सामाजिक संरचना क्या है?
सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन एवं चिन्तन की विभिन्न प्रजातियाँ जन्म लेती हैं। सामाजिक संरचना समाज की विभिन्न इकाइयों, समहों, संस्थाओं समितियों, सामाजिक सम्बन्धों से निर्मित एक प्रतिमानित एव क्रमबद्ध ढाँचा है। पारसन्स के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर सम्बन्धित समस्यओ, अभिकरणों, सामाजिक प्रतिमानों एवं साथ ही समूह के प्रत्येक सदस्य के द्वारा ग्रहण किए गए पदों व कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।”
जाति व्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन को निम्नानुसार समझा जा सकता है –
- ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति में परिवर्तन – सम्पूर्ण जाति प्रणाली के अध्ययन का इतिहास बताता है कि जातीय संरचना में ब्राह्मणों का ही वर्चस्व रहा है, उनकी शक्ति और प्रभुता सर्वोपरि रही, फलस्वरूप समाज के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में उनका एकाधिकार बना रहा। किन्तु वर्तमान समय में यह रूप तेजी से बदलता जा रहा है, . क्योंकि जीवन की उच्चता और निम्नता का आधार अब जाति नहीं पद माना जाता है।
- व्यवसाय से सम्बन्धित निषेधों में परिवर्तन – पहले परम्परागत रूप से व्यक्ति को अपने जातीय पेशे/व्यवसाय से बाहर व्यवसाय के चयन की स्वतन्त्रता नहीं थी। अतः लोग अपने जातिगत व्यवसायों से ही जुड़े रहते थे। वर्तमान समय में जातिगत निषेधों का यह आधार लगभग समाप्त हो गया है। पाण्डेय जी ठेला चलाते हैं, ठाकुर साहब परचून की दुकान एवं अग्रवाल जी सेना में अधिकारी हैं। नगरीय समाज में सभी व्यक्ति जाति की उपेक्षा करते हुए अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर व्यवसाय चुनने लगे हैं।
- समाज के खण्डात्मक विभाजन में परिवर्तन – जाति व्यवस्था प्रारम्भ से ही समाज का खण्डात्मक विभाजन प्रस्तुत करती आई है। खण्डात्मक आधार पर ही भारत कई समूहों तथा उपसमूहों में उच्चता-निम्नता के आधार पर विभक्त रहा है, किन्तु अब जाति व्यवस्था की यह विशेषता भी पूर्ण रूप से बदल गई है। वर्तमान समय में लोगों की भावनाएँ मात्र जाति तक ही सीमित नहीं हैं। व्यक्ति का पद, व्यवसाय तथा कर्तव्य निर्धारण अब जाति पर नहीं, वरन व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित हो गया है।
- अस्पृश्य/दलित जातियों की स्थिति में परिवर्तन – जातीय ढाँचे में सबसे निम्न स्थिति अछूत जातियों को प्रदान की गई है। उनसे अच्छी स्थिति को उच्च जातियो द्वारा पाले गये पशुओं की थी। अछूतों को अन्त्यज कहा जाता था, उन पर अनेक निर्योग्यताएँ भी लाद दी गई थीं। किन्तु आज उनकी स्थिति में भी बदलाव आया है। अब वे समान अधिकार प्राप्त समूह बन गये हैं। सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक क्षेत्र में उनके अधिकार सवर्ण जातियों जैसे ही हैं। इस प्रकार ये आधुनिक विचार भी सवर्णों के विपरीत हैं, इस दृष्टि से भी जातीय संरचना में परिवर्तन आया है।
- सामाजिक सहवास सम्बन्धी प्रतिवन्धों में परिवर्तन – परम्परागत प्रणाली अपनी जाति के सदस्यों पर भोजन तथा सामाजिक सहवास पर भी प्रतिबन्ध/निषेध जाति लगाती है। लेकिन अब ये भी समाप्त हो गये हैं। आजकल बड़े-बड़े महानगरों, औद्योगिक केन्द्रों में रहने वाले लोग और उनके सामाजिक सम्बन्ध जाति की तुलना में उनके कार्यों द्वारा अधिक निर्देशित होते हैं।
- जातीय स्तरीकरण में परिवर्तन – जाति प्रणाली समाज को कुछ असमान खण्डों में विभाजित करती है, जिसे स्तरीकरण कहा जाता है। वर्तमान समय में स्तरीकरण की धारणा में भी बदलाव आया है। आज विभिन्न जातियों तथा उप-जातियों अपने-अपने समूहों को ऊँचा उठाने और बताने के लिए प्रयत्न कर रही हैं। इस प्रक्रिया को ‘संस्कृतिकरण’ कहा गया है।
सामाजिक संरचना की अवधारणा
सामाजिक संरचना एक व्यापक अवधारणा है। विभिन्न समाजशास्त्री सामाजिक संरचना, सामाजिक पद्धति तथा सामाजिक संगठन जैसे शब्दों को बहुधा प्रयोग में लाते हैं। सामाजिक संरचना शब्द के अन्तर्गत समाज के समान कार्य और संरचनायें सन्निहित हैं । इसलिए इसमें व्यक्ति और वे सभी विचार, ज्ञान प्रविधियां, उपलब्धियां, परम्परायें, फैशन, लोक रीतियों और संस्थायें आ जाती हैं जो एक विद्यमान सामाजिक व्यवस्था में अन्तर्निहित होती है । इसलिए सामाजिक संरचना या संगठन मानव व्यक्तित्व और चेतना एवं अचेतन व्यवहारों उनकी उन निर्मित एवं अनिर्मित धारणाओं तथा संस्थाओं की समग्रता का ही एक रूप है जो जटिल अन्तर्सम्बन्ध के मध्य एक मानव अस्तित्व ढांचे का निर्माण करते हैं ।
यह कहना सम्भव है कि सामाजिक संरचना समाज की विभिन्न इकाइयों, समहों, संस्थाओं, समितियों, सामाजिक सम्बन्धों से निर्मित एक प्रतिमानित एवं क्रमबद्ध ढाँचा है । सामाजिक संरचना या संगठन का क्षेत्र अधिक व्यापक है इसलिए सभी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संरचना में परिवर्तन के कारक भी बनते हैं । समकालीन भारतीय समाज में तीव्र परिवर्तन एवं रूपान्तरण हो रहा है | भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन की गति अभी भी धीमी है । इसी गति के कारण भारत, अमेरिका, यूरोप के देशों एवं जापान जैसे देश से काफी पिछड़ा हुआ है । परिवर्तन की गति पिछले कुछ दशकों से तेज हुई है। और इसी के परिणामस्वरूप समकालीन भारतीय समाज के लगभग सभी प्रतिमान परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं । वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रियाओं ने पहले से परिवर्तनशील भारतीय समाज को और भी गतिशील बना दिया है । भारतीय समाज के जिन प्रतिमानों में परिवर्तन एवं रूपान्तरण हो रहा है, उनको स्पष्ट उपशीर्षकों के माध्यम से व्यक्त करना आवश्यक है।
सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के फलस्वरूप आज इस प्रकार के दार्शनिक मूल्य अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण हैं । भौतिकवादी संस्कृति के विकास के परिणामस्वरूप इस प्रकार के मूल्यों का ह्रास होना स्वाभाविक माना जाता है । बौद्ध धर्म जैन धर्म तथा ईसाई धर्म ने हिन्दू धर्म से सम्बन्धित अनेक सामाजिक कुरीतियों के प्रति भारतवासियों में एक नयी चेतना विकसित हुई। सन 1829 में सती प्रथा, बालिका हत्या, मानव बलि और दास प्रथा (1833) की समाप्ति है । भारतीय दर्शन एवं परम्परा चिन्तन पर गाँधीवाद, मार्क्सवाद तथा अरविन्द के आध्यात्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा है । धार्मिक दृष्टि से किया जाने वाला कर्मका धीरे-धीरे कम हो गये हैं । इनका महत्व भी निरन्तर घट रहा है । वर्तमान में नामकरण विवाह, दाह संस्कार ही प्रमुख संस्कार रह गये हैं । संस्कारों का भी संक्षिप्तीकरण होता रहा है।
आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण एवं लौकिकीकरण जैसी परिवर्तन की प्रक्रियाओं में कुछ मूल्य गत अधिमान्यायें निहित हैं । परिणामस्वरूप भारतीय समाज में जाति, वर्ग, धर्म प्रजाति आयु एवं लिंग के आधार पर भेद भावों में कमी हुई है । भारत में धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का श्रेय भी आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण एवं लौकिकीकरणं जैसी परिवर्तन की प्रक्रियाओं को ही दिया जाता है । अंग्रेजी शासनकाल में समानतावादी एवं मानवतावादी मूल्यों में वृद्धि, शिक्षा के प्रसार तथा आवागमन के साधनों में वृद्धि से लौकिक, तार्किक एवं वैज्ञानिक विचारधाराओं में वृद्धि हुई है । यह कथन की सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन और चिन्तन की विभिन्न प्रणाली का जन्म होती है, सत्य है ।
भारतीय समाज की संरचना में होने वाले परिवर्तन की विशेषताएँ
भारतीय समाज के जिन प्रतिमानों का रूपान्तरण हो रहा है, उन्हें निम्नलिखित शीषर्कों के माध्यम से समझा जा सकता है-
1. सामाजिक-आर्थिक और औद्योगिक संगठन में हुए परिवर्तनों पर प्रकाश-
सामाजिक संगठन की बुनियाद जाति व्यवस्था है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने भारतीय जाति व्यवस्था में परिवर्तन करके सामाजिक संगठन को निम्नानुसार प्रभावित किया है –
- सरकारी सुविधाओं की प्राप्ति ने अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार किया है। उन पर लगाई गई सभी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताएँ/ निषेध/प्रतिबन्ध समाप्तप्राय हो गए हैं। सामाजिक सहवास, व्यवसाय तथा विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हए हैं। सरकार द्वारा सब लोगों को एक समान मौलिक अधिकार देकर छुआछूत को समाप्त किया है।।
- औद्योगिक विकास के फलस्वरूप अब आर्थिक आधार पर संगठन निर्मित हुए हैं, जिससे जातिगत भेदभाव समाप्त होता जा रहा है। कुछ विद्वानों के अनुसार, भारतीय जाति व्यवस्था उत्तरोत्तर वर्ग व्यवस्था में बदलती जा रही है। आज व्यवसायों के आधार पर भी वर्ग संगठनों का विकास हो रहा है। ट्रेड यूनियन आन्दोलनों ने मजदूरों तथा कर्मचारियों के कल्याण और हितों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
- उद्योग धन्धों के विकास के कारण विभिन्न जातियों में सेवाओं के विनिमय पर आधारित ‘जजमानी प्रथा‘ समाप्तप्राय है। शहरों में तो यह प्रथा पूर्णतः समाप्त है और गांवों में महत्वहीन होने लगी है। सेवक जातियाँ अपनी सेवा का नुकद भुगतान लेती हैं।
- औद्योगीकरण के तेजी से विकास के कारण औद्योगिक क्षेत्र में भी कई परिवर्तन देखे जा सकते हैं। अभी तक देश का प्रमुख उद्यम कृषि था, किन्तु वर्तमान समय में आजीविका के विभिन्न साधन-स्रोत उपलब्ध हैं, किन्तु मशीनों के प्रयोग ने बेरोजगारी की भयावह समस्या उत्पन्न की है। औद्योगिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों के कारण ग्रामीण समाज, जाति प्रणाली और संयुक्त परिवार की प्रथा में भी कई परिवर्तन हुए हैं। ग्रामीण जीवन पहले की भाँति रूढ़िवादी यानी लकीर का फकीर नहीं रहा है और उस पर नगरीय प्रभाव बढ़ता जा रहा है। संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकाकी परिवार लोकप्रिय हुए हैं। संयुक्त परिवार के परम्परागत ढांचे और कार्यों में महत्वपूर्ण बदलाव देखे जा सकते हैं।
- जातीय पंचायतों का महत्व घट गया है, जिनका स्थान वैधानिक पंचायतों ने ले लिया है। शहरों में जातीय पंचायतों का शवदाह हो गया है। वैधानिक पंचायतों ने ग्रामीणों के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। महिलाओं तथा अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, जिससे कमजोर वर्गों की दशा सुधरी है।
- मशीनों पर काम करने के फलस्वरूप खान-पान, छुआछूत जैसे प्रतिबन्ध कमजोर हुए हैं। संचार एवं यातायात के साधनों के विकास से जनसम्पर्क बढ़ा है। संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान होने लगा है, जिससे जाति-व्यवस्था के बन्धन शिथिल हुए हैं। बाल विवाह, तलाक, विधवा पुनर्विवाह, अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्धी अधिनियमों के पारित किए जाने से परम्परागत जाति व्यवस्था में काफी बदलाव आए हैं।
- आर्थिक विकास के कारण आज भारत में आर्थिक आधार पर अनेक वर्ग निर्मित हुए हैं, यथा पूजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग, मध्यम वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, आदि वर्ग निर्माण के साथ ही भारत में सघवाद की भावना का विकास भी हुआ है। प्रत्येक वर्ग अपने हितों की रक्षार्थ अधिकाधिक सचेत हो रहा है। नियोजित सामाजिक परिवर्तन को विशेष प्राथमिकता दी जा रही है।
2. भारतीय सामाजिक संस्थाओं में हुए परिवर्तनों की व्याख्या
वर्तमान भारतीय परिवार, विवाह तथा नातेदारी जैसी सामाजिक संस्थाओं में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तनों को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है –
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- स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने से सम्पत्ति के अधिकारों में परिवर्तन आया है। स्त्रियों के सम्पत्ति अधिकार बढ़े हैं। इसका प्रभाव संयुक्त परिवार के आकार और स्थायित्व पर पड़ा है। ।
- वर्तमान समय में परम्परागत व्यवसाय के महत्व में कमी आई है। औद्योगीकरण, नगरीकरण, आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण तथा शिक्षा के समान अवसरों के कारण सबको व्यवसाय चुनने का समान अवसर उपलब्ध है। आर्थिक लाभ व सामाजिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति की आशा में लोग परम्परागत पेशों को छोड़कर अन्य पेशे ग्रहण किए हैं।
- विज्ञान के विकास और तर्कप्रधान दृष्टिकोण के फलस्वरूप लोगों की धार्मिक प्रवृत्ति में ह्रास हुआ है। परिवार के सदस्यों में धार्मिक विजातीयता बढ़ी है, अतः उनमें पहले जैसा मतैक्य नहीं दिखता है।
- समय और परिस्थिति के लोग आत्मकेन्द्रित हो गये हैं। अब एक के लिए सब, सबके लिए एक की भावना नहीं देखी जाती। स्त्रियों को समान अधिकारों की प्राप्ति से लिंग सम्बन्धों में काफी बदलाव देखे जा सकते हैं। पुरुष की प्रधानता शिथिल हुई है।
- पहले परिवार के मुखिया/कर्ता की स्वेच्छाचारिता या निरंकुशता को सभी सदस्य स्वीकार करते थे। आज प्रजातान्त्रिक विचारों के कारण वह अपने विचारों/निर्णयों को दूसरे सदस्यों पर नहीं थोप सकता है।
- स्त्रियों बच्चों की स्थिति में काफी परिवर्तन आया है। शिक्षा और अन्य कारणों से उनको समानता और स्वतन्त्रता मिल गई है। वे परिवार से बाहर नौकरी एवं व्यवसाय करने लगी हैं। इससे उनकी आर्थिक परतन्त्रता भी दूर हुई है।
- परिवार के युवा सदस्यों की शक्ति बढ़ी हा शिक्षा एवं लोकतान्त्रिक विचारों से प्रभावित होने के कारण वे रूढिपरक तथा परम्परागत विचारों को ठुकराते हैं। इससे नई और पुरानी पीढी में संघर्ष होता है।
- वर्तमान समय में परिवार क आकार छोटा हो गया है। आज प्रत्येक व्यक्ति जितनी कमाई करता है, उसका पूर्ण उपभोग करना चाहता है, जो संयुक्तपरिवार में असम्भव है।
- परिवार का महत्व भी घटता जा रहा है। संयुक्त परिवार के अनेक का अन्य संस्थाएं करने लगी हैं। शिक्षा का कार्य विद्यालय करने लगा है। परम्परागत कर्यों में कमी और सामाजिक गतिशीलता में बढ़ोत्तरी ने परिवार के महत्व को कम कर दिया है।
- वर्तमान समय में हिन्दू विवाह को एक धार्मिक नहीं, वरन् पारस्परिक समझौता समझा जाता है। विवाह सम्बन्ध तभी तक रहते हैं, जब तक कि पति-पत्नी एक-दूसरे सन्तुष्ट हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्रियाँ भी विवाह को एक बन्धन मानती हैं। इन अतिरिक्त-
- अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता,
- सगोत्र, सप्रवर एवं सपिण्ड विवाह के मान्यता,
- बाल विवाहों में कमी,
- विधवा पुनर्विवाह को मान्यता,
- विवाह विच्छेद की व्यवस्था,
- नातेदारी व्यवस्था में परिवर्तन और बहुविवाह पर रोक भी ऐसे कारण हैं जिन्होंने सामाजिक संस्थाओं को प्रभावित किया है।
3. सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य मूलतः समाज की संरचना में हुए परिवर्तन की व्याख्या-
परिवर्तन समाज का एक शाश्वत नियम है । परिवर्तन की प्रक्रिया का क्रमबद्ध ढंग से चिन्तन 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ हआ है । समाज के लगभग सभी पहलुओं में परिवर्तन हुए है चाहे वह लोगों का आहार-व्यवहार, संगीत, सूचना प्रौद्योगिकी तथा जीवन शैली में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
परिवर्तन एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया है । समाज के किसी भी क्षेत्र में हुए विचलन को सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है । विचलन का तात्पर्य खराब या असामाजिक नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तन, किसी स्तर के हों, को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं । यह विचलन स्वयं प्रकृति द्वारा या मानव समाज द्वारा योजनाबद्ध रूप में भी हो सकता है । यह परिवर्तन समाज के समस्त ढाँचे में आ सकता है अथवा समाज के किसी विशेष पक्ष तक ही सीमित हो सकता है । परिवर्तन एक सर्वकालिक घटना है । यह किसी न किसी रूप में हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है ।
सामाजिक परिवर्तन एक विश्वव्यापी प्रक्रिया है, अर्थात् सामाजिक परिवर्तन प्राय: प्रायः समाजों में घटित होता है । विश्व में ऐसा कोई समाज नहीं, जो दीर्घकाल तक उसी दशा में स्थिर रहा हो । परिवर्तन की गति में विभिन्नता सम्भव है, जो कहीं तीव्र या धीमी होती है। सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध किसी विशेष व्यक्ति अथवा समूह से न होकर एक निश्चित क्षेत्र से भी नहीं होता । वे परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं । जिनका प्रभाव समस्त समाज महसूस करता है । संक्षेप में सामाजिक परिवर्तन की धारणा वैयक्तिक नहीं वरन् सामाजिक है । प्रत्येक समाज में समायोजन, सहयोग, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियायें गतिशील रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न स्वरूपों में स्पष्ट होता है । परिवर्तन कभी एक रेखीय तो कभी बहुरेखीय होते हैं । परिवर्तन कभी समस्यामूलक तथा कभी कल्याणकारी होते हैं । यह कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय । कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रान्तिकारी भी हो सकता है । यह दीर्घकालीन व अल्पकालीन हो सकते हैं ।
सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक होती है । समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति एक समान नहीं होती है । सामाजिक संरचना में समाज के सभी अंग समान रूप से गतिशील नहीं होते हैं । ग्रामीण समुदाय की अपेक्षा शहरी समुदाय में परिवर्तन ज्यादा तेज गति से होता है । दुनिया के सभी समाजों में परिवर्तन समान रूप से नहीं होता है। पश्चिमी दुनिया का समाज भारतीय समाज की तुलना में ज्यादा गतिशील माना गया परिवर्तन के एक ही कारक का प्रभाव अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होता है । इस प्रक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा सकता है । सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय, प्रौद्योगिकी सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारकों पर चर्चा करते हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कारक भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है, क्योंकि मानव समूह की भौतिक एवं अभौतिक आवश्यकतायें अनगिनत है जो बदलती रहती हैं।
सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी करना असम्भव है क्योंकि अनेक आकस्मिक कारक भी ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं । मार्क्स ने पूंजीवाद के अन्त में समाजवाद के उत्थान की भविष्यवाणी की थी, परन्तु यह उस समय तक सम्भव न हो सका, न भविष्य में कोई ऐसी सम्भावना ही दिखलाई पड़ती है । सामाजिक सम्बन्धों, विचारों, मनोवृत्तियों, आदर्शों एवं मूल्यों की भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है ।।
आधुनिक समाज में, सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से किये जा सकते हैं और न ही इसे पूर्णतः स्वतन्त्र और असंगठित छोड़ सकते हैं । वर्तमान में हर समाज में नियोजन के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील कर सकते हैं । मानव ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत प्रकार की खोजें की । प्रत्येक समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है । मूल अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ संरचनात्मक परिवर्तन से ही है।
4. समकालीन भारतीय समाज की संरचना में होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश
वर्तमान भारतीय समाज के जिन प्रतिमानों का रूपान्तरण हो रहा है, उन्हें निम्नलिखित उप-शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है –
(अ) दार्शनिक-धार्मिक पहलुओं में परिवर्तन –
1. भौतिकवादी संस्कृति के कारण सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है।
2. सामाजिक दुष्प्रथाओं एवं कुरीतियों के विरुद्ध नवीन चेतना विकसित हुई है।
3. धार्मिक कर्मकाण्डों के महत्व में कमी आई है।
4. मानवतावादी तथा समानतावादी मूल्यों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
5. धर्मनिरपेक्षीकरण की भावना का विस्तार हुआ है।
(ब) परिवार, विवाह की संरचनाओं में परिवर्तन –
1. सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों में परिवर्तन,
2. परम्परागत व्यवसाय के महत्व में ह्रास,
3. धार्मिक प्रवृत्ति में ह्रास,
4. सम्बन्धों में परिवर्तन,
5. परिवार के महत्व में कमी,
6. स्त्रियों की स्थिति में सुधार,
7. विवाह के धार्मिक पहलू/पक्ष का कमजोर होना,
8. परिवार के मुखिया की स्वेच्छाचारिता पर अकुश,
9. युवा सदस्यों की शक्ति में वृद्धि,
10. परिवार के आकार में ह्रास,
11. बहु-विवाह पर निषेध,
12. सगोत्र, प्रखर, विधवा एवं अन्तर्जातीय विवाहों को मान्यता, आदि प्रमुख परिवर्तन हुये हैं।
इन्हें भी देखें-
- सामाजिक परिवर्तन में बाधक कारक का वर्णन | Factor resisting social change in hindi
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सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूप क्या है? | Forms of social change in hindi
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सामाजिक उद्विकास की अवधारणा, अर्थ, सिद्धान्त तथा विशेषताएं | Social Evolution in hindi
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सामाजिक उद्विकास के प्रमुख कारक | Factors of Social Evolution in hindi
- स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत | Spencer theory of Social Evolution in hindi
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समाज और संस्कृति के उद्विकास के स्तरों पर निबन्ध | Social Evolution Theory of Morgan in hindi
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सामाजिक प्रगति की अवधारणा, अर्थ तथा विशेषताएँ क्या है | What is Social Progress in hindi
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सामाजिक प्रगति में सहायक दशाएँ और कसौटियाँ | Conditions and Criteria for Social Progress in Hindi