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कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की विवेचना

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कार्ल मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की विवेचना कीजिए

 

संंघर्ष उपगम (सिद्धान्त) का अर्थ

संंघर्ष उपगम मनुष्य समाज की अति महत्वपूर्ण तथा विश्वव्यापी प्रक्रिया है। संघर्ष के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन ईसा से 250 वर्ष पूर्व पोलिबियस नामक विचारक ने किया था। उसका मत था कि पशुओं के समान मनुष्य भी झुण्ड बनाकर रहने और संघर्ष करने प्रवृत्ति का अनुगामी है। शासक जिस समय अन्यायी और अत्याचारी हो जाता है, उस समय शासित या शोषक वर्ग संघर्ष के ही द्वारा उसे निर्मूल करने के लिए संगठित हो जाता है। पोलिबियस के मत का समर्थन मैकियावली, वोदीन और हॉब्स भी करते है। श्री एडम स्मिथ, माल्थस तथा कार्ल मार्क्स आदि विचारकों ने संघर्ष सिद्धान्त आधार आर्थिक माना है। यद्यपि संघर्षवाद के सिद्धान्त का व्यवस्थित व वैसा पोलिवियस कृत सिद्धान्त से मेल खाता है, किन्तु इसको और अधिक स्पष्ट करने तथा विकसित करने में गुम्फ्लोविज, कार्ल मार्क्स, रैटजैनहोफर, ओपनहाइमर, हरबर्ट स्पेन्य पैरेटो तथा पिटरिम सोरोकिन इत्यादि समाजशास्त्रियों ने इसको सामाजिक संरचना से सम्बद्ध किया है।

पोलिबियस ने सम्पूर्ण सामाजिक व्याख्या का आधार संघर्ष दृष्टिकोण स्वीकृत किया है। महान विचारक प्लेटो की ही भांति पोलिबियस ने भी ऐसी स्थिति की परिकल्पना की थी, जिसमें अनर्थकारी आपत्ति के कारण मात्र थोड़े से  व्यक्तियों को छोड़कर समग्र मानव समूह समाप्त हो गया था क्योंकि शेष बचे व्यक्तियों की संख्या अत्यधिक न्यून थी, अतः वे संगठित होकर रहने लगे और उनमें सर्वाधिक बलशाली व्यक्ति को समुदाय का नेतृत्व प्रदान कर दिया गया। इस प्रकार समाज में एकतन्त्र (Monarchy), का प्रादुर्भाव हुआ। यही एकतन्त्र मानव समुदाय का प्रथम स्वरूप था। राज्य का यह सिद्धान्त शक्ति सम्बन्धों पर आश्रित था। सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया के द्वितीय चरण में सत्ता एकतन्त्र से हस्तान्तरित होकर राजतन्त्र (Kingship) के स्वरूप में अवतरित हुई। राजा तथा उसके उत्तराधिकारियों की उन्मादिता, मदान्धता तथा घमण्डी स्वभाव के कारण या राजतन्त्र भी अधिस समय के लिए अक्षुण्ण न रहा और वह क्रूरतन्त्र में बदल गया। कालान्तर में यह क्रूरतन्त्र (Tyranny) भी असह्य हो गया, तब समाज के कर्णधारों और कुलीनवर्ग के सदस्यों ने जनमत के आधार और विश्वास पर क्रूरतन्त्र के स्थान पर कुलीनतन्त्र जो (Aristocracy) की स्थापना की। कालान्तर में कुलीनतन्त्र में भी वंशानुक्रमिक अवगुणों का प्रादुर्भाव हुआ और शासकवर्ग अपने कर्तव्यों और लक्ष्यों को विस्मरण करने लगा, तब कुलीनतन्त्र को हटाकर प्रजातन्त्र (Democracy) को जन्म दिया गया। पोलिबियस के का मतानुसार यह जनतन्त्र भी कुछ समय तक ही चलेगा, तत्पश्चात् सत्ता में फिर परिवर्तन होगा और यह चक्र निरन्तर चलता रहेगा। इस चक्र को नष्ट करने का एक मात्र उपाय यही है कि एक ऐसी मिश्रित सरकार बनायी जाये, जिसमें राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र तथा जनतन्त्र के सर्वोच्च गुणों का समावेश हो। ऐसी सरकार का निर्माण लाइकरगस और स्पार्टा नामक स्थान पर हुआ भी था।

पोलिबियस (Polibious) के मतानुसार राजव्यवस्थाओं का निर्माण और परिवर्तन  का आधार मात्र संघर्ष की ही प्रक्रिया होती है। रोमन समुदाय के प्रतिनिधि ऐपीक्यूरियन,ल्यूक्रेटियस तथा होरेन भी इस मत का समर्थन करते हुए स्वीकार करते हैं कि सभी वस्तुओं का आविर्भाव संघर्ष के परिणामस्वरूप ही हो सका है। चौदहवीं और सोलह शताब्दी में मध्य खाल्टून, मैकियावली, बोदिन तथा हॉब्स नामक विद्वानों ने भी राज्य और सामाजिक विकास के सन्दर्भ में संघर्ष के सिद्धान्त को मुख्य आधार स्वीकृत किया। हाब्स का तो स्पष्ट मत है कि समाज में न्याय स्थापित करने के लिए ही संघर्षों की उत्पत्ति है। सोलहवीं शताब्दी के तत्पश्चात् अनुभवाश्रित और तथ्यानुपूरक आधारों पर निर्भर सिद्धान्तों का विकास सम्भव हुआ है। इस विचारधारा के प्रमुख समाजशास्त्रियों के नाम डेविड तथा फरगूसन माने जाते हैं। इसके बाद तर्क के आधार पर संघर्षवादी प्रतिस्थापन एडमस्मिथ, थामस माल्थस और मार्क्स के संघर्ष सम्बन्धी विचारों का भी महत्व गया है।

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मार्क्स का वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स के विचारानुसार समाज में सर्वत्र स्वाभाविक रूप से  विरोध और संघर्ष उपस्थित होते  हैं तथा समग्र सामाजिक जीवन में इन्हीं विरोधों तथा संधर्षों का परिणाम होता है। विश्व में होने वाले सभी परिवर्तन, भले ही वे विचारों, व्यवहारों, आचरणों, प्रतिमानों, आदर्शों, संस्थानों या आध्यात्मिक तथा भौतिकवादी व्यवस्थाओं में हो संघर्ष के ही परिणाम होते है और सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण मानवीय प्रक्रियाओं का आधार द्वन्द्व (Struggle) या संघर्ष (Conflict) ही होता है। कार्लमार्क्स के विचारानुसार मानव और सामाजिक प्रकृति में परस्पर विरोधी शक्तियाँ उपस्थित होती हैं था जिस समय तक इनमें संतुलन बना रहता है, उस समय तक ही समाज की व्याख्या भी स्थिर बनी रहती है। इसके विपरीत जिस समय इन विरोधी शक्तियों में उपस्थित सन्तुलन बिगड जाता है, उस समय समाज में संघर्ष की प्रक्रिया का जन्म होता है जिसके परिणामस्वरूप परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन का एकमात्र कारण उन्होंने द्वन्द्व माना है।

कार्ल मार्क्स का मत विशुद्ध भौतिकवादी है। इसलिए उन्होंने पदार्थ को मुख्य और विचार को गौण माना है। उनके मतानुसार भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण भी परिवर्तन होते हैं। मार्क्स के अनुसार सामाजिक विकास का कारण व्यक्तियों का भौतिक तथा आर्थिक संघर्ष है। इसलिए सामाजिक तथ्यों का वैज्ञानिक विवेचन भौतिक संघर्ष के आधार पर होना चाहिए। उन्होंने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर सामाजिक तथ्यों तथा सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या प्रस्तुत की है। कार्ल मार्क्स के अनुसार सभी सामाजिक परिवर्तन विरोधों के संयम का परिणाम होते हैं। उनका यह भी विचार है कि समाज अति प्रारम्भ से ही वाद और प्रतिवाद का संघर्ष स्थल है। इसके ही कारण सदैव नयी व्यवस्था जो संवाद है, का जन्म सम्भव है। प्राचीन काल में यह संघर्ष स्वामी और सेवक, मध्यकाल में सामन्त और कृषक तथा आधुनिक काल में पूँजीपति और श्रमिक के रूप में देखा जा सकता है। इस संघर्ष के ही कारण मनुष्य की क्षमता का नाश हुआ, सामन्तवादी व्यवस्था नष्ट हुई और अन्त में अब पूँजीवादी का भी निश्चय ही विनाश रहेगा। इस तरह सामाजिक विकास का आधार वर्ग संघर्ष ही होता है।

कार्ल मार्क्स के विचारों के अनुसार भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया में अपेक्षित परिवर्तनों के कारण समाज का एक वर्ग (पूँजीपति) अत्यधिक समृद्ध और शक्तिशाली हो जाता है। इस परिस्थिति को उन्होंने वाद की स्थिति कहा है। शक्तिशाली वर्ग द्वारा किये गये शोषण का विरोध जो वर्ग करता है उसको मार्क्स ने शोषित कहा है। इस परिस्थिति को मार्क्स प्रतिवाद की स्थिति कहते हैं। इस प्रतिवाद (Anti-thesis) के कारण ही सामाजिक क्रान्ति सम्भव होती है तथा एक नयी व्यवस्था का जन्म होता है। इसे उन्होंने संवाद की स्थिति कहा है। उनका कथन है कि – – – ‘आज तक प्रत्येक समाज शोषक और शोषित वर्गों के विरोध पर ही आश्रित रहा है। अपने इस मत को और स्पष्ट करते हुए उनका विचार है कि उत्पादन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप समाज अनिवार्य रूप से दो असमान वर्गों में बंट जाता है, जिनके कुछ निहित स्वार्थ होते हैं। इस व्यवस्था में एक ओर उत्पादन के समस्त साधनों का अधिकार अर्थात् स्वामी, जो आर्थिक दृष्टि से धनी और सामाजिक दृष्टि से शोषक तथा राजनीतिक दृष्टि से शासक होता है। दूसरी ओर शारीरिक श्रम से उत्पादन करने वाला शोषित वर्ग होता है, जो आर्थिक रूप से निर्धन, सामाजिक दृष्टि से शोषित और राजनैतिक दृष्टि से शासित होता है। दास युग में स्वामी और सेवक, सामन्त युग में सामन्त और कृषक और पूँजीवादी युग में पूँजीपति और श्रमिक इसी कोटि के वर्ग हैं। आय के समान और उचित वितरण के अभाव में प्रथम वर्ग सम्पत्ति का अधिकार तथा, द्वितीय वर्ग में असन्तोष और विरोध भावना से ग्रस्त हो जाता है। कालान्तर में शनैः-शनैः यही विरोध और असन्तोष की भावना संघर्ष को जन्मती है। यही वर्ग विरोध, वर्ग रूप में उस समय रूपान्तरित होता है जिस समय उत्पादन काल में शोषित अनुभव करता है कि शोषण की स्थिति अब उसके लिए असहनीय है।

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कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग संघर्ष के सिद्धान्तानुसार बहुसंख्यक और वर्ग संगठित होकर क्रान्ति के द्वारा शासक वर्ग का नाश करके एक नवीन सामाजिक व्यवस्था की प्रतिस्थापना करता है। उनके मतानुसार वर्ग संघर्ष और क्रान्ति आदि शब्दों से औसत जनमानस को आक्रान्त नहीं होना चाहिए क्योंकि भय तो उस वर्ग को ही होना चाहिए जो प्रत्येक क्षण मेहनतकश मनुष्यों का खून चूसकर आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र सर्वहारा क्रान्ति हेतु इसी बुलन्दी और विजयपूर्ण आवाहन साथ समाप्त होता है कि- – – ‘कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्गों को काँपने दो। सर्वहारा के समक्ष खोने के लिए अपनी-अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त और है ही क्या । किन्तु पाने के लिए तो उनके समक्ष पूरी दुनियाँ है। मार्क्स के मतानुसार वर्ग संघर्ष मनुष्य समाज में निरन्तर प्रचलित तथा आधारभूत सिद्धान्त है, जो परिवर्तनों को जन्म देता। है। 1319 के कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कार्ल मार्क्स ने स्वयं लिखा है – — अब तक के सभी समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।

मार्क्स के मतानुसार ‘वर्ग संघर्ष’ आदि शब्दों से आम जनता को भयभीत होने का आवश्यकता नहीं है। भय तो उन पूँजीपतियों को होना चाहिए, जो मेहनती जनता का खून चूस कर फल-फूल रहे।

मार्क्स के वर्गसंघर्ष के सिद्धान्त की आलोचना भी की गई है। डेनियल बेल के अनुसार, मार्क्स ने घोषित किया था कि वर्गों का संघर्ष जर्मनी, इंग्लैण्ड और अमेरिका में साम्यवाद स्थापित करेगा, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। आज भी वहाँ पूँजीवादी व्यवस्था फल-फूल रही है। कोहेन के अनुसार, कि केवल समूह संघर्षों का स्वरूप ही क्रान्ति नहीं है। मार्क्स का यह मत भी उचित नहीं है कि अनेक कारणों का योगदान न पाया जाता है। कुछ भी हो, संघर्ष उपागम का मार्क्सवादी दृष्टिकोण राजनैतिक परिवर्तन करने में समर्थ है।

 

 

 

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