इस पोस्ट में मैं आपको चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन, चन्द्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार, चन्द्रगुप्त की विजयों का वर्णन, चन्द्रगुप्त के समय आये चीनी यात्री फाह्ययान की यात्रा का वर्णन, गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहा जाता था, गुप्त काल के पतन का क्या कारण था। आदि प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का जीवन परिचय
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य समुद्रगुप्त का पुत्र था । समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी ‘दत्रदेवी‘ से वह उत्पन्न हुआ था। चन्द्रगुप्त 375 ई० में गद्दी पर बैठा । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की पटरानी ध्रुवदेवी थी जिससे कुमारगुप्त तथा गोविन्दगुप्त नामक पुत्र पैदा हुए थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय अपने पिता समुद्रगुप्त की भाँति नीति निपुण तथा दूरदर्शी था । उसने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया जिसका उसे राजनीतिक लाभ मिला । मेहरौली स्तम्भ लेख के अनुसार-उसने बंग युद्ध में शत्रुओं के समूह को पराजित किया तथा सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार कर बाह्रीक क्षेत्र को जीत लिया । उसकी कीर्ति दक्षिण में समुद्र तक फैली थी । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की कृतियों का विवरण निम्नवत् है-
चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयों का वर्णन
(1) शकों पर विजय-
रामगुप्त शकराज से पराजित होकर उसे अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को देने के लिए तैयार था किन्तु विक्रमादित्य ने कूटनीति से शकराज का वध कर दिया तथा बाद में रामगुप्त का वध करके धुवस्वामिनी से विवाह किया । इस विजय के बाद उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की तथा सोने के सिक्के चलवाये । उसका गुजरात, काठियावाड़ और मालवा पर अधिकार हो गया । भृगुकच्छ का बन्दरगाह भी उसके अधिकार में आ गया ।
(2) बाह्नीक विजय-
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार कर बैक्ट्रिया या बल्ख प्रदेश को जीता था, जो वाह्लीक क्षेत्र कहलाता था ।
(3) बंग विजय-
विक्रमादित्य ने पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी बंगाल के क्षेत्रों को जीता। इस विजय के पश्चात् ताम्रलिप्ति का बन्दरगाह भी उसके अधिकार में आ गया।
साम्राज्य विस्तार-
चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयों के फलस्वरूप उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय, उत्तर-पश्चिम में बल्ख प्रदेश, पश्चिम में गुजरात, दक्षिण में नर्मदा नदी तथा पूर्व में बंगाल तक फैला था । साम्राज्य विस्तार के बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया ।
शासन-प्रबन्ध-
महान विजेता के साथ ही चन्द्रगुप्त द्वितीय एक कुशल प्रशासक भी था । चीनी यात्री फाह्यान ने उसके शासन की प्रशंसा की है । सम्राट शासन का सर्वोच्च अधिकारी था । उसकी सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य विद्याप्रेमी तथा विद्वानों का संरक्षक था। उसके दरबार में नवरत्न थे । इनमें कालिदास, धन्वन्तरि तथा वाराहमिहिर प्रमुख थे । उसके समय में संस्कृत की विशेष उन्नति हुई।
विजेता और प्रशासक के रूप में चन्द्रगुप्त द्वितीय का मूल्यांकन
चन्द्रगुप्त द्वितीय अपने पिता की भाँति महान विजेता था । उसने शकों को परास्त कर अपने भाई की पत्नी ध्रुवस्वामिनी की रक्षा कर उससे विवाह किया। शक विजय के पश्चात् उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी । मेहरौली स्तम्भ लेख स ज्ञात होता है कि उसने बंग युद्ध में शत्रु समूह को पराजित किया तथा सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार वाहीक क्षेत्र को जीत लिया था। उसने अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी सीमाएँ दक्षिण में समद्र तक फैली थीं । उसन अपनी विजयों के बाद अश्वमेध यज्ञ किया था ।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य महान विजेता के साथ ही साथ कुशल प्रशासक भी था । उसके शासन काल में सम्राट ही साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसकी सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद थी । साम्राज्य भुक्तियों में विभक्त था जिसका शासन विभिन्न पदाधिकारियों के सुपूर्द था । भक्ति विषयों तथा ग्रामो में विभक्त था जिसके प्रधान क्रमशः विषयपति तथा ग्रामिक होते थे । चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में न्याय व्यवस्था कठोर थी । शारीरिक तथा अर्थ दोनों प्रकार के दण्ड की व्यवस्था थी । प्रजा सुखी तथा सम्पन्न थी । शान्ति-व्यवस्था के फलस्वरूप उद्योग-धन्धे व व्यापार उन्नत अवस्था में थे । इसीलिए इतिहासकारों ने उसके शासनकाल को ‘स्वर्णयुग’ कहा है।
फाह्यान के यात्रा-विवरण का संक्षेप में वर्णन
फाह्यान का परिचय-
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में 405 ई० में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था । उसे बचपन से ही धर्म के प्रति अनुराग था । अतः बाल्यावस्था में ही फाह्यान ने संन्यास ले लिया और बौद्ध धर्म का अध्ययन आरम्भ कर दिया । उसकी इच्छा हुई कि भारतवर्ष जाकर बौद्ध-धर्म के मूल ग्रन्थों का अध्ययन करे । बौद्ध-धर्म के तीर्थ स्थानों की यात्रा करने की भी उसकी इच्छा थी ।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह पाँच साथियों के साथ भारत की ओर चल पड़ा । उसके अधिकांश साथी मार्ग की कठिनाइयों के कारण उसे छोड़कर स्वदेश लौट गये । परन्तु वह आगे बढ़ता ही गया । -खोतान को पार कर वह गांधार पहुँचा | भारत पहुँचकर उसने मथुरा, श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, काशी, सारनाथ आदि नगरों का भ्रमण किया । अन्त में वह ताम्रलिप्ति बन्दरगाह होकर स्वदेश वापस लौट गया । नानकिंग में उसने अपनी यात्रा का विवरण सुनाया जिसे उसके एक मित्र ने लिपिबद्ध किया ।
फाह्यान का भारतीय वर्णन –
फाह्यान 405 ई० से 411 ई० तक भारतवर्ष में रहा । यद्यपि वह तीर्थ-स्थान की यात्रा करने तथा बौद्ध-ग्रन्थों के संकलन के लिए भारत आया था और उसका विवरण इन्हीं विषयों तक सीमित है । परन्तु फिर भी उसके विवरण से भारत की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा का भी पता चलता है।
(1) शासन-व्यवस्था-
फाह्यान लिखता है कि उस समय का शासन सुव्यवस्थित था, आवागमन की स्वतन्त्रता थी । राजा की ओर से प्रजा के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं किया जाता था । फाह्यान दण्ड की उदारता से अत्यन्त प्रभावित हुआ । साधारणतः लोगों को आर्थिक दण्ड दिया जाता था । राजद्रोहियों का दाहिना हाथ काट लिया जाता था । प्राण दण्ड देने की प्रथा नहीं थी । इस युग में अपराध कम होते थे । प्रजा सुखी थी, चारों ओर शान्ति थी । राज्य की ओर से सड़कें एवं पाठशालाओं का भी निर्माण होता था। मुफ्त औषधियाँ वितरित किये जाने का प्रबन्ध था । भूमि कर राज्य की आय का प्रमुख साधन था।
(2) सामाजिक दशा-
फाह्यान ने लिखा है कि उत्तरी भारत के लोग धनी, धर्मात्मा तथा प्रेमी हैं । वे एक-दूसरे के साथ सहानुभूति रखते थे और एक-दूसरे की सहायता के लिए सदैव तैयार रहते थे। अपने व्यवहार में वे सत्य का पालन करते थे।
(3) आर्थिक दशा-
व्यापार उन्नत अवस्था में था। विदेशी व्यापार खूब होता था। उसने लिखा है कि-“क्रय-विक्रय में केवल कौड़ियों का प्रयोग होता था।” आर्थिक दृष्टि से प्रजा सम्पन्न थी। उसने लिखा है कि “राजमार्गों पर उसके साथ किसी प्रकार का अत्याचार नहीं हुआ।” कृषि एवं उद्योग-धन्धे उन्नत अवस्था में थे । अतः देश में आर्थिक समृद्धि थी।
(4) धार्मिक दशा-
तत्कालीन धार्मिक दशा का फाह्यान के लेखों से विशेष रूप से पता चलता है । उसने लिखा है कि पंजाब, बंगाल तथा मथुरा में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार था । परन्तु मध्य प्रदेश में बौद्ध धर्म का ह्रास हो रहा था जहाँ फाह्यान को बौद्ध मठ देखने को कम मिले । इन स्थानों में वैष्णव धर्म का जोर था और गुप्त सम्राट स्वयं परम भागवत था । परन्तु राज्य की ओर से किसी धर्म में हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। धार्मिक मामलों में लोगों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी और बौद्धों तथा ब्राह्मणों में अच्छा सम्बन्ध था।
(5) पाटलिपुत्र नगर का वर्णन-
फाह्यान लिखता है कि नगर के लोग बड़े धनी और दान देने में एक-दूसरे से होड़ किया करते थे । नगरो में अनेक संस्थाएँ थीं जहाँ से दीन-दुखियों तथा अपाहिजों को दान मिला करता था । लोगों का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा था।
गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं
(1) महान सम्राटों का युग-
इस युग में समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त आदि वीर तथा साहसी हुए थे जिन्होंने साम्राज्य का निर्माण तथा संगठन किया था। इन सम्राटों ने विदेशियों को रणक्षेत्र में पराजित करके साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया था और देश में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की। समुद्रगुप्त को ‘भारत का नैपोलियन’ की उपाधि से विभूषित किया जाता है | इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित करके ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी। स्कन्दगुप्त ने हूणों को रणक्षेत्र में पछाड़ दिया था, जिसके महत्वपूर्ण परिणाम हुए। वस्तुतः गुप्त राजाओं का साम्राज्य परम शक्तिशाली, अति सुदृढ़ तथा भली-भाँति सुरक्षित था।
(2) राजनैतिक एकता का युग-
अशोक की मृत्यु के पश्चात् भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई थी और देश छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था । विदेशियों ने बचीखुची एकता पर बार-बार प्रहार किये, फलतः समस्त भारत में राजनैतिक शक्ति जर्जरित हो गई थी। इस विलुप्त राजनैतिक एकता को गुप्तकाल में फिर से स्थापित किया गया ।
(3) उत्तम शासन-प्रबन्ध-
समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की स्थापना की थी । गुप्तकालीन शासन उदार तथा दयापूर्ण था। जनता को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी और वह वाह्य तथा आन्तरिक आपत्तियों से सुरक्षित थी। दण्ड-व्यवस्था कठोर न थी। राज्य की ओर से दीन-दुखियों तथा रोगियों की सहायता की पूरी व्यवस्था थी। लोगों का जीवन व सम्पत्ति सुरक्षित थी।
(4) साहित्य की उन्नति का युग-
गुप्तकाल में देश में पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था थी। अतएव साहित्य तथा दर्शन का इस काल में चूड़ान्त विकास हुआ । गुप्तकालीन सम्राट विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे । इस समय संस्कृत भाषा की उन्नति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी और उसने राष्ट्रभाषा का रूप धारण कर लिया था। गुप्तकाल में अनेक महाकवि, नाट्यकार तथा दार्शनिकों का आविर्भाव हुआ था जिसमें कालिदास, शूद्रक, भर्तृहरि, विशाखदत्त, वत्सभट्टी, दण्डिन, भारवि, वसु-बन्धु, वाराहमिहिर अधिक प्रसिद्ध है।
इस काल में ही ‘कालिदास’ ने शकुन्तला नामक नाटक तथा मेघदूत और रघुवंश नामक काव्य-ग्रन्थों की रचना की। शूद्रक ने ‘मृच्छकटिक‘ एवं विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नाटक लिखे। प्रसिद्ध कोषकार अमरसिंह ने ‘अमरकोष‘ की रचना की । पंचतन्त्र एवं हितोपदेश भी इसी काल की रचना हैं । वाराहमिहिर नामक ज्योतिषी ने ज्योतिष सम्बन्धी अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की।
(5) धार्मिक सहिष्णुता तथा हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-
गुप्तकाल की यह विशेषता थी कि यद्यपि गुप्त सम्राट विष्णु के उपासक थे परन्तु फिर भी वे अन्य धर्मों के पर सहिष्ण थे। उनमें धार्मिक पक्षपात न था। सभी लोग स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने धर्म का पालन कर रहे थे। गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के संरक्षक थे। उनके आश्रय में इस धर्म का खूब विकास हुआ । यज्ञों और ब्राह्मणों का महत्व बढ़ गया । वस्तुतः हिन्दू धर्म इस युग में अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच चुका था ।
(6) कला के चरम विकास का युग-
गुप्त युग भारतीय कला के चरम विकास का युग था । इस समय कला के क्षेत्र में चतुर्मुखी उन्नति हुई । कला के सभी अंगों-वास्तुकला, संगीतकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला की उन्नति हुई । वास्तुकला के क्षेत्र में बड़े-बड़े राजप्रासादों व मंदिरों का निर्माण कराया गया । गुप्तकाल में निर्मित-नागोद भूमरा, देवगढ़, झाँसी, भितरगाँव, साँची एवं नचनाकुहार के मन्दिर अपनी कलाकारी के लिए बहुत ही प्रसिद्ध हैं | बौद्ध-धर्म के अनेक विहार, स्तूप तथा चैत्य इस काल में निर्मित हुए । इस काल में चट्टानों को काटकर कई प्रसिद्ध गुफाओं का निर्माण किया गया ।
गुप्त युग में मूर्तिकला का विकास चरम सीमा पर जा पहुँचा | बौद्ध, जैन एवं वैष्णव धर्म के पूज्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ बनाई गईं । मथुरा संग्रहालय एवं बरमिंघम संग्रहालय में रखी हुई गुप्तकालीन बुद्ध प्रतिमाएँ साक्षी हैं।
चित्रकला की दृष्टि से गुप्तयुग सभी युगों से आगे बढ़ गया है | अजन्ता एवं बाघ के भित्ति चित्रों की प्रशंसा सभी विद्वानों ने की हैं । अजन्ता की चित्रकारी सैकड़ों वर्ष पहले की गई थी किन्तु यह आज भी वैसी ही बनी है । गुप्त सम्राट संगीतज्ञ भी थे । फलतः इनके संरक्षण में इस कला की भी अभूतपूर्व उन्नति हुई।
(7) विज्ञान की उन्नति-
इस काल में वैज्ञानिक उन्नति भी खूब हुई । वाराहमिहिर इस काल के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य थे, जिन्होंने कई वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादित किये । आर्यभट्ट इस युग के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य एवं गणितज्ञ थे जिन्होंने कई नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । उसने बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिससे दिन-रात होते हैं । उसने गणना में शून्य के महत्व की विवेचना की । रसायन विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान का प्रचार-प्रसार था ।
(8) सांस्कृतिक प्रसार का युग-
गुप्तयुग में भारतीय संस्कृति का प्रसार अन्य देशों में हआ । चीन के साथ भारत का घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हुआ । दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । यह इस युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। __(9) आर्थिक सम्पन्नता का युग-इस काल में भारत धन-धान्य से परिपूर्ण था । कृषि उद्योग-धन्धे विकसित थे । अतः प्रजा सुखी एवं सम्पन्न थी। करों का बोझ अधिक नहीं था । विदेशी व्यापार से भारत को बहुत लाभ होता था । लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी । प्रजा खुशहाल थी ।
(10) व्यापारिक उन्नति का युग-
इस काल में सुदूर देशों से व्यापार होता रहता था। गुप्त युग में एक प्रतिनिधि मण्डल भारत से चीन भेजा गया था। इसका मुख्य उद्देश्य व्यापार था । इसके अलावा भारत का रोम, जावा, सुमात्रा, पर्सिया तथा काहिरा से भा व्यापार होता था । इस काल में मुद्राओं की व्यवस्था थी।
निष्कर्ष
उपर्युक्त कारणों से ही गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्ण यग कहा जाता है । इस काल की समता भारतीय इतिहास का कोई दूसरा काल नहीं कर सकता, क्योंकि इस काल में जो सर्वाङ्गीण उन्नति हुई वह अन्य कालों में नहीं दिखाई पड़ती।
गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारणों का उल्लेख
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण गुप्तवंश के पतन के अनेक कारण थे, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित थे :
(1) योग्य सम्राटों का अभाव-
गुप्तों के उत्कर्ष काल के सम्राट शूरवीर और प्रतापी थे । स्कन्दगुप्त के बाद जो सम्राट गद्दी पर बैठे उनमें न तो पराक्रम था और न योग्यता । सम्राटों की दुर्बलता एवं अयोग्यता का गुप्तवंश के शत्रुओं ने लाभ उठाया । राज्य में अव्यवस्था फैल गई, विदेशी आक्रमण होने लगे जिन्हें रोकने में निकम्मे गुप्त सम्राट सफल न हो सके।
(2) विस्तृत साम्राज्य-
गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत था, जिसे नियन्त्रण में रखने की क्षमता एवं योग्यता सभी शासकों में न थी । स्कन्दगुप्त की मृत्यु अर्थात् 467 ई० तक यह साम्राज्य ज्यों-का-त्यों बना रहा । परन्तु इसके बाद के सभी गुप्त सम्राट अदूरदर्शी निकले । साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई और उसका विघटन होने लगा जिसे वे रोक न सके ।
(3) प्रान्तीय शासकों का स्वतन्त्र होना-
जब तक केन्द्र में शक्तिशाली शासक रहे, प्रान्तों तथा विषयों के अधिकारी स्वामिभक्त बने रहे परन्तु ज्यों ही केन्द्र में कमजोर राजाओं का शासन शुरू हुआ, प्रान्तों के शासकों ने उसका लाभ उठाना शुरू कर दिया । उन्होंने अपने लिए स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिये । बल्लभी, मालवा, थानेश्वर, कन्नौज आदि राज्यों का जन्म गुप्त साम्राज्य के अवशेषों पर ही हुआ था । इस प्रक्रिया का गुप्त साम्राज्य पर गहरा आघात पहुँचा ।
(4) उत्तराधिकार का निश्चित नियम न होना-
गुप्त शासकों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था । फलतः एक शासक के मरने के बाद गद्दी के लिए प्रायः संघर्ष होता था । गुप्त सम्राटों के इसी आपसी संघर्ष एवं कलह ने गुप्त साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया ।
(5) सीमा की सुरक्षा की ओर ध्यान न देना-
अन्तिम गुप्त सम्राटों ने अपनी सीमा की सुरक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया । फल यह हुआ कि हूण आक्रमणकारी बिना रोकटोक के भारत में घुस आये और उन्होंने साम्राज्य को भारी क्षति पहुँचाई।
(6) आर्थिक संकट-
गुप्त सम्राटों को अनेक युद्ध करने पड़े जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा खराब हो गई । इसका गुप्त साम्राज्य के स्थायित्व पर बुरा प्रभाव पड़ा।
(7) हूणों के आक्रमण-
गुप्त साम्राज्य पर हूणों के कई आक्रमण हुए। हण आक्रमणकारी तोरमाण एवं मिहिरकुल ने गुप्तों के अनेक इलाकों को अपने अधिकार में कर लिया । इस प्रकार हूणों के आक्रमण ने गुप्त साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर दिया।
(8) बौद्ध-धर्म का अनुसरण-
स्कन्दगुप्त के बाद के कई गुप्त सम्राटों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया था । बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति के प्रभाव से वे सैनिक दृष्टि से निष्क्रिय हो गये होंगे, उनकी इस नीति का भी गुप्त साम्राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा ।
इन सब कारणों का कुपरिणाम यह हुआ कि प्राचीन भारत का अत्यन्त शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके अवशेषों पर अनेक छोटे-छोटे राज्यों का जन्म हुआ।
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Nice