निर्देशन के आधार (RATIONALE OF GUIDANCE)
निर्देशन के आधार को हम निम्न पाँच भागों में विभाजित कर सकते हैं-
1. मनोवैज्ञानिक आधार पर निर्देशन (Psychological Considerations of Guidance)
2. दार्शनिक आधार पर निर्देशन (Philosophical Considerations of Guidance)
3. सामाजिक आधार पर निर्देशन (Sociological Considerations of Guidance)
4. शिक्षाशास्त्रीय आधार पर निर्देशन (Pedagogical Considerations of Guidance)
5. राजनैतिक आधार पर निर्देशन (Political Considerations of Guidance)।
1. मनोवैज्ञानिक आधार पर निर्देशन (Psychological Considerations of Guidance)
प्रत्येक मानव का व्यवहार मूल प्रवृत्ति एवं मनोभावों द्वारा प्रभावित होता है। उसकी मनोशारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं मनोभाव आदि व्यक्ति के व्यक्तित्व को निश्चित करते है। चूंकि व्यक्तित्व पर आनुवंशिकता के साथ-साथ परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है अतः निर्देशन सहायता द्वारा यह निश्चित होता है कि किसी बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए कैसा परिवेश चाहिए। मनोवैज्ञानिक आधार निम्नांकित है जिनके आधार पर निर्देशन कार्य सम्पादित किया जाना चाहिए-
(अ)वैयक्तिक भिन्नताओं का महत्त्व- शिक्षा बालकों के वैभिन्य के आधार पर ही दी जानी चाहिए, जिसमें बालकों के विकास तथा उनके सीखने की प्रक्रिया एवं गति में विभिन्नता का ध्यान रखकर उन्हें मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है। इस कार्य में निर्देशन सेवा अधिक सहायक होती है। यह सेवा छात्रों की इन विभिन्नताओं का पता लगाकर उनकी योग्यताओं, रुचियों एवं क्षमताओं के अनरूप शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों का परामर्श देती है।
(ब)सन्तोषप्रद समायोजन-व्यक्ति सन्तोषजनक समायोजन उसी दशा में प्राप्त कर पाता है जबकि उसकी अपनी रुचि एवं योग्यता के अनरूप व्यवसाय, विद्यालय या सामाजिक समूह प्राप्त हो। निर्देशन सेवा इस कार्य में छात्रों की विभिन्न विशेषताओं का मल्यांकन करके उनके अनुरूप हि नियोजन दिलवाने में अधिक सहायक हो सकती है।
(स)भावात्मक समस्याएँ- निर्देशन सहायता द्वारा भावात्मक अस्थिरता को जन्म देने वाली विभिन्न काठनाइया का पता लगाकर तथा भावात्मक नियन्त्रण का प्रशिक्षण देकर व्यक्ति का भावात्मक स्थिरता लाने में पारंगत किया जा सकता है।
(द) अवकाश काल का सदुपयोग- बढती हुई भौतिक सुख-सुविधाओं के परिणामस्वरूप अवकाश हेतु समय अधिक प्राप्त होने लगा है। इस समय का सदपयोग कर समाज तथा व्यक्ति दोनों को लाभान्वित किया जा सकता है तथा इस कार्य में निर्देशन द्वारा उचित मार्गदर्शन किया जा सकता है।
(य) व्यक्तित्व का विकास- प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का समुचित विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति करने में निर्देशन क्रिया शिक्षा की सहायक रहती है। निर्देशन व्यक्ति को आनुवंशिकता से प्राप्त गुणों को प्रकाश में लाकर उनके विकास के लिए उचित परिवेश का निर्माण कर अपनी महत्त्वपूर्ण सेवा प्रदान करता है।
2. दार्शनिक आधार पर निर्देशन (Philosophical Considerations of Guidance)
वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार पर दार्शनिक विचारधारा का उदय होता है। इसी वैयक्तिक विभिन्नता के सिद्धान्त के आधार पर निर्देशन की दार्शनिक विचारधारा का जन्म हुआ। शिक्षा दर्शन पर दर्शनशास्त्र का बहुत प्रभाव पड़ा है। शिक्षा दर्शन के उद्देश्य जीवन दर्शन के उद्देश्यों पर आधारित होते हैं।
बटलर ने शिक्षा, दर्शन तथा निर्देशन इस त्रिकोणीय सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “दर्शनशास्त्र, शैक्षिक प्रक्रिया के लिए पथ प्रदर्शक या निर्देशक का काम करता है।”
3. सामाजिक आधार पर निर्देशन (Sociological Considerations of Guidance)
समाज की सरक्षा और प्रगति के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति ऐसे स्थान पर रखा जाए जहाँ से समाज के कल्याण तथा प्रगति में अधिकतम योगदान कर सके। उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेत निम्न आधारों पर आधारित निर्देशन शैक्षणिक प्रक्रिया के साथ प्रदान किया जाना चाहिए-
- परिवर्तित पारिवारिक दशाओं के आधार पर निर्देशन,
- उद्योग एवं श्रम की परिवर्तित दशाओं के आधार पर निर्देशन,
- जनसंख्या में परिवर्तित दशाओं के आधार पर निर्देशन,
- सामाजिक मूल्यों में आए परिवर्तन के आधार पर निर्देशन,
- धार्मिक तथा नैतिक मूल्यों में परिवर्तन के आधार पर निर्देशन,
- उचित नियोजन की आवश्यकताओं के आधार पर निर्देशन।
4. शिक्षाशास्त्रीय आधार पर निर्देशन (Pedagogical Considerations of Guidance)
भारत सरकार ने संविधान में यह प्रावधान रखा है कि शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य हो। अनिवार्य शिक्षा का सही तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता, बद्धि आदि के आधार पर शिक्षित किया जाय। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है। शैक्षिक दृष्टि से निम्न बिन्दुओं के आधार पर निर्देशन दिया जाना चाहिए जिससे बालक द्वारा उचित निर्णय लेते हुए शिक्षा के वास्तविक लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके-
- पाठयक्रम का चयन- आर्थिक एवं औद्योगिक विविधता के परिणामस्वरूप नित नवीन पाठयक्रमो का शिक्षा में समावेश किया जा रहा है। छात्रों के समक्ष उपस्थित उपयुक्त पाठयक्रम चुनाव की समस्या को उचित मार्गदर्शन द्वारा सरलता से हल करने में सहायता प्रदान की जाती है।
- अपव्यय व अवरोधन- भारत में अनेक छात्र शिक्षा स्तर को पूर्ण किये बिना विद्यालय छोड़ देते हैं, जिससे उसकी शिक्षा पर हुआ व्यय व्यर्थ ही जाता है। उक्त समस्या गलत पाठ्यक्रम के चुनाव, भटके छात्रों की संगति या पारिवारिक कारणों अथवा अनुत्तीर्ण होने के कारण पैदा होती है। जिसका निदान निर्देशन सेवाओं द्वारा उचित तरीके से किया जा सकता है।
- विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि-स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात शिक्षा प्रसार के लिए उठाए गए कदमों तथा देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई है। जिससे कि व्यक्तिगत विभिन्नता पर आधारित शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण करना तथा रोजगारोन्मुखी शिक्षा प्रदान करना आज के शिक्षकों एवं प्रधानाचार्य के लिए एक चनौती के रूप में सामने आयी है। इस समस्या का हल निर्देशन सेवा द्वारा छात्रों को रुचि योग्यता, बुद्धि क्षमता आदि के आधार पर वगीकृत करके उन्हें उपयोगी एवं कुशल उत्पादक बनाकर किया जाता है।
- सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में वद्धि- छात्रों को उनके बौद्धिक स्तर, मानसिक योग्यता, रुचि तथा क्षमतानुसार विषय चुनाव में सहायता निर्देशन द्वारा दी जा सकती है।
5. राजनैतिक आधार पर निर्देशन (Political Considerations of Guidance)
राजनैतिक आधारों जैसे कि स्वदेश-रक्षा, प्रजातन्त्र की रक्षा, धर्म निरपेक्षता, भावात्मक एकता इत्यादि लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु विभिन्न मार्गदर्शन ही निर्देशन द्वारा प्रदान कर शिक्षा में सभी पक्षों में स्वतन्त्रतापूर्वक चुनाव करने एवं महारत हासिल करने के उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं।
विद्यालयीन निर्देशन सेवाओं का प्रबन्धन
(ORGANIZATION OF SCHOOL GUIDANCE SERVICES)
एक उचित, व्यवस्थित तथा बोधगम्य निर्देशित सेवा विद्यार्थियों के विकास के लिये अति आवश्यक है। ऐसी सेवाओं के निम्न तत्त्व हैं-
- व्यक्तिगत आविष्कारिक सेवाएँ,
- सूचना सेवाएँ
- परामर्श सेवाएँ,
- स्थानीय सेवाएँ,
- अनुसरण सेवाएँ।
निर्देशन एवं समुदाय के स्रोत
सहयोग की भावना ने मानव को समूह में रहने के लिए अभिप्रेरित किया। इसी समूह की भावना ने कालान्तर में समाज का गठन किया। समाज के गठन के बाद ही मानव सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में इतनी प्रगति कर सका।
समुदाय का अर्थ
मेजर के अनुसार, “वह समाज जो किसी निश्चित भौगोलिक स्थान में निवास करता है, समुदाय कहलाता है।”
मीन के अनुसार- समुदाय संकीर्ण प्रादेशिक घेरे में रहने वाले उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्य जीवन में अपना हाथ बंटाते हैं।
जी. डी. एच. कोल ने समुदाय की परिभाषा देते हुए लिखा है- “समुदाय से मेरा अभिप्राय ऐसे सामाजिक जीवन से है, जिसमें अनेक मनुष्य समाविष्ट रहते हैं, जो सामाजिक जीवन की परिस्थितियों के अन्तर्गत साथ-साथ रहते हैं जो परिवर्तनशील होने पर भी समान बनी रहने वाली लक्ष्यों एवं रुचियों की समानता होती है। रूढ़ियों तथा प्रयत्ना द्वारा परस्पर सम्बन्धित होते हैं तथा जिनमें कुछ सीमा तक सामान्य सामाजिकल लक्ष्यों एवं रुचियों की समानता होती है।“