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ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्व और विकास | Importance of Rural Sociology in Hindi

 ग्रामीण समाजशास्त्र की अवधारणा

सन 1838 में फ्रांसीसी समाज वैज्ञानिक ऑगस्ट कॉम्टे ने जिस ‘सामाजिक भौतिकशास्त्र’ को ‘समाजशास्त्र’ की संज्ञा दी है वह अपने जन्म के लगभग 172 वर्षों की अवधि में विभिन्न शाखाओं/ प्रशाखाओं के रूप में विकसित हो गया है। ग्रामीण समाजशास्त्र  ग्रामीणों के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों/दशाओं के पक्षों के अध्ययन की मूलभूत आवश्यकताओं के फलतः विकसित हुआ। यह ग्राम या ग्राम्य जीवन का समाजशास्त्र है।

ग्रामीण समाजशास्त्र को समाजशास्त्र की उस शाखा के रूप में परिभाषित किया है, जिसके अन्तर्गत ग्रामीण समाज का अध्ययन किया जाता है। ग्रामीण समाज के सम्बन्ध कुछ विशिष्ट प्रकार के सम्बन्धों पर आधारित होते हैं, सामान्य सम्बन्ध स्पष्ट है कि ग्राम्य जीवन विभिन्न पक्षों/पहलुओं में विभाजित होता है और ये सभी सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन के ढाँचे को निर्मित करते हैं।

विश्व की अधिकांश जनसंख्या आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। ग्रामवासी का जीवन एवं व्यवसाय नगरवासियों से भिन्न होता है। ग्रामीणों का व्यवहार, जीवनतथा विश्वासादि नगर के लोगों से भिन्न होते है, इसीलिए उनका अध्ययन करने के लिए। समाजशास्त्र की एक विशिष्ट शाखा के रूप में ग्रामीण समाज उदित हुआ। ग्रामीण समाजशास्त्र  केवल ग्रामीण पर्यावरण में सामाजिक घटनाओं का, मानव समूहों का अध्ययन करता है। अपनी इस सीमितता के कारण यह समाजशास्त्र से भिन्न है। अन्यथा दोनों की अध्ययन पद्धतियों में कोई अन्तर नहीं है। ग्रामीण समाजशास्त्र दो शब्दों के योग से बना है – ग्रामीण + समाजशास्त्र | समाजशास्त्र सामाजिक जीवन एवं सामाजिक घटनाओं का विज्ञान है। ग्रामीण समाजशास्त्र को ग्रामीण सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करने वाला विज्ञान के नाम से जाना जाता है। ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत ग्रामीण सामाजिक संरचना, ग्रामीण सामाजिक सम्बन्ध, ग्रामीण सामाजिक संगठन एवं व्यवस्था, ग्रामीण सामाजिक प्रक्रियाओं, आदि का अध्ययन किया जाता है।

ग्रामीण समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा

ग्रामीण समाजशास्त्र को ‘ग्रामीण पुनर्निर्माण का शास्त्र’, ‘ग्रामीण जीवन का शास्त्र तथा ‘ग्राम सुधार का शास्त्र’ आदि भी कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने अपनी-अपनी परिभाषाओं द्वारा ग्रामीण समाजशास्त्र के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया है –

लॉरी नेलसन के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय-वस्तु विभिन्न प्रकार के समूहों, जैसे कि वे ग्रामीण परिवेश में पाए जाते हैं, का वर्णन एवं विश्लेषण है।” इस परिभाषा में अग्रलिखित तथ्य पाए जाते हैं – 1. ग्रामीण समाजशास्त्र का सम्बन्ध ग्रामीण परिवेश से होता है। 2. ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत ग्रामीण समुदाय में विद्यमान विभिन्न समूहों का वर्णन किया जाता है। 3. इन समूहों का वर्णन करना और उसके आदार पर समूहों के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण निर्धारित करना है।

टी0 जिन स्मिथ के शब्दों में, “ऐसे समाजशास्त्रीय तथ्य और सिद्धान्त, जो कि ग्रामीण सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन से निकलते हैं, ग्रामीण समाज के अन्तर्गत कहे जा सकते हैं।” स्मिथ ने ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय सामग्री के अन्तर्गत दो बातों को रखा है – 1. ग्रामीण सामाजिक सम्बन्ध और 2. इन सम्बन्धों में पाए जाने वाले तथ्य/भेद एवं सिद्धान्तों की खोज करना।

बर्टेण्ड के अनुसार, “इसकी विस्तृत परिभाषा के रूप में ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण पर्यावरण में मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन करना है। इस परिभाषा में दो तथ्य सम्मिलित किए गये हैं – 1. ग्रामीण पर्यावरण तथा 2. ग्रामीण सामाजिक सम्बन्ध।

जॉन गिलेट ने लिखा है कि, “हम ग्रामीण समाजशास्त्र को उस शाखा के रूप में विचार कर सकते हैं, जिसमें ग्रामीण समुदायों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है, ताकि उनकी दशाओं एवं प्रवृत्तियों का ज्ञान हो तथा उनकी प्रगति के सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सके। इस परिभाषा के अनुसार, 1, ग्रामीण समाजशास्त्र समाजशास। का एक शाखा है. 2. इस शाखा के अन्तर्गत ग्रामीण समुदायों का सुव्यवस्थित अध्ययन किया जाता है. 3. इस अध्ययन द्वारा ग्रामीण समुदायों की दशाओं तथा उनका प्रवृत्तियों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जाता है।  4. इस ज्ञान का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण समुदायों की प्रगति हेतु सिद्धान्तों की रचना करना है।

 स्टुअर्ट  चैपिन के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण जनसंख्या, ग्रामीण तथा ग्रामीण समाज में हो रही सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है।” इस परिभाषा में  ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय सामग्री के अन्तर्गत तीन तथ्यों पर विशेष बल दिया गया है-

(1)ग्रामीण जनसंख्या, 2. ग्रामीण सामाजिक संगठन एवं 3. सामाजिक प्रक्रियाएँ ।

 

प्रो0 आर0 देसाई के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण समाज का  विज्ञान है।

एन० एस० सिम्स का मत है कि. “ग्रामीण समाजशास्त्र का क्षेत्र कृषि पर आश्रित  या इससे जीविका निर्वाह करने वाले मनुष्यों के संगठन का अध्ययन है।” इन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण समुदाय के लोगों की सामाजिक समस्याओं, सामाजिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाली एक समाजशास्त्रीय शाखा है। ग्रामीण पर्यावरण में व्यक्तियों समहों के मध्य पाए जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों के सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययनों को ग्रामीण समाजशास्त्र की संज्ञा प्रदान की जाती है।

ग्रामीण समाजशास्त्र का क्षेत्र और विषय सामग्री

ग्रामीण समाजशास्त्र के क्षेत्र को लेकर समाजशास्त्रियों में एक मत नहीं है, फिर भी निम्नलिखित बिन्दुओं पर सभी सहमत हैं –

  • सामुदायिक जीवन को ग्रामीण तथा नगरीय दो भागों में बाँटा जा सकता है। दोनों ही भाग परस्पर अन्तक्रिया करते हैं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और प्रभावित भी होते हैं। इसके बाद भी दोनों के जीवन में मौलिक अन्तर पाया जाता है।
  • ग्रामीण पर्यावरण में पनपे हुए सामाजिक जीवन की विशेषताएं और प्रकृति अपने ही तरीके/ढंग की होती है जो नगर के पर्यावरण में पनपे हुए सामाजिक जीवन से काफी अलग होती है।
  • ग्रामीण समाजशास्त्री का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण सामाजिक संगठन, उसकी संरचना, कार्य एवं उसके विकास की प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित तथा व्यापक अध्ययन करना है। ग्रामीण समाजशास्त्र का उद्देश्य ऐसे अध्ययनों के आधार पर ग्रामीण जीवन के विकास के लिए आवश्यक नियमों की खोज करना है।
  • टी0 लिन स्मिथ ने ग्रामीण समाजशास्त्र के क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित किया। है – 1. जनसंख्या, 2. ग्रामीण सामाजिक संगठन और 3. सामाजिक प्रक्रियाएं।
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लॉरी नेल्सन ने ग्रामीण समाजशास्त्र के क्षेत्र को तीन भागों में बांटा है – 1. सामूहिक जीवन का अध्ययन, 2. सामुदायिक जीवन का अध्ययन और 3. मानव जाति के सामाजिक जीवन का अध्ययन।

समन्वयात्मक दृष्टि से समाजशास्त्र के क्षेत्र एवं विषय सामग्री को निम्नानुसार विभाजित किया जा सकता है –

1.ग्रामीण संरचना/ढाँचे का अध्ययन । 2. ग्रामीण सामाजिक संगठन का अध्ययन। 3. ग्रामीण सामाजिक समूहों का अध्ययन । 4. ग्रामीण सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन । 5. ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन । 6. ग्रामीण सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन। 7. ग्रामीण सामाजिक समस्याओं का अध्ययन। 8. ग्रामीण-नगरीय सम्बन्ध/सम्पर्क का अध्ययन। 9. ग्रामीण जनसंख्या/जनता का अध्ययन। 10. ग्रामीण पुनर्निर्माण/पुनर्संरचना का अध्ययन, आदि।

ग्रामीण समाजशास्त्र की उत्पत्ति

ग्रामीण समाजशास्त्र का अर्थ ग्रामीण समाजशास्त्र को ग्रामीण की वह शाखा माना जाता है, जो कि ग्रामीण समुदायों का, उनकी दशाओं एवं प्रवृत्तियों के अन्वेषण और प्रगति के सिद्धान्त के निर्माण  के लिये व्यवस्थित अध्ययन करती है। ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय-सामग्री विभिन्न प्रकार के समूह जैसे कि वे ग्रामीण पर्यावरण में पाये जाते हैं, का विवेचन और विश्लेषण है। ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत ग्रामीण जीवन, ग्रामीण समूहों, ग्रामीण संरचना और ग्रामीण जगत का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। स्पष्ट है कि ग्रामीण जीवन का समाजशास्र ग्रामीण जनता, ग्रामीण सामाजिक संगठन तथा ग्रामीण समाज में कार्यरत सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है।

टी0 लिन स्मिथ के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र या उत्तम रूप में ग्रामीण जीवन का समाजशास्त्र ज्ञान की व्यवस्थित शाखा है, जो ग्रामीण समाज, उसके संगठन तथा संरचना एवं उसकी प्रक्रिया में वैज्ञानिक पद्धति के रूप में पनपी है।”

सैण्डरसन के अनुसार, ” ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण पर्यावरण में निहित जीवन  का समाजशास्त्र है। “

भारतीय समाजशास्त्री ए० आर० देसाई के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र का  मूल कार्य प्रामीण समाज के विकास के नियमों को खोज निकालना है”

ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति ग्रामीण समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ ग्रामीण + समाज + शास्त्र अर्थात ग्रामीण। समाज का शास्त्र है और चूकि शास्त्र का अभिप्राय विज्ञान अथवा वैज्ञानिक पद्धति से होता है, इसलिए ग्रामीण समाजशास्र की प्रकृति को भी वैज्ञानिक माना जाता है । दूसरे सरल शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति पूर्णतया वैज्ञानिक है, क्योंकि इसके समरत नियम तथा निष्कर्षादि वस्तुतः वैज्ञानिक आधार पर ही प्राप्त किये जाते हैं. ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय सामग्री के अध्ययन में जिस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है, वह वैज्ञानिक प्रणाली ही है । किन्तु कतिपय विद्वानों ने इस पर अपना  विरोध और सन्देह प्रकट किया है । उनका मत है कि ग्रामीण समाजशास्त्र विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, इसलिए यह अत्यन्तावश्यक होगा कि ग्रामीण समाजशास्त्र एक विज्ञान है अथवा नहीं। यह जानने के पूर्व कि विज्ञान क्या है ? का भली-भाँति अध्ययन कर लें।

विज्ञान क्या है? –

सामान्यतः विज्ञान के सम्बन्ध में बहुसंख्यक लोगों ने गलत धारणाएँ बनाई हुई हैं । उनका मत है कि किसी विषय की विषय वस्तु ही उसका वैज्ञानिक स्वरूप है। यह लोग मानते है कि वस्तुतः विज्ञान वही है, जो कतिपय विशिष्ट वस्तुओं (जैसे – भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र अथवा जीव विज्ञान) का अध्ययन करता है। यह मत है क्योंकि विज्ञान वस्तुतः विषय वस्तु से कोई भी सम्बन्ध नहीं रखता है।

लुण्डबर्ग (Lundberg) का मत है कि प्रस्तुत धारणा सर्वथा आन्तिपरक है कि विज्ञान का प्रकार की अध्ययन वस्तु से होता है, विज्ञान का कोई भी सम्बन्ध किसी सामग्री से नहीं होता है । इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञान शब्द से कोई वस्त प्रकट नहीं होती है । इसके विपरीत विज्ञान वस्तुतः वैज्ञानिक  पद्धति एवं उसके द्वारा प्राप्त ज्ञान का प्रतीक होता है।

वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं प्रक्रिया

वैज्ञानिक पद्धति से तात्पर्य वस्तुतः उस व्यवस्थित अथवा क्रमबद्ध पद्धति से है, जो सम्बन्धित विषय सामग्री  का संग्रह एक निश्चित कसोटी के आधार पर करती है। वैज्ञानिक पद्धति में अग्रलिखित छः चरण होते है-

(1)समस्या का चुनाव करना – सर्वप्रथम इस पद्धति में विषय (matter) का चुनाव किया जाता है, जिसमें विशिष्ट सावधानी का प्रयोग करना क्योंकि विषय सामग्री के अध्ययन का एक सर्वथा विशिष्ट उद्देश्य होता है ।

(2)उपकल्पना का निर्माण करना– किसी भी विषय का अध्ययन प्रारम्भ करने जाक उपकल्पना का निर्माण करना आवश्यक होता है। उपकल्पना वस्ततः समस्या के विषय में एक प्रकार का पूर्व विचार है, जिसका सत्यापन करना एवं परखना शेष रहता है।

(3) अवलोकन करना – वैज्ञानिक पद्धति के तृतीय चरण में अनसंधान करने वाले व्यक्ति को विषय-सामग्री का सावधानीपूर्वक सूक्ष्मतम् अवलोकन करना पड़ता है। इस प्रकार की अवलोकन क्रिया में जिन-जिन वस्तुओं या साधनों का उपयोग किया जाए, उनका तटस्थ रहना नितान्तावश्यक माना जाता है।

(4) निरूपण करना – विषय सामग्री के अवलोकनोपरान्त उसको अत्यधिक सावधानीपूर्वक लिख लिया जाना चाहिए । अनुसंधानकर्ता को इस कार्य में पूर्णतया तटस्थ रहना चाहिए, क्योंकि निरूपणोपरान्त निकले तथ्य (Facts) स्पष्ट रूप से एक वैज्ञानिक आधार धारण कर लेते है । लारी नेल्सन के विचारानुसार – ये संकल्पनायें विद्यार्थियों में भाषा अथवा सार्वभौमिक सम्भाषण का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं तथा विचारों के आदान-प्रदान में सरलता भी उत्पन्न करती है

(5) वर्गीकरण करना – इसके पश्चात अवलोकन से संग्रहीत विषय सामग्री को सुव्यवस्थित करना पड़ता है । कार्ल पियर्सन ने लिखा है कि – “तथ्यों का वर्गीकरण उनके क्रम का ज्ञान तथा उनके सापेक्षिक महत्त्व का परिचय प्राप्त करना ही विज्ञान होता है।” एक अन्य विद्वान एफ0 डब्ल्यू० एस्टावे ने वर्गीकरण सम्बन्धी नियमों का वर्णन करते हए लिखा है कि – ” (1) वर्गीकरण का एक मात्र आधार होना चाहिए, (2) वर्गीकरण को सर्वग्राही होना चाहिए, (3) अविच्छिन्न वर्गीकरण में प्रत्येक पद निकटतम होना चाहिए तथा (4) यह वगीकरण पूर्णतया उचित होना चाहिए F

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(6) सामान्यीकरण करना – वैज्ञानिक पद्धति के इस अन्तिम चरण में विषय-सामग्री के अध्ययन द्वारा सामान्य विषय और निष्कर्षों को ज्ञात किया जाता है । इस प्रकार के नियम सत्य होने के उपरान्त सिद्धान्त का स्वरूप धारण करते हैं। मैकाइवर के शब्दानुसार”इस प्रकार के सिद्धान्त का दूसरा नाम मात्र सावधानीपूर्वक वर्णित तथा निश्चित रूप से घटनाओं का अनुक्रम है”-

वैज्ञानिक पद्धति के परिप्रेक्ष्य में वर्णित उपर्युक्त चरणों के आधार पर जा सकता है कि वस्तुतः विज्ञान वह शाख है – (1) जिसको वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा प्राप्त किया गया हो। (2) जिसकी सार्वभौमिक व्याख्या सम्भव हो। (3) जिसकी के द्वारा प्रमाणित किया जा सकता हो। (4) जो किसी भी समय प्रमाणित एवं पर्व होने पर भी सत्य ही सिद्ध हो सके। (5) जो कि कार्य-कारण के सम्बन्ध को स्थापित उनके आधार पर भविष्यवाणी भी करता हो ।

ग्रामीण समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति विज्ञान एवं वैज्ञानिक पद्धति सम्बन्धी उपयुक्त वर्णित विवेचन के आधार पर किस किया जा सकता है कि ग्रामीण समाजशास्त्र एक विज्ञान है, क्योंकि ग्रामीण समाजशासक भी अवलोकन, समस्या का चुनाव, निरूपण, वर्गीकरण, उपकल्पना का निर्माण तथा सामान्यीकरण नामक आवश्यक तत्त्व निहित है। यह तथ्य निम्नलिखित विवेचना में सरलतापूर्वक स्पष्ट हो सकता है..

(1) ग्रामीण समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग करता है.- ग्रामीण समाजशास्त्र वस्तुतः ग्रामीण सामाजिक घटनाओं तथा प्रक्रियाओं का विज्ञान है । इसलिए इससे सम्बन्धित घटनाओं का अध्ययन वह अपनी इच्छानुसार नहीं करता है । इनका अध्ययन करने के लिए ग्रामीण समाजशास्त्र में अवलोकन, साक्षात्कार, अनुसूची प्रश्नावली, जीवन-इतिहास, सामाजिक सांख्यकीय पद्धति, समाजमिति और प्रयोगात्मक पद्धति, वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार अन्य विज्ञानों के ही समान यह विज्ञान भी स्वीकृत और सर्वमान्य तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है।

(2) ग्रामीण समाजशास्त्र ‘क्या’ है ?’ का वर्णन करता है – अन्य विज्ञानों के ही समान ग्रामीण समाजशास्त्र भी क्या है ? का वर्णन करता है अर्थात् क्या होना चाहिए? या क्या होता, तो उचित होता? आदि का वर्णन नहीं करता है । दूसरे सरल शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ग्रामीण समाजशास ग्रामीण समाज- की घटनाओं और प्रक्रियाओं का ठीक वैसा ही आध्ययन करता है, जिस प्रकार रसायनशास्त्र में रासायनिक नियमों और प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

(3) ग्रामीण समाजशास्त्र के सिद्धान्त सार्वभौमिक हैं . – ग्रामीण समाजशास जिन नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है, वे सार्वभौमिक होते हैं अर्थात उनमें किसी भी प्रकार का अपवाद नहीं पाया जाता है। यदि परिस्थितियाँ एक समान रहें, तो सभी स्थानों पर वह जैसे का जैसा ही पाया जायेगा। इस प्रकार के सार्वभौमिक सिद्धान्त समान  परिस्थितियों में सदैव सत्य ही निरूपित होते हैं।

(4) ग्रामीण समाजशास की विषय-सामग्री को तथ्यों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है – ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय सामग्री को किसी भी स्थल पर किसी भी समयतथा किसी भी व्यक्ति के समक्ष सत्य प्रमाणित किया जा सकता है, क्योंकि यह सामग्री  सदैव इस प्रामाणिक सत्यता की परीक्षा हेतु तैयार रहती है।

(5) ग्रामीण समाजशास कार्य-कारण के सम्बन्धों की व्याख्या करता है- ग्रामीण समाजशास मात्र क्या है ? का ही नहीं, अपित कैसे है ? का भी उत्तर देता है ।। इस प्रकार ग्रामीण समाजशास सामाजिक घटनाओं के स्वरूप का वर्णन करने के साथ-साथ घटनाओं के घटित होने सम्बन्धी कारणों का भी वर्णन करता है । दूसरे सरल शब्दों में हम। यह भी कह सकते हैं कि ग्रामीण समाजशास कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए। सम्बन्ध भी स्थापित करता है अर्थात् घटनायें किस प्रकार की होती हैं. यह बताने के। साथ-साथ, कैसे घटित होती हैं, यह भी बताता है ।

ग्रामीण समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति सम्बन्धी आपत्तियाँ

(1) ग्रामीण समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता का अभाव है-

ग्रामीण समाजशास्त्र को विज्ञान न मानने वालों की सर्वप्रथम आपत्ति यह है कि ग्रामीण समाजशास्त्र में पाये जाने वाले स्वीकत-तत्व (Data) प्रायः पक्षपातपूर्ण होते है, परिणामस्वरूप  सामान्यतः अध्ययन का पक्षपात कर बैठते हैं। इसका कारण यह है कि एक अध्ययनकर्ता जिस सामाजिक विषय का अध्ययन करता है, वह स्वयं भी उस विषय का एक अपरिहार्य अंग होता है, इसलिए वह थोड़ा-बहुत पक्षपात अवश्य कर डालता है। चार्ल्स वियर्ड के शब्दानुसार, “सामाजिक वैज्ञानिक अभी भी अपने सामाजिक संसार में तटस्थ नहीं रहा सकता है। चूंकि ग्रामीण सामाजिक अध्ययनकर्ता धर्म, परिवार तथा आर्थिक-राजनैतिक संस्थाओं का विश्लेषण करता है तथा उनका सदस्य होने के कारण उसका दृष्टिकोण प्रायः  पूर्व निश्चित रहता है । इसलिए अन्य प्राकृतिक विज्ञानों के समान ग्रामीण समाजशास्त्र में पूर्णतया निष्पक्ष अध्ययन सम्भव नहीं है।

(2) ग्रामीण समाजशास्त्र के पास प्रयोगशालाओं का अभाव है-

ग्रामीण समाजशास्त्र को विज्ञान न मानने वाले विद्वानों के मतानुसार यह एक विज्ञान नहीं है, क्योंकि  इसमें प्रयोगशाला नहीं पाई जाती है । चूँकि ग्रामीण समाजशास के पास प्रयोगशालाये नहीं हैं, अतएव इसके सिद्धान्तों का भौतिक सिद्धान्तों के समान परीक्षण भी नहीं किया जा सकता है ।

(3) ग्रामीण समाजशास्त्र अपनी विषय-सामग्री की माप नहीं कर सकता है-

ग्रामीण समाजशास्त्र को विज्ञान न मानने वालों की तीसरी आपत्ति यह है कि ग्रामीण समाजशास्त्र अपनी विषय सामग्री की माप-तौल नहीं कर सकता है। अन्य भौतिक विज्ञाना में विभिन्न इकाइयों की मात्रा को व्यक्त करने हेतु निश्चित मापदण्ड है, जबकि ग्रामीण समाजशास्त्र में इनका सर्वथा अभाव पाया जाता है।

(4) ग्रामीण समाजशास्त्र एक यथार्थ विज्ञान नहीं है.-

ग्रामीण समाजशास को विज्ञान न मानने वालों की चौथी आपत्ति यह है कि चूंकि ग्रामीण समाजशास्त्र एक यथार्थ विज्ञान नहीं है, इसलिये इसके द्वारा प्रतिपादित नियम व सिद्धान्त सभी स्थलों पर सदैव ही सत्य नहीं प्रमाणित होते हैं ।

(5) ग्रामीण समाजशास भविष्यवाणी करने में असमर्थ है-

ग्रामीण की वैज्ञानिकता पर सन्देह करने वाले विद्वानों के मतानुसार यह भविष्यवाणी करने असमर्थ है, क्योंकि ग्रामीण समाजशास्त्र जिस समाज का अध्ययन करता है, उसमें गति से निरन्तर ही न्यूनाधिक परिवर्तन होते रहते हैं।

 

 

इन्हें भी देखें-

ग्रामीण समाजशास्त्र

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