारत के इतिहास को अधिक प्रभावित किया है। भारत अपने आरम्भिक काल से ही एक पृथक भू-भाग के रूप में रहा है। अतः भारत को एशिया का उपमहाद्वीप भी कहते हैं। अनुश्रुति के अनुसार ‘अगस्त्य ऋषि’ ने उत्तरी भारत से प्रयाण कर दक्षिणी भारत में प्रवेश किया और सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में आबद्ध करने का प्रयास किया। राम ने उत्तर से चलकर दक्षिण में रावण को परास्त करके सम्पूर्ण भारत को एकीकृत किया। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत का एकीकरण सतत विकास की प्रक्रिया है। भारतीय समाज में विभिन्न असमानाएँ प्राचीन काल में थीं और समकालीन समाज में भी हैं। प्रत्येक प्रकार के विकास के बाद भी भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन और असमानताएँ कम नहीं हो पाई हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था निर्जीव नहीं थी। यह अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित थी। वर्षा और जलवायु ठीक रही, तो फसल अच्छी मिल गई, अन्यथा कृषक भूखा और राज्य राजस्व से वंचित रहा था। खाद, बीज, यन्त्र अच्छी किस्म के नहीं थे। कीटनाशक दवाइयों नहीं थीं। धीरे-धीरे नहरें, कुएं, ट्यूबवेल, उत्तम खाद एवं बीज, कीटनाशक दवाइयाँ आदि उपलब्ध होने लगे। फलस्वरूप विकास की स्थिति में कुछ सुधार आया। सरकार ने कृषक समस्याओं को हल करने के विविध प्रयास किए। स्वतन्त्र भारत में 1950 ई0 के लगभग औद्योगिक विकास शुरू हुआ। लकड़ी एवं कोयले के उपयोग के स्थान पर डीजल, पेटोल एवं सौर ऊर्जा का उपयोग होने लगा। विद्युत चालित यन्त्रों का प्रयोग होने लगा। औद्योगिक क्षेत्र में आज भी विकास की सतत प्रक्रिया जोर-शोर से आगे बढ़ रही है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में चेचक, मलेरिया, तपेदिक, प्लेग, आदि रोगों से प्रति वर्ष अनगिनत लोग मारे जाते थे। इलाज के लिए न तो चिकित्सक थे। अस्पताल और न उपकरण ही। समकालीन भारत में ये अभाव दूर होते जा रहे हैं। आज देश के विभिन्न स्थानों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, पैथेलॉजी सेन्टर्स, अल्ट्रासाउण्ड, ई0 सी0 जी0 एवं कैट स्कैन जैसी सुविधाओं के कारण अविलम्ब रोग की पहचान, उपयुक्त सर्जरी की नई तकनीक, आदि से मृत्यु दर कम हो गई है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में सतत प्रक्रिया जारी है।
भारत के विभिन्न राज्यों/क्षेत्रों में विद्यमान भौगोलिक असमानताओं के कारण कि की गति सभी क्षेत्रों में एक-सी नहीं है। फलस्वरूप राज्यों में परस्पर ईर्ष्या एवं वैमनस्य हुआ है। कभी-कभी पड़ोसी राज्य परस्पर संघर्ष करने लगते हैं। देश में आर्थिक गति भी असमान है। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा अग्रणी राज्य हैं तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार आर्थिक विकास में पिछड़े हुए हैं। सामाजिक परिवर्तन से आर्थिक विकास की गति बढ़नी चाहिए। सबको समान हिस्सा मिलना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, वाणिज्य, व्यवसाय सब कुछ अर्थ व्यवस्था पर ही निर्भर करते हैं।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व तक भारतीय समाज उग्र जातिवादी भेदभाव एवं साम्प्रदायिकता से ग्रसित था। किन्तु सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव से यह भेदभाव कुछ कम हुआ। सामाजिक सांस्कतिक कार्यक्रमों में पारस्परिक मेल-जोल और सदभाव देखा जाने लगा। अचानक 1989 ई0 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मण्डल आयोग लागू किए जाने से जातिगत विद्वेष पुनः जीवित हो उठा। देश भर में इसका विरोध हुआ। वी० पी सिंह तो राजनीति की कब्र में चले गये, किन्तु इस अन्धकार से देश को बाहर निकालने का प्रयास किसी ने भी नहीं किया। राज्य स्तर के नेताओं ने खुलकर जातिवाद को बढ़ाया और अपनी जाति को लाभान्वित करके राज्य के सिंहासन पर आसीन हो गए। कालान्तर में ऐसे क्षेत्रीय राजनेता केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी सम्मिलित किए गए। जातिवाद के कारण भी भारत में सामाजिक परिवर्तन के सतत विकास की अपेक्षित गति नहीं प्राप्त हो पाती।
आर्थिक वृद्धि तथा सामाजिक विकास एक दूसरे के पूरक है
अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से आर्थिक वृद्धि का आशय किसी देश की राष्ट्रीय आय के विस्तार से है। आर्थिक वृद्धि के अन्तर्गत मात्र इसी बात पर ध्यान देते हैं कि किसी कालावधि इसके पूर्व के काल की तुलना में मात्रात्मक रूप में अधिक उत्पादन हो रहा या नहीं। इस प्रकार हम कह सकते है कि आर्थिक वृद्धि वास्तव में एक ‘परिमाणात्मक संकल्पना’ (Quantitative Concept) है, जो कि अधिक उत्पादन से सम्बद्ध होती है।। आर्थिक वृद्धि में एक ओर अधिक मात्रा में आदानों (Inputs) के कारण अधिक उत्पादन को सम्मिलित किया जाता है, तो दूसरी ओर इसमें प्रति इकाई आदान के बदले अधिक उत्पादन का समावेश भी रहता है। कुछ अर्थशास्त्री आर्थिक वृद्धि और आर्थिक विकास शब्दों को एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त करते रहे, किन्तु दोनों अवधारणायें पृथक्-पृथक है।
आर्थिक विकास की अवधारणा आर्थिक वृद्धि से अधिक व्यापक है। इसमें उत्पादन की संरचना में होने वाले परिवर्तनों एवं क्षेत्र के अनुसार, आदानों (Inputs) के आबंटन में परिवर्तन को सम्मिलित किया जाता है। अतः आर्थिक विकास के बिना आर्थिक वृद्धि तो सम्भव है, किन्तु आर्थिक वृद्धि के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है, क्योंकि तकनीकी और संस्थानात्मक व्यवस्था में परिवर्तन का उद्देश्य राष्ट्रीय आय से प्राप्त वृद्धि को विभिन्न क्षेत्रों तथा जनसंख्या के विभिन्न वर्गों में सापेक्षता अधिक न्यायोचित रूप में बॉटना है। जब तक कोई अर्थव्यवस्था अपनी निर्वाह आवश्यकताओं में अधिक उत्पन्न नहीं करती, तब तक वह देश की जनसंख्या के जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा उसे अधिक न्यायपूर्ण वितरण सुलभ कराने में सफल नहीं हो सकती, ताकि जनता की वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी हो सके।
आर्थिक विकास की अवधारणा की व्याख्या किसी समाज में नीति-उददेश्यों के रूप में ही की जा सकती है। इस अवधारणा का आधार समाज द्वारा स्वीकृत वे मूल्य हैं, जिनके आधार पर समाज के निर्माण का संकल्प किया गया हो। इस दृष्टि से आर्थिक विकास गुणात्मक रूप से आर्थिक वृद्धि से भिन्न है। प्रो0 जी0 एम0 मेयर ने आर्थिक विकास को परिभाषित करते हुये लिखा है कि, “आर्थिक विकास की परिभाषा एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है, जिसके परिणामस्वरूप कोई एक देश लम्बी कालावधि में अपनी वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करता है, बशर्ते कि ‘परम निर्धनता रेखा’ के नीचे रहने वाली जनसंख्या में वृद्धि न हो तथा आय का निर्माण और अधिक असमान न हो जाये।
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Complete Reading List-
इतिहास/History–
- प्राचीन इतिहास / Ancient History in Hindi
- मध्यकालीन इतिहास / Medieval History of India
- आधुनिक इतिहास / Modern History
समाजशास्त्र/Sociology–
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