शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के प्रवर्तक एवं समर्थक व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार व्यक्ति का समाज से अलग कोई अस्तित्व नही है व्यक्ति का समाज में ही जन्म होता है तथा समाज में रहकर ही वह अपनी उन्नति एवं प्रगति करता है। इसकी भाषा, शिक्षा, विचार-अभिव्यक्ति समाज में ही विकसित हो सकती है। समाज की उन्नति से ही मानव प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करता है अतः समाज उन्नत और प्रगतिशील हो ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए तथा शिक्षा के उद्देश्या का निधारण भी समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुरूप ही होना चाहिए; इस तथ्य का ध्यान में रखकर ही शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य पर बल दिया है।
रेमन्ट के अनुसार-“जो विद्वान व्यक्ति को समाज से ऊपर स्थान देते हैं, उनको स्मरण रखना चाहिए कि समाज से अलग व्यक्ति कोरी कल्पना है। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के संकुचित एवं व्यापक अर्थों का अध्ययन आवश्यक है।”
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ
व्यक्ति की अपेक्षा समाज अथवा राष्ट्र प्रत्येक दृष्टि से सर्वोपरि है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की भलाई एवं कल्याण के लिए है न कि राष्ट्र व्यक्ति के लिए। अतः राष्ट्र का यह अधिकार एवं कर्तव्य है कि वह अपनी आवश्यकताओं तथा आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति को जैसा चाहे बनाए तथा शिक्षा की ऐसी व्यवस्था करे कि राष्ट्र का प्रत्येक बालक उसकी आकांक्षाओं के अनुरूप बने सके। राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का भी यही कर्तव्य है कि वह अपने राष्ट्र की सत्ता को उच्चतम बनाने के लिए स्वयं को न्यौछावर कर दे। इस प्रकार सामान्य रूप से जीवन का तथा विशिष्ट रूप से शिक्षा का लक्ष्य राष्ट्र का कल्याण करना है।
शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य अपने संकुचित अर्थ में राज्य अथवा राष्ट्र को ही सर्वोच्च सत्ता मानता है। इसके अनुसार मानव की स्वतंत्रता का दमन करके मानवीय जीवन के प्रत्येक अंग का पूर्णरूपेण समाजीकरण कर दिया जाता है। समस्त सत्ता राष्ट्र के हाथों में आ जाने के कारण व्यक्ति अपने निजत्व के विकास की कल्पना भी नहीं कर सकता। वह राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपना जीवन समर्पित कर देता है।
रॉस ने एक उदाहरण दिया है वह हमारे विवेचन की पुष्टि करता है। पश्चिमी सभ्यता के उषा-काल में स्पार्टा के छोटे से देश की उन्नति का कारण वहाँ की कठोर शिक्षा व्यवस्था थी। सैनिक अनुशासन में बद्ध राष्ट्र वैयक्तिक स्वतंत्रता की बात सोच भी नहीं सकता था। गृहस्थ जीवन मनुष्य के जीवन के सुख और शान्ति का द्योतक माना जाता है, उस देश में यह संकचित मनोवृत्ति का परिचायक मात्र माना जाता था। देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्ति, राष्ट्र के सम्मुख अपनी प्रत्येक वस्तु को त्याग सकता था। कमजोर बालक को खुले में छोड़कर उसके जीवित रहने की योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। राष्ट्र की आवश्यकताओं के सामने व्यक्ति की आवश्यकताओं का कोई मूल्य नहीं था।
आधुनिक युग में हिटलर का शासन स्पार्टा से अधिक भिन्न नहीं था। आधुनिक युग में भी कुछ राष्ट्रों में निरंकुश और तानाशाही प्रवृत्ति को देखा जा सकता है।
संक्षेप में शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य अपने संकुचित अर्थ में इस बात पर बल देता है कि जीवन के प्रत्येक अंग का पूर्णरूपेण समाजीकरण हो जाए।
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ समाज और राष्ट्र के महत्त्व को तो स्वीकार करता है, परन्तु व्यक्ति को नगण्य नहीं माना जाता। उसे रस इस उद्देश्य के संकुचित अर्थ की भाँति बिना सोचे-समझे आँख मींचकर राष्ट्रहित के लिए प्राणों की बाजी नहीं लगानी पड़ती, बल्कि वह स्वतंत्रतापूर्वक अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का पालन करता हुआ राष्ट्र की उन्नति एवं कल्याण में अपना अमूल्य योगदान करता है। शिक्षा को जानि कि वह ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करे जो स्वतंत्रतापूर्वक अपनी शक्ति के अन के कल्याण में भाग ले सकें। राष्ट्र तभी उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है जब राष्ट्र के व्यक्ति इस दिशा में सोचें-विचारें तथा त्वरित गति से अग्रसर होने का प्रयास करें। राष्ट्र की उन्नति के लिए व्यक्तियों को सदनागरिक बनाने के लिए शिक्षा की व्यवस्था। इस प्रकार की जाये कि प्रत्येक व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र-सेवा की भावना से ओत-प्रोत हो जावे तथा सच्चा राष्ट्र-भक्त नागरिक बन जावे।
बालक को सद्-नागरिक बनाने के लिए उसकी समस्त शक्तियों का विकास करने हेतु उसे ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिएँ, जिससे वह अपने कर्त्तव्य एवं अधिकारों को समझकर राष्ट्र की विविध समस्याओं के विषय में स्पष्ट तथा स्वतंत्र चिन्तन कर सके ओर उन्हें सुलझाने में अपना योगदान प्रदान कर सके। इस उद्देश्य के समर्थकों में बागले (Bagley) तथा डीवी (Dewey) आदि के नाम प्रमुख रूप से उभर कर आते हैं। इन्होंने इस उद्देश्य को सामाजिक कुशलता की संज्ञा दी है। बागले ने सामाजिक दृष्टि से कुशल व्यक्ति की निम्नलिखित तीन विशेषताएँ गिनाई हैं
(1) आर्थिक कुशलता (Economic Efficiency):
व्यक्ति की वह योग्यता जिसके आधार पर वह अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर सके, आर्थिक कुशलता है। (Ability to pull his owu weight in the economic life).
(2) निषेधात्मक नैतिकता (Negative Morality):
यदि व्यक्ति की अपनी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति दूसरों की आर्थिक कुशलता में बाधा डाले तो वह उन्हें त्यागने को तत्पर रहे, उसे निषेधात्मक नैतिकता कहेंगे। (Willingness to sacrifice his own desires when their gratification would | interfere with economic efficiency of others).
(3) विधायक नैतिकता (Positive Morality):
विधायक नैतिकता का अर्थ है कि जब व्यक्ति की आकांक्षाएँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज की उन्नति के लिए सहायक न हों तो वह उन्हें त्यागने को तत्पर हो। (Willingness to sacrifice his own desires when their gratification would not contribute directly or indirectly to social progress).
सामाजिक कुशलता का अर्थ है-व्यक्ति द्वारा सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने की क्षमता। जान डी वी ने सामाजिक कुशलता का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- “सबसे व्यापक रूप में सामाजिक कुशलता व्यक्ति में सामाजिक हित की भावना का संचार की प्रवृत्ति है। करने एवं अपने व दूसरों के हितों को अलग-अलग रखने की भावना को नष्ट करने की प्रवृत्ति है।”
संक्षेप में सामाजिक उद्देश्य के व्यापक अर्थ में ‘शिक्षा समाज सेवा के लिए’, ‘शिक्षा नागरिकता के लिए’ तथा ‘शिक्षा सामाजिक कुशलता के लिए’ होनी चाहिए।
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