कार्ल मार्क्स(Karl Marx)[ सन् १८१८ ई. से सन् १८८३ ई.]
कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी के राइन प्रान्त के यहूदी परिवार में सन् १८१८ ई. में हुआ। यह परिवार सामान्यतः समृद्ध था। उन दिनों यहूदियों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता था। इसाई न होने के कारण उन्हें सामाजिक यातनाएँ सहनी पडती थीं। सम्भवतः इसी कारण जब कार्ल मार्क्स ६ वर्ष के थे तो इनके माता-पिता ने इसाई धर्म को अपना लिया। इनके पिता बैरिस्टर थे। अतः प्रारम्भ से ही उन्होंने मार्क्स की समुचित शिक्षा की व्यवस्था की। इनकी शिक्षा बीन तथा बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रारम्भ हुई। इनकी अभिरुचि इतिहास और दर्शन में अधिक थी। उन दिनों हेगल का दर्शन विख्यात था। अतः बर्लिन में मार्क्स ने हेगल के दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया।
सन् १८४१ में इन्होंने डिमॉक्रिटस और एपिक्यूरस के दर्शन में हेगल के विचारों का बीज सिद्ध किया तथा डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि प्राप्त की। उनके शोध-प्रबन्ध का विषय था (The Difference Between Democritean and Epicurean Natural Philosophy) परन्तु मार्क्स हेगल के विचारों के वामपक्षी व्याख्याता माने जाते थे। सन् १८४२ में इन्होंने दर्शन का प्राध्यापक बनना चाहा, परन्तु ये सफल न हुए। इस घटना से वे बड़े निराश हुए। ये अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, परन्तु इनके विचार इतने उग्र और सिद्धान्त इतने क्रान्तिकारी थे कि लोग इन्हें कोई स्थान देना नहीं चाहते थे। अतः घोर निराशा में इन्होंने जर्मनी छोड़कर पेरिस में पत्रकारिता का व्यवसाय प्रारम्भ किया और प्रगतिशील लेख लिखने लगे। सन् १८४४ में इनका सम्पर्क फ्रेडरिक ऐञ्जिल्स (Friendrich Engels) से हुआ। जो उन दिनों जर्मन के विख्यात उग्रवादी विचारक थे।
ऐञ्जिल्स मार्क्स से बड़े प्रभावित थे तथा सर्वदा मार्क्स की सहायता किया करते थे। मार्क्स को सर्वदा आर्थिक अभाव बना रहता था जिसे ऐञ्जिल्स पूरा किया करते थे। साथ ही ऐञ्जिल्स एक अच्छे संगठनकर्ता भी थे, अतः उन्होंने मार्क्स के विचारों के प्रसार में बडी सहायता की। ऐञ्जिल्स की सहायता से मार्क्स ने सन् १८४८ में अपनी प्रसिद्ध रचना (Communist Manifesto) तैयार की। यह ग्रन्थ साम्यवादी लोगों के लिये बाइबिल के समान महत्वपूर्ण है। परन्तु इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने के साथ-साथ मार्क्स के विरोधी भी बढ़ने लगे।
कार्ल मार्क्स के ऊपर उग्र क्रान्तिकारी होने का अभियोग लगा। फलतः इन्हें देश छोड़ना पड़ा। ये पेरिस छोड़कर लन्दन चले गये। लन्दन में इन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम के पुस्तकलय में घोर अध्ययन किया। १७ वर्षों के अनवरत अध्ययन के बाद इन्होंने अर्थशास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ दास कैपिटल (Das Capital) लिखा। यह ग्रन्थ सन् १८६७ में प्रकाशित हुआ। यह ग्रंथ पूँजीवाद का खण्डन और समाजवाद के मण्डन के लिए विश्वविख्यात है।
कार्ल मार्क्स के अन्य ग्रन्थ
1. The Critique of Political Economy (in 1859),
2. The Civil War in France (in 1871) and
3. Value, Price and Profit (in 1865)
कार्ल मार्क्स के विचार
मार्क्स इस शताब्दी के सम्भवतः सबसे बड़े विचारक माने जाते हैं। वर्तमान संसार में विचार की का कोई ऐसा अंग नहीं जो मार्क्सवाद से अछूता हो। हम चाहे उनके सिद्धान्तों का खण्डन करें या मण्डन, परन्तु उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। सचमुच उनके सिद्धान्तों में मानव मस्तिष्क को झकझोर देने की शक्ति है। इसी कारण वर्तमान संसार के सभी विचारक परस्पर दो विरोधी वर्गों में विभाजित हैं। इनमें एक वर्ग मार्क्स को देवता के समान पूज्य समझता है तो दूसरा वर्ग उन्हें शैतान (Devil) की संज्ञा प्रदान करता है। आज के साहित्य, विज्ञान, कला, वाणिज्य, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव दिखलायी पड़ता है। यह मार्क्स की महान् मनीषा का परिचायक है।
सर्वसम्मत से मार्क्स वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता माने जाते हैं, परन्तु उनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र में है। उनका वैज्ञानिक समाजवाद अपने आप में एक नया और अनूठा सिद्धान्त है। यह मौलिक सिद्धान्त ही मार्क्सवाद के नाम से विख्यात है। इस मौलिक सिद्धान्त के बीज तो अन्यत्र भी पाये जाते हैं, परन्तु सिद्धान्त रूप से वृक्ष तो कार्ल मार्क्स की देन है।
श्री अलेक्जेण्डर ग्रे का कहना है कि यह निश्चित रूप से सत्य है कि मार्सवादी विचारों के निर्माण करने वाले तत्व तो अनेक स्रोतों से लिए गये हैं। उसने अपनी ईटों को कई भट्ठों से एकत्र किया, परन्तु उसने उनका उपयोग एक ऐसी इमारत का निर्माण करने में किया जो अपने आप में अनूठी है। तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक समाजवाद का विचार तो अनेक समाजवादी विचारकों के मस्तिष्क में स्वप्न के समान था, पर मार्क्स ने इसे सत्य बनाया।
तात्पर्य यह है कि मार्क्स ने नयी आर्थिक व्यवस्था के परिवेश में समाजवाद को कार्यान्वित किया।
कार्ल मार्क्स के ऊपर अन्य दार्शनिकों का प्रभाव
कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त निम्नलिखित दार्शनिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विचारों से प्रभावित है-
१. जर्मन प्रत्ययवादी हेगल का प्रभाव-
मार्क्स अपने दार्शनिक विचारों में सबसे अधिक हेगल के प्रत्ययवाद से प्रभावित हैं। मार्क्स ने शैक्षणिक जीवन में हेगल का गम्भीर अध्ययन किया था। उन्होंने हेगल के द्वन्द्वात्मक प्रत्यय की एक नयी। व्याख्या प्रस्तुत की है जिसका नाम द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है। हेगल ने द्वन्द्वात्मक प्रत्यय की स्थापना करके बतलाया है कि विश्व का विकास आध्यात्मिक है। मार्क्स द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया को मानते तो हैं परन्तु विश्व का विकास भौतिक मानते हैं। भौतिक विकास का आधार आध्यात्मिक नहीं आर्थिक है। विश्व का ऐतिहासिक भौतिक विकास आर्थिक व्यवस्था के कारण होता है। अन्तर्विरोध के कारण एक आर्थिक व्यवस्था दूसरी में परिवर्तित हो जाती है। इस आधार पर मार्क्स अपने दो प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं-
(क) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एवं
(ख) इतिहास की आर्थिक व्याख्या
इन दोनों सिद्धान्तों में प्रथम का बीज तो हेगल के दर्शन में ही है। हेगल के अतिरिक्त मार्क्स के दर्शन में काण्ट का भी प्रभाव है। कुछ आलोचकों का कहना है कि काण्ट एक भूल (A mistake) है, हेगल एक दुर्भाग्य (A misfortune) है, परन्तु मार्क्स एक संरक्षक तथा त्राता (A Saviour) हैं। इस कथन में सत्य का अंश चाहे जितना भी हो, तीनों दार्शनिकों का सम्बन्ध तो निर्विवाद है।
२. हॉब्स, लॉक रूसो आदि का राजनीतिक प्रभाव-
मार्क्स अपने पूर्ववर्ती सभी राजनीतिक विचारकों से प्रभावित हैं। उनके वैज्ञानिक समाजवाद में उपयोगितावाद, निरंकुशतावाद, व्यक्तिवाद आदि सभी राजनीतिकवादों का खण्डन मिलता है। मार्क्स का सम्पूर्ण दर्शन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चिन्तन है। सम्भवतः मार्क्स के पहले किसी भी दार्शनिक के विचारों में दर्शन और राजनीति में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं दिखलायी देता जितना मार्क्स में। अतः मार्क्स-वाद के ऊपर सभी राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रभाव है। कहा जाता है कि मार्क्स ने सभी राजनीतिक सिद्धान्तों का सार अपने ‘सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद’ में रखा है। तथा वर्ग संघर्ष में वे सबसे प्रभावित हैं।
३. आदम स्मिथ, रिकार्डी, थॉम्सन आदि अर्थशास्त्रियों का आर्थिक प्रभाव-
मार्क्स के दर्शन में आर्थिक विचार ही सबसे प्रमुख है। अर्थ-व्यवस्था राजनीतिकवादों की आधारशिला है। मार्क्स का प्रसिद्ध आर्थिक सिद्धान्त इतिहास की व्यवस्था, ‘अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त’ तथा ‘वर्ग संघर्ष’ आदि हैं। अपने आर्थिक सिद्धान्त में वे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का खण्डन करते हैं तथा श्रमजीवी (मजदूरों) के हितों की रक्षा करते हैं। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन में वे निश्चित रूप से विभिन्न आर्थिक सिद्धान्तों से प्रभावित हैं।
मोसेस हेस (Moses Hess) के अनुसार श्रमिकों को आर्थिक आवश्यकताओं से मुक्त करके ही समाज में राजनीतिक शान्ति हो सकती है। सेण्ट साइमन (Saint Simon) के अनुसार सामाजिक विकास का आधार आर्थिक संघर्ष है। ब्रिटिश अर्थशास्त्री (आदम स्मिथ, रिकार्डो आदि) पूंजीपतियों के कल्याण की अर्थ-व्यवस्था बतलाते हैं। मार्क्स इसकी कटु आलोचना करते हैं। लासले (Lassalle) ने वेतन का लौह सिद्धान्त बतलाया है। इस सिद्धान्त ने मार्क्स को अत्याधिक प्रभावित किया। मार्क्स के ‘श्रमिकों का शोषण’ में अनेक आर्थिक सिद्धान्तों का योग है।
४. क्रान्तिकारी परम्परा का प्रभाव-कार्ल मार्क्स के विचारों के निर्माण में तत्कालीन सामाजिक क्रान्तियों का भी अत्यधिक प्रभाव है। उदाहरणार्थ, १९ वीं शताब्दी को यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति का युग माना जाता है। इस क्रान्ति से यूरोप के देशों में उत्पादन का विस्तार बड़ी तेजी से होने लगा। उत्पादन तो श्रम-जीवी मजदूर करते थे परन्तु उत्पादन के स्वामी उद्योगपति, पूंजीपति, सामन्तशाह लोग हुआ करते थे। अतः समाज श्रमिकों और सामन्तों में बँटता जा रहा था।
सामन्त श्रमिक को पर्याप्त पारिश्रमिक न देता था। श्रमिकों की आवश्यकताएँ बढ़ती गयीं। फलस्वरूप श्रमिकों की शोषण से रक्षा के लिए संगठन बनने लगे। दूसरी ओर, व्यक्तिवादी विचारकों ने उन्मुक्त प्रतियोगिता का उत्पादन के क्षेत्र में समर्थन कर श्रमिकों की दशा और दयनीय कर दी। असन्तोष बढ़ता गया और क्रान्ति का रूप धारण कर लिया। इसी से मार्क्स के सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति का जन्म होता है। इस क्रान्ति के प्रतिपादन में मार्क्स फ्रान्सीसी क्रान्तिकारी परम्परा से बहत ही प्रभावित हैं। मार्क्स के अनुसार सामन्तों के विरुद्ध सर्वहारा की क्रान्ति, मिलमालिकों के विरुद्ध मजदूरों का संघर्ष चलता रहेगा। अन्त में पूँजीपति पराजित होंगे और सर्वहारा वर्ग विजयी होगा। पूंजीवाद सबसे बड़ी सामाजिक बुराई है। इसका विनाश विज्ञान से नहीं, वर्ग-संघर्ष से ही सम्भव है।
मार्क्सवाद के विभिन्न सिद्धान्त
सम्पूर्ण मार्क्सवाद को सुगमता से समझने के लिये इसे हम अग्रलिखित सिद्धन्तों में विभाजित कर सकते हैं।
१. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectial Materialism),
२. इतिहास की आर्थिक व्याख्या (Economic Interpretation of History),
३, अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value),
४. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त (Theory of Class Struggle),
५. सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद (Dictatorship of the Proletariat) एवं
६. राज्य तथा समाज का भावी स्वरूप (Theory of State and Society) |
मार्क्सवाद का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) –
कार्ल मार्क्स का दार्शनिक सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहलाता है। इस सिद्धान्त के दो महत्त्वपूर्ण अंग हैं-भौतिकवाद या जड़वाद तथा द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया इसका तात्पर्य यह है कि मार्क्स जड़ या भौतिक तत्व को परम तत्व मानते हैं तथा विश्व का स्वरूप भौतिक या जड़ात्मक स्वीकार करते हैं। जड़ तत्वों से विश्व का विकास द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया से ही होता है। अत: मार्क्स का दार्शनिक सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहलाता है।
कार्ल मार्क्स ने भौतिक जड या तत्व को ही परम तत्व माना है। तात्पर्य यह है। कि इनके अनुसार विश्व का विकास अचेतन भौतिक तत्त्वों से हुआ है। विश्व का परम तत्त्व या परम कारण जड़ होने के कारण विश्व का स्वरूप भी जड़ात्मक या भौतिक है। स्पष्ट है कि मार्क्स विश्व की आध्यात्मिक व्याख्या नहीं स्वीकार करते। अध्यात्मवादी (अभौतिकवादी) दार्शनिक विश्व का स्वरूप आध्यात्मिक या चेतन मानते हैं; क्योंकि उनके अनुसार विश्व का मूल तत्त्व चित् शक्ति या चेतन तत्त्व है। यही चेतन तत्व परम तत्व है जो सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों का परम कारण है।
आदि कारण के चेतन होने के कारण विश्व का स्वरूप भी चेतन या आध्यात्मिक है। मार्क्स इसे स्वीकार नहीं करते। वे न तो संसार का कोई आदि कारण ही मानते हैं और न चेतन तत्व ही मानते हैं। उनके अनुसार संसार उत्पन्न नहीं हुआ, वरन् विश्व की वस्तुएँ सदियों के विकास का प्रतिफल है। विकास अचेतन या भौतिक तत्व से प्रारम्भ होता है। अतः विश्व का स्वरूप भी भौतिक या जडात्मक है। प्रश्न यह है कि अजड़, आध्यात्मिक, आत्मा, मन आदि का स्वरूप क्या है तथा इनकी उत्पत्ति कैसे होती है?
मार्क्स का उत्तर है कि परम तत्व या आदि कारण तो जड़ या भौतिक तत्व ही है। यह अचेतन तत्व है। सृष्टि का विकास इन्हीं से प्रारम्भ होता है। अचेतन-जड़ तत्व विकास की अवस्था में चेतन हो जाता है। अतः आध्यात्मिक तत्व मन, विचार आदि भी अचेतन की विकसित अवस्था है। विकास स्थूल से सूक्ष्म होता है, अतः अचेतन ही सूक्ष्म होकर चेतन बन जाता है। इससे स्पष्ट है कि मार्क्स के अनुसार चेतन विचार अचेतन शरीर की विकसित अवस्था है, मन शरीर की विकसित अवस्था हा अतः अचेतन चेतन का विकास नहीं, वरन् चेतन अचेतन का विकास है बद्धि शरीर की विकसित अवस्था है। एक दूसरा प्रश्न यह है कि विकास के लिये तो गति की आवश्यकता है।
अचेतन भौतिक तत्व तो गति-विहीन है, उनका सञ्चालन करने वाला अथवा उन्हें क्रियाशील बनाने वाला कोई चेतन तत्व है ही नहीं तो उनके विकास का कार्य कैसे होता है? शुद्ध जड़ में गति की व्याख्या कैसे हो? मार्क्स के अनसार गति के बिना जड़ की कल्पना निराधार है। कोई भी जड़ात्मक वस्तु स्वभावतः गतिशील है। इन्हें गतिशील या क्रियाशील बनाने की आवश्यकता नहीं। इनकी स्वाभाविक गति से इनमें विकास होता है।
मार्क्स के अनुसार विश्व विकास का मूल ‘विश्वात्मा, सार्वभौम चेतना’ (जैसे हेगल मानते हैं) नहीं है, वरन् यह जड़ पदार्थ या भौतिक तत्व है। अत: विश्व की प्रकृति चिदात्मक न होकर जड़ात्मक है। जड़ पदार्थो में गति है और गति के कारण विभिन्न भौतिक वस्तुओं का विकास होता है। इस विकास के लिये किसी अज्ञात या अदृश्य आत्मा, परमात्मा, विश्वात्मा को मानने की आवश्यकता नहीं। अतः मार्क्स हेगल के समान सम्पूर्ण विश्व को आत्म-तत्व की अभिव्यक्ति मानकर इसे आध्यात्मिक नहीं मानते। यह विश्व भौतिक पदार्थों में परिवर्तन का परिणाम है। भौतिक तत्वों में परिवर्तन के कारण ही चेतना उत्पन्न होती है। मार्क्स के अनुसार मानव मस्तिष्क भौतिक पदार्थों के विकास की चरम अवस्था है। अतः इसका स्वरूप भी भौतिक ही है। मस्तिष्क के द्वारा हम भौतिक पदार्थ तथा जगत् के नियमों को भलीभाँति जान सकते हैं। हम निजी अनुभव तथा वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सम्पूर्ण प्रकृति के नियमों का पता लगा सकते हैं। इस प्रकार मार्क्स के भौतिकवाद के निम्न लिखित निष्कर्ष हैं-
१. विश्व का परम तत्व जड़ या भौतिक है।
२. जड तत्व स्वभावत: गतिशील है। इस गति के कारण ही विश्व का विकास होता है।
३. मानव अपने अनुभव तथा वैज्ञानिक अनुसन्धान द्वारा प्रकृति के सभी नियमों को जान सकता है। कोई नियम अज्ञेय नहीं।
मार्क्सवाद का द्वन्द्वात्मक विकासवाद (Dialectical Evolution)
मार्क्स के अनुसार परम तत्व तो जड़ पदार्थ है। इस जड़ में गति है। इस गति के कारण जड़ पदार्थों में परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन से ही विश्व का विकास होता है। यह विकास द्वन्द्वात्मक विधि या प्रणाली के द्वारा होता है, अतः इसे द्वन्द्वात्मक विकासवाद कहते हैं। द्वन्द्वात्मक विकासवाद जडात्मक विकासवाद से भिन्न है। जड़ात्मक विकासवाद भी जड़ को ही परम तत्व मानता है तथा जड़ में गति के कारण ही सभी वस्तुओं का विकास स्वीकार करता है। परन्तु जड़ में यह गति यन्त्रवत या मशीन के समान है, अत: यह यान्त्रिकी विकासवाद (Mechanistic materialism) अथवा यान्त्रिकी भौतिकवाद कहलाता है। इनके अनुसार विश्व एक यन्त्र के समान है तथा इसका विकास यन्त्रवत् होता है।
मार्क्स के अनुसार विकास की प्रणाली द्वन्द्वात्मक (Dialectical) है, अत: यह द्वन्द्वात्मक विकासवाद है। जिस प्रकार मार्क्स का विकासवाद भौतिकवादियों से भिन्न है उसी प्रकार अध्यात्मवादियों या आदर्शवादियों से भी। अध्यात्मवादी हेगल के अनुसार भी विकास द्वन्द्वात्मक प्रणाली से होता है परन्तु हेगल का विकासवाद मार्स से भिन्न है। विकास की प्रक्रिया तो दोनों में एक ही है, परन्तु विकास का मूल तथा परिणाम दोनों में भिन्न-भिन्न है। हेगल के अनुसार चित् ही परम तत्व है, चित् से विकास चिदात्मक है। मार्क्स के अनुसार जड़ ही परम तत्व है, जड़ से विकास जड़ात्मक है। परन्तु दोनों दार्शनिका पक्ष (Thesis), विपक्ष (Anti-thesis) और सम्पक्ष (Synthesis) के रूप में विकास की प्रक्रिया स्वीकार करते हैं।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक प्रणाली की विशेषताएँ
१. विश्व एक अवयवी (Organic) स्वरूप है। हम जानते हैं कि अवयव (अंग) और अवयवी (अंगी) में आश्रय-आश्रयी भाव है। दोनों परस्पराश्रित हैं। अंग के बिना अंगी नहीं अंगी के बिना अंग नहीं। हाथ-पैर के बिना शरीर नहीं और शरीर के बिना हाथ-पैर नहीं। दोनों को अन्योन्यापेक्ष या एक दूसरे की अपेक्षा है। इसी अवयव-अवयवी भाव को मानते हुए मार्क्स का कहना है कि विश्व की सभी वस्तुएँ आपस में ससम्बद्ध हैं तथा सभी सम्पूर्ण विश्व के अंग हैं। इस अंग (अवयव) अंगी (अवयवी) भाव की व्याख्या करते हुए स्तालिन (Stalin) का कहना है कि द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अनुसार विश्व असम्बद्ध तथा स्वतन्त्र वस्तुओं का समुदाय नहीं। इसमें सभी वस्तुएँ सुसम्बद्ध तथा परस्पराश्रित हैं। जिस प्रकार प्रत्येक अवयव अवयवी से सम्बद्ध रहता है उसी प्रकार विश्व की वस्तुएँ भी।
२. द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अनुसार विश्व निरन्तर गतिशील है। इस गति के कारण ही विश्व विकास की ओर अग्रसर होता है। यदि विश्व में गति न हो तो विकास नहीं होगा। इस गति के कारण ही वस्तुओं के स्वरूप में परिवर्तन होता है।। परिवर्तन के कारण वस्तु का पुराना स्वरूप नष्ट हो जाता है, नया स्वरूप सामने आता है। गति की व्याख्या करते हुए मार्क्स के अनुयायी एञ्जिल्स (Engles) का कहना है कि छोटी से छोटी वस्तु लेकर बड़ी वस्तु तक, बालू के कण से लेकर सूर्य तक, एक छोटे अवयव से लेकर मनुष्य तक सबमें गति के कारण उतार चढ़ाव होता रहता है। इससे स्पष्ट है कि गति-परिवर्तन के बिना विश्व के स्वरूप और विकास की व्याख्या नहीं हो सकती।
3. द्वन्द्वात्मक प्रणाली के कारण विश्व में गुणात्मक (Qualitative) परिवर्तन देते हैं। गति के कारण स्वरूप में परिवर्तन होता है। इस स्वरूप परिवर्तन में वस्तु का पुराना स्वरूप नष्ट हो जाता हा वस्तु में नये गुणों की उत्पत्ति के कारण वस्तु का स्वरूप भी नया हो जाता है। इस प्रकार नये स्वरूप की प्राप्ति का कारण गुणात्मक परिवर्तन है।
४. परिणाम (Quantity) के कारण भी वस्तुओं में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिये ऑक्सीजन नामक भौतिक पदार्थ को लें। इसके सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का कहना है कि मॉलिक्यूल में यदि दो के स्थान पर तीन परिणाम कर दिया जाय तो ओजोन बन जाता है। इस नये पदार्थ की उत्पत्ति में परिणाम कारण है।
५. द्वन्द्वात्मक प्रणाली की मान्यता है कि परिवर्तन सरल से जटिल की ओर होता है। परिवर्तन के पूर्व वस्तु की स्थिति सरल होती है। परन्तु नये गुण और परिणाम भेद से परिवर्तन का स्वरूप जटिल हो जाता है। इसे सरलता से जटिलता की ओर परिवर्तन कहते हैं। प्रसिद्ध विकासवादी डार्विन (Darwin) की मान्यता भी सरलता से जटिलता की ओर विकास है।
६. द्वन्द्वात्मक प्रणाली में मार्क्स निषेध के निषेध (Negation of Negation) का नियम मानते हैं। यह निषेध के निषेध का नियम हेगल के निषेध नियम से भिन्न है। हेगल के अनुसार पक्ष (Thesis) का विरोधी विपक्ष (Anti-thesis) है। पहला भाव है, दूसरा अभाव है। इस भाव-अभाव के संयोग से समन्वय (Synthesis) बनता है।। हेगल के अनुसार इस द्वन्द्वात्मक प्रणाली से विश्व पूर्णता की ओर अग्रसर होता जा रहा है। यह पूर्णता आत्मा या चित् तत्व की पूर्णता है। इसके विपरीत, मार्क्स का कहना है कि पक्ष का अभाव विपक्ष है तथा दोनों मिलकर सम्पक्ष हो जाते हैं। भाव तथा अभाव में निषेध का नियम लाग है। पक्ष यदि विपक्ष में न बदले तो सम्पक्ष की उत्पत्ति नहीं होगी। इसे मार्क्स भी स्वीकार करते हैं। परन्तु इनका कहना है कि पुनः सम्पक्ष का भी अभाव होता है। दूसरे परिवर्तन में सम्पक्ष ही पुनः पक्ष हो जाता है तथा इसका विपक्ष होता है। यह विपक्ष निषेध का निषेध है| इस निषेध के निषेध नियम से नये वस्तुओं की उत्पत्ति होती जाती है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हेगल और मार्क्स दोनों द्वन्द्वात्मक प्रणाली को स्वीकार करते है, परन्तु दोनों के निष्कर्ष भित्र-भिन्न है। हेगल प्रत्ययवादी या विज्ञानवादी (Idealist) हैं। हेगल के अनुसार सम्पूर्ण विश्व केवल चित्-विज्ञान प्रत्यय का विकास है। यही परम तत्त्व है। यह परम तत्त्व प्रत्यय रूप शुद्ध भाव (Thesis) है। इस भाव की प्राप्ति हमें सभी धर्मों के निषेध या अभाव (Anti-Thesis) से होती है। भाव ही अभाव में सञ्चरण करता है। यह समन्वय (Synthesis) कहलाता है। परन्तु सर्वप्रथम तत्त्व शुद्ध भाव चित् रूप है। मार्क्स इसे नहीं स्वीकार करते।
मार्क्स के अनुसार भौतिक तत्वों से ही विकास होता है। ये तत्व ही परम तत्व हैं। अत: संसार का स्वरूप ही भौतिक है। इस प्रकार मार्क्स हेगल के निष्कर्ष को नहीं मानते। मार्क्स का दावा है कि उन्होंने हेगल को सिर के बल खड़ा पाया अत: उन्हें सीधा पैरों के बल खड़ा किया। इसका तात्पर्य यह है कि मार्क्स ने हेगल के द्वन्द्वात्मक प्रणाली को सदोष में निर्दोष बनाया।
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