इस पोस्ट में हम लोग हैबरमास का सिद्धांत जानने का प्रयास करेंगे कि उसका क्या-क्या मत था।
फ्रैन्कफर्ट स्कूल एवं आलोचनात्मक सिद्धान्त
महान साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने 19वीं शताब्दी के अन्त में एक क्रान्तिकारी आन्दोलन का सूत्रपात किया, जिसका मुद्दा था – आदमी की मुक्ति। इस समय संसार के अधिकांश लोग प्रभुत्व के बोझ को अपने कन्धों पर लादकर डगमगाते पाँवों से चल रहे थे। प्रभुत्व का यह बोझ सामन्तों और तिजारेदारों का था, जिनके शोषण और दमन से आदमी थक गया था। ऐसे परिप्रेक्ष्य में कार्ल मार्क्स ने ‘मुक्ति’ (Emancipation) के आन्दोलन को प्रस्तुत किया। यह सत्य है कि बीसवीं शताब्दी मार्क्स की थी। इस अवधि में संसार ने मार्क्स के कई अवतारों के दर्शन किए. जिनमें से एक ‘फ्रैंकफर्ट सम्प्रदाय/स्कूल’ भी था। फ्रैंकफर्ट स्कूल से तात्पर्य सामाजिक अनुसन्धानकर्ताओं और दर्शनशास्त्रियों के उस समूह से है, जिसने एकजुट होकर 1923 ई0 में मार्क्स का नए सिरे से अध्ययन शुरू किया।
इस समूह के अध्यक्ष मैक्स होरखीमर (1895-1973 ई०) थे, जिन्होंने प्रारम्भ में इस स्कूल को जर्मनी के फ्रैंकफर्ट नगर में स्थापित किया। इस स्कूल के समाज वैज्ञानिकों के दो लक्ष्य थे – 1. वे तत्कालीन समाज के आलोचक थे और 2. वे क्लासिकल (शास्त्रीय) सिद्धान्तों से असहमत थे। उनका आग्रह था कि यूरोपीय समाज एक शोषित समाज था, जिसमें राजाओं-महाराजाओं तथा सामन्तों का दमन अपनी चरम सीमा पर था। शुरुआत में फ्रैंकफर्ट स्कूल का उद्देश्य बहुत सामान्य था। वह एक ऐसे सिद्धान्त की रचना करना चाहता था, जो कि अर्थव्यवस्था, मनोविज्ञान, संस्कृति और तत्कालीन पँजीवादी समाज के बीच में जो सम्बन्ध है, उन्हें देख सके। होरखीमर ने फ्रैन्कफर्ट स्कूल के इस लक्ष्य/उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ‘समूह अनुसन्धान’ और ‘सिद्धान्त निर्माण’ की रणनीति को अपने प्रोजेक्ट के समय अपनाया, क्योंकि उस समय के समाज वैज्ञानिक पूँजीवादी समाज तथा प्रचलित सिद्धान्तों के आलोचक थे। उनके सिद्धान्तों को ‘आलोचनात्मक सिद्धान्त’ या ‘समाज का आलोचनात्मक सिद्धान्त’ भी कहा जाता है। इस प्रकार ऐतिहासिक बोध ने फ्रैंकफर्ट स्कूल को आलोचनात्मक सिद्धान्त का नाम भी दिया।
यूरोप में फ्रैंकफर्ट स्कूल या आलोचनात्मक सिद्धान्त का दूसरा नाम मार्क्सवाद(Marxism) भी पड़ गया। आलोचनात्मक सिद्धान्त के जन्म होने के कई कारण थे-
1. मैक्स वेबर की युक्तिसंगतता(Rationality) तथा नौकरशाही अदिकारीतन्त्र का विस्तार।
2.सोवियत रूस में स्टालिनवाद का उदय और उत्कर्ष।
3. सिद्धान्त एवं क्रिया का सम्मिश्रण(Praxis)।
4. प्रथम विश्व युद्ध के फासीवाद (Fascism) का विकास ।
5. फ्रैंकफर्ट स्कल की शुरूआत तथा
6. फ्रैंकफर्ट स्कूल के प्रणेता, जैसे – जार्ज ल्यूकाक्स, मैक्स होरखीमर एवं थियोडोर एडोर्नो, आदि।
यद्यपि फ्रैंकफर्ट स्कूल की सैद्धान्तिक व्यवस्था संघर्ष-उपागम/अधिगम पर ही आधारित है, किन्तु इस विचारधारा को मानने वाले समाज वैज्ञानिक कट्टरवादी नहीं हैं। उन्होंने एक ओर मार्क्स से काफी कुछ ग्रहण किया, दूसरी ओर हीगल वेबर, मैनहीम आदि के परम्परावादी समाजशास्त्रीय विश्लेषण को भी प्रस्तुत किया है। ऐसे विद्वानों ने अपने आलोचनात्मक सिद्धान्त में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा मार्क्सवाद को सम्मिलित किया है। उन्होंने सामाजिक संरचना और परिवर्तन के मार्क्सवादी सिद्धान्त तथा फ्रायड के व्यक्तिगत अभिप्रेरणा और व्यक्तित्व सम्बन्धित सिद्धान्त को मिलाकर अपने सिद्धान्त का निर्माण किया है। फ्रैंकफर्ट स्कूल के विद्वानों ने अपने आलोचनात्मक या विवेचनात्मक सिद्धान्त को विकसित करने की प्रक्रिया में अलगाववाद, सत्तावाद, जन संस्कृति और सामाजिक आन्दोलनों से सम्बन्धित विस्तृत अध्ययन किये हैं।
आलोचनात्मक/विवेचनात्मक सिद्धान्त की विशेषताएँ
1. आलोचनात्मक अभिवृत्ति –
यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि समाज के बुद्धिजीवियों को सक्रिय भूमिका ग्रहण करनी चाहिए। उन्हें स्वयं में समाज के प्रति आलोचनात्मक अभिवृत्ति विकसित करनी चाहिए, ताकि व्यक्तिनिष्ठता तथा मूल्य रहित समाजशास्त्र के नाम पर उन्हें आवश्यकतानुसार मूल्य का निर्धारण करने में संकोच न हो।
2. सांस्कृतिक भूमिका –
इस सिद्धान्त के समर्थक कट्टर मार्क्सवादियों से भिन्न विचार रखते हैं। इसीलिए वे शुद्ध आर्थिक निर्धारणबद्ध को स्वीकार नहीं करते। उनका विचार है कि प्रत्येक समाज में संस्कृति और विचारधारा की स्वतन्त्र भूमिका होती है।
3.पूर्वाग्रहों से मुक्त –
यह सिद्धान्त समाज के आर्थिक संगठन की महत्ता पर जोर देता है, क्योंकि उसकी मान्यतानुसार मनुष्य के विचार सामाजिक व्यवस्था का उत्पादन ही है और इसी कारण मनुष्य के विचार पूर्णतः वैषयिक तथा पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो सके हैं। लेकिन वर्ग पर आधारित कार्य के स्वरूप, सम्पत्ति और लाभ तथा आर्थिक संगठन के व्यक्ति, संस्कृति और राजनीति पर प्रभाव इस सिद्धान्त को पूर्वाग्रहों से मुक्त रख सकने में सफल भूमिका निभा सकते हैं।
4.समाज का तार्किक गठन –
विवेचनात्मक सिद्धान्त समाज के तार्किक गठन पर जोर देता है। इस सिद्धान्त में सामाजिक व्यवस्था को हीगलवादी मानवता और तर्क की शब्दावली में परखा जाता है।
5. मानसिक संरचना की आन्तरिक गत्यात्मकता –
इस सिद्धान्त में मानसिक रचना की आन्तरिक गत्यात्मकता का अध्ययन भी किया जाता है। इस सिद्धान्तानुसार, सामाजिक घटना के विश्लेषण में मानसिक संरचना की आन्तरिक गत्यात्मकता की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
6. अन्तक्रिया –
इस सिद्धान्त में लोक संस्कृति की समीक्षा की गई है। अलगाव लिए उत्तरदायी कारणों एवं परिणामों का अध्ययन भी किया गया है। आलोचनात्मक सिद्धान्त में व्यक्तित्व तथा सामाजिक संरचना के मध्य अन्तक्रिया पर आवश्यकता से अधिक ध्यान दिया गया है।
हैबरमास के विचार
हैबरमास फ्रैंकफर्ट स्कूल की दूसरी पीढ़ी के विचारक के रूप में, प्रतिष्ठित है। उनका लेखन बहुत समृद्ध था, किन्तु उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जन आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करते हैं। हैबरमास का सिद्धान्त है कि आज के प्रजातान्त्रिक, दफ्तरशाही तथा वैज्ञानिक संस्कृति प्रधान समाज में स्वतन्त्र संवाद की बहुत बड़ी आवश्यकता है तथा वे आग्रह करते हैं कि इस संवाद का आधार बुद्धिसंगत, होना चाहिए। वह व्यवहार या आचरण के सिद्धान्त के साथ जोड़ना चाहते हैं परम्परा वास्तव में मार्क्सवादी ही है। जीवन विश्व एवं व्यवस्था पर अपने विचार स्पष्ट करते समय हैबरमास ने एक नई मानवतावादी परम्परा का विकास करने का प्रयास किया है। उनकी मानवतावादी परम्परा में हीगल और मार्क्स के कार्यों पर पर्याप्त जोर दिया गया है।
हैबरमास का कहना है कि उन्नत औद्योगिक समाज के मौलिक अन्तर्विरोधों. पूजीवाद से सम्बन्धित कट्टर मार्क्सवादी सिद्धान्त के आधार पर समझ पाना कठिन है। इसी कारण उन्होंने अपने सिद्धान्त में पँजीवादी समाजो का तीन प्रकारों में बाँटा है।
- उदार पंजीवाद (Liberal Capitalism), जो उन्नीसवीं शताब्दी का पूँजावाद है और जिसके बारे में स्वयं मार्क्स ने भी अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है।
- संगठित पूंजीवाद (Syndicate Capitalism), जिसे हैबरमास ने पश्चिमी औद्योगीकृत समाजों की विशेषता कहा है।
- उत्तर पूँजीवाद (Post Capitalism), जिसे उसने समाजवादी राज्यों समाजों को उत्तर पूँजीवादी समाज कहा है।
हैबरमास ने कार्ल मार्क्स के समान ही स्वीकार किया है कि इन तीनों प्रकार की पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्थाओं में जो अन्तर्विरोध निहित है, वे ही उनको विघटन तथा परिवर्तन की दिशा में ले जायेंगे। ऐसे परिवर्तनों को लाने में व्यक्तियों के विचार जागरूकता तथा उनकी सामाजिक भूमिका महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होंगे।
हैबरमास का सिद्धान्त निर्माण का अधिगम/उपागम
हैबरमास के सिद्धान्त की रणनीति का आधार ज्ञान है। मनुष्य के विकास के लिए ज्ञान की प्राप्ति सर्वप्रथम आवश्यकता है। इस दृष्टि से समाज विज्ञानों में तीन प्रकार के सिद्धान्त हैं। तीनों प्रकार के सिद्धान्त संज्ञान के हेतुओं पर आधारित हैं। संज्ञान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अपने समाज के बारे में बोध ग्रहण करते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम अपने सामान पर ध्यान न रखें, तो कोई भी उसे उठाकर रफूचक्कर हो सकता है। यह हमारा इन्द्रियों द्वारा किया गया बोध है। इसी बोध के द्वारा हम अपना निर्णय लेते हैं। हैबरमास ने इसे ‘संज्ञान हेतु’ कहा है, जिसे ज्ञान सिद्धान्त के इन तीनों प्रकारों में देखा जाता है। यह ज्ञान तीन प्रकार का है –
- उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम ज्ञान को विकसित करते हैं, जिसे ‘आनुभविक विश्लेषणात्मक सिद्धान्त’ (Empica -analytic Theories) कहते हैं। यह ज्ञान प्रत्यक्षवादी है, जो संचार के माध्यम से सम्पूर्ण समाज में आ जाता है। यह मनुष्य के विकास में बड़ा लाभकारी होता है।
- ज्ञान हमारे व्यावहारिक हितों की पूर्ति करता है। यह ज्ञान दैनिक जीवन की आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है। तकनीकी भाषा में हैबरमास ने इसे ‘भाष्य विज्ञान (Hermenatic) कहा है। यह हमारी अन्तक्रियाओं में काम आता है। हम अन्तक्रियाओं को भाषा के माध्यम से समझते हैं। प्रतीकात्मक अन्तक्रियाएँ, एथनोमेथडोलॉजी, उत्तर-संरचनावाद, आदि भाष्य विज्ञान के ही उदाहरण हैं।
- ज्ञान उद्धारक होता है। हैबरमास के अनुसार, व्यावहारिक ज्ञान एक तीसरे हेतु से जन्म देता है, जिसे उद्धारक शान्त(Emancipatory knowledge) कहते है। इसका सम्बन्ध भी अन्तर्क्रिया और संचार से होता है। यही ज्ञान विवेचनात्मक (Critical) सिद्धान्तों को जन्म देता है। इसमें हम अन्तर्क्रियाओं का लाभ प्राप्त करके समाज का अहित करते है। यह ज्ञान अपने स्वरूप में भ्रष्ट होता है। अहित का हेतु शक्ति के माध्यम से पूरा होता है। इसीलिए शक्ति की प्राप्ति के लिए समाज में संघर्ष होता है।
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