डेविड ह्यूम का द्रव्य-विचार
द्रव्य विचार सभी दार्शनिकों के लिए प्रमुख विषय है। डेविड ह्यूम का द्रव्य विचार भी पूर्णतः अनुभववादी ही है। उनके अनुसार अनुभव के परे कोई द्रव्य नहीं। इसी कारण वे आत्मा, परमात्मा तथा जड़ आदि सभी द्रव्यों का खण्डन करते हैं। अनुभववादी लॉक के अनुसार आत्मा, ईश्वर तथा जड़ द्रव्य सत्य है| लॉक के अनुसार जड़ द्रव्य ही हमारी बाह्य संवेदनाओं के कारण हैं, मूल गुणों के आधार हैं। गुण निराधार नहीं रह सकते, अतः इनके आधार स्वरूप जड़ द्रव्य की सत्ता अवश्य स्वीकार करनी होगी। हमें प्रत्यक्ष केवल गुणों का ही होता है, इसी प्रत्यक्ष के आधार पर हम इनके आधार (द्रव्य) का अनुमान करते हैं, अर्थात् द्रव्य अनुमेय है। बर्कले लॉक की इस मान्यता का खण्डन करते हैं।
बर्कले के अनुसार लॉक के अनुभववाद में यह दोष है। सत्ता अनुभवमूलक है, अर्थात् अनुभवविहीन सत्ता मान्य नहीं। हमें किसी भी बाह्य पदार्थ (जड़ द्रव्य) का अनुभव नहीं होता, अतः जड़ द्रव्य की सत्ता नहीं है। हमारा अनुभव तो केवल गुणों तक ही सीमित है, गुण तो केवल संवेदना मात्र हैं तथा मन या आत्मा पर आश्रित है। इस प्रकार बर्कले जड़ द्रव्यों का खण्डन कर केवल आत्मा और परमात्मा को ही द्रव्य स्वीकार करते हैं। ह्यूम आत्मा और परमात्मा दोनों का खण्डन करते हैं।
ह्यूम के अनुसार हमारे ज्ञान का एकमात्र साधन इन्द्रियानुभव है। इन्द्रियों के द्वारा हमें केवल संस्कार और विज्ञान का ही अनुभव प्राप्त होता है। संस्कार तथा विज्ञान दोनों से हमें किसी प्रकार के द्रव्य का अनुभव नहीं होता। ह्यूम के अनुसार गुणों के आधार रूप द्रव्य की कल्पना करना मिथ्या है। हमें रूप, रस, शब्द, गन्ध, स्पर्श आदि का ज्ञान तो होता है तथा हम इसके कारण स्वरूप (आधार) द्रव्य की सत्ता मान लेते हैं परन्तु कारण तो केवल एक मान्यता है। कारण और कार्य का सम्बन्ध नियत तथा अनिवार्य नहीं। अतः हम गुणों के कारण रूप द्रव्य की सत्ता नहीं स्वीकार कर सकते।
कोई भी वस्तु केवल गुणों का संघात या समुदाय मात्र है। हम इसी संघात को भ्रान्ति से द्रव्य कहते हैं। उदाहरणार्थ, हम उजला, मीठा, कड़ा आदि गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। हम इन सभी गुणों को एक साथ मिलाकर द्रव्य चीनी) की संज्ञा प्रदान कर देते हैं तथा हम मानते हैं कि चीनी नामक द्रव्य उजलापन, मीठापन आदि सभी गुणोंका आधार है, परन्तु यह भ्रम है।
जिस प्रकार हम केवल स्वभाव से ही किसी को किसी का कारण मान लेते हैं उसी प्रकार हम स्वभावतः गुणों के संघात को द्रव्य की संज्ञा प्रदान कर देते हैं। वस्तुतः भौतिक या आध्यात्मिक (जड़ पदार्थ, आत्मा और ईश्वर) किसी भी द्रव्य की सत्ता नहीं। यदि द्रव्य की सत्ता है तो उसे अवश्य ही इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होना चाहिए। यदि नेत्र से प्राप्त होता है तो रूप है, यदि त्वचा से तो स्पर्श है। परन्तु रूप, रस, शब्द, गन्ध आदि सभी गुण हैं। अतः द्रव्य की सत्ता सिद्ध नहीं।
जिस प्रकार भौतिक द्रव्य की सत्ता असिद्ध है उसी प्रकार आध्यात्मिक द्रव्य की भी। हमारा ज्ञान केवल इन्द्रियानुभव तक ही सीमित है। हमें आत्म तत्त्व का इन्द्रियों के द्वारा अनुभव नहीं होता, अतः आत्मा असिद्ध है। जिसे हम आत्मा कहते हैं वह अनेक अनुभवों का एकीकरण मात्र है। हम भ्रमवश इसे सनातन आत्मा मानते हैं। हमारे सभी अनुभव अलग-अलग हैं, परन्तु भ्रान्ति से हम इनके अधिष्ठान की कल्पना कर लेते हैं। जिस प्रकार किसी रंगमञ्च पर अनेक चित्र शीघ्रता से उपस्थित होते रहते हैं उसी प्रकार हमारे मन में भी अनेक अनुभव क्रमश: तेजी से उत्पन्न होते रहते हैं।
कुछ लोग आत्मा को सनातन द्रव्य मानते हैं तथा आत्मा का ज्ञान अन्तर्बोध से स्वीकार करते हैं। ह्यूम इसका खण्डन यों करते हैं कि मैं चाहता हूँ कि वे दार्शनिक जो यह बहाना करते हैं कि उन्हें आत्म-द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है, यह बतलाएँ कि यह प्रत्यक्ष किस संस्कार से उत्पन्न होता है तथा स्पष्ट रूप से यह बतलाएँ कि यह संस्कार किस प्रकार कार्य करता है। यह संस्कार इन्द्रियों का है या बुद्धि का? यह सुखात्मक, दुःखात्मक है या दोनों से रहित है? यह हमारे साथ सर्वदा रहता है या कभी-कभी आता है? यदि कभी-कभी आता है तो मुख्यतः किस समय आता है तथा किन कारणों से उत्पन्न होता है।
आत्मा का खण्डन
हम पहले विचार कर आए हैं कि ह्यूम किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक द्रव्य की सत्ता नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार हमारा ज्ञान कवल गुणों तक ही सीमित है, गुणों के आधार रूप में द्रव्य की कल्पना आवश्यक नहीं। ह्यूम मानव बद्धि सम्बन्धी निबन्ध में स्पष्टतः कहते हैं कि मैं उन दार्शनिकों से जो अपने बौद्धिक विवेचन से द्रव्य और गुण में इतना अधिक भेद देखते हैं तथा कल्पना करते हैं कि उन्हें इसका स्पष्टतः अनुभव होता है, पूछना चाहता हूँ कि द्रव्य विज्ञान का अनुभव उन्हें कैसे होता है, इन्द्रियानुभव से या मानसिक चिन्तन से? यदि हम इसे इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं तो मैं पूलूंगा कि किस या किन इन्द्रियों से तथा किस प्रकार?
यदि आँख से जाना जाता है तो रंग होना चाहिये, यदि कान से तो ध्वनि होनी चाहिये, यदि घ्राण से तो गन्ध होना चाहिये और यदि जिह्वा से तो स्वाद होना चाहिये। लेकिन मेरा विश्वास है कि कोई यह नहीं कहेगा कि द्रव्य, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि है| यदि द्रव्य की सत्ता है तो इसका अनुभव मानसिक चिन्तन से होना चाहिये। परन्तु मानसिक चिन्तन का अनुभव हमें सर्वदा उत्तेजना, मनोवेग के रूप में होता है। इन्हें द्रव्य नहीं कहा जा सकता। अतः गुणों के समूह के अतिरिक्त द्रव्य का अनुभव हमें नहीं होता। इस प्रकार द्रव्य-प्रत्यय तो कल्पना के माध्यम से सरल प्रत्ययों का संयोग मात्र है। हम इन सरल प्रत्ययों के एकीकरण को एक नाम द्रव्य दे देते हैं। इसी तक के आधार पर ह्यूम सभी प्रकार के द्रव्यों का खण्डन करते हैं।
आत्मा को बुद्धिवादी दार्शनिकों ने आध्यात्मिक द्रव्य माना है। यह आत्मद्रव्य स्वतः सिद्ध भी स्वीकार किया गया है। प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्त का कहना है कि मैं चिन्तन करता हूँ इसलिये मेरी (आत्मा की) सत्ता सिद्ध है। चिन्तन करना (ज्ञान) आत्मा का गुण है, धर्म है तथा आत्मा ही इसका द्रव्य या धर्मी है। हम विचार के। विषय का निषेध कर सकते हैं, परन्तु विचारक (विचारकर्ता) का निषेध नहीं कर सकते। इसी प्रकार अद्वैत मत के प्रतिपादक शंकराचार्य का कहना है कि निराकरण करने से भी निराकर्ता की सत्ता सिद्ध है। इस प्रकार आत्मा को स्वत: सिद्ध तत्त्व स्वीकार किया गया है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि ह्यूम आत्मा नामक कोई शाश्वत द्रव्य नहीं स्वीकार करते। शाश्वत द्रव्य तो एक भ्रान्ति है। हमें आन्तरिक अनुभव अवश्य होते हैं। मैं, स्वयं जब आत्मा कह जाने वाले के अत्यन्त निकट पहुंचकर देखता हूँ तो सदा सर्दी, गर्मी, प्रकाश, छाया, घृणा, द्वेष, दुःख इत्यादि बोधों में से एक या किसी दूसरे पर जाकर लड़खड़ा जाता हूँ। मैं आत्मा को उपर्युक्त ज्ञान के बिना कभी पकड़ नहीं पाता। जब ये अनुभव मुझसे पृथक् हो जाते हैं यथा शान्त निद्रा की स्थिति में, तब मैं आत्मा से अनजान रह जाता है और कहा जा सकता है कि मेरा अस्तित्व ही नहीं रहता। इससे स्पष्ट है कि घृणा, द्वेष, सुख, दुःख रूप अनुभवों के अतिरिक्त आत्मा का अस्तित्व नहीं।
हमारा ज्ञान संस्कार और विज्ञान तक सीमित है। सभी संस्कार तथा विज्ञान क्षणिक हैं तथा परिणामी हैं। इनसे नित्य तथा अपरिणामी आत्मा का बोध सम्भव नहीं। हमारा मन क्षणिक संस्कारों का आगार है। जिस प्रकार नदी में प्रवाह क्षण-क्षण उठते और विलीन हो जात है उसी प्रकार मन में सस्कार तथा विज्ञान सर्वदा आते-जाते रहते हैं। अत: ह्यूम के अनुसार स्वभावतः क्षणिक संस्कार नित्य आत्मा को व्यक्त नहीं कर सकते। हमारे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि सभी अनुभव तो क्षणिक तथा अस्थायी हैं।
अत: जिस प्रकार कारण का कोई आन्तरिक या बाह्य संस्कार नहीं उसी प्रकार आत्मा का भी। जिस प्रकार दो घटनाओं को हम स्वभाव के कारण कार्य मान लेते हैं, उसी प्रकार भ्रान्ति स हम वाभन्न अनुभवा क अधिष्ठान को आत्मा की संज्ञा प्रदान कर देते हैं। आत्मा तो केवल संवेदनाओं का समूह मात्र है। संवेदनाएँ हमें पृथक्-पृथक् होती हैं तथा दो संवेदनाओं में सम्बन्ध भी स्वभावतः हो जाता है। यदि आत्मा नित्य तथा शाश्वत द्रव्य होता तो सुषुप्तावस्था, मृत्यु के उपरान्त भी इसका अस्तित्व रहता।
सुषुप्तावस्था में तथा मृत्यु के उपरान्त हमें किसी प्रकार का अनुभव नहीं होता। अतः आत्मा की सत्ता अनुभव तक ही त स्वीकार करनी पड़ती है। हमारा मन सतत् क्रियाशील है, अनुभव की अविच्छिन्न धारा सदा चलती रहती है। एक अनुभव दूसरे का अनुसरण करता रहता है। इस प्रकार ह्यूम आत्मा का निषेध करते हैं। आत्मा का अस्तित्व ही नहीं, फिर इसकी अमरता का प्रश्न तो निरर्थक है। अतः शरीर के साथ इसका भी अन्त हो जाता है।
ईश्वर-विचार
आत्मा के समान परमात्मा को भी ह्यूम असिद्ध बतलाते हैं। जिस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को हम बुद्धि से प्रमाणित नहीं कर सकते, उसी प्रकार ईश्वर की सत्ता, उनका रूप, गुण आदि भी मानव बुद्धि के परे हैं। ह्यूम के पूर्व दार्शनिकों ने ईश्वर-सिद्धि के लिये अनेक प्रमाण दिये हैं, ह्यूम सभी प्रमाणों का खण्डन करते हैं। हम पहले विचार कर आए हैं कि मध्य युग के दार्शनिकों के लिये ईश्वर-सिद्धि प्रमुख विषय रहा है। सन्त ऑगस्टाइन, एन्सेल्म आदि दार्शनिकों ने सबल प्रमाणों से ईश्वर की सत्ता सिद्ध की है। वर्तमान युग में देकार्त, स्पिनोजा, लाइबनिट्ज आदि सभी दार्शनिकों ने ईश्वर की सिद्धि के लिये अनेक प्रमाण दिये हैं।
ह्यूम ने इन प्रमाणों का खण्डन भी बड़े जोरदार शब्दों में किया है। वस्तुतः ईश्वर प्रमाणगम्य नहीं, ईश्वर की प्रकृति तथा गुण मानव बुद्धि के परे है। हम भ्रान्ति से ईश्वर को विश्व का कारण मान लेते हैं। जब हमें एक पत्थर के टुकड़े के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता तो विश्व की उत्पत्ति की बौद्धिक व्याख्या करना कितना हास्यास्पद है। इस प्रकार ह्यूम सृष्टिकर्ता (ईश्वर) को असिद्ध बतलाते हैं तथा ईश्वर के सर्वज्ञ, असीम, सर्वशक्ति सम्पन्न आदि गुणों का निराकरण करते हैं।
ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिये सबसे प्रमुख कार्य-कारण तर्क दिया जाता है। विश्व में कोई भी घटना या कार्य अकारण नहीं। विश्व भी कार्य है, इसका कारण ईश्वर ही हो सकता है। विश्व असीम है, अतः असीम का कारण असीम ईश्वर ही हो सकता है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर ही सृष्टि का कारण है। ह्यूम इसका खण्डन यों करते हैं कि कारण और कार्य को समझने में मानव बुद्धि समर्थ नहीं। हम स्वभावतः दो घटनाओं में किसी एक को कारण तथा दूसरे को कार्य कह देते हैं। वस्तुतः कारण तो एक विश्वास है, इसकी बौद्धिक व्याख्या सम्भव नहीं।
जब कारण का निश्चय ही नही हो सकता तो ईश्वर की कारणता सिद्ध कैसे होगी? हमें विश्वास हो गया है कि कोई भी अकारण नहीं घटित हो सकता। अत: विश्व का कारण हम परम ईश्वर को मान लेते हैं। इतना ही नहीं, हम मानवीय गुणों से दैवी गुणों की भी करते हैं। मनुष्य सरल, शान्त तथा शक्तिमान होता है तो हम ईश्वर को रल, अनन्त तथा सर्वशक्तिमान मान लेते हैं। परन्तु दैवी गुणों की मानवीय से तलना करना कहाँ तक संगत है? अतः सादृश्यता के आधार पर ईश्वर की कल्पना करना भ्रामक है। मनुष्य अनित्य तथा परिवर्तनशील है, ईश्वर नित्य तथा शाश्वत है। इन दोनों में सादृश्य नहीं। इनकी समानता तो ईश्वर की नित्यता के लिये बाधक है, साधक नहीं।
जिस प्रकार कार्य-कारण मूलक तर्क (Causal proof) से ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती उसी प्रकार प्रयोजनमूलक तर्क (Teleological proof) से भी ईश्वर असिद्ध है। प्रयोजनमूलक तर्क सृष्टिमूलक तर्क का रूपान्तर है। सृष्टिमूलक तर्क (Cosmological proof) के द्वारा यह बतलाया जाता है कि मनुष्य शान्त है, वह अनन्त सृष्टि का कर्त्ता नहीं हो सकता। अतः अनन्त सृष्टि का कर्ता अनन्त ईश्वर ही हो सकता है। पुनः प्रयोजनमूलक तर्क के अनुसार यह कहा जाता है कि विश्व में क्रम और व्यवस्था है। इसका कर्त्ता ईश्वर ही हो सकता है।
हम घड़ी को देखकर घड़ीसाज की कल्पना करते हैं। इसी प्रकार विश्व को देखकर कर्त्ता ईश्वर की कल्पना करते हैं। इस तर्क में भी ईश्वर को कारण मानकर उनकी सत्ता सिद्ध की गयी है परन्तु कारण तो असिद्ध है, अतः ईश्वर भी असिद्ध है। पुनः सत्तामूलक तर्क (Ontological proof) के अनुसार सिद्ध किया जाता है कि पूर्ण ईश्वर का ज्ञान ही पूर्ण ईश्वर की सत्ता का द्योतक है। इस तर्क के अनुसार विचार और वस्तु में सामञ्जस्य स्थापित किया गया है। परन्तु हममें बहुत से ऐसे विचार हैं जिनके अनुरूप कोई वस्तु नहीं।
अतः ईश्वर विचार से ईश्वर की सत्ता सिद्ध करना तो नितान्त भ्रामक है। ईश्वर का खण्डन करते हुए ह्यूम बतलाते हैं कि हमारा ज्ञान संस्कार और विज्ञान तक सीमित है। यदि सत्य, शिव, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर का विज्ञान है तो इसका मूल संस्कार भी होना चाहिये, परन्तु हममें ऐसा कोई संस्कार नहीं। अतः जो व्यक्ति मानव ज्ञान के सामर्थ्य और सीमा से परिचित होगा वह ईश्वर को सत्य, सनातन और सार्वभौम पाप नहीं सिद्ध कर सकता। वस्तुतः किसी भी प्रमाण से ईश्वर की सत्ता सिद्ध करना भ्रामक है; क्योंकि ईश्वर तो श्रद्धा और चमत्कार का विषय है। हम उसे प्रमाण या तर्क से सिद्ध नहीं कर सकते।
सन्देहवाद
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास का अवलोक करने से पता चलता है कि लॉक है। अनुभववाद का अन्त ह्यूम के सन्देहवाद में हुआ। लॉक ने बतलाया कि हममें को भी ज्ञान जन्मजात नहीं। जन्म से मानव का मस्तिष्क एक कोरे कागज के समान रहता है, जिस पर कुछ भी लिखा नहीं रहता। संवेदना तथा स्वसंवेदना ही ज्ञान के वातायन हैं जिससे मन रूपी अंधेरे कमरे में ज्ञान का प्रकाश आता है। तात्पर्य यह है कि अनुभव ही हमारे ज्ञान का जनक है। इन्द्रियानुभव को ही ज्ञान का मापदण्ड मानते हुए लॉक ने द्रव्य, आत्मा, परमात्मा आदि सभी को अनुभव से इतर या परे विषयों को मान लिया।
बर्कले भी अनुभववादी हैं। उनके अनुसार भी हमारा ज्ञान विज्ञानों तक सीमित है, परन्तु विज्ञान के कारण स्वरूप आत्मा और परमात्मा को वे मानते हैं। ह्यूम शुद्ध अनुभववादी हैं। यदि हमारा ज्ञान इन्द्रियानुभव तक ही सीमित है तो अनुभवेतर विषयों (आत्मा, परमात्मा आदि) की प्रामाणिकता तो सन्दिग्ध होगी ही। अतः सन्देहवाद तो अनुभववाद का स्वाभाविक परिणाम है।
डेविड ह्यूम अपने को स्वयं सन्देहवादी कहा करते थे तथा किसी अंश में सन्देहवादी थे भी। जैसा हम पहले विचार कर आए हैं कि ह्यूम के अनुसार सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान असम्भव है। यदि इन्द्रियानुभव ही हमारे ज्ञान का मापदण्ड है तो। अनिवार्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी कारण उन्होंने कार्य-कारण जैसे सर्वमान्य सिद्धान्त को सम्भाव्य बतलाया है, अनिवार्य नहीं। यदि हमारा ज्ञान कवल विशेषों तक ही सीमित है तो सामान्य कोरी कल्पना है। इसी प्रकार हमारा ज्ञान याद। संस्कार और विज्ञान तक सीमित है तो आत्मा और परमात्मा का ज्ञान हमें नही प्राप्त हो सकता।
अतः कार्य-कारण, द्रव्य, परमात्मा आदि सभी पर सन्देह करने के कारण हम निश्चय रूप से ह्यूम को सन्देहवादी कह सकते हैं। अपने सन्देहवाद का स्पष्ट करते हुए ह्यूम कहते हैं कि सन्देहवाद यथार्थ में सदा के लिये किसी को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। जिस किसी ने सन्देहवाद के आक्षेपों के खण्डन करने का प्रयास किया है वह वस्तुतः बिना शत्रु के लड़ता रहा है। सौभाग्य से होता यह है कि बुद्ध इन सन्देहवाद के बादलों को हटाने में सर्वथा असमर्थ है।
प्रकृति स्वयं उस कार्य का करती है और मेरे मानसिक तनाव को ढीला करके या किसी अन्य सजाव आकर्षक अनुभव के द्वारा, जो तत्क्षण उन कल्पनाओं को भुला देता है मुझे दार्शनिक विवाद या भ्रान्ति से मुक्त कर देती है। उस भ्रान्ति से मुक्त होकर मैं पुनः भोजन करता हूँ, चौपड़ खेलता हूँ, वार्तालाप करता हूँ और मित्रों के बीच आनन्द लेता हूँ। तीन-चार घण्टे मनोरजन के बाद जब मैं इन विचारों को पुनः देखता हूँ तो इतने निस्सार, अचेतन और हास्यास्पद दीख पड़ते हैं कि उनमें फिर उलझने की मेरी इच्छा ही नहीं होती।
ह्यूम के सन्देहवाद का एक विशेष अर्थ है। ह्यूम अपने सन्देहवाद के सहारे अनभवेतर विषयों में मानव बुद्धि की अक्षमता बतलाते हैं। अनुभव से परे विषयों को हम तर्क या प्रमाण से नहीं जान सकते। इस प्रकार मानव ज्ञान की सीमा निश्चित है। हम जानते हैं कि बुद्धिवाद ने मानव ज्ञान को दृश्य, अदृश्य, ज्ञात, अज्ञात सभी लोकों में पहुचा दिया था। ह्यूम ने बुद्धिवाद के दावा का निस्सार बतलाते हुए यह सिद्ध कर दिया कि मानव ज्ञान केवल इन्द्रियानुभव तक ही सीमित है। अतः ह्यूम के सन्देहवाद का तात्पर्य केवल मानव बुद्धि की अनुभवेतर विषयों में अक्षमता का प्रदर्शन है।
ह्यूम आस्था और विश्वास का निषेध नहीं करते। हमारा दैनिक जीवन तो विश्वास पर ही चलता है। हम विश्वास पर आधारित मान्यताओं को पूर्णतः ध्वस्त नहीं करते परन्तु साथ ही साथ उनका बौद्धिक समर्थन भी नहीं किया जा सकता। ह्यूम अपने सन्देहवाद के द्वारा केवल परम्परागत अन्धविश्वास से समाज को मुक्त करना चाहते हैं। अतः ह्यूम के सन्देहवाद का अर्थ है अनुभवेतर विषय मानव बुद्धि के परे हैं, इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है, अतः धर्म और तत्त्व-मामासा के विषयों में वे कुछ दूर तक अवश्य सन्दहवादा है, परन्तु गाणित, प्राकृतिक विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान की यथार्थता वे स्वीकार करते हैं। अतः इन विज्ञानों में वे सन्देहवादी नहीं।
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